जीवनलाल ने कड़ककर आवाज दी, लीला !
लीला चौंक गई। यह स्वर नया था। उसने घूमकर जीवनलाल को देखा और बैठी हो गई।
जीवनलाल उसके सामने आकर उसकी नजरों में एक बार देखकर क्रमशः अपनी उत्तेजना खोने लगे। एक सेकेंडों के लिए उनकी गति ठिठक गई, इतने में ही गालियाँ प्रार्थना बन गईं, कलेजे के गुबार निकलते समय अचानक अपील की तरह सामने आए। उन्होंने कहा, तुम भले ही गैर की हो जाओ, मगर मेरे बच्चे को मुझसे मत छीन।
मैंने कब छीना है?
यह-यह क्या है? जीवनलाल ने तस्वीर दिखलाते हुए कहा, बड़े होने पर यह फोटो दिखला-दिखलाकर मेरे बच्चे को यह बहकाओगी कि जिसकी गोद में खड़ा है, वही उसका पिता है।
मैं तुमसे बदला लूँगी, क्योंकि मैं तुमसे घृणा करती हूँ, मगर अपने बच्चे से भला क्यों बदला लूँगी।
मेरे सवाल से इस जवाब का क्या संबंध है?
विवेक से झूठ बोलकर मुझे लाभ क्या होगा?
तब तुमने क्यों एक ऐसे शख्स की गोद में देकर उसका फोटो खिंचवाया है, जो कि उसका पिता नहीं है, लेकिन उसकी माँ का... और... वह तस्वीर होश सँभालने के पहले ही उसके कमरे में रख दी गई है...।
इसे रखते समय मेरी इच्छा तो यह थी कि तुम्हारी तस्वीर वहाँ से हटा दूँ। विवेक के होश सँभालने पर तस्वीरों के संबंध में पूछने पर मैं कम से कम अच्छे लोगों का परिचय उसे दे सकूँगी। तुम्हारे जैसे लंपट, दगाबाज, मीठी छुरी का परिचय देकर मैं अपने बेटे के कान अपवित्र नहीं करना चाहती।
लेकिन तुम, कौल या उसकी बदकार बीवी ही...।
हम तीनों... जीवनलाल की पत्नी ने शेरनी की तरह तड़पकर कहा, हम तीनों में, वह पुरुष जिसकी गोद में विवेक खड़ा है, उसमें और तुममें वही फर्क है जो गंगा और नाले में है।
एक ही पाप के लिए मैं बुरा और वह...।
वह किसी ऐसे पाप के अपराधी नहीं हैं, उनकी पत्नी को इसका पूरा विश्वास है।
तुमने मुझसे कहा था कि त्रिभुवन और उसकी बीवी...। जीवनलाल ने क्रांतिकारी के समान उत्तेजित होकर पूछा।
जीवनलाल की बात तेजी से काटते हुए लीला बोली, झूठ कहा था।
क्यों?
सुनोगे? लीला बेहद पैने स्वर में बोली, मैं तुमसे घृणा करती हूँ। मेरा रोआँ-रोआँ प्रतिहिंसा से हर समय सुलगा करता है। तुमने मुझे मीठे ठग की तरह लूटा और जब मैं एक नई जान से मजबूर होकर तुम्हारे यहाँ आई तो तुम मेरे ऊपर शक और शुबहे से भरी निगरानी करने लगे। मेरे यहाँ आने के बाद भी खुद सब तरह के दुराचार करते हुए मुझे सतीत्व की जेल में कैद करना चाहा। मैं अपनी इच्छा से सती हूँ। एक पुरुष की पत्नी होना मेरे मिजाज को सुहाता है - यह अलग बात है। मगर तुम्हारे दबाए हरगिज न दबूँगी। यह सोचकर मैंने यह नाटक रचा। जो भेंटें कौल साहब के नाम से आई हैं, वह मैंने अपने पिता के पैसे से खरीदी हैं।
जीवनलाल विश्वास-अविश्वास की रस्साकशी में जड़-से बन गए। कुछ क्षण बाद अचानक उन्होंने फिर पूछा, तुम्हारे और मिसेज कौल के कपड़े-जेवर जो एक-से।
मिसेज कौल के पति से हमें करीब पाँच लाख की बचत का काम मिला है - उनसे रिश्ता बनाए रखने के लिए आठ-दस हजार रुपये खर्च कर देना बड़ी बात नहीं, तुम्हारी जानकारी में भी दे सकती थी, लेकिन मैं तुमसे घृणा करती हूँ - इतनी...।"
जीवनलाल ठहाका मार-मारकर हँस पड़े और काफी देर तक हँसते रहे। लीला कुछ न समझकर उन्हें देखती रही। हँसी का दौर कम होने पर हाँफते हुए और हँसते हुए कहा,"तुम मुझे बहुत प्यार करती हो। वरना तुम्हारे मुँह से आज सच हरगिज न सुन पाता...। मेरे मन का मुर्दा बोझ उतर गया। ओह अब तुम मुझसे घृणा करो लीला, जी चाहे जितनी करो, मेरा जीवन मुरझाएगा नहीं और खिलेगा, नित नया होकर महकेगा।
सहसा पासा पलट गया। सती पत्नी को दुराचारी पति की उदारता के सामने अपनी बदला लेने की संकीर्ण वृत्ति मन-ही-मन बुरी तरह से गड़ने लगी। हर व्यक्ति अपनी परिस्थितियों के अनुसार बुरा भी है और भला भी। लोग दूसरों की बुराइयों को मारना चाहते हैं और अपनी बुराइयों के प्रति करुणा प्रकट करते हैं। यह कैसा अन्याय है? अगर जीवनलाल ने एक तरह से अन्याय किया है तो लीला ने दूसरी तरह से। लीला सोचने लगी कि वह नारी होकर भी बेहद कठोर है। वह जीवनलाल से बहुत महँगा बदला ले रही है। क्या उसे अपने पति को घुला-घुलाकर मार डालना है?
लीला ने कनखियों से अपने पति की ओर देखा, 'ये कितने दुबले हो गए हैं।'
पहली बार लीला को अपने पति के स्वास्थ्य की चिंता हुई, वह पति जिससे उसे नफरत थी।