25 मई 2022
बुधवार
समय-8:50(रात)
मेरी प्यारी सहेली,
इस बार मायके जाने के समय ही मैंने तय कर लिया था कि चाहे एक ही सही पर अपने बचपन की सहेली से अवश्य ही मिलकर आऊंगी।
व्हाट्सएप पर हमारा एक बचपन के मित्रों का ग्रुप बना हुआ है। ग्रुप भी कुछ ऐसा बना जैसे मानो एक ने दूसरे को पकड़ा तो दूसरे ने अपने साथ जुड़ी सहेली का नाम भी जोड़ दिया।
हमारा यह ग्रुप आठवीं कक्षा तक पढ़े बच्चों का ग्रुप है। आज कोई दिल्ली है, तो कोई साउथ में, कोई कोटा तो कोई जोधपुर और भी ना जाने कहां-कहां?
ऐसा भी नहीं है कि सारे के सारे मित्र जुड़ चुके हैं। अभी भी कुछ मित्रगण बचे हुए हैं, जो कि ग्रुप से जुड़ नहीं पाए। कुछ सहेलियां हैं जिनकी शादी हो चुकी है और उनका पता अभी तक हम, पता नहीं कर पाए।
कुछ लड़के ऐसे हैं जो शायद नौकरी के कारण दूसरी जगह चले गए हैं या जिनके माता-पिता ने अपना पता बदल दिया हो। वे इस ग्रुप से अछूते रह गए। वरना व्हाट्सएप और फेसबुक पर जितने भी मित्रों की हमें जानकारी थी लगभग सभी ने प्रयासरत रहते हुए एक दूसरे को जोड़ा या जोड़ने की कोशिश की।
कई बार मनमुटाव भी हुआ सदस्यों ने अपनी सदस्यता व्हाट्सएप ग्रुप से वापस ले ली। लेकिन कहते हैं ना यार बड़े कमीने होते हैं। चैन की सांस भी नहीं लेने देते। ठीक वैसे ही हम लोगों ने भी ग्रुप से निकले हुए सदस्यों को पुनः ग्रुप में जोड़ दिया।
इस बार मायके जाकर मैं सरोज से मिली। कितना अच्छा लगता है ना अपने बहुत दिनों बाद मिले मित्र से मिलना?
मित्रता का रिश्ता तो मनुष्य द्वारा तैयार किया गया रिश्ता है, बड़ा ही पवित्र बहुत ही सुंदर।
इस रिश्ते को तो श्री कृष्ण ने भी अंतिम समय तक निभाया था। कृष्ण सुदामा की मित्रता कौन नहीं जानता?
मित्रता के बंधन में बंध कर कितना सुकून मिलता है। एक दूसरे को हाल-ए-दिल बयां करना, अपने दिलों के गुबार को मित्रों के सामने प्रकट करना और आसानी से चैन पा लेना, सच बहुत अच्छा लगता है।
आज मेरी एक और मित्र से बातचीत हो रही थी। बातचीत के दौरान हम लोग बचपन के गलियारे में पहुंच गए। हम लोग बातें करते करते चलते चलते हम दोनों सपनों पर सवार होकर पंखों के सहारे उड़ते हुए स्कूल की पास वाले घर में पहुंच गए। जहां बचपन में हम शहतूत खाया करते थे।
बिल्कुल डीप मैरून कलर के लंबे-लंबे, शायद मेरी कनिष्का अंगुली जितनी बड़ी होती होंगी। हाथ में लेते हैं हाथ भी मैरून हो जाया करते थे।
खूब मन भर कर खाते थे। पर एक दिन उनके घर में किसी की तबीयत खराब हो जाने के कारण वे लोग घर में चाबी लगा कर गांव चले गए।
बस उस दिन से हमारा उनके घर के अंदर जाकर शहतूत खाने का सिलसिला बंद हो गया।
उनके घर के बाहर गिरने वाले शहतूतों से ही हम अपना मन बहला लिया करते थे।
1 दिन घर वापस आते समय साथी मित्रों ने कहा कि घर जाते हुए एक घर के बाहर आ रहे शहतूत की कुछ डालियां हमें शहतूत खाने का मजा दे सकती है। लेकिन वह सफेद रंग की है।
अंधे को क्या चाहिए 2 जोड़ी आंखें? मेरे साथ आने वाले मेरे सभी संगीसाथी उचक उचक कर बाहर आ रहे डालियों में से शहतूत खाने लगे। मेरा मन होने के बाद भी मैंने उसमें से एक शहतूत भी नहीं खाया। कारण मां से नहीं पूछा था ना।
एक दिन शाम को पढ़ते-पढ़ते मैंने मां से कहा, मां पता है हम लोग जिस रास्ते से आते हैं वहां एक शहतूत का पेड़ है। मां ने जगह पूछी। बताने पर बोली वह तो मेरी सहेली का घर है।
बस फिर क्या था दूसरे दिन से ही शहतूत खाने में एक सदस्य का और इजाफा हो गया।
मैंने डाल खींची और शहतूत तोड़ कर बस मुंह में डाल ने ही वाली थी कि मुझे दूर से मां होती हुई दिखाई दी।
जल्दी से एक और शहतूत तोड़ा ताकि मां को भी खिला सकूं।
दौड़कर मां के पास गई और बोली देखो मैं आपके लिए भी शहतूत लाई हूं।
मां की आंखें मुझे क्रोध में दिखाई दी बोली मेरी नाक कटवा कर रहेगी क्या?
यह मेरी सहेली का घर है मैंने बताया था ना?
मैंने कहा हां बताया तो था।
बोली फिर यहां से शहतूत तोड़ने की हिम्मत कैसे की? अगर उषा मुझसे पूछेगी तब मैं क्या जवाब दूंगी कि हां मेरी बेटी भी चोर है यह कहूंगी उससे?
स्कूल के पास वाले मैरून शहतूत तो गए ही, सफेद वाले भी हाथ ना लग पाए।
शुभ रात्रि