हो रहा है, ठीक है।
तो फिर दादा हमारा विरोध क्यों करते हैं?
भोला, हम फूफाजी का न्याकय नहीं कर सकते। इसलिए नहीं कि हम अयोग्यय हैं, वरन इसलिए कि हमारे न्यालय के अनुसार चलने के लिए उनके पास अब दिन नहीं रहे। आदत बदलने के लिए आखि़री वक्त में अब उत्सााह भी नहीं रहता।
मैं पूछता हूँ, क्योंह नहीं रहता?
यह सरासर ज्यादती है तुम्हायरी। वह बीता युग है, उस पर हमारा वश नहीं। हमारा वश केवल वर्तमान और भविष्यह पर ही हो सकता है। विगत युग की मान्य ताओं को उस युग के लिए हमें जैसे का तैसा ही स्वी्कार करना होगा... पहले बात सुन लो, फिर कुछ कहना... हाँ तो मैं कह रहा था कि हमें अपने पुरखों की खूबियाँ देखनी चाहिए, ताकि हम उन्हेंो लेकर आगे बढ़ सकें। उनकी खामियों को या सीमाओं को समझना चाहिए, जिनसे कि हम आगे बढ़कर अपनी नई सीमा स्थाेपित कर सकें। उनके ऊपर अपनी सुधारवादी मनोवृत्ति को लादना घोर तानाशाही नहीं है?
और वो जो करते हैं, वह तानाशाही नहीं है।
अगर तानाशाही है, तो तुम उसका जरूर विरोध करो। मगर नफरत से नहीं। वे तुम्हाउरे अत्यंत निकट के संबंधी हैं, तुम्हाोरे पिता हैं। इतनी श्रद्धा तुम्हेंत करनी होगी, उन्हेंत इतनी सहानुभूति तुम्हेंर देनी ही होगी।
इंद्रदत्त बहुत शांत भाव से पालथी मारकर बैठे हुए बातें कर रहे थे।
भोला के चेहरे पर कभी चिढ़ और कभी लापरवाही-भरी अकड़ के साथ सिगरेट का धुआँ लहराता था। इंद्रदत्ते की बात सुनकर तमककर बोला - अ-अ-आप चाहते हैं कि हम गोश्तह खाना छोड़ दें?
दोस्त , अच्छाब होता कि तुम अगर यह मांस-मछली वगैरह के अपने शौक कम से कम उनके और बुआजी के जीवन-काल में घर से बाहर ही पूरे करते। यह चोरी के लिए नहीं, उनके लिहाज के लिए करते, तो परिवार में और भी शोभा बढ़ती। खैर, झगड़ा इस बात पर तो है नहीं। झगड़ा तो तुम्हाेरी...
जूलियट की वजह से है। वह उनके कमरे में जाती है या अभी हाल ही में उसने सरस्व तीजी के मंदिर में बच्चेक पैदा किए... तो, तो आप एक बेजुबान जानवर से भी बदला लेंगे, जनाब? यह आपकी इनसानियत है?
मैं कहता हूँ, तुमने उसको पाला ही क्यों ? कम से कम माँ-बाप का जरा-सा मान तो रखा होता।
इमसें मान रखने की क्याए बात है, भाई साहब? - भोला उठकर छोटी-सी जगह में तेजी से अकड़ते हुए टहलने लगे। चारपाई से कमरे के एक कोने तक जाकर लौटते हुए रुककर कहा - हमारा शौक है, हमने किया और कोई बुरा शौक तो है नहीं। साहब औरों के फादर-मदर्स होते हैं, तो लड़कों के शौक पर खुश होते हैं... और एक हमारी किस्मोत है कि...
तुम सिर्फ अपनी ही खुशी को देखते हो, भोला। तुमने यह नहीं देखा कि फूफाजी कितने धैर्य और संयम से तुम लोगों की इन हरकतों को सहन करते हैं।
खाक धूल है... संयम है! हजारों तो गालियाँ दे डालीं हम लोगों को!
और बदले में तुमने उनके ऊपर कुतिया छोड़ दी?
ऐसी ही बहुत शुद्धता का घमंड है, तो अपनी तरफ दीवार उठवा लें। हम जो हमारे जी में आएगा करेंगे और अब तो बढ़-चढ़कर करेंगे।
यह तो लड़ाई की बात हुई, समझौता नहीं हुआ।
जी, हाँ, हम तो खुलेआम कहते हैं कि हमारा और दादा का समझौता नहीं हो सकता। इस मामले में मेरी और त्रिभुवन की राय एक है। मगर वे हमारे 'प्रोग्रेसिव' खयालात को नहीं देख सकते, तो उनके लिए हमारे घर में कोई जगह नहीं है।
भोला! - बड़ी देर से गर्दन झुकाए, खामोश बैठी हुई माँ ने काँपते स्वार में और भीख का सा हाथ बढ़ाते हुए कहा - बेटा, उनके आगे ऐसी बात भूल से भी न कह देना। तुम्हाेरे पैरों...।
कहूँगा, और हजार बार कहूँगा! अब तो हमारी उनकी ठन गई। वो हमारे लड़कों-बच्चों. का पहनना-ओढ़ना नहीं देख सकते, हँसता-खेलना नहीं बर्दाश्त कर सकते, हम लोगों को बर्दाश्तच नहीं कर सकते, तो मैं भी उनके धर्म को ठोकर मारता हूँ। उनके ठाकुर, पोथी, पुराण सब मेरे जूते की नोक पर हैं।
माँ की आँखों से बूँदें टपक पड़ीं। उन्हों ने अपना सिर झुका लिया। भोला की यह बदतमीजी इंद्रदत्त को बुरी तरह तड़पा रही थी। स्व़र ठंडा रखने का प्रयत्नझ करते सनक भरी हँसी हँसते हुए बोले - अगर तुम्हाीरी यही सब बातें नए और 'प्रोग्रेसिव' विचारों का प्रतिनिधित्वत वाकई करती हों, इसी से मनुष्य़ सुशिक्षित और फैशनेबिल माना जाता हो, मैं कहूँगा कि भोला, तुम और तुम्हारी ही तरह का सारा-नया जमाना जंगली हैं। बल्कि उनसे भी गया-गुजरा है। तुम्हािरा नया जमाना न नया है, न पुराना। सभ्य ता सामंतों, पैसेवालों के खोलने जोम से बढ़कर कुछ भी नहीं है। तुम्हायरे विचार इनसानों के नहीं, हैवानों के हैं।
इंद्रदत्त स्वांभाविक रूप से उचित हो उठे।
खैर, आपको अपनी इनसानियत मुबारक रहे। हम हिपोक्रेट लोगों को खूब जानते हैं और उन्हें दूर ही से नमस्काैर करते हैं। भोलाशंकर तमककर खड़े हुए, तेजी से बाहर चले, दवारजे पर पहुँचरकर माँ से कहा - तुम दादा को समझा देना, अम्मा।। मैं अनशन की धमलकियों से जरा भी नहीं डरूँगा। जान ही तो देंगे... तो मरें न। मगर मैं उनको यहाँ नहीं मरने दूँगा। जाएँ गंगा किनारे मरें... यहाँ उनके लिए अब जगह नहीं है।
पर यह घर अकेला तुम लोगों का ही नहीं है।
खैर, यह तो हम कोर्ट में देख लेंगे, अगर जरूरत पड़ी तो। लेकिन मेरा अब उनसे कोई वास्ताज नहीं रहा।
भोलाशंकर चले गए। बुआजी चुपचाप सिर झुकाए टप्-टप् आँसू बहाती रहीं। इंद्रदत्त उत्तेजित मुद्रा में बैठे थे। जिनके पास किसी वस्तु विशेष का अभाव रहा हो, उसके पास वह वस्तुि थोड़ी-सी ही हो जाए, तो बहुत मालूम पड़ती है। इंद्रदत्त के लिए इतना क्रोध और उत्तेजना इसी तरह अधिक प्रतीत हो रही थी। पल भर चुप रहकर आवेश में आ बुआजी के हाथ पर हाथ रखते हुए कहा - तुम और फूफाजी मेरे घर चलकर रहो, बुआ! वह भी तो तुम्हाजरा ही घर है।
तुम अपने फूफाजी से भोला की बातों का जिकर न करना, बेटा।
नहीं।
तुम अपने फूफाजी का किसी तरह से यह बरत तुड़वा दो, बेटा तुम्हें बड़ा पुन्न होगा। तुम्हें मेरी आत्माी उठते-बैठते असीसेगी, मेरा भैया।
मैं इसी इरादे से आया हूँ। तुम भी चलो, बुआ, तुम्हाीरा चेहरा कह रहा है कि तुम भी...!
अरे, मेरी चिंता क्या है?
हाँ, तुम्हािरी चिंता नहीं। चिंता तो तुम्हेंे और फूफाजी को करनी है... मेरी ओर से।
तुम दोनों के भोजन कर लेने तक मैं भी अपने प्रण से अटल रहूँगा।
बुआजी एक क्षण चिंता में पड़ गईं। फिर मीठी वाणी में समझाकर कहा - देखो, भैया इंदर, मेरे लिए जैसे भोला-तिरभुवन, वैसे तुम। जैसा ये घर, वैसा वो। आज तुम अपने फूफाजी को किसी तरह जिमा लो। उनके बरत टूटते की खबर सुनते ही, तुम्हाघरी कसम, मैं आप ही ठाकुरजी का भोग पा लूँगी। लेकिन इसी घर में। किसी के जी को कलेस हो बेटा, ऐसी बात नहीं करनी चाहिए। क्याप कहूँ, तेरे फूफाजी का क्रोध मेरी कुछ चलने नहीं देवे है। अपने जी को कलेस देवे हैं, सो देवे हैं, बाकी बच्चों के जी को जो कलेस लगै है, उसके लिए तो कहा ही क्याज जाए! कलजुग कलजुग की तरै से चलेगा, भैया!
इंद्रदत्त कुछ देर तक बुआ के मन की घुटन का खुलना देखते रहे।
पंडित देवधरजी भट्ट ने नित्यक-नियम के अनुसार झुटपुटे समय अपने भतीजे के आँगन में प्रवेश कर आवाज लगाई-इंद्रदत्त !
आइए, फूफाजी!
सँकरे, टूटे, सीलन-भरी लखौटी-ईंटों पर खड़ाऊँ की खट-खट चढ़ती गई। इंद्रदत्त कटहरे के पास खड़े थे। जीने के दरवाजे से बाहर आते हुए पंडित देवधर उन्हेंख दिखलाई दिए। उनके भस्म- लगे कपास और देह पर पड़े जै शिव छाप के दुपट्टे में उनकी देह से एक आभा-सी फूटती हुई उन्हेंम महसूस हो रही थी। फूफाजी के आते ही घर बदल गया। उन्हेंन देखकर हर रोज ही महसूस होता है, पर आज की बात तो न्याारी ही थी।
फूफाजी के चार दिनों का व्रत आज उनके व्यहक्तित्व को इंद्रदत्त की दृष्टि में और भी अधिक तेजोमय बना रहा था। फूफाजी को लेकर आज उनका मन अत्यंत भावुक हो रहा था, पीड़ा पा रहा था। इंद्रदत्त ने अनुभव किया कि फूफाजी के चेहरे पर किसी प्रकार की उत्तेजना नहीं, भूख की थकान नहीं। चेहरा सूखा, कुछ उतरा हुआ अवश्यर था; परंतु मुख की चेष्टाथ नही बिगड़ी थी। पंडित देवधर की यह बात इंद्रदत्त को बहुत छू रही थी।
पंडित जी आकर चौकी पर बैठ गए। इंद्रदत्त उनके सामने मूढ़े पर बैठे। घर बनने के कारण उनका बैठका उजड़ गया था। अभ्या गत के आने पर इंद्रदत्त संकोच के साथ इसी टूटे कमरे में उसका स्वाागत करते। फूफाजी से तो खैर संकोच नहीं। पंखे का रुख उन्होंइने उनकी ओर कर दिया और फिर बैठ गए। कुछ देर तक दोनों ओर से खामोशी रही, फिर फूफाजी ने बात उठाई - तुम अभी घर गए थे, सुना।
जी हाँ।
तुम्हा।री बुआ मुझसे कह रही थीं। मैंने यह भी सुना है कि तुम मेरे कारण किसी प्रकार का बाल हठ करने की धमकी भी दे आए हो।
पंडित देवधर ने अपना दुपट्टा उतार कर कुर्सी पर रख दिया। पालथी मारकर वे सीधे तने हुए बैठे थे। उनका प्रायः पीला पड़ा हुआ गोरा बदन उनके बैठने के सधाय के कारण ही 'स्पिरिचुअल' जँच रहा था, अन्य था उनका यह पीलापन उनकी रोगी अवस्थाे का भी परिचय दे रहा था।
इंद्रदत्तय ने सध-सधकर कहना शुरू किया - मेरा हठ स्वातंत्र नहीं, बड़ों के हठ में योगदान है।
इन बातों से कुछ लाभ नहीं, इंद्र। मेरी गति के लिए मेरे अपने नियम हैं।
और मेरे अपने नियम भी तो हो सकते हैं।
तुम्हें स्वा धीनता है।
तब मैंने भी यदि अनशन का फैसला किया है, तो गलत नहीं है।