भेड़िये को हाँक-हूँककर गड़रिए की स्त्री प्यासी हो आई। भेड़-बकरियों को लेकर नदी किनारे पहुँची। पानी के पास गई। चुल्लुओं से हाथ मुँह धोया। थोड़ी दूर पर एक मगर पानी के ऊपर उतरा रहा था। वह मगर के स्वभाव को नहीं जानती थी। उनसे पानी पिया। गरमियों के दिन थे, नहाने की इच्छा हुई। पानी में उतर पड़ी। कुछ ही क्षण ठहरी थी कि मगर पानी के ऊपर आया कि सपाटा मारकर उसको पानी के नीचे ले गया। जब उसने समझ लिया कि मर गई, पत्थरों की खोख या झाऊ की झाड़ी में ले गया और उसको समूचा खा गया।
बड़ी नदियों के किनारे ये घटनाएँ प्रायः होती रहती हैं। कहार लोग अपने जाल में छोटे मगरों को तो फाँस लेते हैं, परंतु बड़े मगर और नाके इन जालों में नहीं आते।
मगर और नाके में अंतर है। मगर चौड़ा और ऊँचा होना है, नाका लंबा। बीस फीट से अधिक लंबाई के नाके मैंने देखे हैं।
मगर अधिक घातक होता है। गाय-बैलों तक को पानी में दबोच लेता है और डुबोकर मार डालता है। भेड़, बकरी और कुत्ते तो उसके लिए कुछ भी नहीं हैं।
एक बार मैं नदी किनारे प्रातः काल हाथ-मुँह धो रहा था। जल के पास पहुँचने के पहले एक मगर वहीं पड़ा हुआ था; परंतु मैंने देख नहीं पाया। हाथ-मुँह धोते समय मुझको पास ही तली में कुछ सरकता हुआ दिखलाई पड़ा। मैं तुरंत उचट कर पीछे हटा। मगर भी लौट गया। मैं पास ही एक पत्थर की आड़ में बैठ गया।
सवेरे के समय मगर जल के पास रेत में लेटने और सोने के लिए आता है। जाड़ों में तो वह देर तक धूप लेता रहता है।
घंटे-डेढ़ घंटे की प्रतीक्षा के उपरांत मगर रेत पर आया और चने के साथ लेट गया। मुझको उसकी खुली आँखें दिखलाई पड़ रही थीं। जब उसने आँखें मूँद लीं, यह नहीं अनुमान होता था कि उसके आँखें हैं भी या नहीं।
धीरे से राइफल सँभाली, गरदन का निशाना लिया और यहाँ लिबलिबी दबी, वहाँ मगर केवल जरा सा हिला और बहुत शीघ्र समाप्त हो गया।
मर जाने पर भी उसकी देह में इतनी गरमी रहती है कि थोड़ी देर तक स्पंदन करता रहता है।
जिस स्थान पर गड़रिए की स्त्री को मगर खा गया था, मुझको उस स्थान की चिंता हुई। कई बार घंटों ताक लगाकर बैठा, परंतु मगर की श्रवण शक्ति इतनी प्रबल होती है कि जरा सी आहट पर वह पानी में खिसक जाता था। दिन-दिन भर का श्रम व्यर्थ जाता और मुझको लौटना पड़ता।
एक बार एक मित्र ने मगर के स्वभाव को पास से जाँचने की इच्छा प्रकट की और मेरे साथ बैठने का हठ किया। हम लोग पानी के पास आड़ में जा बैठे। दो घंटे के बाद मगर आकर रेत पर बैठा। मेरे मित्र ने आतुरता के साथ कहा -
'वह आ गया मगर'
इधर मित्र का वाक्य समाप्त नहीं हो पाया था, उधर मगर पानी में गायब हो गया। वह बहुत धीमे बोले थे, परंतु मगर का कान बहुत तेज होता है।
परंतु एक दिन मगर झंझट में पड़ ही गया। मैं पथरीले किनारे पर दबे-दबे, पोले पैरों जा रहा था। एक पत्थर की ढाल पर पत्थर के रंग का सा ही कुछ दिखलाई पड़ा। मैंने जूते उतारकर एक जगह रख दिए। फिर बहुत धीरे-धीरे उस पत्थर के रंग जैसे की ओर बढ़ा। मेरा अनुमान सही निकला। वह एक भयानक मगर था।
जब मैं पंद्रह फीट के अंतर पर पहुँच गया तब उसको और अच्छी तरह देखा। बहुत ही कुरूप और भदरंग था। मैंने सिर का निशाना ताककर गोली छोड़ी। मगर पानी के बिलकुल पास था। वह जरा सा हिलकर तुरंत वहीं खत्म हो गया।
दूसरे महीने मैं अपने उन्हीं मित्रों के साथ इसी किनारे आया। रात को हम लोग अपने-अपने गड्ढे में जा बैठे। तेंदुए की खबर लगी थी। मैंने उन मित्र को सावधानी के साथ बैठने के लिए कह दिया था और तेंदुए की भयानकता के संबंध में कुछ बातें बतला दी थीं।
मेरे गड्ढे के सामने से तेंदुआ तो नहीं आया, एक भारी-भरकम विलक्षण जानवर निकला। मंद चाँदनी रात थी; परंतु वह गड्ढे के बिलकुल पास से निकला था, इसलिए पहचानने में की बाधा नहीं हुई। वह बड़ा मगर था और नदी के एक दह से दूसरे दह को कंकडों, पत्थरों और रेत में होकर जा रहा था। मेरे हाथ में उस समय 12 बोर की दुनाली बंदूक थी। नाल में टुकड़ेदार गोली (Split Bullet) वाला कारतूस था। चलाया, परंतु मगर तेजी के साथ आँखों से ओझल होकर पानी में धँस गया। सवेरे मैंने उस स्थल का निरीक्षण किया जहाँ मगर पर गोली चलाई थी, तब रेत के ऊपर गोली के टुकड़े पड़े मिले।
वास्तव में, मगर पर इस प्रकार की गोली का कोई प्रभाव नहीं होता। सिर या गरदन पर गोली पड़े तो और बात है, वैसे पीठ पर तो साधारण गोलियाँ खुजली का ही काम करती होंगी।
मैं अपने उन मित्र के गड्ढे पर गया। वे गड्ढे के पीछेवाले पेड़ पर चढ़े थे। वैसे उनमें बहुत वीरता थी; परंतु शिकार का अनुभव न होने के कारण उन्होंने पेड़ को ही आश्रय बनाना ठीक समझा था।
जब मैं पेड़ के नीचे पहुँचा, उन्होंने अपनी दुनाली बंदूक नाल की तरफ से मुझको दी। दोनों घोड़े चढ़े हुए थे और कारतूस तो नाल में थे ही। मैंने अपने प्राणों की कुशल मनाते हुए नाल को सिर से ऊँचा करके पकड़ा, साधकर घोड़े गिराए और उनसे कहा, 'इस प्रकार घोड़े चढ़ी हुई बंदूक को नाल की तरफ से किसी को नहीं देना चाहिए।'
वे हँसकर बोले, 'क्या परवाह!'
दूसरे दिन राइफल से एक मगर मारकर मैंने उसपर दुनाली की गोली के प्रभाव की परीक्षा करनी चाही। पक्की गोली उसकी पीठ पर चलाई। गोली उचटकर चली गई, केवल एक खरोंच छोड़ गई। उस रात मगर पर टुकड़ेदार गोली ने क्यों कोई काम नहीं कर पाया था, यह बात अब समझ में आ गई।
मगर का सिर, गरदन और पेट मार के स्थल हैं। उसकी पीठ के खपटे इतने प्रबल होते हैं कि साधारण हथियार काम नहीं कर सकते। राइफल की नुकीली गोली निस्संदेह उसपर यथेष्ठ काम करती है।
बेतवा का पाट कहीं-कहीं चार फर्लांग चौड़ा है। इस नदी में कई स्थानों पर टापू हैं। एक बार मैं दो मित्रों सहित नदी के उस पार भ्रमण कर रहा था। नदी में एक टापू उस ढी से दो फर्लांग पर था। टापू के नीचे थोड़ी सी रेत थी, बाकी पाट में पानी भरा हुआ था। हम लोग उस पार की ढी पर खड़े-खड़े ऊँचे स्वर में बातचीत कर रहे थे। टापू के नीचे एक बड़ा लंबा-चौड़ा मगर रेत पर पड़ा हुआ था। उसको हम लोगों की ओर से संकट की कोई शंका नहीं हो सकती थी, क्योंकि हम लोग बहुत दूर थे।
मेरे मित्रों ने प्रस्ताव किया - 'मगर पर राइफल चलाओ, देखें, गोली लगती है या नहीं।' मैंने टाला-टूली की। मुफ्त में एक कारतूस क्यों खोता। जानता था कि निशाना न लगेगा। वे लोग न माने। मैंने एक पत्थर पर राइफल रखकर निशाना साधा और 'धाँय' कर दी।
अकस्मात्, गोली मगर की गरदन पर पड़ी और वह हिलकर रह गया। मगर की गरदन का लक्ष्य कुछ ही इंच व्यास का होता है; परंतु उस दिन निशाने की जगह पर बैठना एक संयोग मात्र था; क्योंकि राइफल से मैंने बहुत निकट के लक्ष्य चुकाए हैं।
एक मगर जब दूसरे से लड़ता है तब नदी में तुमुल नाद होता है। मगरों की उछालों के मारे पानी फट-फटकर उत्ताल तरंगों में परिवर्तित हो जाता है और तरंगों पर झाग आ जाते हैं। मगर कभी रेल की सी सीटी बजाकर और कभी तेंदुए जैसी हुंकार भरकर एक दूसरे से टकराते, लिपटते और गुँथते हैं। डूबने का उनको कुछ डर ही नहीं, क्योंकि वे घंटों पानी के भीतर रह सकते हैं। जब एक थक जाता है तब उसका प्रबलतर प्रतिद्वंद्वी नीचे ले जाता है, फिर पकड़कर पानी के बाहर लाता है। अपने नाखूनी पंजों और विकट दाँतों से उसका पेट फाड़ डालता है।
परंतु यही मगर जलमानुस से बहुत घबराता है। जलमानुस पानी का सुना कुत्ता है। नदी के जिस बाग में पहुँच जाता है उसकी मछली, कछुए, मगर सब समाप्त कर देता है या भगा देता है।
जलमानुस होता छोटा सा ही जानवर है। पूँछ समते लगभग चार फीट लंबा और ऊँचा छोटे कुत्ते के बराबर। बहुत चिकना, बड़ा गाँठ-गँठीला और नाखूनी पंजोंवाला। वह बड़ी तेजी के साथ पानी में डुबकी लगाता है और उबरता है। झुंड में रहता है।
जब मगर से यह लड़ता है, मगर फुफकारी मारकर इसके ऊपर आता है; परंतु यह उचाट लेकर उसके सिर पर सवार हो जाता है और गरदन में अपना नाखूनी शिकंजा कसता है। मगर पानी के भीतर जाता है, परंतु जलमानुस को पानी में डूबने का तो कुछ डर ही नहीं है, मजे में चला जाता है और नीचे भी मगर के गले पर अपे पैने नाखूनों को गपाता है। मगर ऊपर आता है; परंतु वहाँ भी निस्तार नहीं, क्योंकि दूसरे जलमानुस उसके पेट के नीचे पहुँच जाते हैं और नाखून ठोंकने की उसी क्रिया को पेट पर चालू कर देते हैं। मगर रेत पर भागकर भी त्राण नहीं पाता; क्योंकि जलमानुस बंदरों की तरह भूमि पर चलते-फिरते उछलते-कूदते हैं। जलमानुस पेड़ पर भी चढ़ जाते हैं।
एक बार जब अपनी आँखों एक मगर को गाय पर सवार होते देखा, तब जलमानुस की बहुत याद आई। यदि वह इस पानी में होता तो मगर साहस न कर पाता।
दिन की बात थी। मैं 12 बोर की दुनाली लिए पानी से काफी दूर बैठा था। एक गाय किनारे पानी पीने आई। उसने पानी में मुँह डाला ही था कि मगर ने अपनी भयंकर पूँछ की पछाड़ गाय की देह पर दी। गाय रेत में जा गिरी और मगर उससे जा लिपटा। अभी तक सुना था कि मगर पानी में दबे-दबे आकर, पैर पकड़कर घसीट ले जाता है; परंतु यह व्यापार विलक्षण था। मैं तुरंत हल्ला करता हुआ दौड़ा, क्योंकि गोली नहीं चला सकता था। एक तो उसका प्रभाव मगर के ऊपर नहीं के बराबर होता, दूसरे गाय पर गोली पड़ जाने का भय था। मगर गाय को छोड़कर भाग गया। परंतु मगर की पूँछ के वार के कारण गाय इतनी घायल हो गई थी कि मुश्किल से नदी की ढी पर चढ़ पाई।
चिरगाँव से चार मील 'भरतपुरा' नाम का गाँव झाँसी जिले में है। बेतवा इस गाँव से लगभग एक मील की दूरी पर बहती है। उस पार के पहाड़ और जंगल बडे सुहावने दिखते हैं। कुंडार का किला इस गाँव से आठ-नौ मील दूर है। भरतपुरा के तैराक बरसात में आई हुई नदी को तो पार कर ही जाते हैं। वे आई हुई नदी में तैरते हुए कुल्हाड़ी से मगर का सामना भी करते हैं।
भरतपुरवालों की गाय-भैंसे जब उस पार जंगल में रह जाती हैं तब वे उनको लेने के लिए जाते हैं। उधर से ढोरों को लाते समय कभी कभी मगर से मुठभेड़ हो जाती है। मगर ढोर पर आ जाता है और ये एक हाथ से ढोर की पूँछ पकड़े हुए, दूसरे में कुल्हाड़ी लिए ललकारते हैं। और अपने ढोरों को बचा ले आते हैं।
मगर फागुन-चैत में अंडे देता है। अंडे इसके बड़े-बड़े होते हैं। यह उनको रेत में गहरे गाड़ता है। साधारण तौर पर यह मछलियाँ खाता है। मुँह खोल लिया, पानी फुफकारता रहा और मछलियों की निगलता रहा।