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दबे पाँव (अध्याय 19)

16 मई 2022

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भेड़िये को हाँक-हूँककर गड़रिए की स्त्री प्यासी हो आई। भेड़-बकरियों को लेकर नदी किनारे पहुँची। पानी के पास गई। चुल्लुओं से हाथ मुँह धोया। थोड़ी दूर पर एक मगर पानी के ऊपर उतरा रहा था। वह मगर के स्वभाव को नहीं जानती थी। उनसे पानी पिया। गरमियों के दिन थे, नहाने की इच्छा हुई। पानी में उतर पड़ी। कुछ ही क्षण ठहरी थी कि मगर पानी के ऊपर आया कि सपाटा मारकर उसको पानी के नीचे ले गया। जब उसने समझ लिया कि मर गई, पत्थरों की खोख या झाऊ की झाड़ी में ले गया और उसको समूचा खा गया।

बड़ी नदियों के किनारे ये घटनाएँ प्रायः होती रहती हैं। कहार लोग अपने जाल में छोटे मगरों को तो फाँस लेते हैं, परंतु बड़े मगर और नाके इन जालों में नहीं आते।

मगर और नाके में अंतर है। मगर चौड़ा और ऊँचा होना है, नाका लंबा। बीस फीट से अधिक लंबाई के नाके मैंने देखे हैं।

मगर अधिक घातक होता है। गाय-बैलों तक को पानी में दबोच लेता है और डुबोकर मार डालता है। भेड़, बकरी और कुत्ते तो उसके लिए कुछ भी नहीं हैं।

एक बार मैं नदी किनारे प्रातः काल हाथ-मुँह धो रहा था। जल के पास पहुँचने के पहले एक मगर वहीं पड़ा हुआ था; परंतु मैंने देख नहीं पाया। हाथ-मुँह धोते समय मुझको पास ही तली में कुछ सरकता हुआ दिखलाई पड़ा। मैं तुरंत उचट कर पीछे हटा। मगर भी लौट गया। मैं पास ही एक पत्थर की आड़ में बैठ गया।

सवेरे के समय मगर जल के पास रेत में लेटने और सोने के लिए आता है। जाड़ों में तो वह देर तक धूप लेता रहता है।

घंटे-डेढ़ घंटे की प्रतीक्षा के उपरांत मगर रेत पर आया और चने के साथ लेट गया। मुझको उसकी खुली आँखें दिखलाई पड़ रही थीं। जब उसने आँखें मूँद लीं, यह नहीं अनुमान होता था कि उसके आँखें हैं भी या नहीं।

धीरे से राइफल सँभाली, गरदन का निशाना लिया और यहाँ लिबलिबी दबी, वहाँ मगर केवल जरा सा हिला और बहुत शीघ्र समाप्त हो गया।

मर जाने पर भी उसकी देह में इतनी गरमी रहती है कि थोड़ी देर तक स्पंदन करता रहता है।

जिस स्थान पर गड़रिए की स्त्री को मगर खा गया था, मुझको उस स्थान की चिंता हुई। कई बार घंटों ताक लगाकर बैठा, परंतु मगर की श्रवण शक्ति इतनी प्रबल होती है कि जरा सी आहट पर वह पानी में खिसक जाता था। दिन-दिन भर का श्रम व्यर्थ जाता और मुझको लौटना पड़ता।

एक बार एक मित्र ने मगर के स्वभाव को पास से जाँचने की इच्छा प्रकट की और मेरे साथ बैठने का हठ किया। हम लोग पानी के पास आड़ में जा बैठे। दो घंटे के बाद मगर आकर रेत पर बैठा। मेरे मित्र ने आतुरता के साथ कहा -

'वह आ गया मगर'

इधर मित्र का वाक्य समाप्त नहीं हो पाया था, उधर मगर पानी में गायब हो गया। वह बहुत धीमे बोले थे, परंतु मगर का कान बहुत तेज होता है।

परंतु एक दिन मगर झंझट में पड़ ही गया। मैं पथरीले किनारे पर दबे-दबे, पोले पैरों जा रहा था। एक पत्थर की ढाल पर पत्थर के रंग का सा ही कुछ दिखलाई पड़ा। मैंने जूते उतारकर एक जगह रख दिए। फिर बहुत धीरे-धीरे उस पत्थर के रंग जैसे की ओर बढ़ा। मेरा अनुमान सही निकला। वह एक भयानक मगर था।

जब मैं पंद्रह फीट के अंतर पर पहुँच गया तब उसको और अच्छी तरह देखा। बहुत ही कुरूप और भदरंग था। मैंने सिर का निशाना ताककर गोली छोड़ी। मगर पानी के बिलकुल पास था। वह जरा सा हिलकर तुरंत वहीं खत्म हो गया।

दूसरे महीने मैं अपने उन्हीं मित्रों के साथ इसी किनारे आया। रात को हम लोग अपने-अपने गड्ढे में जा बैठे। तेंदुए की खबर लगी थी। मैंने उन मित्र को सावधानी के साथ बैठने के लिए कह दिया था और तेंदुए की भयानकता के संबंध में कुछ बातें बतला दी थीं।

मेरे गड्ढे के सामने से तेंदुआ तो नहीं आया, एक भारी-भरकम विलक्षण जानवर निकला। मंद चाँदनी रात थी; परंतु वह गड्ढे के बिलकुल पास से निकला था, इसलिए पहचानने में की बाधा नहीं हुई। वह बड़ा मगर था और नदी के एक दह से दूसरे दह को कंकडों, पत्थरों और रेत में होकर जा रहा था। मेरे हाथ में उस समय 12 बोर की दुनाली बंदूक थी। नाल में टुकड़ेदार गोली (Split Bullet) वाला कारतूस था। चलाया, परंतु मगर तेजी के साथ आँखों से ओझल होकर पानी में धँस गया। सवेरे मैंने उस स्थल का निरीक्षण किया जहाँ मगर पर गोली चलाई थी, तब रेत के ऊपर गोली के टुकड़े पड़े मिले।

वास्तव में, मगर पर इस प्रकार की गोली का कोई प्रभाव नहीं होता। सिर या गरदन पर गोली पड़े तो और बात है, वैसे पीठ पर तो साधारण गोलियाँ खुजली का ही काम करती होंगी।

मैं अपने उन मित्र के गड्ढे पर गया। वे गड्ढे के पीछेवाले पेड़ पर चढ़े थे। वैसे उनमें बहुत वीरता थी; परंतु शिकार का अनुभव न होने के कारण उन्होंने पेड़ को ही आश्रय बनाना ठीक समझा था।

जब मैं पेड़ के नीचे पहुँचा, उन्होंने अपनी दुनाली बंदूक नाल की तरफ से मुझको दी। दोनों घोड़े चढ़े हुए थे और कारतूस तो नाल में थे ही। मैंने अपने प्राणों की कुशल मनाते हुए नाल को सिर से ऊँचा करके पकड़ा, साधकर घोड़े गिराए और उनसे कहा, 'इस प्रकार घोड़े चढ़ी हुई बंदूक को नाल की तरफ से किसी को नहीं देना चाहिए।'

वे हँसकर बोले, 'क्या परवाह!'

दूसरे दिन राइफल से एक मगर मारकर मैंने उसपर दुनाली की गोली के प्रभाव की परीक्षा करनी चाही। पक्की गोली उसकी पीठ पर चलाई। गोली उचटकर चली गई, केवल एक खरोंच छोड़ गई। उस रात मगर पर टुकड़ेदार गोली ने क्यों कोई काम नहीं कर पाया था, यह बात अब समझ में आ गई।

मगर का सिर, गरदन और पेट मार के स्थल हैं। उसकी पीठ के खपटे इतने प्रबल होते हैं कि साधारण हथियार काम नहीं कर सकते। राइफल की नुकीली गोली निस्संदेह उसपर यथेष्ठ काम करती है।

बेतवा का पाट कहीं-कहीं चार फर्लांग चौड़ा है। इस नदी में कई स्थानों पर टापू हैं। एक बार मैं दो मित्रों सहित नदी के उस पार भ्रमण कर रहा था। नदी में एक टापू उस ढी से दो फर्लांग पर था। टापू के नीचे थोड़ी सी रेत थी, बाकी पाट में पानी भरा हुआ था। हम लोग उस पार की ढी पर खड़े-खड़े ऊँचे स्वर में बातचीत कर रहे थे। टापू के नीचे एक बड़ा लंबा-चौड़ा मगर रेत पर पड़ा हुआ था। उसको हम लोगों की ओर से संकट की कोई शंका नहीं हो सकती थी, क्योंकि हम लोग बहुत दूर थे।

मेरे मित्रों ने प्रस्ताव किया - 'मगर पर राइफल चलाओ, देखें, गोली लगती है या नहीं।' मैंने टाला-टूली की। मुफ्त में एक कारतूस क्यों खोता। जानता था कि निशाना न लगेगा। वे लोग न माने। मैंने एक पत्थर पर राइफल रखकर निशाना साधा और 'धाँय' कर दी।

अकस्मात्, गोली मगर की गरदन पर पड़ी और वह हिलकर रह गया। मगर की गरदन का लक्ष्य कुछ ही इंच व्यास का होता है; परंतु उस दिन निशाने की जगह पर बैठना एक संयोग मात्र था; क्योंकि राइफल से मैंने बहुत निकट के लक्ष्य चुकाए हैं।

एक मगर जब दूसरे से लड़ता है तब नदी में तुमुल नाद होता है। मगरों की उछालों के मारे पानी फट-फटकर उत्ताल तरंगों में परिवर्तित हो जाता है और तरंगों पर झाग आ जाते हैं। मगर कभी रेल की सी सीटी बजाकर और कभी तेंदुए जैसी हुंकार भरकर एक दूसरे से टकराते, लिपटते और गुँथते हैं। डूबने का उनको कुछ डर ही नहीं, क्योंकि वे घंटों पानी के भीतर रह सकते हैं। जब एक थक जाता है तब उसका प्रबलतर प्रतिद्वंद्वी नीचे ले जाता है, फिर पकड़कर पानी के बाहर लाता है। अपने नाखूनी पंजों और विकट दाँतों से उसका पेट फाड़ डालता है।

परंतु यही मगर जलमानुस से बहुत घबराता है। जलमानुस पानी का सुना कुत्ता है। नदी के जिस बाग में पहुँच जाता है उसकी मछली, कछुए, मगर सब समाप्त कर देता है या भगा देता है।

जलमानुस होता छोटा सा ही जानवर है। पूँछ समते लगभग चार फीट लंबा और ऊँचा छोटे कुत्ते के बराबर। बहुत चिकना, बड़ा गाँठ-गँठीला और नाखूनी पंजोंवाला। वह बड़ी तेजी के साथ पानी में डुबकी लगाता है और उबरता है। झुंड में रहता है।

जब मगर से यह लड़ता है, मगर फुफकारी मारकर इसके ऊपर आता है; परंतु यह उचाट लेकर उसके सिर पर सवार हो जाता है और गरदन में अपना नाखूनी शिकंजा कसता है। मगर पानी के भीतर जाता है, परंतु जलमानुस को पानी में डूबने का तो कुछ डर ही नहीं है, मजे में चला जाता है और नीचे भी मगर के गले पर अपे पैने नाखूनों को गपाता है। मगर ऊपर आता है; परंतु वहाँ भी निस्तार नहीं, क्योंकि दूसरे जलमानुस उसके पेट के नीचे पहुँच जाते हैं और नाखून ठोंकने की उसी क्रिया को पेट पर चालू कर देते हैं। मगर रेत पर भागकर भी त्राण नहीं पाता; क्योंकि जलमानुस बंदरों की तरह भूमि पर चलते-फिरते उछलते-कूदते हैं। जलमानुस पेड़ पर भी चढ़ जाते हैं।

एक बार जब अपनी आँखों एक मगर को गाय पर सवार होते देखा, तब जलमानुस की बहुत याद आई। यदि वह इस पानी में होता तो मगर साहस न कर पाता।

दिन की बात थी। मैं 12 बोर की दुनाली लिए पानी से काफी दूर बैठा था। एक गाय किनारे पानी पीने आई। उसने पानी में मुँह डाला ही था कि मगर ने अपनी भयंकर पूँछ की पछाड़ गाय की देह पर दी। गाय रेत में जा गिरी और मगर उससे जा लिपटा। अभी तक सुना था कि मगर पानी में दबे-दबे आकर, पैर पकड़कर घसीट ले जाता है; परंतु यह व्यापार विलक्षण था। मैं तुरंत हल्ला करता हुआ दौड़ा, क्योंकि गोली नहीं चला सकता था। एक तो उसका प्रभाव मगर के ऊपर नहीं के बराबर होता, दूसरे गाय पर गोली पड़ जाने का भय था। मगर गाय को छोड़कर भाग गया। परंतु मगर की पूँछ के वार के कारण गाय इतनी घायल हो गई थी कि मुश्किल से नदी की ढी पर चढ़ पाई।

चिरगाँव से चार मील 'भरतपुरा' नाम का गाँव झाँसी जिले में है। बेतवा इस गाँव से लगभग एक मील की दूरी पर बहती है। उस पार के पहाड़ और जंगल बडे सुहावने दिखते हैं। कुंडार का किला इस गाँव से आठ-नौ मील दूर है। भरतपुरा के तैराक बरसात में आई हुई नदी को तो पार कर ही जाते हैं। वे आई हुई नदी में तैरते हुए कुल्हाड़ी से मगर का सामना भी करते हैं।

भरतपुरवालों की गाय-भैंसे जब उस पार जंगल में रह जाती हैं तब वे उनको लेने के लिए जाते हैं। उधर से ढोरों को लाते समय कभी कभी मगर से मुठभेड़ हो जाती है। मगर ढोर पर आ जाता है और ये एक हाथ से ढोर की पूँछ पकड़े हुए, दूसरे में कुल्हाड़ी लिए ललकारते हैं। और अपने ढोरों को बचा ले आते हैं।

मगर फागुन-चैत में अंडे देता है। अंडे इसके बड़े-बड़े होते हैं। यह उनको रेत में गहरे गाड़ता है। साधारण तौर पर यह मछलियाँ खाता है। मुँह खोल लिया, पानी फुफकारता रहा और मछलियों की निगलता रहा।

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रचनाएँ
वृंदावन लाल वर्मा की रोचक कहानियाँ
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इन्हे बचपन से ही बुन्देलखंड की ऐतिहासिक विरासत में रूचि थी। जब ये 19 साल के किशोर थे तो इन्होंने अपनी पहली रचना ‘महात्मा बुद्ध का जीवन चरित’(1908) लिख डाली थी। उनके लिखे नाटक ‘सेनापति दल’(1909) में अभिव्यक्त विद्रोही तेवरों को देखते हुये तत्कालीन अंग्रजी सरकार ने इसी प्रतिबंधित कर दिया था। ये प्रेम को जीवन का सबसे आवश्यक अंग मानने के साथ जुनून की सीमा तक सामाजिक कार्य करने वाले साधक भी थे। इन्होंने वकालत व्यवसाय के माध्यम से कमायी समस्त पूंजी समाज के कमजोर वर्ग के नागरिकों को पुर्नवासित करने के कार्य में लगा दी। इन्होंने मुख्य रूप से ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास, नाटक, लेख आदि कुछ निबंध एवं लधुकथायें भी लिखी हैं।
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मेंढकी का ब्याह

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उन ज़िलों में त्राहि-त्राहि मच रही थी। आषाढ़ चला गया, सावन निकलने को हुआ, परन्तु पानी की बूँद नहीं। आकाश में बादल कभी-कभी छिटपुट होकर इधर-उधर बह जाते। आशा थी कि पानी बरसेगा, क्योंकि गाँववालों ने कुछ पत

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खजुराहो की दो मूर्तियाँ

16 मई 2022
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चंद्रमा थोड़ा ही चढ़ा था। बरगद की पेड़ की छाया में चाँदनी आँखमिचौली खेल रही थी। किरणें उन श्रमिकों की देहों पर बरगद के पत्तों से उलझती-बिदकती सी पड़ रहीं थीं। कोई लेटा था, कोई बैठा था, कोई अधलेटा। खजु

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जहाँगीर की सनक

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'इंशा! इंशा!!' बादशाह जहाँगीर ने इधर-उधर देखकर भरे दरबार में जरा ऊँचे स्वर में अपने भतीजे को पुकारा। अलमबरदार ने बड़े अदब के साथ बतलाया कि शाहजादा शिकार खेलने चले गए हैं। 'शाहजादा - इंशा के लिए! जहाँग

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शरणागत

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रज्जब कसाई अपना रोजगार करके ललितपुर लौट रहा था। साथ में स्त्री थी, और गाँठ में दो सौ-तीन सौ की बड़ी रकम। मार्ग बीहड़ था, और सुनसान। ललितपुर काफी दूर था, बसेरा कहीं न कहीं लेना ही था; इसलिए उसने मड़पुर

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थोड़ी दूर और

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जब महमूद गजनवी (सन 1025-26 में) सोमनाथ का मंदिर नष्ट-भ्रष्ट करके लौटा तब उसे कच्छ से होकर जाना पड़ा। गुजरात का राजा भीमदेव उसका पीछा किए चल रहा था। ज्यों-ज्यों करके महमूद गजनवी कच्छ के पार हुआ। वह सिं

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रक्षा

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मुहम्मदशाह औरंगजेब का परपोता और बहादुरशाह का पोता था। 1719 में सितंबर में गद्दी पर बैठा था। सवाई राजा जयसिंह के प्रयत्न पर मुहम्मदशाह ने गद्दी पर बैठने के छह वर्ष बाद जजिया मनसूख कर दिया। निजाम वजीर ह

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रामशास्त्री की निस्पृहता

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दो सौ वर्ष के लगभग हो गए, जब पूना में रामशास्त्री नाम के एक महापुरुष थे। न महल, न नौकर-चाकर, न कोई संपत्ति। फिर भी इस युग के कितने बड़े मानव! भारतीय संस्कृति की परंपरा में जो उत्कृष्ट समझे जाते रहे है

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दबे पाँव (अध्याय 1)

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कुछ समय हुआ एक दिन काशी से रायकृष्ण दास और चिरगाँव से मैथिलीशरण गुप्त साथ-साथ झाँसी आए। उनको देवगढ़ की मूर्ति कला देखनी थी - और मुझको दिखलानी थी। देवगढ़ पहुँचने के लिए झाँसी-बंबई लाइन पर जालौन स्टेशन

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दबे पाँव (अध्याय 2 )

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हिंदी में कुछ-न-कुछ लिखने की लत पुरानी है। सन् 1909 में छपा हुआ मेरा एक नाटक सरकार को नापसंद आया। जब्त हो गया और मैं पुलिस के रगड़े में आया। परंतु रंगमंच पर अभिनय करने पर अभिनय करने का शौक था और नाटक

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दबे पाँव (अध्याय 3)

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चिंकारे का शिकार करछाल के शिकार से भी अधिक कष्टसाध्य है। चिंकारा बहुत ही सावधान जानवर होता है। उसे संकट का संदेह हुआ कि फुसकारी मारी और छलाँग मारकर गया। हिरन संकट से छुटकारा पाने के लिए दूर भागकर दम ल

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दबे पाँव (अध्याय 4)

16 मई 2022
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एक जगह जमकर बैठने का शिकार काफी कष्टदायक होता है। झाँखड़ या पत्थरों के चारों ओर ओट बना लेते हैं और उसके भीतर जानवरों को अगोट पर शिकारी बैठ जाते हैं-ऐसे ठौर पर, जहाँ होकर जानवर प्रायः निकलते हों। उनके

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दबे पाँव (अध्याय 5)

16 मई 2022
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हिरन वर्ग के जानवरों के लिए ढूका या ढुकाई का शिकार भी अच्छा समझा जाता है। इस शिकार में काफी परिश्रम करना पड़ता है। पेट के बल रेंगते हुए भी चलना पड़ता है; पहेल ही कहा जा चुका है। कुछ लोग बंदूक के घोड़

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दबे पाँव (अध्याय 6 )

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चीतल (स्वर्णमृग) हिरन वर्ग का पशु समझा जाता है। परंतु इसके सींग फंसेदार होते हैं। यह बहुत ही सुंदर होता है। इतना सुंदर कि कभी-कभी शिकारी इसके भयानक हानि पहुँचानेवाले कृत्यों को भूल जाता है। इसकी खाल प

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दबे पाँव (अध्याय 7)

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चीतलों के बाद मुझको पहला तेंदुआ सहज ही मिल गया। विंध्यखंड में जिसको 'तेंदुआ' कहते थे, उसकी छोटी छरेरी जाति को कहीं-कहीं 'चीता' का नाम दिया गया है। हिमाचल में शायद इसी को 'बाघ' कहते हैं। तेंदुए की खबर

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दबे पाँव (अध्याय 8)

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खेती को नुकसान पहुँचानेवाले जानवरों से सुअर चीतल और हिरन से कहीं आगे है। मनुष्यों के शरीर को चीरने-फाड़ने में वह तेंदुए से कम नहीं है। सुअर की खीसों से मारे जानेवालों की संख्या तेंदुए की दाढ़ों और नाख

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दबे पाँव (अध्याय 9)

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मैं संध्या के पहले ही बेतवा किनारे ढीवाले गड्ढे में जा बैठा। राइफल में पाँच कारतूस डाल लिए। कुछ नीचे रख लिए। रातभर बैठने के लिए आया था, इसलिए ओढ़ना-बिछौना गड्ढे में था। अँधेरा हुआ ही था कि एक छोटी सी

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दबे पाँव (अध्याय 10)

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एक बार जाड़ों में पहाड़ की हँकाई की ठहरी। लगान लग गए। मैं पहाड़ की तली में बैठ गया और शर्मा जी चोटी पर। बीच में अन्य मित्र लगान पर लग गए। हँकाई होते ही पहले साँभर हड़बड़ाकर निकल भागे। हँकाई में पहले

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दबे पाँव (अध्याय 11)

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साँभर और नीलगाय इसके नर को 'रोज' और मादा को 'गुरायँ' कहते हैं। खेती के ये काफी बड़े शत्रु हैं। बड़े शरीर और बड़े पेटवाले होने के कारण ये कृषि का काफी विध्वंस करते हैं। जब गाँव के ढोर चरते-चरते जंग मे

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दबे पाँव (अध्याय 12)

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एक समय था जब हिंदुस्थान में सिंह - गरदन पर बाल, अयालवाला - पाया जाता था। काठियावाड़ में सुनते हैं कि अब भी एक प्रकार का सिंह पाया जाता है। नाहर या शेर ने, जिसके बदन पर धारें होती हैं, अपना वंश बढ़ाकर

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दबे पाँव (अध्याय 13)

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अगली छुट्टी में मैं अपने मित्र शर्मा जी के साथ उसी गड्ढे में आ बैठा। चाँदनी नौ बजे के लगभग डूब गई। अँधेरे की कोई परवाह नहीं थी। एक से दो थे और टॉर्च भी साथ थी। जिस घाट पर हम लोग गड्ढे में बैठा करते थ

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दबे पाँव (अध्याय 14)

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मोर, नीलकंठ, तीतर, वनमुरगी, हरियल, चंडूल और लालमुनैया जंगल, पहाड़ और नदियों के सुनसान की शोभा हैं। इनके बोलों से - जब बगुलों और सारसों, पनडुब्बियों और कुरचों की पातें की पातें ऊँघते हुए पहाड़ों के ऊपर

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दबे पाँव (अध्याय 15 )

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मध्य प्रदेश कहलाने वाले विंध्यखंड में ऊँची-ऊँची पर्वत श्रेणियाँ, विशाल जंगल, विकट नदियाँ और झीलें हैं। शिकारी जानवरों की प्रचुरता में तो यह हिंदुस्थान की नाक है। किसी समय विंध्यखंड में हाथी और गैंडा भ

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दबे पाँव (अध्याय 16)

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एक बार विंध्यखंड के किसी सघन वन का भ्रमण करने के बाद फिर बार-बार भ्रमण की लालसा होती है। इसलिए सन् 1934 के लगभग मैं कुछ मित्रों के साथ मंडला गया। मंडला की रेलयात्रा स्वयं एक प्रमोद थी। पहाड़ी में होक

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दबे पाँव (अध्याय 17)

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जंगली कुत्ते का मैंने शिकार तो नहीं किया है, परंतु उसको देखा है। जिन्होंने इसके कृत्यों को देखा है वे इस छोटे से जानवर के नाम पर दाँतों तले उँगली दबाते हैं। रंग इसका गहरा बादामी होता है, इसलिए शायद इस

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दबे पाँव (अध्याय 18)

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भेड़िया आबादी के निकट के प्रत्येक जंगल में पाया जाता है। यह जोड़ी से तो रहता ही है, इसके झुंड भी देखे गए हैं। मैंने आठ-आठ, दस-दस तक का झुंड देखा है। भेड़िया बहुत चालाक होता है। भेड़-बकरियों और बच्छे-

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दबे पाँव (अध्याय 19)

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भेड़िये को हाँक-हूँककर गड़रिए की स्त्री प्यासी हो आई। भेड़-बकरियों को लेकर नदी किनारे पहुँची। पानी के पास गई। चुल्लुओं से हाथ मुँह धोया। थोड़ी दूर पर एक मगर पानी के ऊपर उतरा रहा था। वह मगर के स्वभाव क

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दबे पाँव (अध्याय 20)

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जंगल में शेर और तेंदुए से भी अधिक डरावने कुछ जंतु हैं - साँप, बिच्छू और पागल सियार। अजगर का तो कुछ डर नहीं है, क्योंकि वह काटने के लिए आक्रमण नहीं करता है, भक्षण के लिए पास आता है; और जहाँ तक मैंने द

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दबे पाँव (अध्याय 21)

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जंगलों में जितने भीतर और नगरों से जितनी दूर निकल जाएँ उतना ही रमणीक अनुभव प्राप्त होता है। पुराने नृत्य और गान तो जंगलों के बहुत भीतर ही सुरक्षित मिलते हैं। अमरकंटक की यात्रा में कोलों और गोंडों का क

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दबे पाँव (अध्याय 22)

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शिकार के साथ यदि हँसोड़ न हों और चुप भी रहना न जानते हों तो सारी यात्रा किरकिरी हो जाती है। मुझको सौभाग्यवश हँसोड़ या चुप्प साथी बहुधा मिले। संगीताचार्य आदिल खाँ वह अपने को कभी-कभी 'परोफेसर' कहते हैं

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दबे पाँव (अध्याय 23)

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शेर के संबंध में शिकारियों के अनुभव विविध प्रकार के हैं। सब लोगों का कहना है कि मनुष्यभक्षी शेर के सिवाय सब शेर मनुष्य की आवाज से डरते हैं। जब शेर की हँकाई होती है और ऐसे जंगल की हँकाई प्रायः की जाती

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दबे पाँव (अध्याय 24)

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लौटने पर किसी ने कहा तलवार पास रखनी चाहिए, किसी ने कहा छुरी। तलवार और छुरी का उपयोग शिकार में हो सकता है; परंतु मैं तलवार से छुरी को ज्यादा पसंद करूँगा और छुरी से भी बढ़कर लाठी को, और लाठी से बढ़कर क

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दबे पाँव (अध्याय 25)

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यदि गाँववालों को शिकारी की सहायता नहीं करनी होती है तो वे कह देते हैं कि जंगल में जानवर हैं तो जरूर, पर उनका एक जमाने से पता नहीं है। सहायता वे उन लोगों की नहीं करते, जिनसे उनको कोई भय या आशंका होती ह

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रिहाई तलवार की धार पर

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बंदा बैरागी और उसके सात सौ सिख साथियों के कत्ल का दिन आ गया। ये सब बंदा के साथ गुरदासपुर से कैद होकर आए थे। बंदा ने स्वयं खून की होली खेली थी, इसलिए उसके मन में किसी भी प्रकार की दया की आशा या प्रार्थ

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सच्चा धर्म

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हिंदू रियासतों में एक जमाने से शिया मुसलमान काफी संख्या में आ बसे थे; कोई नौकर थे, कोई कारीगर, हकीम-जर्राह इत्यादि। परंतु संख्या सुन्नी मुसलमानों की अधिक थी। इनमें भी उन्नाव दरवाजे की तरफ मेवाती और बड

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शाहजादे की अग्निपरीक्षा

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दिल्ली का बादशाह जहाँगीर सन 1605 में राजसिंहासन पर बैठा था। उसे दस-बारह साल राज करते-करते हो गए थे। जहाँगीर सूझ-बूझवाला व्यक्ति था; परंतु कभी-कभी दुष्टता का भी बरताव कर डालता था। उसमें सनक भी थी। जहा

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शेरशाह का न्याय

16 मई 2022
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वह नहा रही थी। ऋतु न गरमी की, न सर्दी की। इसलिए अपने आँगन में निश्चिंतता के साथ नहा रही थी। छोटे से घर की छोटी सी पौर के किवाड़ भीतर से बंद कर लिए थे। घर की दीवारें ऊँची नहीं थीं। घर में कोई था नहीं,

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शहीद इब्राहिमख़ाँ गार्दी

16 मई 2022
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'इस क़ैदी को शाह के सिपुर्द कीजिये ।' अहमदशाह अब्दाली के दूत ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला से युद्ध की समाप्ति पर कहा । सन् १७६१ में पानीपत के युद्ध में मराठे हार गये थे। कई सरदारों के साथ मराठों का सरद

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पहले कौन?

16 मई 2022
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मेवाड़ और मारवाड़ (जोधपुर) में परस्पर बहुत वैर बढ़ गया था। बात लगभग तीन सौ वर्ष पुरानी है। मेवाड़ की सीमा पर जोधपुर राज्य का एक गढ़ था। गढ़ खँडहर हो गया है और खँडहरों का नाम क्या! जोधपुर अपनी आन पर थ

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लुटेरे का विवेक

16 मई 2022
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बात बारहवीं शताब्दी के अंत की है। मुहम्मद साम दिल्ली का सुल्तान था और भीम द्वितीय गुजरात का राजा। भीम ने लगभग इकसठ वर्ष राज किया। वह सिद्धांत पर चलता था, जिसे सत्रहवीं शताब्दी में छत्रसाल ने यों व्यवह

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इंद्र का अचूक हथियार

16 मई 2022
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तपस्वी की साधना की जो प्रतिक्रिया हुई, उससे इंद्र का इंद्रासन डगमगाने लगा। तपस्या भंग करने के उपकरण इंद्र के हाथ में थे ही। उसने प्रयुक्त किए। तपस्वी के पास मेनका अप्सरा अपने साज-बाज के साथ जा पहुँची।

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वृंदावनलाल के जीवन के प्रेरक प्रसंग

16 मई 2022
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सच्चा इतिहास मैं लिखूँगा मनुष्य के जीवन में एकाध घटना ऐसी गुजरती है, जो संवेदनशील मन को झनझना देती है। जिस घटना ने वृंदावनलाल वर्मा के मन को झकझोरकर उन्हें इतिहास लिखने के लिए प्रेरित किया, वह घटना उ

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