तारा जब दीदी के कमरे में पहुँची तो वह अखबार से मुँह ढाँके सो रही थी। लैंप सिंगारदान की मेज पर रखा था और दीदी के पलंग पर काफी अँधेरा हो चुका था। दबे पाँव तारा बढ़ने लगी। लैंप उठाकर पलंग के पासवाले स्टूपल पर रखा, फिर धीरे से दीदी के पलंग पर बैठ गई।
तारा ने दीदी के चेहरे से अखबार हटाया। ऐसा मालूम होता था कि जैसे वह देर से सो रही हैं।
अखबार को देखकर तारा मन ही मन तड़प उठी। उसने दीदी की तरफ देखा। दीदी का सिंगार अपनी ताजगी की गवाही दे रहा है। तारा अपनी सारी चतुराई भूलकर सिर से पैर तक आग हो गई। अब तक वह इस मामले को हद से ज्यादा बहाली देती आई है, लेकिन उसके पति के आने के कुछ देर पहले तक उसके सुहाग की राह में कोई यों धरना देके बैठ जाएँ, इसे तारा किसी भी सूरत से बर्दाश्त नहीं कर सकती। मगर उनके आने के दिन वह कोई अमंगल नहीं करना चाहती। अपने गुस्सेा पर काबू पाने के लिए उसने बड़ी गंभीरता से काम लिया। उसके जी में आया कि उठकर चली जाए। पर बिना दीदी को जताए हुए जाना भी उसे अच्छा नहीं लगा। वह दीदी से सामना करके ही अपना अखबार ले जाना चाहती थी और उसने दीदी का हाथ झिंझोड़ा।
दीदी की नींद खुल गई। सामने थी तारा।
तारा ने छूटते ही कहा - जिसकी राह देखी जाती है, उसके सपने नहीं देखे जाते, दीदी। उठो, हाथ-मुँह धो, एक बार और सिंगार कर डालो। कहकर तारा मुस्क रा दी।
दीदी को चौंकाने के लिए यह सबसे बड़ा तमाचा था। भीतरी मार की तिलमिलाहट के साथ अब तानों के तीर सँभालती है और वह भी खास तौर से उन पर।
दीदी ने तारा के हाथ में अखबार देखा। मन हारने लगा, लेकिन अपनी बेशर्मी को जिद के साथ निभाते हुए वह उठ बैठी। दोनों हाथ सिर के बालों पर फेरते हुए जवाब दिया - मेरे पास सिंगार कहाँ? जिनके पास तरह-तरह की साड़ियाँ हो, सेट के सेट गहने हों, वे करें। मैं मास्टारनी हूँ, मेरा सिंगार विद्या है।
तारा दीदी के अचरज और गुस्सेर को और भी बढ़ाते हुए बोली - विद्या जिनके तन का सिंगार हो, उनका मन तो कोरा रहेगा ही। कहते हैं, रावण भी बड़ा पंडित था, दूसरे की पत्नीन को भगा ले गया था।
लैंप की मद्धिम रोशनी में तारा को दीदी का अकबकाया हुआ चेहरा अच्छास लगा। उसे अपने आप पर घमंड हुआ और उसी जीत के साथ उसने उठना चाहा।
दीदी ने भार से हल्केक होते हुए पूछा - जा रही हो?
तारा इस पर जम गई। विचार और मुँह की बात तुरंत बदलते हुए तारा ने हँसकर कहा - मैं कहाँ जाऊँगी भला? स्टूकल सरकाने जा रही हूँ। तेज रोशनी में अखबार पढ़ूँगी।
ऊपर से अपने को सँभालते हुए रहने पर भी तारा मन ही मन में बेकाबू हुई जा रही थी। दीदी पर अपनी जलन निकालते हुए वह अपने-आप से बेबस थी। दिमाग तीर की तरह छूट रहा था।
दीदी तारा के इस नए रुख को देखकर डर गई थी। वह आखिर इस वक्त क्यों आई है? उसकी नजरें साफ नहीं। उनकी मुस्कुराहट जहर की बुझी हुई है। उसकी हर बात एक ठने हुए कदम की तरह उठती है। दीदी यों अचानक अपने घिर जाने की उम्मीहद नहीं करती थी, वह भी खासतौर से तारा की तरफ से। गाय कसाई की छुरी पर हमला कर बैंठे, यह एक अनहोनी-सी बात थी। दीदी किसी तरह इस मुसीबत से छुटकारा पाना चाहती थी। तारा का सामना करते हुए दीदी को एक अजीब किस्मी की कमजोरी का अनुभव हो रहा था। यह उनकी आदत और मर्जी के खिलाफ था। जिस समस्याज का दीदी कभी अपने सपनों तक में इतनी गंभीरता से सामना करने को तैयार नहीं हुई थी, उसके लिए वह जवाब क्यों दें? और बात का सामना भी क्यों कर करें?
दीदी ने फौरन हँसकर परिस्थिति को हल्कात बनाया। वह बोली - अरे, अब जिन्हें हरदम अपनी नजरों के इशारे पर सलाम करते देखोगी, उन्हें अखबारों में क्या देखना!
दीदी की खुशामद को तारा पहचान गई, मगर जी का तनाव अभी भी कम नहीं हुआ था। जीत पर जीत का जोम बढ़ा। यह उस डर का जवाब था, जो दीदी की छाया बनकर आठ पहर उसे घेरे रहता था। तारा ने लैंप की बत्ती जरा और ऊँची की और अखबार सामने फैलाकर उसमें नजर गड़ाते हुए हुए कहा - सलाम गैर से लिए जाते हैं, अपनों से कोई इसकी इच्छाए नहीं रखता।
कहकर तारा अखबार पढ़ने लगी। दीदी उसकी ओर देखने लगी। बात दोनों तरफ से खत्मअ हो गई।
दीदी बैठी रही, फिर धीरे-धीरे करीब खिसक आई और तारा के साथ अखबार देखने लगी।
एक शीर्षक था, 'कामंस सभा में श्रीमती लीमैनिंग रो पड़ी।'
दीदी पढ़ने लगी - आज रात पार्लमेंट की एक सदस्याड श्रीमती लीमैनिंग कामंस सभा में पुरुषों द्वारा लड़ाई के मसले पर बहस किए जाने पर रो पड़ीं।
उन्होंकने विश्वए शांति की हिफाजत के लिए स्त्रियों के कार्यक्रम का ब्यौनरा देते हुए कहा कि शांति का काम पुरुष नहीं कर सकते। यह अब स्त्रियों की जिम्मेलदारी है। अतएव मैं एक अंतर्राष्ट्री य-महिला-शांति-आंदोलन का संगठन करने जा रही हूँ।
दीदी को इस खबर से बात का सहारा मिला। तारा के एकाएक अधिकार-तेज में आ जाने से दीदी चार नजरों में गुनहगार साबित हो गई थी। वह अपने-आप में बड़ा बेपनाह महसूस कर रही थी। अपने बीच की लड़ाई पर शांति की खबर का गिलाफ चढ़ाते हुए उन्होंाने कहा - सच है, लड़ाई पुरुष ही करते हैं। शांति का काम औरतें ही कर सकती हैं।
तारा बोली - किसी का ठेका नहीं है। लड़ाई वही करता है, जो झूठा घमंड करता है - चाहे औरत हो या मरद।
दीदी खिसियाते हुए बोलीं - मैं दुनिया की बात करती हूँ। अखबार उठाओ, जहाँ देखो वही लड़ाई तबाही... यह भी भला कोई जीवन है!
तारा ने सिर उठाकर दीदी की ओर देखते हुए तमक के साथ जवाब दिया - यही बात जब मैं कहती थी, तब तुम राष्ट्रे और सिद्धांत और न जाने क्या -क्याै बालिस्टलरी करके लड़ाई का पक्ष लेती थी।
दीदी ने फिर मात खाई। दीदी तारा से सहमी जा रही थी। एक हद से ज्यादा उनके मिजाज के लिए यह कतई नागवार था। उनमें तड़प आई, बोली - हाँ, मैं राष्ट्रक और सिद्धांत के नाम पर अब भी लड़ाई का पक्ष लेती हूँ। दुनिया के समाज में अभी भी जंगली आदतों का जोम बढ़ा-चढ़ा है। पशुबल बुद्धि और सच्चाई, नीति वगैरह को नहीं मानता। इसलिए फौज की शक्ति से उसे खत्म- करना ही होगा।
"तो यह पशुबल क्योंी बढ़ा है?" तारा ने पूछा - "अब तो दुनिया में इतने पढ़े-लिखे विद्वान लोग हैं, उनके हाथ सारी दुनिया की बागडोर है। फिर भी पशुबल कैसे बच जाता है?"
दीदी बोली - "दुनिया में अनपढ़-गँवारों की गिनती के सामने पढ़े-लिखे, सभ्य- बहुत कम लोग हैं।"
तारा तड़पकर बोली - "और जो पढ़े-लिखें सभ्य लोग हैं, वे ही क्यात सभ्ययता दिखला रहे हैं? पराया हक डकार जाना, जब रामगुहार मचाओ तो लाल-पीली आँखें दिखाकर कहना कि हम पढ़े-लिखे सभ्य हैं। वारी जाऊँ तुम्हा री इस पढ़ी-लिखी सभ्यीता पर। झूठा घमंड करना, फिर अपने मगज में से लड़ाई के तार निकालना। ऊपर से शांति की बात चलाना। उँह!"
तारा अखबार उठाते हुए उठ खड़ी हुई।