shabd-logo

पाँचवा दस्ता भाग 5

25 जुलाई 2022

22 बार देखा गया 22

जब तारा सुहागवती हुई और अपनी माँ के घर की महारानी बनी, तो मलकिन का मन औरत वाले कोठे पर चढ़ गया। मलकिन को यह अच्छाे नहीं लगता था कि उनके घर में कोई उनसे भी बड़ा हो। बेटी से एक जगह मन ही मन चिढ़कर वह रोज बेटे के ब्याउह और बहू की बात चलाती थी। उसके अच्छेस से अच्छे  काम पर भी कुछ न कुछ बुरी बात चिपका ही देती। जी की जलन को माँ की सिखावन का जामा पहनाने में मलकिन को आड़ मिलती। दीदी भी अपने मास्टारनी होने का फायदा उठाकर तारा पर हुकूमत का हक-सा चाहती थी। तारा एक हद से ज्यादा इस मन में न समाने वाले भार को थकी हुई श्रद्धा के साथ निभाती चली गई और इस तरह धीरे-धीरे अपने-आप पर अनुचित दबाव डालने के कारण वह खुद अपने से ही दहलने लगी। तारा इससे नफरत करती।

तारा को चीजों से नफरत होने लगी। यों तो वह माँ को भी अब नहीं बर्दाश्त  कर सकती, मगर दीदी की हुकूमत को तो वह अब किसी सूरत से भी पचा नहीं पाती थी। वैसे तारा इतने दिनों में ही बड़ी दुनियादार बन गई है। वह जबान पर लगाम रखकर बात करना जानती है। उसकी यही चतुराई दीदी और उसके बीच का काँटा थी।

तारा सब बातों पर बहुत सोचा करती है। उसका बस तो किसी पर चलता नहीं। हाँ, अपने को जैसा सूझता है, सँभालती-साधती चली जाती है। दद्दू या भैया जब कभी रोटी खाने बैठें तो पटरा खुद बिछाने की ताक में रहे, पानी भर कर रखे। छुटकऊ के लिए नित नए कपड़े, किताबें, खेल वगैरह शहर से मँगाती रहे। गाँव-पड़ोस में, मिलने-जुलने में, सब से बहुत सँभलकर चलने लगी, जिससे कोई बेगानापन न माने।

घमंड को झुकाने के लिए जहाँ इस तरह सचेत रहते हुए उसमें विनय आई, वहाँ अपने-आप के लिए छोटेपन का अहसास भी हुआ। अपने ऊपर से भरोसा हिल गया और उसी को जताने के लिए तारा ज्यादा से ज्यादा सचेत रहती, जरूरत से ज्यादा चौकन्नीे।

मन के इस चौकन्ने पन से उसका चैन खो गया था और वह मन ही मन एक जगह बेहद उलझने लगी-खोने लगी - थकने लगी। इस खोयेपन से उसे हरदम घबराहट होती। वह अपने-आपको निकम्मीग समझकर हठ के साथ ज्यादा से ज्यादा मेहनत करने की कोशिश करती।

अपने पति के मन-माफिक बनने के लिए तारा ने जी-जान एक कर डाले। जब से दीदी आई, तारा अपने पति को पाने के लिए लगन के साथ दीदी की बताई राह पर ही चलने को अपना फर्ज मानने लगी थी। शहर की बोली सीखने में उसे कितना सिर खपाना पड़ा। पहले 'सहर' से 'शहर' कहते न बन पड़े और दीदी हँसें। उनकी चिट्ठियाँ आने लगी और तारा को जवाब देने का हियाव न पड़े। चिट्ठी लिखने के लिए दीदी रोज कोंचकोंच करें। एक दिन खुद चिट्ठी लिख दी और तारा से कहा कि अपने हाथ से नकल कर के भेज दो। तारा को उस दिन कैसे धरम-संकट का सामना करना पड़ा था। न जाने क्याल-क्या  बातें उसे अपनी तरफ से, अपने हाथ से नकल करके भेजनी पड़ी थी। खत के जवाब में पति बहुत खुश होकर लिखने लगे। ऐसे ही धीरे-धीरे हौसला खुलने लगा। तारा ने यह महसूस करना शुरू किया कि चिट्ठियाँ तो वह जरूर लिखती है, लेकिन उनके साथ किसी किस्मम का भी लगाव वह नहीं महसूस कर पाती। इसीलिए अपने खतों के जवाब में पाए हुए पति के पत्र भी उसे अपनापन नहीं दे पाते थे। दीदी कहती थी कि प्रेम की चिट्ठियाँ ऐसे ही लिखी जाती हैं और इन चिट्ठियाँ की बदौलत ही तो कर्नल तिवारी उससे खुश हुए हैं।

तारा उलझ गई। अपने से खीझकर अंत में उसने तय किया कि वह अपने मन से चिट्ठी लिखेगी।

दीदी प्राणनाथ लिखवाती थी, इसलिए लिखती थी, मगर उस दिन जब उसने मन से प्राणनाथ लिखा तो पुलक गई, लाज की सिहरन से छक गई। उसने लिखा - भूल-चूक को क्षमा कीजिएगा। जो गलती हो सुधार लीजिएगा। आप बड़े हैं। अब तक दीदी जैसा लिखाती थी, वैसा लिखती थी। उससे आप तो बहुत राजी-प्रसन्ऩ जान पड़ते थे, पर मेरा जी कचोटता था। इसलिए आज अपने-आप लिख रही हूँ। आपको ऐसा पत्र अच्छास न लगे तो लिख दीजिएगा। मैं वैसा ही लिखा करूँगी। मैं अनजान-गँवार हूँ। आपकी वजह से मुझे चार में मान मिलता है। चार मेरी बात पूछते हैं। सो आपको जिसमें सुख मिलेगा वही करना मेरा धर्म है। जवाब में कर्नल तिवारी का खत आया, पूरे दस सफे का।

तारा ने दीदी की आँखों में उसी दिन से काट महसूस की। तारा के अंदर की औरत जाग उठी। पति के खतों को फिर से दीदी के रस का साझीदार न बनने दिया। दोनों में एक खामोश-सी गाँठ पड़ गई थी। बनावट और रस्मिया-प्रेम एक दूसरे पर आँखों में जाहिर होने लगा था - दीदी की तरफ से ज्यादा। तारा ने दीदी को अपनी मर्जी पर अधिकार करने से रोक दिया।

लेकिन यह बताए कौन? उसे दीदी पर गुस्साि आ गया। अपने ऊपर गुस्सा् आ गया। क्यों  उसने दीदी से खुल्ल मखुल्लाड रार मोल ली? हालाँकि उसने दीदी को चले जाने के सिवा और कुछ भी नहीं कहा और इतना कह देना कोई गुनाह नहीं है। दीदी तो उसे पति को छीनने की धमकी तक दे चुकी हैं। इस बातों के मुकाबले में तो तारा ने कोई भी सख्त बात नहीं कही।

अँधेरी रात को बरसाती नदी में डूबते हुए प्राणी की तरह तारा लाचार थी। किनारे पर आ जाने के लिए उसने कितनी कोशिश की, मगर हर बात अँधेरे में डुबाव की तरफ ही ज्या दा बढ़ गई। तारा इस वक्त भी बचना चाहती है। इस वक्त तो तारा खासतौर से बचना ही चाहती है। उसे बना ही होगा। उसे अपने पति की रानी बनना ही होगा।

इच्छाप की तेजी और मन की बेबसी से उनके रोएँ भर आए। माथे पर पसीने की बूँदें और आँखों में आँसू झलझला आए। एक भरी-भरी ठंडी साँस छोड़ती हुई वह पागल की तरह अपने-आप ही कह उठी, "नहीं।"

नहीं, वह इस समय रोना नहीं चाहती। अपने पति के आने की शुभ घड़ी में वह कोई अमंगल नहीं चाहती, न अपना, न विराना।

तेजी के साथ उसके दिमाग में आया कि वह चलकर दीदी से माफी माँगे। शायद उसक माफी माँगने से दीदी को भी अपनी गलती का ध्याेन हो जाएँ और फिर वह इस तरह आड़े न आएँ, उसे इस तरह तबाह न करें।

पति के मंगल और अपनी दीनता के भार से दबी हुई, मन की हिचक और नामुरादी के साथ-साथ तारा उठी।

दीदी अपने-आप पर झुँझला उठी। गुनाह क्याल इतना बड़ा बोझ है कि उम्र-भर को सिर ही सीधा न कर सके? किसी सूरत से बात का निकास होना चाहिए।

शेड पड़ा हुआ लैंप दोनों के बीच में था। धीमे उजाले में दोनों एक-दूसरे की निगाहों को तेजी से पहचान रही थी।

दीदी स्टू ल के सामने से घूमकर आगे बढ़ी, तारा का हाथ पकड़कर खड़ी हो गई। कहा, "सुनो तारा रानी! हमारे तुम्हाारे बीच में एक गलतफहमी खेल रही है। मैं अपनी हालत साफ कर दूँ। मैं अपनी कमजोरी से परेशान हूँ। इस बात को आज से पहले साफतौर से मैं नही मानती थी। मैं मानती थी कि मेरे जीवन में अभाव हैं, इन अभावों की जानकारी से कतरा जाने के लिए मैं अपने मन में बहुत से तर्क बना लिया करती थी! मैं सच को जानती थी। उसके बारे में मुझे कभी एक सेकेंड के लिए भी शक नहीं था। मगर ऊपरी तौर पर एक बहक, झक सवार हो गई थी। मैंने तुम्हेंए बहुत तकलीफ दी है। मेरी नासमझी-लापरवाही गुनहगार है। आज से तुम मेरे बारे में अपना दिल साफ रख सकती हो।"

तारा दीदी को देखती रही। सीधी लकीर की तरह दीदी बोलती चली गई। तारा चुप रही।

कहकर दीदी भी चुप हो रहीं।

तारा ने पूछा, "सच मानूँ?"

"तुम्हाछरी मर्जी।" दीदी ने तारा का हाथ धीरे से छोड़ दिया।

"दीदी, आज से तुम मेरी जान से बढ़कर हो गई।"

वह सचमुच बहुत सुखी हो गई। उसके पति के आने के दिन कोई अमंगल नहीं हुआ।

काले-सफेद बादलों और तारों की चमक लिए हुए रात आ रही थी। दोनों तरफ काले-पेड़ों की कतार लिए कँकरीली, गड्ढों-खाँचों से भरी सड़क पर दूर से आती हुई मोटर की रोशनी फिसलने लगी। खेतों में भरे हुए पानी पर, इधर-उधर फैले हुए दरख्तों पर, तारों की साँवली रोशनी, मौसम में उमस होते हुए भी ठंड लगती थी। साँपों की तेज-मंद सीटियाँ, छोटे-बड़े मेंढकों की टर्राहट और तरह-तरह के झींगुरों-झिल्लियों की झनकारों से सन्नामटे में समा बँध रहा था।

कार सिमरौली की तरफ बढ़ रही थी। कार एक छोटी पुलिया के ऊपर से होकर गुजरी। सामने खेतों में भरे हुए पानी पर शुक्र तारे की रोशनी चमक रही थी। आसपास के बादलों के बीच में साफ नीले आसमान का टुकड़ा जगमगा रहा था। ये तारे जमीन के जर्रे-जर्रे की किस्म त के ठेकेदार माने जाते हैं। मगर दुनिया के कानून से ये तारे बिक चुके हैं। जिसकी जमीन होती है, उसी का आसमान भी माना जाता है और जमीन का जर्रा-जर्रा इस दुनिया के कानून से सदा के लिए सट्टे के बाजारों में बिक चुका है।

पेड़ के पास चबूतरे पर बने एक छोटे-से मंदिर में जलता हुआ दीया अँधेरी रात को अपनी तरफ खींच रहा था। सामने किसी पुराने जमींदार की गढ़ी के खंडहर रात की तारीकी को ओढ़े हुए खड़े थे। किसी वक्त में इन खंडहरों के मालिक ही जमीन के मालिक होते थे और आसमान के सितारे आमतौर पर उनके मददगार रहते थे। इन खंडहरों के महलों में भी कभी झाड़फानूसों की रोशनी में इत्र महके हैं और शराब से फर्श धुले हैं। इन खंडहरों की हवा में कभी श्यााम कल्या ण, शुद्ध कल्याझण, भैरव, भैरवी, ध्रुपद, धमार, ठुमरी, टप्पे , दादरे, गतों, गजलों के बोल बसे हैं। कामिनियों के घुँघरुओं की झनकार से जमींदार का महल भर गया, और जमींदार के रुपयों की झनकार से साहूकार की हवेली का तहखाना गूँजने लगा।

पीपल की जड़ों की तरह अंदर ही अंदर हवेली के तहखाने भी फैलते-फैलते हर खेत-खलिहान और उन्हेंी जीतने-बोने वाले मेहनतकश किसानों की जिंदगी पर पुश्ते-दर-पुश्त  के करार के साथ छा गए। साँप अपने लिए बाँबी नहीं खोदता, वह चूहों के बिलों में रहता है और उन्हेंर मारकर अपना पेट पालता है।

शहर की कार गाँव में बढ़ रही थी। गाँव की मिट्टी, गाँव की मशक्कत और गाँव का अन्नं-धान्यल ही शहर में जाकर मशीन के पुर्जे बना, पुर्जो के कारखाने बना, मिल बना, बैंक बना, राजदरबार बना, दफ्तर-कचहरी बना-और छकड़ों कानूनों की रूह से अपने जिस्मे की हिफाजत और रोनक बढ़ाकर वही गाँव की मशक्कत मोटरकार के रूप में जमीन को रौंदती हुई बढ़ती जा रही थी। मोटरकार किसी भी कंपनी की बनी हो, उसका मालिक सट्टे का बाजार है। मोटर जिस किसी ने खरीदी हो, वह सट्टा बाजार का जरखरीद गुलाम है। सट्टे से बैंक चलते हैं, बैंकों से मिलें चलती हैं, मिलों से राजनीति और राजनीति से सारी दुनिया चलती है। इस चक्कहर में जिंदगी कोल्हूल के बैल की तरह आँखों में पट्टी बाँधे घूम रही है। उसे यह नहीं कि वह अपने चलने का मकसद पूछे, मंजिले-मकसूद पूछे।

कार तेजी से सिमरोली की तरफ बढ़ी जा रही है। सिमरौली ऊँचे पर, सामने है।

एक छकड़ा जा रहा है। कार की रोशनी में बैल, छकड़े का पटाव, लालटेन, और अंदर दो-चार बच्चेा-औरतें झलक गईं...

छकड़ा भी सिमरौली की तरफ जा रहा था। छकड़े से ऊँची टीप लग रही थी -

24
रचनाएँ
अमृत लाल नागर की कहानी संग्रह
0.0
अमृतलाल नागर हिन्दी के उन गिने-चुने मूर्धन्य लेखकों में हैं जिन्होंने जो कुछ लिखा है वह साहित्य की निधि बन गया है उपन्यासों की तरह उन्होंने कहानियाँ भी कम ही लिखी हैं परन्तु सभी कहानियाँ उनकी अपनी विशिष्ठ जीवन-दृष्टि और सहज मानवीयता से ओतप्रोत होने के कारण साहित्य की मूल्यवान सम्पत्ति हैं। फिर स्वतंत्र लेखन, फिल्म लेखन का खासा काम किया। 'चकल्लस' का संपादन भी किया। आकाशवाणी, लखनऊ में ड्रामा प्रोड्यूसर भी रहे। कहानी संग्रह : वाटिका, अवशेष, तुलाराम शास्त्री, आदमी, नही! नही!, पाँचवा दस्ता, एक दिल हजार दास्ताँ, एटम बम, पीपल की परी , कालदंड की चोरी, मेरी प्रिय कहानियाँ, पाँचवा दस्ता और सात कहानियाँ, भारत पुत्र नौरंगीलाल, सिकंदर हार गया, एक दिल हजार अफसाने है।
1

एटम बम

25 जुलाई 2022
2
0
0

चेतना लौटने लगी। साँस में गंधक की तरह तेज़ बदबूदार और दम घुटाने वाली हवा भरी हुई थी। कोबायाशी ने महसूस किया कि बम के उस प्राण-घातक धड़ाके की गूँज अभी-भी उसके दिल में धँस रही है। भय अभी-भी उस पर छाया ह

2

एक दिल हजार अफ़साने

25 जुलाई 2022
0
0
0

जीवन वाटिका का वसंत, विचारों का अंधड़, भूलों का पर्वत, और ठोकरों का समूह है यौवन। इसी अवस्था में मनुष्य त्यागी, सदाचारी, देश भक्त एवं समाज-भक्त भी बनते हैं, तथा अपने ख़ून के जोश में वह काम कर दिखाते

3

शकीला माँ

25 जुलाई 2022
0
0
0

केले और अमरूद के तीन-चार पेड़ों से घिरा कच्चा आँगन। नवाबी युग की याद में मर्सिया पढ़ती हुई तीन-चार कोठरियाँ। एक में जमीलन, दूसरी में जमलिया, तीसरी में शकीला, शहजादी, मुहम्मदी। वह ‘उजड़े पर वालों’ के ठ

4

दो आस्थाएँ भाग 1

25 जुलाई 2022
0
0
0

अरी कहाँ हो? इंदर की बहुरिया! - कहते हुए आँगन पार कर पंडित देवधर की घरवाली सँकरे, अँधेरे, टूटे हुए जीने की ओर बढ़ीं। इंदर की बहू ऊपर कमरे में बैठी बच्चेर का झबला सी रही थी। मशीन रोककर बोली - आओ, बुआज

5

दो आस्थाएँ भाग 2

25 जुलाई 2022
0
0
0

 अरे तेरे फूफाजी रिसी-मुनी हैंगे बेटा! बस इन्हेंआ क्रोध न होता, तो इनके ऐसा महात्मां नहीं था पिरथी पे। क्याअ करूँ, अपना जो धरम था निभा दिया। जैसा समय हो वैसा नेम साधना चाहिए। पेट के अंश से भला कोई कैस

6

दो आस्थाएँ भाग 3

25 जुलाई 2022
0
0
0

प्रेम नेम बड़ा है। - पति के क्षोभ और चिंता को चतुराई के साथ पत्नीक ने मीठे आश्वाजसन से हर लिया; परंतु वह उन्हेंक फिर चाय-नाश्ताक न करा सकी। डॉक्ट।र इंद्रदत्त शर्मा फिर घर में बैठ न सके। आज उनका धैर्य

7

दो आस्थाएँ भाग 4

25 जुलाई 2022
0
0
0

खाती हूँ। रोज ही खाती हूँ - पल्लेँ से आँखें ढके हुए बोलीं। इंद्रदत्ती को लगा कि वे झूठ बोल रही हैं। तुम इसी वक्त मेरे घर चलो, बुआजी। फूफा भी वैसे तो आएँगे ही, पर आज मैं... उन्हेंि लेकर ही जाऊँगा। नही

8

दो आस्थाएँ भाग 5

25 जुलाई 2022
0
0
0

हो रहा है, ठीक है। तो फिर दादा हमारा विरोध क्यों  करते हैं? भोला, हम फूफाजी का न्याकय नहीं कर सकते। इसलिए नहीं कि हम अयोग्यय हैं, वरन इसलिए कि हमारे न्यालय के अनुसार चलने के लिए उनके पास अब दिन नहीं

9

दो आस्थाएँ भाग 6

25 जुलाई 2022
0
0
0

तुम अपने प्रति मेरे स्नेफह पर बोझ लाद रहे हो। मैं आत्म शुद्धि के लिए व्रत कर रहा हूँ... पुरखों के साधना-गृह की जो यह दुर्गति हुई है, यह मेरे ही किसी पाप के कारण... अपने अंतःकरण की गंगा से मुझे सरस्वमत

10

धर्म संकट

25 जुलाई 2022
0
0
0

>शाम का समय था, हम लोग प्रदेश, देश और विश्‍व की राजनीति पर लंबी चर्चा करने के बाद उस विषय से ऊब चुके थे। चाय बड़े मौके से आई, लेकिन उस ताजगी का सुख हम ठीक तरह से उठा भी न पाए थे कि नौकर ने आकर एक सादा

11

प्रायस्चित

25 जुलाई 2022
0
0
0

जीवन वाटिका का वसंत, विचारों का अंधड़, भूलों का पर्वत, और ठोकरों का समूह है यौवन। इसी अवस्था में मनुष्य त्यागी, सदाचारी, देश भक्त एवं समाज-भक्त भी बनते हैं, तथा अपने ख़ून के जोश में वह काम कर दिखाते

12

पाँचवा दस्ता भाग 1

25 जुलाई 2022
0
0
0

सिमरौली गाँव के लिए उस दिन दुनिया की सबसे बड़ी खबर यह थी कि संझा बेला जंडैल साब आएँगे। सिमरौली में जंडैल साहब की ससुराल है। वहाँ के हर जोड़ीदार ब्राह्मण किसान को सुखराम मिसिर के सिर चढ़ती चौगुनी माया

13

पाँचवा दस्ता भाग 2

25 जुलाई 2022
0
0
0

कर्नल तिवारी घर बसाना चाहते थे। घर के बिना उनका हर तरह से भरा-पूरा जीवन घुने हुए बाँस की तरह खोखला हो रहा था। दस की उम्र में सौतेली माँ के अत्यासचारों से तंग आकर वह अपने घर से भागे थे। तंगदस्तीथ में ब

14

पाँचवा दस्ता भाग 3

25 जुलाई 2022
0
0
0

तारा के कमरे से आने पर दीदी अपने पलंग पर ढह पड़ी और तरह-तरह से तारा की सिकंदर ऐसी तकदीर पर जलन उतारने लगी। यह जलन भी अब उन्हें  थका डालती है। अब कोई चीज उन्हेंद जोश नहीं देती - न प्रेम, न नफरत। जिंदग

15

पाँचवा दस्ता भाग 4

25 जुलाई 2022
0
0
0

तारा जब दीदी के कमरे में पहुँची तो वह अखबार से मुँह ढाँके सो रही थी। लैंप सिंगारदान की मेज पर रखा था और दीदी के पलंग पर काफी अँधेरा हो चुका था। दबे पाँव तारा बढ़ने लगी। लैंप उठाकर पलंग के पासवाले स्टू

16

पाँचवा दस्ता भाग 5

25 जुलाई 2022
0
0
0

जब तारा सुहागवती हुई और अपनी माँ के घर की महारानी बनी, तो मलकिन का मन औरत वाले कोठे पर चढ़ गया। मलकिन को यह अच्छाे नहीं लगता था कि उनके घर में कोई उनसे भी बड़ा हो। बेटी से एक जगह मन ही मन चिढ़कर वह रो

17

पाँचवा दस्ता भाग 6

25 जुलाई 2022
0
0
0

बार-बार हॉर्न बजने की आवाज और लोगों के घबराहट में चिल्लाँने का शोर बस्तीस में परेशानी का बायस हुआ। सुखराम के बैठक में गाँव के सभी लोग बैठे हुए थे। दामाद का इंतजाम हो रहा था। बाहर पेड़ के चबूतरे के आस

18

पाँचवा दस्ता भाग 7

25 जुलाई 2022
0
0
0

महँगी के मारे बिरहा बिसरगा - भूलि गई कजरी कबीर। देखि के गोरी क उभरा जोबनवाँ, अब ना उठै करेजवा मा पीर।। मोटर के हार्न ने गीत को रोक दिया। गाड़ीवान ने मोटर को जगह देने के लिए अपने छकड़े को सड़क के क

19

सिकंदर हार गया भाग 1

25 जुलाई 2022
0
0
0

अपने जमाने से जीवनलाल का अनोखा संबंध था। जमाना उनका दोस्‍त और दुश्‍मन एक साथ था। उनका बड़े से बड़ा निंदक एक जगह पर उनकी प्रशंसा करने के लिए बाध्‍य था और दूसरी ओर उन पर अपनी जान निसार करनेवाला उनका बड़

20

सिकंदर हार गया भाग 2

25 जुलाई 2022
0
0
0

जीवनलाल का खून बर्फ हो गया। लीला मिसेज कौल के साथ घर के अंदर ही बैठी रही थी, मिस्‍टर कौल उनसे बातें करते हुए बीच में पाँच-छह बार घर के अंदर गए थे। एक बार तो पंद्रह मिनट तक उन्‍हें अकेले ही बैठा रहना प

21

सिकंदर हार गया भाग 3

25 जुलाई 2022
0
0
0

जीवनलाल ने कड़ककर आवाज दी, लीला ! लीला चौंक गई। यह स्‍वर नया था। उसने घूमकर जीवनलाल को देखा और बैठी हो गई। जीवनलाल उसके सामने आकर उसकी नजरों में एक बार देखकर क्रमशः अपनी उत्‍तेजना खोने लगे। एक सेकें

22

हाजी कुल्फ़ीवाला

25 जुलाई 2022
0
0
0

जागता है खुदा और सोता है आलम। कि रिश्‍ते में किस्‍सा है निंदिया का बालम।। ये किस्सा है सादा नहीं है कमाल।। न लफ्जों में जादू बयाँ में जमाल।। सुनी कह रहा हूँ न देखा है हाल।। फिर भी न शक के उठाएँ स

23

कुशीनारा में भगवान बुद्ध भाग 1

25 जुलाई 2022
0
0
0

कुशीनारा में भगवान बुद्ध की विश्राम करती हुई मूर्ति के चरणों में बैठकर चैत्रपूर्णिमा की रात्रि में आनंद ने कहा-‘‘शास्ता, अब समय आ गया है।’’ भगवान बुद्ध की मूर्ति ने अपने चरणों के निकट बैठे इस जन्म के

24

कुशीनारा में भगवान बुद्ध भाग 2

25 जुलाई 2022
0
0
0

‘‘अठन्नी की क्या कीमत ही नहीं होती ? इस एक अठन्नी के कारण मेरे तैतालीस रुपए खर्च हो गए। शर्म नहीं आती बहस करते हुए भरे बाजार में।’’ मेमसाहब का स्वर इतना ऊँचा हो गया था कि सड़क पर आसपास चलते लोगो— अन्य

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए