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सिकंदर हार गया भाग 1

25 जुलाई 2022

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अपने जमाने से जीवनलाल का अनोखा संबंध था। जमाना उनका दोस्‍त और दुश्‍मन एक साथ था। उनका बड़े से बड़ा निंदक एक जगह पर उनकी प्रशंसा करने के लिए बाध्‍य था और दूसरी ओर उन पर अपनी जान निसार करनेवाला उनका बड़े से बड़ा प्रशंसक किसी ने किसी बात के लिए उनकी निंदा करने से बाज नहीं आता था, भले ही ऐसा करने में उसे दुख ही क्‍यों न हो। परिचित हो या अपरिचित, चाहे जीवनलाल का शत्रु ही क्‍यों न हो, अगर मुसीबत में है तो वह बेकहे-बुलाए आधी रात को भी तन-मन-धन से उसकी सहायता करने के लिए तैयार हो जाते थे। उस समय वे अपने नफे-नुकसान की तनि‍क भी परवाह न करते थे। लेकिन व्‍यवहार में बड़ी ओछी तबीयत के थे, अपने टके के लाभ के लिए किसी की हजारों की हानि करा देने में उन्‍हें तनिक भी हानि न होती थी। वह स्‍त्री के संबंध में भी बड़े मनमाने थे। इज्जत-आबरूदार लोग उनसे अपने घर की स्त्रियों का परिचय कराने में हिचकते थे और ऐसा करने पर भी वे प्रायः जीवनलाल से जीत नहीं पाते थे। शहर के कई प्रतिष्ठित धनीमानियों की घेरलू अथवा व्‍यावसायिक अथवा दोनों तरह की आबरूओं को उन्‍होंने अपने खूबसूरत शिकंजे में जकड़ रखा था, वह भी इस तरह कि 'हम मासूम हैं। तुम्‍हारे गुनाह में फँसाए गए हैं, खुद गुनहगार नहीं।'

जीवन बाबू तकदीर के सिकंदर थे। बहुत-से पुरुष सुंदर होते हैं, मगर अक्‍सर वे ही स्त्रियों को अपनी ओर आकर्षित कर पाते हैं, जिनका सौंदर्य नारी जैसा कोमल न होकर पुरुष जैसा कठोर होता है। ऐसे लोग पुरुषों के बीच में अपनी छाप छोड़ते हैं और स्त्रियों में धाक जमाते हैं। जीवनलाल ऐसा ही रूप और डील-डौल लेकर एक मामूली-से क्‍लर्क के यहाँ जन्‍मे थे। अपने स्‍कूल-कॉलेज के जीवन में वे न कभी फैल हुए और न 'प्रोमोटेड' जैसी निचली श्रेणी में ही पास हुए, मगर अध्‍ययन प्रिय लड़कों में उनकी गिनती कभी नहीं हुई। हाँ, खेल-कूद, नाटक-जलसे जैसे कामों में वे हमेशा चोटी के लीडर माने गए और यहीं से बड़े-बड़े घरों के सहपाठियों के सहारे उनके घरों में उनका आना-जाना भी आरंभ हुआ। शुरू से ही उन्‍हें ऊँची हैसियतवालों का साथ पसंद था। दस वर्ष पहले जीवनलाल ने एक नए स्‍थापित होनेवाले ईंटों की भट्ठे पर क्‍लर्की से अपना जीवन आरंभ किया था और आज वे स्‍वयं अपने भट्ठे के मालिक, रेलवे के बड़े ठेकेदार और अब शहरी इमारतों के भी ठेकेदार हो गए थे। शहर में उनके आठ मकान किराए पर उठे हुए थे। खुद अपने लिए भी एक छोटी-सी अमेरिकन स्‍टाइल की खूबसूरत बँगलिया उन्‍होंने बनवा ली थी। एक गाड़ी भी थी। रहन-सहन ठाटदार था। जीवनलाल देखते ही देखते नगर के प्रसिद्ध व्‍यक्तियों में से एक हो गए थे।

'प्रकाश ब्रिक वर्क्‍स' के मालिक लाला शंभूनाथ उनके एक सहपाठी के चचेरे भाई थे। तभी से दोस्‍ती हो गई थी। लाला शंभूनाथ यों तो स्‍वयं भी एक लखपति घराने के ही थे, लेकिन उनका विवाह एक ऐसे घर की इकलौती लड़की से हुआ, जो उत्‍तराधिकार में इतनी संपदा साथ लाई थी, जितनी उनके सम्मिलित कुटुंब की थी। शंभूनाथ बड़े गंभीर, दुनियादार और कुशल व्‍यवसाय-बुद्धि के थे। उन्‍होंने अपनी पत्‍नी की जायदाद को अपने श्रम से कुछ अधिक बढ़ाया। उनकी पत्‍नी प्रकाशो बीबी यों बड़ी पति-परायण थीं, पर उनके घमंड से पति परमेश्‍वर को भी दबना पड़ता था। शंभूनाथ ने अपनी पत्‍नी से बाकायदा। लिखा-पढ़ी करके पचीस हजार रुपया लिया और ईंटों का भट्ठा खोला था। जीवनलाल उन दिनों काम की तलाश में भटक रहे थे। संयोग से शंभूनाथ मिल गए। बातों-बातों में जीवनलाल ने कहा, यार, कोई काम बताओ। तो शंभूनाथ ने कहा कि मेरे भट्ठे का हिसाब-किताब सँभालो। अभी सौ रुपये दूँगा, बाद में काम जम जाने पर बढ़ा दूँगा। जीवनलाल जब 'प्रकाश ब्रिक वर्क्‍स' के क्‍लर्क बने, उस समय शंभूनाथ की आयु पैंतीस-छत्‍तीस के लगभग थी, उनकी पत्‍नी उनसे पाँच-छह वर्ष छोटी थी। वे चार बच्‍चों के माता-पिता थे। जीवनलाल आयु में दोनों से छोटा 25 वर्ष का था, इसलिए घर में बच्‍चों का चाचा बनकर प्रवेश किया।

लाला शंभूनाथ तौलनेवाली नजर रखने के बावजूद शक्‍की स्‍वभाव के थे। वे शुरू से ही अपने-आपको जीवनलाल के व्‍यक्तित्‍व की चुंबक शक्ति से बचते रहे, फिर भी उन्‍होंने अपने को क्रमशः उनके वश में होते हुए पाया। वे उन्‍हें छोटे भाई की तरह प्‍यार करने लगे। पाँच वर्षों के अंदर ही जीवनलाल 'प्रकाश ब्रिक वर्क्‍स' के लिए अत्‍यंत आवश्‍यक व्‍यक्ति बन गए। इनके काम, व्‍यवहार, ईमानदारी और कठिन परिश्रमी वृत्ति पर रीझकर लाला शंभूनाथ जब इन्‍हें अपना पूरा विश्‍वास दे बैठे थे, तब एक दिन अचानक उन्‍हें महसूस हुआ कि वे अपने जीवन का सबसे करारा धोखा खा गए हैं। उनका अत्‍यधिक विश्‍वासपात्र कर्मचारी उनकी अत्‍यधिक विश्‍वासपात्री गृहलक्ष्‍मी के प्रेम का साझेदार बन गया था।

प्रकाशो बीबी यों पुरुष-सुख की भूखी या अधिक बदनीयत न थीं। उन्‍हें अपने बाल-बच्‍चेदार और कुलीन होने का भी चौकस होश था, पर हुआ यह कि चतुर, दबंग और दूसरों पर हुकूमत करनेवाली नारी अपने जीवन में पहली बार किसी पुरुष को सच्‍चा आदर-भाव देने के लिए अपने-आप से मजबूर हो गई थी। भट्ठे का हिसाब-किताब सँभालते-सँभालते जीवनलाल शंभूनाथ की दौड़-धूप बचाने के लिए अक्‍सर प्रकाशो बीबी की जायदाद का काम भी सँभालने लगे। उनकी सलाहों पर चलकर जहाँ शंभूनाथ को अपने धंधे में मिला, वहाँ ही प्रकाशो बीबी के बैंक के खाते में भी ऐसी बढ़ोत्‍तरी दिखाई दी कि प्रकाशो बीबी ने अपने पति पर दबाव डालकर जीवनलाल को उनके भट्ठे की नौकरी से हटाकर अपनी जायदाद और अपने पैतृक काम-धंधे का मैनेजर बना दिया। उन्‍होंने कुछ एक जायदादों की खरीदी-बेची में प्रकाशो बीबी को कुछ ही महीनों में साढ़े पाँच लाख रुपयों का धनी बना दिया। प्रकाशो बीबी बेहोशी में जीवनलाल पर रीझी और जीवनलाल ने बड़ी होशियारी से उस रीझ को भुनाकर ऐसे कमजोर क्षणों में प्रकाशो बीबी को अपने वश में कर लिया कि उन्‍हें अपने पाप पर पछताने तक का अवसर न मिला। इसके बाद जैसे शंभूनाथ अपनी पत्‍नी के पैसे पर अपना स्‍वतंत्र विकास कर रहे थे, वैसे ही जीवनलाल भी करने लगे। शंभूनाथ उनसे ईर्ष्‍या करके भी उनसे अपना संबंध तोड़ नहीं पाते थे। 'प्रकाश ब्रिक वर्क्‍स' फर्म के अधीन ही उन्‍होंने रेलवे की इमारतें बनाने का ठेका प्रकाशो बीबी के पैसे के बूते लिया। मुनाफे में आठ आने अपने, छह प्रकाशो बीबी के और दो आने शंभूनाथ के भी रखे। इन ठेकों का खाता अलग था। फर्म का नाम एक ही था। शंभूनाथ अपनी इज्जत ओर मुनाफे के लालच में जीवनलाल से अपना नाता न तोड़ पाते थे। जीवनलाल उनके सामने बराबर यही झलकाता कि दोष मेरा नहीं तुम्‍हारी पत्‍नी का है। स्‍वयं प्रकाशो बीबी के ऊपर भी वह ऐसी धौंस जमा देता था, तुम रीझी थीं। तुम्‍हारी रीझ में अगर मेरा पुरुष-मन लुभा गया तो यह दोष मेरा नहीं।' मन ही मन में एक जगह उनसे प्रकाशो बीबी भी कहती थी और शंभूनाथ भी। पर दोनों उन्‍हें छोड़ नहीं सकते थे, खासतौर से स्‍त्री का अपराध-जटिल हठीला मन अब अपने अपराध के कारण को छोड़ने के लिए तनिक भी तैयार न था।

जीवनलाल के जीवन में यही एक घटना घटी हो सो बात नहीं। रईस स्त्रियों पर अपना रंगीन प्रभाव जमाने में वे कुछ तो चतुर थे और कुछ सिकंदर भी। हर शरीफ आदमी अपने घर में उनका आना हर्गिज पसंद नहीं करता था। फिर भी कोई उन्‍हें अपने घर में आने से रोक नहीं सकता था। उनकी आँखों की मोहिनी शक्ति, उनके व्‍यवहार की मिठास सबको मजबूर करती थी।

जीवनलाल की उम्र के छत्‍तीसवें साल में उनके जीवन में एक विशेष घटना घटी। शहर में लोहे के मशहूर व्‍यापारी लाला मुसद्दीलाल की विधवा बेटी से उनका विवाह हुआ। यह सदाचारी; व्‍यभिचारी अपने होनेवाले बच्‍चे की माता और उसके प्रतिष्ठित नानाकुल की मान-रक्षा के लिए ही विवाह करने को मजबूर हुआ था; मगर इस समय तक उनका मन कुछ इस तरह पक चुका था कि वे किसी भी स्‍त्री के चरित्र पर विश्‍वास ही न कर पाते थे। लीला इनके घर में क्‍या आई, कैद में पड़ गई और ये घर से बँधने लगे। अपने मन का संदेह इन्‍हें चैन नहीं लेने देता था। दिन में आठ-आठ, दस-दस बार बिना किसी काम-काज के ही ये अचानक घर का चक्‍कर काट जाते। रेलवे की इमारतों का ठेका होने की वजह से महीने में पंद्रह दिन इन्‍हें दौरे पर भी रहना पड़ता था। ये रात में अचानक लौटकर अपनी पत्‍नी के सतीत्‍व की परीक्षा करने के लिए बहाने-बहाने से सारे घर की जाँच किया करते थे। बहाने से पलंग के नीचे झाँकना, बहाने से कबर्ड खोलकर देखना, सर्दी की रातों में भी बहाने से छत झाँक आना इनकी आदत में शामिल हो गया।

लीला छह महीने में ही इनसे तंग आ गई। वह अक्‍सर झुँझला पड़ती थी, खीझ-खीझ उठती थी। लीला चतुर गृहिणी थी। वह अपने पति के कारोबार का हिसाब-किताब जाँचने-सहेजने के कारण एक प्रकार से उनकी प्राइवेट सेक्रेटरी भी हो गई थी। अपने पति के शक मिटाने के लिए उसने प्रयत्‍न किए, पर जितना ही वह एकनिष्‍ठ सिद्ध करने का प्रयत्‍न करती, उतना ही वे चौंकते जाते थे।

ए‍क दिन म्‍यूनिसिपैलिटी के एग्जीक्‍यूटिव अफसर श्री त्रिभुवननाथ कौल के घर उनके बेटे की सालगिरह के उपलक्ष्‍य में पति-पत्‍नी की दावत थी। अपने बच्‍चे विवेक को आया की निगरानी में घर पर छोड़कर वे लोग गए थे। कौल साहब ने दूसरे मेहमानों के लौट जाने के बाद भी इन्‍हें रोके रखा। मिसेज कौल से लीला का घना बहनापा था। कुछ बिजनेस का मामला भी था। म्‍यूनिसिपल बोर्ड शहर में कुछ इमारतें बनवाने जा रहा था। घरेलू रिश्‍ते ने स्‍वार्थ का रिश्‍ता भी बाँधा। कौल साहब के कारण ही जीवनलाल का तीस लाख का टेंडर मंजूर हो चुका था। इसलिए जीवनलाल का कौल साहब से स्‍वार्थ अटका था और कौल का जीवनलाल से। जीवनलाल कौल साहब का आग्रह टाल नहीं सकते थे।

रात के एक बजे घर लौटने पर कपड़े बदलते समय अचानक लीला ने उनसे कहा, तुम्‍हारे कौल साहब की नजर अच्‍छी नहीं।

जीवनलाल के कलेजे में तीर बिंध गए। लीला ने आगे कहा, मनोरमा भी उनकी बदनजर को बढ़ावा देती है।

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रचनाएँ
अमृत लाल नागर की कहानी संग्रह
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अमृतलाल नागर हिन्दी के उन गिने-चुने मूर्धन्य लेखकों में हैं जिन्होंने जो कुछ लिखा है वह साहित्य की निधि बन गया है उपन्यासों की तरह उन्होंने कहानियाँ भी कम ही लिखी हैं परन्तु सभी कहानियाँ उनकी अपनी विशिष्ठ जीवन-दृष्टि और सहज मानवीयता से ओतप्रोत होने के कारण साहित्य की मूल्यवान सम्पत्ति हैं। फिर स्वतंत्र लेखन, फिल्म लेखन का खासा काम किया। 'चकल्लस' का संपादन भी किया। आकाशवाणी, लखनऊ में ड्रामा प्रोड्यूसर भी रहे। कहानी संग्रह : वाटिका, अवशेष, तुलाराम शास्त्री, आदमी, नही! नही!, पाँचवा दस्ता, एक दिल हजार दास्ताँ, एटम बम, पीपल की परी , कालदंड की चोरी, मेरी प्रिय कहानियाँ, पाँचवा दस्ता और सात कहानियाँ, भारत पुत्र नौरंगीलाल, सिकंदर हार गया, एक दिल हजार अफसाने है।
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दो आस्थाएँ भाग 4

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हो रहा है, ठीक है। तो फिर दादा हमारा विरोध क्यों  करते हैं? भोला, हम फूफाजी का न्याकय नहीं कर सकते। इसलिए नहीं कि हम अयोग्यय हैं, वरन इसलिए कि हमारे न्यालय के अनुसार चलने के लिए उनके पास अब दिन नहीं

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तुम अपने प्रति मेरे स्नेफह पर बोझ लाद रहे हो। मैं आत्म शुद्धि के लिए व्रत कर रहा हूँ... पुरखों के साधना-गृह की जो यह दुर्गति हुई है, यह मेरे ही किसी पाप के कारण... अपने अंतःकरण की गंगा से मुझे सरस्वमत

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>शाम का समय था, हम लोग प्रदेश, देश और विश्‍व की राजनीति पर लंबी चर्चा करने के बाद उस विषय से ऊब चुके थे। चाय बड़े मौके से आई, लेकिन उस ताजगी का सुख हम ठीक तरह से उठा भी न पाए थे कि नौकर ने आकर एक सादा

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सिकंदर हार गया भाग 2

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