अरी कहाँ हो? इंदर की बहुरिया! - कहते हुए आँगन पार कर पंडित देवधर की घरवाली सँकरे, अँधेरे, टूटे हुए जीने की ओर बढ़ीं।
इंदर की बहू ऊपर कमरे में बैठी बच्चेर का झबला सी रही थी। मशीन रोककर बोली - आओ, बुआजी, मैं यहाँ हूँ। - कहते हुए वह उठकर कमरे के दरवाजे तक आई।
घुटने पर हाथ टेककर सीढ़ियाँ चढ़ते हुए पंडिताइन इस कदर हाँफ रही थीं कि कि ऊपर आते ही जीने के बाहर की दीवाल से पीठ टेककर बैठ गई।
इंदर की बहू आगे बढ़कर पल्लेठ को दोनों हाथों की चुटकियों से पकड़ सात बार अपनी फुफिया सास के पैरों पड़ी।
- ठंडी सीरी बूढ़ सुहागन, दूधन नहाओ पूतन फलो - आशीर्वाद देती हुई पंडिताइन रुकीं, दम लेकर अपने आशीर्वाद को नया बल देते हुए कहा-हम तो, बहुरिया, रात-दिन यही मनाएँ हैं। पहलौठी का होता तो आज दिन ब्या व की फिकर पड़ती। (दबी आह) राम करै मारकंडे की आर्बल लैके आवै जल्दीै से। राम करैं, सातों सुख भोगो, बेटा।
इंदर की बहू का मुख-मंडल करुणा और श्रद्धा से भर उठा, पलकें नीची हो गईं। फुफिया सास की बाँह पकड़कर उठाते हुए कहा - कमरे में चलो बुआजी।
- चलो, रानी। तनिक सैंताय लिया, तो साँस में साँस आई। अब हमसे चढ़ा उतरा नाहीं जाए है बेटा, क्या, करैं?
बुआजी उठकर बहुरिया के साथ अंदर आईं। मशीन पर नन्हाब-सा झबला देखकर बुआजी ने अपनी भतीज-बहू को खुफिया पुलिस की दृष्टि से देखा, फिर पूछा - ई झबला...
दूधवाली के बच्चेक के लिए सी रही हूँ। चार बिटियों के बाद अब के लड़का हुआ है उसे। बड़ा शुभ समै है बिचारी के लिए।
- बड़ी दया-ममता है बहू तुमरे मन में। ठाकुरजी महाराज तुमरी सारी मनोकामना पूरी करैं। तुम्हेंै औ इंदर को देख के ऐसा चित्तम परसन्ने होय है ऐसा कलेजा जुड़े हैं, बेटा कि... जुग जुग जियौ! एक हमरे भोला-तरभुअन की बहुएँ हैंगी। (आह फिर विचारमग्नजता) हुँह! जैसा मानुख, वैसी जोए। बहू बानी तो कच्चाा कच्चाी बेत हामें हैंगी। पराए घर की बेटियों को क्याो दोख दूँ।
- कोई नई बात हुई, बुआजी?
- अरे, जिस घर के सिंस्कामर ही बदल जाएँ, उस घर में नित्तद नई बात होवेगी। हम तो कहमें हैं, रानी, कि हमरे पाप उदै भए हैं।
कहकर बुआजी की आँखें फिर शून्यर में सध गईं। इंदर की बहू को 'नई बात' का सूत्र नहीं मिल पा रहा था, इसलिए उसके मन में उथल-पुथल मच रही थी। कुछ नई बात जरूर हुई है, वो भी कहते थे कि फूफाजी कुछ उखड़े-से खोए हुए-से हैं।
- बड़े देवर की कुतिया क्याो फिर चौके में... इंदर की बहू का अनुमान सत्य के निकट पहुँचा। घटना पंडित देवधर के ज्येीष्ठ् डॉक्टफर भोलाशंकर भट्ट द्वारा पाली गई असला स्कायटलैंड के श्वाान की बेटी जूलियट के कारण ही घटी। इस बार तो उसने गजब ही ढा दिया। पंडितजी की बगिया में पुरखों का बनवाया हुआ एक गुप्तट साधना-गृह भी है। घर की चहारदीवारी के अंदर ही यह बगिया भी है, उसमें एक ओर ऊँचे चबूतरे पर एक छोटा-सा मंदिर बना है। मंदिर में एक संन्याकसी का पुराना कलमी चित्र चंदन की नक्काशीदार जर्जर चौकी पर रखा है। उस छोटे से मंदिर में उँकड़ू बैठकर ही प्रवेश किया जा सकता है। मंदिर के अंदर जाकर दाहिने हाथ की ओर एक बड़े आलेनुमा द्वार से अपने सारे शरीर को सिकोड़कर ही कोई मनुष्यर साधना गृह में प्रवेश कर सकता है। इस गृह में संगमरमर की बनी सरस्विती देवी की अनुपम मूर्ति प्रतिष्ठित है, जिस पर सदा तेल से भिगोया रेशमी वस्त्र पड़ा रहता है। केवल श्रीमुख के ही दर्शन होते हैं। मूर्ति के सम्मुतख अखंड दीप जलता है। यह साधना-गृह एक मनुष्यि के पालथी मारकर बैठने लायक चौड़ा तथा मूर्ति को साष्टां ग प्रणाम करने लायक लंबा है। पंडित देवधरजी के पितामह के पिता को संन्यायसी ने यह मूर्ति और महा सरस्वंती का बीज मंत्र दिया था। सुनते हैं, उन्होंाने संन्यायसी की कृपा से यहीं बैठकर वाग्देावी को सिद्ध किया और लोक में बड़ा यश और धन कमाया था। पंडितजी के पितामह और पिता भी बड़े नामी-गिरामी हुए, रजवाड़ों में पुजते थे। पंडित देवधरजी को यद्यपि पुरखों का सिद्ध किया हुआ बीजमंत्र नहीं मिला, फिर भी उन्होंमने अपने यजमानों से यथेष्टय पूजा और दक्षिणा प्राप्तब की। बीज मंत्र इसलिए न पा सके कि वह उत्तमराधिकार के नियम से पिता के अंतकाल में उनके बड़े भाई धरणीधरजी को ही प्राप्तम हुआ था और वे भरी जवानी में ही हृदय-गति रुक जाने से स्व र्ग सिधार गए थे। फिर भी पंडित देवधरजी ने आजीवन बड़ी निष्ठाम के साथ जगदंबा की सेवा की है।
एक दिन नित्या-नियमानुसार गंगा से लौटकर सबेरे पंडितजी ने जब साधना-गृह में प्रवेश किया तो उसे भोला की कुतिया के सौरी-घर के रूप में पाया। पंडितजी की क्रोधाग्नि प्रचंड रूप से भड़क उठी। लड़के-लड़कों की बहुएँ एकमत होकर पंडित देवधर से जबानी मोर्चा लेने लगे। पंडित देवधरजी ने उस दिन से घर में प्रवेश और अन्नए-जल ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा ले रखी है। वे साधना-गृह के पास कुएँवाले दालान में पड़े रहते हैं। आज चार दिन से उन्हों ने कुछ नहीं खाया। कहीं और बाजार में तो वे खाने-पीने से रहे, शायद इंदर के घर भोजन करते हों। यही पूछने के लिए इंदर की बुआ इस समय यहाँ आईं थीं, परंतु उनकी भतीज-बहू ने जब उनके यहाँ भोजन न करने की बात बताई तो सुनकर बुआजी कुछ देर के लिए पत्थरर हो गईं। पति की अड़सठ वर्ष की आयु, नित्या सबेरे तीन बजे उठ दो मील पैदल चलकर गंगाजी जाना आना, अपना सारा कार्यक्रम निभाना, दोपहर के बारह-एक बजे तक ब्रह्म-यज्ञ, भागवत पाठ, सरस्वरती कवच का जप आदि यथावत् चल रहा है; और उनके मुँह में अन्न का एक दाना भी नहीं पहुँचा। यह विचार बुआजी को जड़ बना रहा था।
- ये तो सब बातें मुझे इत्तीा बखत तुमसे मालूम पड़ रही हैं बुआजी। फूफाजी ने तो मेरी जान में कभी कुछ भी नहीं कहा। कहते तो मेरे सामने जिकर आए बिना न रहता।