तुम अपने प्रति मेरे स्नेफह पर बोझ लाद रहे हो। मैं आत्म शुद्धि के लिए व्रत कर रहा हूँ... पुरखों के साधना-गृह की जो यह दुर्गति हुई है, यह मेरे ही किसी पाप के कारण... अपने अंतःकरण की गंगा से मुझे सरस्वमती का मंदिर धोना ही पड़ेगा। तुम अपना आग्रह लौटा लो, बेटा।
एक मिनट के लिए कमरे में फिर सन्ना टा छा गया, केवल पंखे की गूँज ही उस खामोशी में लहरें उठा रही थीं।
इंद्रदत्ती ने शांत स्वीर में कहा - एक बात पूछूँ? मंदिर में कुत्ते के प्रवेश से यदि भगवती अपवित्र हो जाती हैं, तो फिर घट-घट व्याापी ईश्व र की भावना बिलकुल झूठी है, एक ईश्व र पवित्र और दूसरा अपवित्र क्यों माना जाए?
पंडित देवधर चुप बैठे रहे। फिर गंभीर होकर कहा - हिंदू धर्म बड़ा गूढ़ है। तुम इस झगड़े में न पड़ो।
मैं इस झगड़े में न पड़ूँगा, फूफाजी, पर एक बात सोचता हूँ... भगवान राम अगर प्रेम के वश में होकर शबरी के जूठे बेर खा सकते थे, हिंदू लोग यदि इस आख्याधन में विश्वाास रखते हैं, तो फिर छूत-अछूत का कोई प्रश्नब ही नहीं रह जाता। युधिष्ठिर ने अपने साथ-साथ चलनेवाले कुत्तेे के बिना स्व र्ग में जाने तक से इनकार कर दिया था। यह सब कहानियाँ क्याि हिंदू-धर्म की महिमा बखाननेवाली नहीं हैं? क्याद यह महत् भाव नहीं है? फिर इनके विपरीत छुआछूत के भय से छुईमुई होनेवाले गूढ़ धर्म की महिमा को आप क्योंय मानते हैं? इन रूढ़ियों से बँधकर मनुष्यत क्याभ अपने को छोटा नहीं कर लेता?
पंडितजी शांतिपूर्वक सुनते रहे। इंद्रदत्तं को भय हुआ कि बुरा न मान गए हों। तुरंत बोले - मैं किसी हद तक उत्तेतजित जरूर हूँ, लेकिन जो कुछ पूछ रहा हूँ, जिज्ञासु के रूप में ही।
ठीक है। - पंडितजी बोले - हमारे यहाँ आचार की बड़ी महिमा है! मनुस्मृ ति में आया है कि 'आचारः प्रथमो धर्मः', जैसा आचार होगा, वैसे ही विचार भी होंगे। तुम शुद्धाचरण को बुरा मानते हो?
जी नहीं।
तब मेरा आचार क्योंस भ्रष्ट करा रहे हो।
ऐसा धृष्टचता करने का विचार स्व प्ने में भी मेरे मन में नहीं आ सकता। हाँ, आपसे क्षमा माँगते हुए यह जरूर कहूँगा कि आपके आचार नए युग को विचार शक्ति नहीं दे पा रहे हैं। इसलिए उनका मूल्यू मेरे लिए कुछ नहीं के बराबर है। मैं दुर्विनीत नहीं हूँ, फूफाजी, परंतु सच-सच यह अनुभव करता हूँ कि दुनिया आगे बढ़ रही है और आपका दृष्टिकोण व्युर्थ के रोड़े की तरह उसकी गति को अटकाता है, ...पर इस समय जाने दीजिए... मैं तो यही निवेदन करने घर गया था और यही मेरा आग्रह है कि आप भोजन कर लें।
पंडितजी मुस्कपराए। इंद्रदत्तद के मन में आशा जागी। पंडितजी बोले - करूँगा, एक शर्त पर।
आज्ञा कीजिए।
जो मेरे, अर्थात् पुरानी परिपाटी के यम, नियम, संयम आदि हैं, वे आज से तुम्हें भी निभाने पड़ेंगे। जिनका मूल्यम तुम्हाअरी दृष्टि में कुछ नहीं है, वे आचार-विचार मेरे लिए प्राणों से भी अधिक मूल्य वान हैं।
इंद्रदत्त् स्तंभित रह गए। वे कभी सोच भी नहीं सकते थे कि फूफाजी सहसा अनहोनी शर्त से उन्हें बाँधने का प्रयत्न करेंगे। पूछा - कब तक निभाना पड़ेगा?
आजीवन।
इंद्रदत्तज किंकर्तव्येविमूढ़ हो गए। जिन नियमों में उनकी आस्था? नहीं, जो चीज उनके विचारों के अनुसार मनुष्य। को अंधविश्वापसों से जकड़ देती है और जो भारतीय संस्कृंति का कलंक है, उनसे उनका प्रबुद्ध मन भला क्योंं कर बँध सकता है? हाँ कहें तो कैसे कहें? उन्होंाने इस व्रत, नियम, बलिदान, चमत्का्र और मिथ्यां विश्वाधसों से भरे हिंदू धर्म को समाज पर घोर अत्याचार करते देखा है। अपने-आपको तरह-तरह से प्रपीड़ित कर धार्मिक कहलानेवाला व्य क्ति इस देश को रसातल में ले गया। इस कठोर जीवन को साधनेवाले 'शुद्धाचरणी' ब्राह्मण धर्म ने इस देश की स्त्रियों और हीन कहलानेवाली जातियों को सदियों तक दासता की चक्की् में बुरी तरह पीसा है और अब भी बहुत काफी हद तक पीस रहा है। हो सकता कि मनुष्य की चेतना के उगते युग में इस शुद्ध कहलानेवाले आचार ने अंधकार में उन्नसत विचारों की ज्यो ति जगाई हो, पर अब तो सदियों से इसी झूठे धर्म ने औसत भारतवासी को दास, अंधविश्वा सी, और असीम रूप से अत्या चारों को सहन करनेवाला, झूठी दैवीशक्तियों पर यानी अपनी ही धोखा देनेवाली, लुभावनी; असंभव, कल्पयनाओं पर विश्वा स करनेवाला, झूठा भाग्यिवादी बनाकर देश की कमर तोड़ रखी है। इसने औसत भारतवासी से आत्माविश्वाभस छीन लिया है। इस जड़ता के खि़लाफ उपनिषद् जागे, मानवधर्म जागा, योग का ज्ञान जागा, बौद्ध, भागवतधर्म जागा, मध्याकाल का संत आंदोलन उठा और आज के वैज्ञानिक युग ने तो इसे एकदम निस्सा र सिद्ध कर सदा के लिए इसकी कब्र ही खोद दी है। यह जड़ धर्म कभी भारत को महान नहीं बना सका होगा। भारत की महानता उसके कर्मयोग में है, उसके व्याोपक मानवीय दृष्टिकोण में है, व्याभस-वाल्मीककि आदि के परम उदार भावों में है। प्राचीन भारत के दर्शन, न्यावय वैशेषिक, साहित्यव, शिल्पध, संगीत आदि इस जड़ धर्म की उपज हरगिज नहीं हो सकते। फिर भी यह जड़ता भारत पर अर्से से भूत की तरह छाई हुई है। इसी से घृणा करने के कारण आज का नया भारतीय बिना जाँच-पड़ताल किए, अपनी सारी परंपराओं से घृणा करते हुए, सिद्धांतहीन, आस्थालहीन और निष्क्रिय हो गया है... नहीं, वे फूफाजी का धर्म हरगिज न निभा सकेंगे, हरगिज नहीं, हरगिज नहीं! पर वे भोजन कैसे करेंगे? बुआजी कैसे और कब तक भोजन करेंगी? कैसी विडंबना है? दो मनुष्योंह की मौत की नैतिक जिम्मेेदारी उनके ऊपर आएगी।
पंडित देवधर ने उन्हें मौन देखकर पूछा-कहो, भोजन कराओगे मुझे?
जी...मैं धर्म-संकट में पड़ गया हूँ।
स्प ष्टम कहो, मेरा धर्म ग्रहण करोंगे?
फूफाजी, आप बहुत माँग रहे हैं। मेरा विश्वाधस माँग रहे हैं। मैं आपके धर्म को युग का धर्म नहीं मानता, अपना नहीं मानता।
मैं तुम्हापरी स्पंष्ट वादिता से प्रसन्नस हूँ। तुम धार्मिक हो, इसी तरह अपने से मुझको पहचानो। मैं भी अपना धर्म नहीं छोड़ सकता। यद्यपि तुम्हांरे सत्सं ग से मैंने इतने दिनों में यह समझ लिया है कि मेरा युग, मेरा धर्म अब सदा के लिए लोप हो रहा है। फिर भी अंतिम साँस तक तो हरगिज नहीं। मेरी आस्थान तपःपूत है। तुम्हा रा कल्या ण हो। सुखी हो, बेटा... अच्छाप तो अब चलूँ -
परंतु मेरा अनशन का निश्चतय अडिग है, फूफाजी। मैं आपके चरण छूकर कह रहा हूँ।
पैर छोड़ दो बेटे, इन पैरों से पहले ही जड़ता समा चुकी है... और अब तो जीव के साथ ही मिटेगी, अन्यछथा नहीं। ...खैर, कल विचार करना अपने अनशन पर।
अंतिम वाक्य पंडितजी ने इस तरह कहा कि इंद्रदत्त को करारा झटका लगा। पर वे मौन रहने पर विवश थे। पंडित देवधर चलने लगे। इंद्रदत्त के मन में भयंकर तूफान उठ रहा था। वे हार गए। बुआजी को क्यार उत्तर देंगे? इस अगति का अंत क्या होगा? क्याी वे फूफाजी की बात मान लें? ...कैसे मान लें? यह ठीक है कि फूफाजी अपने धर्म पर किस प्रकार एकनिष्ठ हैं, यह एकानिष्ठीता उन्हेंम बेहद प्रभावित करती है, फिर भी उनके धर्म को वह क्यों कर स्वी कार करें?
पंडित देवधरजी जीने पर पहुँचकर रुके। इंद्रदत्त उनके पीछ-पीछे चल रहे थे। पंडितजी घूमकर बोले - तुम्हािरी मान्य ताओं में मेरी आस्थात नहीं है, इंद्र, फिर भी मैं उसके वास्तकविक पक्ष को कुछ-कुछ देख अवश्या पा रहा हूँ। एक बात और स्पेष्ट करना चाहता हूँ। तुम भोला, त्रिभुवन के धर्म को आज का या किसी भी युग का वास्त विक धर्म मानते हो?
जी नहीं, उनका कोई धर्म ही नहीं है।
तुम्हांरा कल्याकण हो, बेटे। धन मद से जन्मे। इस खोखले धर्म से सदा लड़ना, जैसे मैं लड़ा। तुम अपने मत के अनुसार लड़ो, पर लड़ो अवश्यो। यह आस्थाेहीन, दंभ भरा अदार्शनिक, अधार्मिक जीवन लोक के लिए अकल्यााणकारी है। बोलो, वचन देते हो?
मैं आपको अपना विश्वाास देता हूँ। - कहकर इंद्रजीत ने फू्फाजी के चरण छू लिए। खड़ाऊँ की खट्-खट् जीने से उतर गई, आँगन पार किया, दूर चली। इंद्रदत्त आकर कटे पेड़ से अपने पलंग पर गिर गए।
नया युग पुराने युग से स्वे।च्छाा से विदा हो रहा था; पर विदा होते समय कितना प्रबल मोह था और कितना निर्मम व्यसवहार भी।