19 मई 2022
गुरुवार
समय 11:15(रात)
मेरी प्यारी सहेली,
बचपन की यादें बड़े होने पर भी याद आती ही दिलो को गुदगुदाने लगती है।
भूतों की कहानियां सुनना, उनको समझना बचपन से ही सभी बच्चों को बड़ा अच्छा लगता है पर
पर उसके बाद डर का जो आलम आरंभ होता है कुछ ना पूछो इसके बाद तो ऐसा लगता है मानो चारों ओर भूत ही भूत दिखाई पड़ते हैं।
कई बार तो ऐसा लगता है मानो भूतों के साथ ही रह रहे हैं। चारों तरफ भूतों का सामराज्य है।
ऐसा ही कुछ मेरे बचपन में मेरे साथ होता था। पिताजी से भूतों की कहानी सुनाने को कहती और जी जान लगाकर भूतों की कहानियां सुनते बड़ा मजा आता।
बस उसके बाद कमरे से निकलते ही डर लगने लगता। ऐसा लगता मानो भूत हमारे पीछे पीछे ही चल रहा है। कई बार तो चीखें भी निकल जाती थी। अक्सर पिताजी कहते अब कभी नहीं सुनने आना।
हम भी सोचते बात तो सही है डरते भी है फिर कल से बिल्कुल नहीं सुनेंगे।
रात होते ही फिर वही आलम रहता। गर्मियों की छुट्टियों का मजा तो भूतो की कहानी सुनने से ही मिलता था।
एक बार का वाक्य सुनाती हूं बड़े ही चाव से हम सब बच्चों ने मिल बैठकर कहानी सुनी बहुत मजेदार कहानी थी भूतों की।
कहानी खत्म होते ही मम्मी ने सभी को खाने के लिए बैठा दिया। बचपन में ही एक नियम मां ने बांध दिया था सभी अपने-अपने खाने की प्लेट को साफ करेंगे। खाना खत्म होते ही मैं अपना बर्तन टंकी के नीचे धोने के लिए चली गई।
लेकिन कहानी का असर उस समय देखने को मिला जब पेड़ हिलने लगे और मुझे लगा मानो भूतों का जमघट मेरे ऊपर ही गिर ने वाला है।
कहानी सुनाने से पहले पिताजी ने शर्त रखी थी कि डरना नहीं है। अगर कोई भी डरता है तो उसे आगे कभी भी कहानी सुनने को नहीं मिलेगी।
पिताजी की इसी बात का ध्यान आते ही चुपचाप कमरे में जाकर सो गई।
डर सबको लगता है गला सबका सूखता है पर डर को जीतना ही समझदारी है अकल मंदी है।
रात बहुत हो चुकी है कल मिलने की आस में।
शुभरात्रि