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एक दिल हजार अफ़साने

25 जुलाई 2022

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जीवन वाटिका का वसंत, विचारों का अंधड़, भूलों का पर्वत, और ठोकरों का समूह है यौवन।

इसी अवस्था में मनुष्य त्यागी, सदाचारी, देश भक्त एवं समाज-भक्त भी बनते हैं, तथा अपने ख़ून के जोश में वह काम कर दिखाते हैं, जिससे कि उनका नाम संसार के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिख दिया जाता है, तथा इसी आयु में मनुष्य विलासी, लोलुपी और व्यभिचारी भी बन जाता है, और इस प्रकार अपने जीवन को दो कौड़ी का बनाकर पतन के खड्ड में गिर जाता है, अंत में पछताता है, प्रायश्चित करता है, परंतु प्रत्यंचा से निकाला हुआ बाण फिर वापस नहीं लौटता, खोई हुई सच्ची शांति फिर कहीं नहीं मिलती।

मणिधर सुन्दर युवक था। उसके (जेब) पर्स में पैसा था और पास में था नवीन उमंगों से पूरित हृदय। वह भोला-भाला सुशील युवक था। बेचारा सीधे मार्ग पर जा रहा था, यारों ने भटका दिया—दीन को पथ-हीन कर दिया। उसे नित्य-प्रति कोठों की सैर कराई, नई-नई परियों की बाकीं झाकी दिखाई। उसके उच्चविचारों का उसकी महत्वकाक्षांओं का अत्यन्त निर्दयता के साथ गला घोंट डाला गया। बनावटी रूप के बाज़ार ने बेचारे मणिधर को भरमा दिया।

पिता से पैसा मांगता था वह, अनाथालयों में चन्दा देने के बहाने और उसे आंखें बंद कर बहाता था, गंदी नालियों में, पाप की सरिता में, घृणित वेश्यालयों में। 

ऐसी निराली थी उसकी लीला।

पंडित जी वृद्ध थे। अनेक कन्याओं के शिक्षक थे। वात्सल्य प्रेम के अवतार थे।

किसी भी बालिका के घर खाली हाथ न जाते थे। मिठाई, फल, किताब, नोटबुक आदि कुछ न कुछ ले कर ही जाते थे तथा नित्यप्रति पाठ सुनकर प्रत्येक को पारितोषिक प्रदान करते थे। बालिकाएं भी उनसे अत्यन्त हिल-मिल गई थीं। उनके संरक्षक गण भी पंडित जी की वात्सल्यता देख गद्गद्ग हो जाते थे। घरवालों के बाद पंडित जी ही अपनी छात्राओं के निरीक्षक थे, संरक्षक थे। बालिकाएं इनके घर जातीं, हारमोनियम बजातीं, गातीं, हंसतीं, खेलती, कूदतीं थीं। पंडितजी इससे गद्गद्ग हो जाते थे तथा बाहरवालों से प्रेमाश्रु ढरकाते हुआ कहा करते, ‘‘इन्हीं लड़कियों के कारण मेरा बुढ़ापा कटता चला जा रहा है। अन्यथा अकेले तो इस संसार में मेरा एक दिवस भी काटना भारी पड़ जाता।’’

समस्त संसार पंडितजी की एक मुंह से प्रशंसा करता था।

बाहरवालों को इस प्रकार ठाट दिखाकर पंडितजी दूसरे ही प्रकार का खेल खेला करते थे। वह अपनी नवयौवना सुन्दर छात्राओं को अन्य विषयों के साथ-साथ प्रेम का पाठ भी पढ़ाया करते थे, परन्तु वह प्रेम, विशुद्ध प्रेम नहीं, वरन प्रेम की आड़ में भोगलिप्सा की शिक्षा थी, सतीत्व विक्रय का पाठ था। काम-वासना का पाठ पढ़ाकर भोली-भाली बालिकाओं का जीवन नष्ट कराकर दलाली खाने की चाल थी, टट्टी की आड़ में शिकार खेला जाता था। पंडित जी के आस-पास युनिवर्सिटी तथा कालेज के छात्र इस प्रकार भिनभिनाया करते थे, जिस प्रकार कि गुड़ के आस पास मक्खियां।

विचित्र थे पंडितजी और अद्भुत् थी उनकी माया।

रायबहादुर डा. शंकरलाल अग्निहोत्री का स्थान समाज में बहुत ऊंचा था। सभा-सोसाइटी के हाकिम-हुक्काम में आदर की दृष्टि से देखे जाते थे वह। उनके थी एक कन्या –मुक्ता। वह हजारों में एक थी—सुन्दरता और सुशीलता दोनों में। दुर्भाग्यवश वृद्ध पंडितजी उसे पढ़ाने के लिए नियुक्त किए गए। भोली-भाली बालिका अपने आदर्श को भूलने लगी। पंडित जी ने उसके निर्मल हृदय में अपने कुत्सित महामंत्र का बीजारोपण कर दिया था। अन्य युवती छात्राओं की भांति मुक्ता भी पंडित जी के यहां ‘हारमोनियम’ सीखने जाने लगी।

पंडितजी मुक्ता के रूप लावण्य को किराये पर उठाने के लिए कोई मनचला पैसे वाला ढूंढ़ने लगे। अंत में मणिधर को आपने अपना पात्र चुन लिया। नई-नई कलियों की खोज में भटकने वाला मिलिन्द इस अपूर्व कली का मदपान करने के लिए आकुलित हो उठा। इस अवसर पर पंडितजी की मुट्ठी गर्म हो गई। दूसरे ही दिवस मणिधर को पंडित जी के यहां जाना था।

वह संध्या अत्यन्त ही रमणीक थी। मणि ने उसे बड़ी प्रतीक्षा करने के पश्चात पाया था। आज वह अत्यन्त प्रसन्न था। आज उसे पंडितजी के यहां जाना था।...वह लम्बे-लम्बे पग रखता हुआ चला जा रहा था पंडितजी के पापालय की ओर। आज उसे रुपयों की वेदी पर वासना-देवी को प्रसन्न करने के लिए बलि चढ़ानी थी।

मुक्ता पंडितजी के यहां बैठी हारमोनियम पर उंगलियां नचा रही थी, और पंडितजी उसे पुलकित नेत्रों से निहार रहे थे। वह बाजा बजाने में व्यस्त थी। साहसा मणिधर के आ जाने से हारमोनियम बंद हो गया। लजीली मुक्ता कुर्सी छोड़कर एक ओर खड़ी हो गई। पंडितजी ने कितना ही समझाया, ‘‘बेटी ! इनसे लज्जा न कर, यह तो अपने ही हैं। जा, बजा, बाजा बजा। अभ्यागत सज्जन के स्वागत में एक गीत गा।’’ परन्तु मुक्ता को अभी लज्जा ने न छोड़ा था। वह अपने स्थान पर अविचल खड़ी थी, उसके सुकोमल मनोहारी गाल लज्जावश ‘अंगूरी’ की भांति लाल हो रहे थे, अलकें आ-आकर उसका एक मधुर चुम्बन लेने की चेष्टा कर रही थीं। मणिधर उस पर मर मिटा था। वह उस समय बाह्य संसार में नहीं रह गया था। यह सब देख पंडितजी खिसक गए। अब उस प्रकोष्ठ में केवल दो ही थे।

मणिधर ने मुक्ता का हाथ पकड़कर कहा, ‘‘आइए, खड़ी क्यों हैं। मेरे समीप बैठ जाइए।’’

मणिधर धृष्ट होता चला जा रहा था। मुक्ता झिझक रही थी, परन्तु फिर भी मौन थी। 

मणिधर ने कहा—‘‘क्या पंडितजी ने इस प्रकार आतिथ्य सत्कार करना सिखलाया है कि घर पर कोई पाहुन आवे  और घरवाला चुपचाप खड़ा रहे...शुभे, मेरे समीप बैठ जाइये।’’

प्रेम की विद्युत कला दोनों के शरीर में प्रवेश कर चुकी थी। मुक्ता इस बार कुछ न बोली। वह मंत्र-मुग्ध-सी मणि के पीछे-पीछे चली आई तथा उससे कुछ हटकर पलंग पर बैठ गई।

‘‘आपका शुभ नाम ?’’ मणि ने ज़रा मुक्ता के निकट आते हुए कहा।

‘‘मुक्ता।’’ लजीली मुक्ता ने धीमे स्वर में कहा।

बातों का प्रवाह बड़ा, धीरे-धीरे समस्त हिचक जाती रही। और..और !! थोड़ी देर के पश्चात-

मुक्ता नीरस हो गई, उसकी आब उतर गई थी। 

‘‘हिजाबे नौं उरुमा रहबरे शौहर नबी मानद,

अगर मानद शबे-मानद शबे दीगर नबीं मानद।’’

हिचक खुल गई थी। मणि और मुक्ता का प्रेम क्रमशः बढ़ने लगा था। मणि मिलिन्द था, पुष्प पर उसका प्रेम तभी ही ठहर सकता है, जब तक उसमें मद है, परन्तु मुक्ता का प्रेम निर्मल और निष्कलंक था। वह पाप की सरिता को पवित्र प्रेम की गंगा समझकर बेरोक-टोक बहती ही चली जा रही थी। अचानक ठोकर लगी। उसके नेत्र खुल गए। एक दिन उसने तथा समस्त संसार ने देखा कि वह गर्भ से थी।

समाज में हलचल मच गई। शंकरलाल जी की नाक तो कट ही गई। वह किसी को मुँह दिखाने के योग्य न रह गए थे—ऐसा ही लोगों का विचार था। अस्तु। जाति-बिरादरी जुटी, पंच-सरपंच आए। पंचायत का कार्य आरम्भ हुआ। मुक्ता के बयान लिए गए। उसने आंसुओं के बीच सिसकियों साथ-साथ समाज के सामने सम्पूर्ण घटना आद्योपांत सुना डाली—

पंडितजी का उसके भोले-भाले स्वच्छ हृदय में काम-वासना का बीजारोपण करना, तत्पश्चात उसका मणिधर से परिचय कराना आदि समस्त घटना उसने सुना डाली। पंडितजी ने गिड़गिड़ाते अपनी सफाई पेश की तथा मुक्ता से अपनी वृद्धावस्था पर तरस खाने की प्रार्थना की। परंतु मणिधर शान्त भाव से बैठा रहा।

पंचों ने सलाह दी। बूढ़ों ने हां में हां मिला दिया। सरपंच महोदय ने अपना निर्णय सुना डाला। सारा दोष मुक्ता के माथे मढ़ा गया। वह जातिच्युत कर दी गई। ‘रायबहादुर के पिता की भी वही राय थी, जो पंचों की थी। मणिधर और पंडितजी को सच्चरित्रता का सर्टिफिकेट दे निर्दोषी करार दे दिया गया। केवल ‘अबला’ मुक्ता ही दुख की धधकती हुई अग्नि में झुलसने के लिए छोड़ दी गई। अन्त में अत्यन्त कातर भाव से निस्सहाय मुक्ता ने सरपंच की दोहाई दी—उसके चरणों में गिर पड़ी। सरपंच घबराए। हाय, भ्रष्टा ने उन्हें स्पर्श कर लिया था। क्रोधित हो उन्होंने उस गर्भिणी, निस्सहाय, आश्रय-हीना युवती को धक्के मार कर निकाल देने की अनुमति दे दी। उनकी आज्ञा का पालन करने  के लिए हिन्दू समाज को वास्तव में पतन के खड्ड में गिराने वाले, नरराक्षस, खुशामदी टट्टू ‘पीर बवर्ची, भिस्ती, खर’ की कहावत को चरितार्थ करने वाले इस कलंक के सच्चे अपराधी पंडितजी तत्क्षण उठे उसे धक्का मारकर निकालने ही वाले थे—अचानक आवाज आई ठहरो।

अन्याय की सीमा भी परिमित होती है। तुम लोगों ने उसका भी उल्लंघन कर डाला है।’’ लोगों ने नेत्र घुमाकर देखा, तो मणिधर उत्तेजित हो निश्चल भाव से खड़ा कह रहा था, ‘‘हिन्दू समाज अन्धा है, अत्याचारी है एवं उसके सर्वेसर्वा अर्थात् हमारे ‘माननीय’ पंचगण अनपढ़ हैं, गंवार हैं, और मूर्ख हैं। जिन्हें खरे एवं खोटे, सत्य और असत्य की परख नहीं वह क्या तो न्याय कर सकते हैं और क्या जाति-उपकार ? इसका वास्तविक अपराधी तो मैं हूं। इसका दण्ड तो मुझे भोगना चाहिए। इस सुशील बाला का सतीत्व तो मैंने नष्ट किया है और मुझसे भी अधिक नीच हैं यह बगुला भगत बना हुआ नीच पंडित। इस दुराचारी ने अपने स्वार्थ के लिए न मालूम कितनी बालाओं का जीवन नष्ट कराया है—उन्हें पथभ्रष्ट कर दिया है। जिस आदरणीय दृष्टि से इस नीच समाज में देखा जाता है वास्तव में यह नीच उसके योग्य नहीं, वरन यह नर पशु है, लोलुपी है, लम्पट है। सिंह की खाल ओढ़े हुए तुच्छ गीदड़ है-रंगा सियार है।’’

सब लोग मणिधर के ओजस्वी मुखमंडल को निहार रहे थे। मणिधर अब मुक्ता को सम्बोधित कर कहने लगा, ‘‘मैंने भी पाप किया है। समाज द्वारा दंडित होने का वास्तविक अधिकारी मैं हूं। मैं भी समाज एवं लक्ष्मी का परित्यग कर तुम्हारे साथ चलूंगा। तुम्हें सर्वदा अपनी धर्मपत्नी मानता हुआ अपने इस घोर पाप का प्रायश्चित करूंगा। भद्रे, चलो अब इस अन्यायी एवं नीच समाज में एक क्षण भी रहना मुझे पसंद नहीं...चलो।’’

मणिधर मुक्ता का कर पकड़कर एक ओर चल दिया, और जनता जादूगर के अचरज भरे तमाशे की नाई इस दृश्य को देखती रह गयी।

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रचनाएँ
अमृत लाल नागर की कहानी संग्रह
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अमृतलाल नागर हिन्दी के उन गिने-चुने मूर्धन्य लेखकों में हैं जिन्होंने जो कुछ लिखा है वह साहित्य की निधि बन गया है उपन्यासों की तरह उन्होंने कहानियाँ भी कम ही लिखी हैं परन्तु सभी कहानियाँ उनकी अपनी विशिष्ठ जीवन-दृष्टि और सहज मानवीयता से ओतप्रोत होने के कारण साहित्य की मूल्यवान सम्पत्ति हैं। फिर स्वतंत्र लेखन, फिल्म लेखन का खासा काम किया। 'चकल्लस' का संपादन भी किया। आकाशवाणी, लखनऊ में ड्रामा प्रोड्यूसर भी रहे। कहानी संग्रह : वाटिका, अवशेष, तुलाराम शास्त्री, आदमी, नही! नही!, पाँचवा दस्ता, एक दिल हजार दास्ताँ, एटम बम, पीपल की परी , कालदंड की चोरी, मेरी प्रिय कहानियाँ, पाँचवा दस्ता और सात कहानियाँ, भारत पुत्र नौरंगीलाल, सिकंदर हार गया, एक दिल हजार अफसाने है।
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एटम बम

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चेतना लौटने लगी। साँस में गंधक की तरह तेज़ बदबूदार और दम घुटाने वाली हवा भरी हुई थी। कोबायाशी ने महसूस किया कि बम के उस प्राण-घातक धड़ाके की गूँज अभी-भी उसके दिल में धँस रही है। भय अभी-भी उस पर छाया ह

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शकीला माँ

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केले और अमरूद के तीन-चार पेड़ों से घिरा कच्चा आँगन। नवाबी युग की याद में मर्सिया पढ़ती हुई तीन-चार कोठरियाँ। एक में जमीलन, दूसरी में जमलिया, तीसरी में शकीला, शहजादी, मुहम्मदी। वह ‘उजड़े पर वालों’ के ठ

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 अरे तेरे फूफाजी रिसी-मुनी हैंगे बेटा! बस इन्हेंआ क्रोध न होता, तो इनके ऐसा महात्मां नहीं था पिरथी पे। क्याअ करूँ, अपना जो धरम था निभा दिया। जैसा समय हो वैसा नेम साधना चाहिए। पेट के अंश से भला कोई कैस

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दो आस्थाएँ भाग 3

25 जुलाई 2022
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प्रेम नेम बड़ा है। - पति के क्षोभ और चिंता को चतुराई के साथ पत्नीक ने मीठे आश्वाजसन से हर लिया; परंतु वह उन्हेंक फिर चाय-नाश्ताक न करा सकी। डॉक्ट।र इंद्रदत्त शर्मा फिर घर में बैठ न सके। आज उनका धैर्य

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दो आस्थाएँ भाग 4

25 जुलाई 2022
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खाती हूँ। रोज ही खाती हूँ - पल्लेँ से आँखें ढके हुए बोलीं। इंद्रदत्ती को लगा कि वे झूठ बोल रही हैं। तुम इसी वक्त मेरे घर चलो, बुआजी। फूफा भी वैसे तो आएँगे ही, पर आज मैं... उन्हेंि लेकर ही जाऊँगा। नही

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दो आस्थाएँ भाग 5

25 जुलाई 2022
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हो रहा है, ठीक है। तो फिर दादा हमारा विरोध क्यों  करते हैं? भोला, हम फूफाजी का न्याकय नहीं कर सकते। इसलिए नहीं कि हम अयोग्यय हैं, वरन इसलिए कि हमारे न्यालय के अनुसार चलने के लिए उनके पास अब दिन नहीं

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दो आस्थाएँ भाग 6

25 जुलाई 2022
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तुम अपने प्रति मेरे स्नेफह पर बोझ लाद रहे हो। मैं आत्म शुद्धि के लिए व्रत कर रहा हूँ... पुरखों के साधना-गृह की जो यह दुर्गति हुई है, यह मेरे ही किसी पाप के कारण... अपने अंतःकरण की गंगा से मुझे सरस्वमत

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धर्म संकट

25 जुलाई 2022
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>शाम का समय था, हम लोग प्रदेश, देश और विश्‍व की राजनीति पर लंबी चर्चा करने के बाद उस विषय से ऊब चुके थे। चाय बड़े मौके से आई, लेकिन उस ताजगी का सुख हम ठीक तरह से उठा भी न पाए थे कि नौकर ने आकर एक सादा

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प्रायस्चित

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सिमरौली गाँव के लिए उस दिन दुनिया की सबसे बड़ी खबर यह थी कि संझा बेला जंडैल साब आएँगे। सिमरौली में जंडैल साहब की ससुराल है। वहाँ के हर जोड़ीदार ब्राह्मण किसान को सुखराम मिसिर के सिर चढ़ती चौगुनी माया

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कर्नल तिवारी घर बसाना चाहते थे। घर के बिना उनका हर तरह से भरा-पूरा जीवन घुने हुए बाँस की तरह खोखला हो रहा था। दस की उम्र में सौतेली माँ के अत्यासचारों से तंग आकर वह अपने घर से भागे थे। तंगदस्तीथ में ब

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पाँचवा दस्ता भाग 3

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तारा के कमरे से आने पर दीदी अपने पलंग पर ढह पड़ी और तरह-तरह से तारा की सिकंदर ऐसी तकदीर पर जलन उतारने लगी। यह जलन भी अब उन्हें  थका डालती है। अब कोई चीज उन्हेंद जोश नहीं देती - न प्रेम, न नफरत। जिंदग

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तारा जब दीदी के कमरे में पहुँची तो वह अखबार से मुँह ढाँके सो रही थी। लैंप सिंगारदान की मेज पर रखा था और दीदी के पलंग पर काफी अँधेरा हो चुका था। दबे पाँव तारा बढ़ने लगी। लैंप उठाकर पलंग के पासवाले स्टू

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पाँचवा दस्ता भाग 5

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जब तारा सुहागवती हुई और अपनी माँ के घर की महारानी बनी, तो मलकिन का मन औरत वाले कोठे पर चढ़ गया। मलकिन को यह अच्छाे नहीं लगता था कि उनके घर में कोई उनसे भी बड़ा हो। बेटी से एक जगह मन ही मन चिढ़कर वह रो

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सिकंदर हार गया भाग 2

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सिकंदर हार गया भाग 3

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हाजी कुल्फ़ीवाला

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कुशीनारा में भगवान बुद्ध की विश्राम करती हुई मूर्ति के चरणों में बैठकर चैत्रपूर्णिमा की रात्रि में आनंद ने कहा-‘‘शास्ता, अब समय आ गया है।’’ भगवान बुद्ध की मूर्ति ने अपने चरणों के निकट बैठे इस जन्म के

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कुशीनारा में भगवान बुद्ध भाग 2

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‘‘अठन्नी की क्या कीमत ही नहीं होती ? इस एक अठन्नी के कारण मेरे तैतालीस रुपए खर्च हो गए। शर्म नहीं आती बहस करते हुए भरे बाजार में।’’ मेमसाहब का स्वर इतना ऊँचा हो गया था कि सड़क पर आसपास चलते लोगो— अन्य

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