प्रेम नेम बड़ा है। - पति के क्षोभ और चिंता को चतुराई के साथ पत्नीक ने मीठे आश्वाजसन से हर लिया; परंतु वह उन्हेंक फिर चाय-नाश्ताक न करा सकी।
डॉक्ट।र इंद्रदत्त शर्मा फिर घर में बैठ न सके। आज उनका धैर्य डिग गया था। फूफाजी लगभग छै साढ़े बजे आते हैं। इंद्रदत्त का मन कह रहा था कि वे आज भी आएँगे, पर शंका भी थी। मुमकिन हैं अधिक कमजोर हो गए हों, न आएँ। इंद्रदत्त ने स्वीयं जाकर उन्हेंश बुला ले आना ही उचित समझा। हालाँकि उन्हेंग यह मालूम है कि इस समय फूफाजी स्नाआन-संध्याा आदि में व्य स्तत रहते हैं। पं. देवधर जी का घर अधिक दूर न था। डॉक्टलर इंद्रदत्त सदर दरवाजे से घर में प्रवेश करने के बजाय एक गली और पार कर बगिया के द्वार पर आए। फूफाजी गंगा लहरी का पाठ कर रहे थे। फूलों की सुगंधि-सा उनका मधुर स्वआर बगिया की चहारदीवारी के बाहर महक रहा था :
अपि प्राज्यं- राज्यंस तृणमिप परित्यचज्ये सहसा,
विलोल द्वानीरं तव जननि तीरे श्रित वताम् ।
सुध्धादतः स्वािदीथः सलिलभिदाय तृप्ति पिबताम्ज
नानामानंदः परिहसति निर्वाण पदवीम् ।।
इंद्रदत्त दरवाजे पर खड़े-खड़े सुनते रहे। आँखों मे आँसू आ गए। फूफाजी का स्व र उनके कानों में मानो अंतिम बार की प्रसादी के रूप में पड़ रहा था। कुछ दिनों बाद, कुछ ही दिनों बाद यह स्वोर फिर सुनने को न मिलेगा। कितनी तन्ममयता है, आवाज में कितनी जान है। कौन कहेगा कि पंडित देवधर का मन क्षुब्धग है, उन्होंुने चार दिनों से खाना भी नहीं खाया है? ...ऐसे व्यसक्ति को, ऐसे पिता को भोला-त्रिभुवन कष्टत देते हैं। इंद्रदत्त इस समय अत्यंत भावुक हो उठे थे। उन्होंाने फूफाजी की तन्मरयता भंग न करने का निश्चतय किया। गंगा लहरी पाठ कर रहे हैं, इसलिए नहाकर उठे हैं या नहाने जा रहे हैं, इसके बाद संध्या करें। फूफाजी से भेंट हो जाएगी। उनके कार्यक्रम में विघ्ने न डालकर इतना समय बुआ के पास बैठ लूँगा, यह सोचकर वे फिर पीछे की गली की और मुड़े।
अम्माय !
हाँ, बड़ी। ...अपने कमरे में, दरवाजे के पास घुटनों पर ठोढ़ी टिकाए दोनों हाथ बाँधे गहरे सोच में बैठी थीं। जेठे बेटे की बहू का स्व।र सुनकर तड़पड़ ताजा हो गई। हाँ इतनी देर के खोएपन ने उसके दीन स्व।र में बड़ी करुणा भर दी थी।
बड़ी बहू के चेहरे की ठसक को उनकी कमर के चारों और फूली हुई चर्बी सोह रही थी, आवाज भी उसी तरह मिजाज के काँटे पर सधी हुई थी, वे बोली - उन्होंेने पुछवाया है कि दादा आखि़र चाहते क्यात हैं?
वो तो कुछ भी नहीं चाहे हैं बहू।
तो ये अनशन फिर किस बात का हो रहा है?
पंडित देवधर की सहधर्मिणी ने स्वकर को और संयत कर उत्तर दिया - उनका सुभाव तो तुम जानो ही हो, बहुरिया।
ये तो कोई जवाब नहीं हुआ, अम्मार। जान देंगे? ऐसा हठ भी भला किस काम का? बड़े विद्वान हैं, भक्तं हैं... दुनिया भर को पुन्नह और परोपकार सिखाते हैं... कुत्ते में क्याा उसी भगवान की दी हुई जान नहीं हैं?
बड़ी बहू तेज पड़ती गई, सास चुपचाप सुनती रहीं।
ये तो माँ-बाप का धरम नाहीं हुआ, ये दुश्म?नी हुई, और क्याउ? घर में सब से बोलना-चालना तो बंद कर ही रखा था।
बोलना चालना तो उनका सदा का ऐसा ही है, बेटा। तुम लोग भी इतने बरसों से देखो हो, भोला-तिरभुअन तो सदा से जाने हैं।
इंदर भाई साहब के यहाँ तो घुल-घुल के बातें करते हैं।
इंदर पढ़ा-लिखा है न, वैसी ही बातों में इनका मन लगे हैा इसमें...।
हाँ-हाँ हम तो सब गँवार हैं, भ्रष्टइ हैं। हम पापियों की तो छाया देखने से भी उनका धर्म नष्टभ होता है।
बहू, बेटा, गुस्सास होने से कोई फायदा नहीं। हम लोग तो चिंता में खड़े भए हैंगे रानी। तुम सबको रखके उनके सामने चली जाऊँ, विश्वुनाथ बाबा से उठते-बैठते आँचल पसार के बरदान माँगूँ हूँ, बेटा... अब मेरे कलेजे में दम नहीं रहा क्याँ करूँ? ...बुआजी रो पड़ीं।
इंद्रदत्त जरा देर से दालान में ठिठके खड़े थे, बुआ हो रोते देख उनकी भावुकता थम न सकी, पुकारा ...बुआ।
बुआजी एक क्षण के लिए ठिठकीं; चट से आँसू पोंछ, आवाज सम्हाखलकर मिठास के साथ बोलीं - आओ, भैया।
भोला की बहू ने सिर का पल्लाम जरा सम्हाेल लिया और शराफती मुस्काान के साथ अपने जेठ को हाथ जोड़े।
इंद्रदत्त ने कमरे में आकर बुआजी के पैर छुए और पास की बैठने लगे। बुआजी हड़बड़ाकर बोलीं - अरे चारपाई पर बैठो।
नहीं। मैं सुख से बैठा हूँ आप के पास।
तो ठहरो। मैं चटाई...।
बुआजी उठीं, इंद्रदत्त ने उनका हाथ पकड़कर बैठा लिया और फिर भोला की बहू को देखकर बोला - कैसी हो सुशीला? मनोरमा कैसी है?
सब ठीक हैं?
बच्चेक?
अच्छेक हैं। भाभीजी और आप तो कभी झाँकते ही नहीं। इतने पास रहते हैं और फिर भी।
मैं सबकी राजी-खुशी बराबर पूछ लेता हूँ। रहा आना-जाना सो...।
आपको तो खैर टाइम नहीं मिला, लेकिन भाभीजी भी नहीं आतीं, बाल नहीं, बच्चेथ नहीं, कोई काम...
घर में मदद लगी है। ऐसे में घर छोड़ के कैसे आई बिचारी? - बुआजी ने अपनी बहू की बात काटी।
बहू आँख चढ़ाकर याद आन का भाव जनाते हुए बोली - हाँ ठीक है। कौन-सा हिस्सा बनवा रहे हैं, भाई साहब?
पूरा घर नए सिरे से बन रहा हैगा। ऐसा बढ़िया कि मुहल्ले में ऐसा घर नहीं है किसी का। - सास ने बहू के वैभव को लज्जित करने की दबी तड़प के साथ कहा। बुआजी यों कहना नहीं चाहती थीं, पर जी की चोट अनायास फूट पड़ी। बड़ी बहू ने आँखें चमका, अपनी दुहरी ठोड़ी को गर्दन से चिपकाकर अपने ऊपर पड़नेवाले प्रभाव को जतलाया और पूछा - पर रहते तो शायद...!
पीछेवाले हिस्सेा में रहते हैं।
इसी हिस्सेि में जीजी का, मेरा और भैया का जनम भया। एक भाई और भया था। सब यहीं भए? हमारे बाप, ताऊ, दादा और जाने कौने-कौन का जनम...!
वो हिस्साे घर भर में सबसे ज्यादा खराब है। कैसे रहते हैं?
जहाँ पुरखों का जनम हुआ, वह जगह स्वहर्ग से भी बढ़कर है। पुरखे पृथ्वी। के देवता हैं। बड़ी बहू ने आगे कुछ न कहा, सिर का पल्ला, फिर सम्हालने लगी।
आज तो बहुत दिनों में आए, भैया। मैं भी इतनी बार गई। बहू से तो भेंट हो जावे है।
बुआ-भतीजे को बातें करते छोड़कर बड़ी बहू चली गई। उसके जाने के बाद दो क्षण मौन रहा। उसके बाद दोनों ही प्रायः साथ-साथ बोलने को उद्यत हुए। इंद्रदत्त को कुछ कहते देखकर बुआजी चुप हो गईं।
सुना, फूफाजी ने...!
उनकी चिंता न करो, बेटा। वो किसी के मान हैं?
पर इस तरह कितने दिन चलेगा?
चलेगा जितने दिन चलना होगा। बुआजी का स्वार आँसुओं में डूबने-उतराने लगा - जो मेरे भाग में लिखा होगा - आगे कुछ न कह सकीं, आँसू पोंछने लगीं।
सच-सच बताना, बुआजी, तुमने भी कुछ खाया...!