अरे तेरे फूफाजी रिसी-मुनी हैंगे बेटा! बस इन्हेंआ क्रोध न होता, तो इनके ऐसा महात्मां नहीं था पिरथी पे। क्याअ करूँ, अपना जो धरम था निभा दिया। जैसा समय हो वैसा नेम साधना चाहिए। पेट के अंश से भला कोई कैसे जीत सके है।
फूफाजी आखिर कितने दिन बिना खाए चल सकेंगे। बुढ़ापे का शरीर है...
बोई तो मैं भी कहूँ हूँ, बेटा। मगर इनकी जिद के अगाड़ी मेरी कहाँ चल पावे है? बहोत होवे है, तो कोने में बैठके रोलू हूँ।
कहते-कहते बुआजी का गला भर आया, बोलीं - इनके सामने सबको रखके चली जाऊँ तो मेरी गत सुधार जाए। जाने क्याक-क्याब देखना बदा है लिलार में! - बुआजी टूट गई, फूट-फूटकर रोने लगीं।
तुम फिकर न करो, बुआजी। इतने दिनों तक तो मालूम नहीं था, पर आज से फूफाजी के खाने-पीने का सब इंतजाम हो जाएगा।
डॉक्ट र इंद्रवत शर्मा के युनिवर्सिटी से लौट कर आने पर चाय पीते समय उनकी पत्नीन ने सारा हाल कह सुनाया। इंद्रदत्त सन्न् रह गए। प्रेयसी के समान मनोहर लगनेवाली चाय के हठ को पहचानते थे। फूफाजी बिना किसी से कुछ कहे-सुने इसी प्रकार अनशन कर प्राण त्यायग कर सकते हैं, फूफाजी बिना किसी से कुछ कहे-सुने इसी प्रकार अनशन प्राण त्यानग कर सकते हैं, इसे इंद्रदत्त अच्छीा तरह जानते थे। उनके अंतर का कष्ट चेहरे पर तड़पने लगा। पति की व्यरथा को गौर से देखकर पत्नीी ने कहा - तुम आज उन्हेंु खाने के लिए रोक ही लेना। मैं बड़ी शुद्धताई से बनाऊँगी।
प्रश्न यह है वे मानेंगे भी? उनका तो चंद्र टरै सूरज टरैवाला हिसाब है।
तुम कहना तो सही।
कहूँगा तो सही, पर मैं जानता हूँ। लेकिन इस तरह वे चलेंगे कितने दिन? भोला को ऐसा हठ न चाहिए।
भोला क्या करें। कुतिया के पीछे-पीछे घूमते फिरें? शौक है अपना और क्या ? फूफाजी को भी इतना विरोध न चाहिए।
फूफाजी का न्याीय हम नहीं कर सकते।
अभी मान लो तुम्हाारे साथ ही ऐसी गुजरती?
मैं निभा लेता।
कहना आसान है, करना बड़ा मुश्किल है। फूफाजी तो चाहते हैं सबके सब पुराने जमाने के बने रहें। चोटी जनेऊ, छूतछात, सिनेमा न जाओ और घूँघट काढ़ो, भला ये कोई भी मानेगा?
मेरे खयाल में फूफाजी इस पर कुछ...
भले न कहें, अच्छाछ तो नहीं लगता।
ठीक है। तुम्हें भी मेरी बहुत-सी बातें अच्छीो नहीं लगतीं।
कौन-सी बातें?
मैं शिकायत नहीं करता। उदाहरण दे रहा हूँ, ठीक-ठीक एक मत के कोई दो आदमी नहीं होते। होते भी हैं, तो बहुत कम, पर इससे क्याा लोगों में निभाव नहीं होता? भोला और उसकी देखदेखी त्रिभुवन में घमंड आ गया; माँ-बाप को ऐसे देखते हैं, जैसे उनसे पैदा ही नहीं हुए। फूफाजी हठी और रूढ़िपंथी हैं सही, पर एकदम अवज्ञा के योग्य नहीं। ये लोग उन्हेंै चिढ़ाने के लिए घर में प्या ज, लहसुन, अंडा, मछली सब कुछ खाते हैं। फूफाजी ने अपना चौकाघर ही तो अलग किया। किसी से कुछ कहा-सुना तो नहीं?
स्वनभाव से शांत और बोलने में मितव्यहयी इंद्रदत्तस इस समय आवेश में आ गए थे। फूफाजी के प्रति उसका सदा से आदरभाव था। लोक उनका आदर करता है। इधर महीनों से इंद्रदत्त के आग्रह पर पंडित देवधरजी प्रतिदिन शाम के समय दो-ढाई घंटे उनके घर बिताते हैं। कभी भागवत, कभी रामायण, कभी कोई पौराणिक उपाख्या।न चल पड़ता है। पंडितजी अपनी तरह से कहते हैं, इंद्रदत्त उनके द्वारा प्राचीन समाज के क्रम-विकास के चित्र देखता, उनसे अपने लिए नया रस पाता। कभी-कभी बातों के रस में आकर अपने राजा-ताल्लुककेदार यजमानों के मजेदार संस्मिरण सुनाते हैं,कभी उनके बचपन और जवानी की स्मृपतियों तक से टकराती हुई पुरानी सामाजिक तस्वी रें, इन मुहल्लों् की पुरानी झाँकियाँ सामने आ जाती हैं। फूफाजी के अनुभवों से अपने लिए ज्ञान-सूत्र बटोरते हुए उनके निकट संपर्क में आकर इंद्रदत्त को आदर के अलावा उनसे प्रेम भी हो गया है।
इंद्रदत्त की पत्नी् के मन में आदर भाव तो है, पर जब से वे बराबर आकर बैठने लगे हैं, तब से उसे एक दबी ठंडी शिकायत भी है। पति के साथ घड़ी दो घड़ी बैठकर बातें करने, कैरम या चौसर खेलने या अपने पैतृक घर के संबंध में जो अब नए सिरे से बन रहा है, सलाह-सूत करने का समय उसे नहीं मिल पाता। अपनी छोटी देवरानी त्रिभुवन की बहू से बड़ा से बड़ा नेह-हेत होने के कारण उसकी बातों में विश्वाअस रखकर वह फूफाजी के पुरानेपन से किसी हद तक फिरंट भी है। इसलिए जब इंद्रदत्त ने यह कहा कि घर में मांस-मछली के प्रयोग के बाद फूफाजी ने अपना चौका अलग कर लिया, मगर कुछ बोले नहीं, तो उनकी पत्नी् से रहा नहीं गया। कहने लगी - तो उन लोगों से - अरे पोते-पोतियों तक से तो बोलते नहीं, फिर शिकायत किससे करेंगे।
फूफाजी को पहचानने में बस यहीं तुम लोग गलती करते हो। उनका प्रेम प्रायः गूँगा है। मैंने अनुभव से इस बात को समझा है। बंद रहने पर भी झिरझिरे दरवाजों से जिस तरह लू के तीर आते हैं, संयमी इंद्रदत्त के अंतर में उद्वेग इसी तरह प्रकट हो रहा था।
पत्नी ने पति के रुख पर रुख किया; तुरंत शांत और मृदु स्वआर में कहा - मैं फूफाजी को पहचानती हूँ। उनके ऐसे विद्वान की कदर उस घर में नहीं। उनका प्रेम तुम जैसों से हो सकता है। तुम चिंता न करो। बरत आज पूरा हो जाएगा।
- मान जाएँगे? पत्नी के चेहरे तक उठी इंद्रदत्त की आँखों में शंका थी, उनका स्वजर करुण था।