कुशीनारा में भगवान बुद्ध की विश्राम करती हुई मूर्ति के चरणों में बैठकर चैत्रपूर्णिमा की रात्रि में आनंद ने कहा-‘‘शास्ता, अब समय आ गया है।’’
भगवान बुद्ध की मूर्ति ने अपने चरणों के निकट बैठे इस जन्म के बृषभ देह आनंद से पूछा-‘‘कैसा समय आवुस्स ?’’
‘दिल्ली चलने का भगवान।’’
भगवान थोड़ी देर मौन सोचते रहे, फिर बोले, ‘‘आवुस्स युग के प्रभाव से मैं जड़ हो गया हूँ। देखते नहीं मूर्ति के रूप में मैं यहां जैसा लिटा दिया गया, वैसा ही लेटा हूं, जहां जिसने बैठा दिया बैठा हूं, खड़ा किया तो खड़ा हूं, तोड़ डाला गया तो टूटा पड़ा हूं। इस जड़ता के कारण मेरी स्मृति समाधिस्थ है आनंद, उसे निर्वाण निद्रा से जगाओ तभी सम्यक सम्बुद्ध तुम्हारी बात पर विचार कर पायेंगे।’’
इस जन्म के वृषभ देह आनंद बोले-‘‘जागिए भगवान स्मरण कीजिए कि परिनिर्वाण प्राप्त करने के लिए जब आप वैशाली छोड़कर इस छोटे से जंगली और झाड़ झंझाड़ वाले जंगल कुशीनारा में पदार्पण का विचार करने लगे तब आपका यह विचार मुझे पसंद नहीं आया था। मैं चाहता था कि आपके परिनिर्वाण प्राप्त करने के योग्य स्थान कोई बड़ा नगर ही होना चाहिए। जैसे चम्पा, राजगृह, श्रावास्ती, साकेत, कोशाम्बी, वाराणसी आदि थे, वहां उस समय आपके अनेक महाधनी क्षत्रिय ब्राह्मण और वैश्य शिष्य थे वे आपके शरीर की पूजा किया करते।’’
मूर्ति रूप भगवान ने उत्तर दिया-‘‘मेरी स्मृति जाग उठी है आवुस्स। तुम अपनी स्मरण शक्ति को भी जगाओ आनंद। मैंने तुमसे कहा था, तथागत की शरीर पूजा कर तुम अपने आपको बाधा में मत डालो। सच्चे पदार्थ के लिए प्रयत्नशील बनो। अपने आपको ही शरण बनाओ अपने से अतिरिक्त दूसरे की शरण मत जाओ। आप दीवो भव।’’
वही दिया जलाए बैठा था शास्ता। पर आपकी ढाई हज़ारवीं जयंती की तैयारियों में भारत सरकार ने इतने दिए जलाए हैं कि आत्मदीप अब मुझे टिमटिमाता सा लग रहा है।’’ कहते-कहते वृषभ देह आनंद की आंखों में आंसू झलक आए। रंभाती हुई वाणी करुणा के दलदल में फंस गई। उस दलदल से वाणी के शकट को खींचते हुए आनंद ने कहा-‘‘इस जन्म में हाथ नहीं हैं प्रभु इसलिए पैर जोड़कर कहता हूँ आप आनंद की प्रार्थना एक बार स्वीकार कर लें। कौशल, कौशाम्बी, वारणसी न सही, एकबार अब दिल्ली अवश्य चले चलें।’’
‘‘दिल्ली में क्या होगा आवुस्स ?’’
‘‘दिल्ली में आपकी पूजा होगी प्रभु। आपकी ढाई हज़ारवीं जयंती मनाई जा रही है। हे शास्ता, जैसे आपका मैं हूं वैसे ही भगवान गांधी के नेहरू भी हैं। और वह आपको जगा रहे हैं तथागत। इसलिए ऐसे अवसर पर यदि आप मेरी प्रार्थना स्वीकार कर दिल्ली चलेंगे तो मेरा बड़ा यश फैलेगा।’’
‘‘आवुस्स, तेरी इच्छा पूरी हो। आनंद तथागत दिल्ली जाएंगे किन्तु तुम न जा सकोगे आनंद !’’
वृषभदेह आनंद ने एक ठंडी साँस भरी कहा-‘‘अनुशासन में हूं शास्ता। मैं यहीं आत्मदीप जगाकर आपके दिल्ली अवतरण के दर्शन करूंगा। इतनी कृपा अवश्य कीजिएगा कि अपने किसी धनी शिष्य को आदेश देकर एक रेडियो सेट भिजवा दीजिएगा जिससे मैं आपको दिल्ली की रनिंग कमेंट्री सुन सकूं।’’
‘‘ऐसा ही होगा आनंद।’’ कहकर भगवान ने पूर्ण चन्द्र की ओर देखा, चांदनी उनके तेज में समा गई। सूर्य उदय हो गया। शास्ता के दूसरे संकेत पर मध्याह्न हुआ। कुशीनारा में अनेक वर्षों से पेड़ से न उतरने वाले भगवान के एक जापनी शिष्य के कन्दमूल खाने का समय आ गया, फिर भगवान के तीसरे संकेत पर सूर्य देव इतने ढल गए कि शहरों में दफ्तरों के कमरे सूने होने लगे, सड़के साइकिलों से भर गई। नई दिल्ली के ए.बी.सी.डी. आदि श्रम के क्वारटरों और बंगलों में चाय का समय हो गया, बच्चे पार्कों में खेलने लगे।
दिल्ली के पथरीले सेक्रेटेरिएट में काम करने वाले विनयनगर एरिया के सीक्लास क्वारटर खाली क्लर्क मिस्टर सोहन लाल ने अपनी श्रीमती के साथ चाय पीते हुए कमरे के कोने में रखे संदूकों की ओर देखा। उनकी भवें और नाक सिकुड़ गईं। चाय से गीले होंठ भी बिचक गए। पत्नी से कहने लगे-‘‘ये कोना अच्छा मालूम नहीं पड़ता यहां सजावट की कुछ कमी है।’’
मिसेज़ प्रेमलता ने भी चाय से गीले अपने लाल होंठ खोले बोली-‘‘फील तो मैं भी करती हूं जी। चलो मार्केट चलकर कोई डेकोरेशन पीस खरीद लाया जाए। मगर क्या इस बेतुके कमरे में...। हमारा नसीब भी कितना खराब है, न बंगला, न मोटर न ड्राइंगरूम...।’’ मिसेज़ प्रेमलता के लाल होंठ आपस में जुड़ गए, नाक से ठंडी आह निकालकर उन्होंने अपनी गर्दन डाल दी। ‘डोन्ट वरी डार्लिंग। सोशलिज्म में ब्यूरोक्रेसी खतम होकर ही रहेगी तब हम बंगले में रहेंगे।
मिस्टर सोहनलाल और मिसेज प्रेमलता आज के युग के पढ़े-लिखे शरीफ आदमी अर्थात् कुल्चरवर्णी साहब और मेम साहब थे, उनपर नई दिल्ली का रंग भी चढ़ा हुआ था। वह नई दिल्ली जो स्वतन्त्रता के बाद नए सिरे से नई हो गई है जहां चीनी, रूसी, बर्मी, ईरानी, तूरानी, उजबेक, खुरसानी, इंग्लिश, जापनी, अमरीकी आदि भांति-भांति के तमाशे नित्य हुआ करते हैं, जहां तिरुवेन्दिरम से लेकर श्रीनगर तक और कच्छ से लेकर नागा पहाड़ियों तक के लोकगीत लोक नृत्य आदि आए दिन उसी तरह देख सुन पड़ते हैं जिस तरह छोटे शहरों में बीड़ी और सिनेमा वालों के नाचते गाते जुलूस।
नई दिल्ली के अफसरी जूते दर जूते हर जूते के नीचे दबा हुआ, ‘कुल्चरवर्णी’ साहब और उनकी मेमसाहब दोनों ही सेक्रेटरियों (जॉएण्ट एडीशनल और अण्डर सहित) के बंगलों, बंगलियों के रहन-सहन की हसरत मन में लेकर अपने सी क्लास वाले क्वाटर की सजावट करते थे। साइकिल और बस पर चढ़कर वे ठंडी आह के साथ मोटरों को निहारते, मेमसाहब भी सस्ते रेशमी कुर्ते शलवार लिपिस्टिक और नकली सोने मोती के जेवर पहन कर अर्दली, बैरा, चपरासियों के अभाव में अपना साहब को ही अग्रेजी में फटकार कर कलेजे को ठंडा कर लिया करती थीं। दोनों ही को इस बात की सख्त शिकायत थी कि इस कुल्चर युग में वे धन और ओहदे के अभाव में उस एवरेस्ट पर नहीं चढ़ पाते जहां पहुंचकर आज के मनुष्य को आन, बान, शान तीनों परम वस्तुएं प्राप्त हो जाती हैं। इसलिए वे आम मध्यवर्गीय की तरह कांटे की नोक पर हर घड़ी ऐसे विचार प्रकट किया करते थे जो समाजवादी, साम्यवादी, हिन्दूवादी, प्रांतीयतावादी, जातीयतावादी, कुंठावादी, बकवासी किस्म के होते हैं।
चाय पीकर मिसेज प्रेमलता डांटते हुए बोली-‘‘छोड़ो अपनी यह बकवास। चलना है तो चलो। कोई डेकोरेशन पीस खरीद लाएं। मेरे ख्याल में लार्डरामा, लार्डक्रिश्ना, लार्ड बुद्धा या लार्ड नटराजा की आर्टिस्टिक मूर्ति ले लें। इस वक्त तो यही फैशन है।’’
रामा ? लार्ड उहूं।’’ साहब ने बहुत मुँह बनाकर कहा ‘‘रामा बहोत ही प्लारिटेरियरिएट गॉड है। हिन्दुस्तान में जिसे देखो वही राम-राम करता है। इसलिए अब वह लार्ड नहीं हो सकते। अब हर पुराने राजा की वकत नहीं रही-सिर्फ राजप्रमुखों को छोड़कर। मेरे ख्याल में लार्ड बुद्धा को ही खरीदा जाए। इस वक्त वह लेटेस्ट फैशन में है। उनकी ढाई हजारवीं जयंती भी मनाई जा रही है। हमारे प्राइम मिनिस्टर खुद अपना इन्टेरेस्ट ले रहे हैं। इसलिए खरीदना है तो बुद्धा को खरीदों।’’
अणु परमाणुओं में लीन स्वचेता भगवान बुद्ध ने सुना और सुनकर मुस्करा दिए। आनंद इस जन्म में पुंगव है उसकी बैलबुद्धि की बात मानकर तथागत फिर ढाई हजार वर्ष पुरानी देह धारण कर रहे हैं तो तथागत को देह भोग भी भोगना ही पड़ेगा। भगवान ने सोचा। और अणु परमाणुओं में लीन भगवान बुद्ध नई दिल्ली के वातावरण में प्रविष्टि गए।
साहब सोहनलाल और प्रेमलता मेमसाहब मारकेट से सैण्डिल, साड़ी, ब्लाउज और बुद्ध खरीदकर लौट रहे थे। मेम साहब ने कहा-‘‘आज बड़ा खरचा हो गया तुम्हारी वजह से।’’
‘‘मेरी वजह से क्यों, ये साड़ी ब्लाउज क्या मैं पहनूंगा ?’’
तुम नहीं पहनोगे, मगर खर्च तो तुम्हारे कारण ही हुआ।’’ मेमसाहब की आवाज मे सख्ती आ गई।
साहब ने दबी ठंडी खींचकर कहा-‘‘जब तुम कहती हो तो अवश्य हुआ होगा। ये तुम्हारे सैण्डिल शायद मेरी खोपड़ी के लिए खरीदे गए-’’
मैं इतनी मूर्ख नहीं कि अठारह रुपए का माल तुम्हारी निकम्मी खोपड़ी पर तोड़ दूं। मगर मैं कहती हूं कि तुम्हें जरा भी बुद्धि नहीं। बुद्धि होती तो महीने के आखीर में बुद्धा को खरीदने की बात ही न उठाते। हिश, तुम्हें जरा भी समझ नहीं।’’ मेमसाहब के कदम झुंझलाहट में तेज पड़ने लगे।’’
बट डार्लिंग मेरा बुद्धा तो सिर्फ अठन्नी के हैं।’’