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दो आस्थाएँ भाग 3

25 जुलाई 2022

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प्रेम नेम बड़ा है। - पति के क्षोभ और चिंता को चतुराई के साथ पत्नीक ने मीठे आश्वाजसन से हर लिया; परंतु वह उन्हेंक फिर चाय-नाश्ताक न करा सकी।

डॉक्ट।र इंद्रदत्त शर्मा फिर घर में बैठ न सके। आज उनका धैर्य डिग गया था। फूफाजी लगभग छै साढ़े बजे आते हैं। इंद्रदत्त का मन कह रहा था कि वे आज भी आएँगे, पर शंका भी थी। मुमकिन हैं अधिक कमजोर हो गए हों, न आएँ। इंद्रदत्त ने स्वीयं जाकर उन्हेंश बुला ले आना ही उचित समझा। हालाँकि उन्हेंग यह मालूम है कि इस समय फूफाजी स्नाआन-संध्याा आदि में व्य स्तत रहते हैं। पं. देवधर जी का घर अधिक दूर न था। डॉक्टलर इंद्रदत्त सदर दरवाजे से घर में प्रवेश करने के बजाय एक गली और पार कर बगिया के द्वार पर आए। फूफाजी गंगा लहरी का पाठ कर रहे थे। फूलों की सुगंधि-सा उनका मधुर स्वआर बगिया की चहारदीवारी के बाहर महक रहा था :

अपि प्राज्यं- राज्यंस तृणमिप परित्यचज्ये सहसा,

विलोल द्वानीरं तव जननि तीरे श्रित वताम् ।

सुध्धादतः स्वािदीथः सलिलभिदाय तृप्ति पिबताम्ज

नानामानंदः परिहसति निर्वाण पदवीम् ।।

इंद्रदत्त दरवाजे पर खड़े-खड़े सुनते रहे। आँखों मे आँसू आ गए। फूफाजी का स्व र उनके कानों में मानो अंतिम बार की प्रसादी के रूप में पड़ रहा था। कुछ दिनों बाद, कुछ ही दिनों बाद यह स्वोर फिर सुनने को न मिलेगा। कितनी तन्ममयता है, आवाज में कितनी जान है। कौन कहेगा कि पंडित देवधर का मन क्षुब्धग है, उन्होंुने चार दिनों से खाना भी नहीं खाया है? ...ऐसे व्यसक्ति को, ऐसे पिता को भोला-त्रिभुवन कष्टत देते हैं। इंद्रदत्त इस समय अत्यंत भावुक हो उठे थे। उन्होंाने फूफाजी की तन्मरयता भंग न करने का निश्चतय किया। गंगा लहरी पाठ कर रहे हैं, इसलिए नहाकर उठे हैं या नहाने जा रहे हैं, इसके बाद संध्या  करें। फूफाजी से भेंट हो जाएगी। उनके कार्यक्रम में विघ्ने न डालकर इतना समय बुआ के पास बैठ लूँगा, यह सोचकर वे फिर पीछे की गली की और मुड़े।

अम्माय !

हाँ, बड़ी। ...अपने कमरे में, दरवाजे के पास घुटनों पर ठोढ़ी टिकाए दोनों हाथ बाँधे गहरे सोच में बैठी थीं। जेठे बेटे की बहू का स्व।र सुनकर तड़पड़ ताजा हो गई। हाँ इतनी देर के खोएपन ने उसके दीन स्व।र में बड़ी करुणा भर दी थी।

बड़ी बहू के चेहरे की ठसक को उनकी कमर के चारों और फूली हुई चर्बी सोह रही थी, आवाज भी उसी तरह मिजाज के काँटे पर सधी हुई थी, वे बोली - उन्होंेने पुछवाया है कि दादा आखि़र चाहते क्यात हैं?

वो तो कुछ भी नहीं चाहे हैं बहू।

तो ये अनशन फिर किस बात का हो रहा है?

पंडित देवधर की सहधर्मिणी ने स्वकर को और संयत कर उत्तर दिया - उनका सुभाव तो तुम जानो ही हो, बहुरिया।

ये तो कोई जवाब नहीं हुआ, अम्मार। जान देंगे? ऐसा हठ भी भला किस काम का? बड़े विद्वान हैं, भक्तं हैं... दुनिया भर को पुन्नह और परोपकार सिखाते हैं... कुत्ते में क्याा उसी भगवान की दी हुई जान नहीं हैं?

बड़ी बहू तेज पड़ती गई, सास चुपचाप सुनती रहीं।

ये तो माँ-बाप का धरम नाहीं हुआ, ये दुश्म?नी हुई, और क्याउ? घर में सब से बोलना-चालना तो बंद कर ही रखा था।

बोलना चालना तो उनका सदा का ऐसा ही है, बेटा। तुम लोग भी इतने बरसों से देखो हो, भोला-तिरभुअन तो सदा से जाने हैं।

इंदर भाई साहब के यहाँ तो घुल-घुल के बातें करते हैं।

इंदर पढ़ा-लिखा है न, वैसी ही बातों में इनका मन लगे हैा इसमें...।

हाँ-हाँ हम तो सब गँवार हैं, भ्रष्टइ हैं। हम पापियों की तो छाया देखने से भी उनका धर्म नष्टभ होता है।

बहू, बेटा, गुस्सास होने से कोई फायदा नहीं। हम लोग तो चिंता में खड़े भए हैंगे रानी। तुम सबको रखके उनके सामने चली जाऊँ, विश्वुनाथ बाबा से उठते-बैठते आँचल पसार के बरदान माँगूँ हूँ, बेटा... अब मेरे कलेजे में दम नहीं रहा क्याँ करूँ? ...बुआजी रो पड़ीं।

इंद्रदत्त जरा देर से दालान में ठिठके खड़े थे, बुआ हो रोते देख उनकी भावुकता थम न सकी, पुकारा ...बुआ।

बुआजी एक क्षण के लिए ठिठकीं; चट से आँसू पोंछ, आवाज सम्हाखलकर मिठास के साथ बोलीं - आओ, भैया।

भोला की बहू ने सिर का पल्लाम जरा सम्हाेल लिया और शराफती मुस्काान के साथ अपने जेठ को हाथ जोड़े।

इंद्रदत्त ने कमरे में आकर बुआजी के पैर छुए और पास की बैठने लगे। बुआजी हड़बड़ाकर बोलीं - अरे चारपाई पर बैठो।

नहीं। मैं सुख से बैठा हूँ आप के पास।

तो ठहरो। मैं चटाई...।

बुआजी उठीं, इंद्रदत्त ने उनका हाथ पकड़कर बैठा लिया और‍ फिर भोला की बहू को देखकर बोला - कैसी हो सुशीला? मनोरमा कैसी है?

 सब ठीक हैं?

बच्चेक?

अच्छेक हैं। भाभीजी और आप तो कभी झाँकते ही नहीं। इतने पास रहते हैं और फिर भी।

मैं सबकी राजी-खुशी बराबर पूछ लेता हूँ। रहा आना-जाना सो...।

आपको तो खैर टाइम नहीं मिला, लेकिन भाभीजी भी नहीं आतीं, बाल नहीं, बच्चेथ नहीं, कोई काम...

घर में मदद लगी है। ऐसे में घर छोड़ के कैसे आई बिचारी? - बुआजी ने अपनी बहू की बात काटी।

बहू आँख चढ़ाकर याद आन का भाव जनाते हुए बोली - हाँ ठीक है। कौन-सा हिस्सा  बनवा रहे हैं, भाई साहब?

पूरा घर नए सिरे से बन रहा हैगा। ऐसा बढ़िया कि मुहल्ले  में ऐसा घर नहीं है किसी का। - सास ने बहू के वैभव को लज्जित करने की दबी तड़प के साथ कहा। बुआजी यों कहना नहीं चाहती थीं, पर जी की चोट अनायास फूट पड़ी। बड़ी बहू ने आँखें चमका, अपनी दुहरी ठोड़ी को गर्दन से चिपकाकर अपने ऊपर पड़नेवाले प्रभाव को जतलाया और पूछा - पर रहते तो शायद...!

पीछेवाले हिस्सेा में रहते हैं।

इसी हिस्सेि में जीजी का, मेरा और भैया का जनम भया। एक भाई और भया था। सब यहीं भए? हमारे बाप, ताऊ, दादा और जाने कौने-कौन का जनम...!

वो हिस्साे घर भर में सबसे ज्यादा खराब है। कैसे रहते हैं?

जहाँ पुरखों का जनम हुआ, वह जगह स्वहर्ग से भी बढ़कर है। पुरखे पृथ्वी। के देवता हैं। बड़ी बहू ने आगे कुछ न कहा, सिर का पल्ला, फिर सम्हा‍लने लगी।

आज तो बहुत दिनों में आए, भैया। मैं भी इतनी बार गई। बहू से तो भेंट हो जावे है।

बुआ-भतीजे को बातें करते छोड़कर बड़ी बहू चली गई। उसके जाने के बाद दो क्षण मौन रहा। उसके बाद दोनों ही प्रायः साथ-साथ बोलने को उद्यत हुए। इंद्रदत्त  को कुछ कहते देखकर बुआजी चुप हो गईं।

सुना, फूफाजी ने...!

उनकी चिंता न करो, बेटा। वो किसी के मान हैं?

पर इस तरह कितने दिन चलेगा?

चलेगा जितने दिन चलना होगा। बुआजी का स्वार आँसुओं में डूबने-उतराने लगा - जो मेरे भाग में लिखा होगा - आगे कुछ न कह सकीं, आँसू पोंछने लगीं।

सच-सच बताना, बुआजी, तुमने भी कुछ खाया...!

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रचनाएँ
अमृत लाल नागर की कहानी संग्रह
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अमृतलाल नागर हिन्दी के उन गिने-चुने मूर्धन्य लेखकों में हैं जिन्होंने जो कुछ लिखा है वह साहित्य की निधि बन गया है उपन्यासों की तरह उन्होंने कहानियाँ भी कम ही लिखी हैं परन्तु सभी कहानियाँ उनकी अपनी विशिष्ठ जीवन-दृष्टि और सहज मानवीयता से ओतप्रोत होने के कारण साहित्य की मूल्यवान सम्पत्ति हैं। फिर स्वतंत्र लेखन, फिल्म लेखन का खासा काम किया। 'चकल्लस' का संपादन भी किया। आकाशवाणी, लखनऊ में ड्रामा प्रोड्यूसर भी रहे। कहानी संग्रह : वाटिका, अवशेष, तुलाराम शास्त्री, आदमी, नही! नही!, पाँचवा दस्ता, एक दिल हजार दास्ताँ, एटम बम, पीपल की परी , कालदंड की चोरी, मेरी प्रिय कहानियाँ, पाँचवा दस्ता और सात कहानियाँ, भारत पुत्र नौरंगीलाल, सिकंदर हार गया, एक दिल हजार अफसाने है।
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एटम बम

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चेतना लौटने लगी। साँस में गंधक की तरह तेज़ बदबूदार और दम घुटाने वाली हवा भरी हुई थी। कोबायाशी ने महसूस किया कि बम के उस प्राण-घातक धड़ाके की गूँज अभी-भी उसके दिल में धँस रही है। भय अभी-भी उस पर छाया ह

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एक दिल हजार अफ़साने

25 जुलाई 2022
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जीवन वाटिका का वसंत, विचारों का अंधड़, भूलों का पर्वत, और ठोकरों का समूह है यौवन। इसी अवस्था में मनुष्य त्यागी, सदाचारी, देश भक्त एवं समाज-भक्त भी बनते हैं, तथा अपने ख़ून के जोश में वह काम कर दिखाते

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शकीला माँ

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केले और अमरूद के तीन-चार पेड़ों से घिरा कच्चा आँगन। नवाबी युग की याद में मर्सिया पढ़ती हुई तीन-चार कोठरियाँ। एक में जमीलन, दूसरी में जमलिया, तीसरी में शकीला, शहजादी, मुहम्मदी। वह ‘उजड़े पर वालों’ के ठ

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दो आस्थाएँ भाग 1

25 जुलाई 2022
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अरी कहाँ हो? इंदर की बहुरिया! - कहते हुए आँगन पार कर पंडित देवधर की घरवाली सँकरे, अँधेरे, टूटे हुए जीने की ओर बढ़ीं। इंदर की बहू ऊपर कमरे में बैठी बच्चेर का झबला सी रही थी। मशीन रोककर बोली - आओ, बुआज

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दो आस्थाएँ भाग 2

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 अरे तेरे फूफाजी रिसी-मुनी हैंगे बेटा! बस इन्हेंआ क्रोध न होता, तो इनके ऐसा महात्मां नहीं था पिरथी पे। क्याअ करूँ, अपना जो धरम था निभा दिया। जैसा समय हो वैसा नेम साधना चाहिए। पेट के अंश से भला कोई कैस

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दो आस्थाएँ भाग 3

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दो आस्थाएँ भाग 4

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खाती हूँ। रोज ही खाती हूँ - पल्लेँ से आँखें ढके हुए बोलीं। इंद्रदत्ती को लगा कि वे झूठ बोल रही हैं। तुम इसी वक्त मेरे घर चलो, बुआजी। फूफा भी वैसे तो आएँगे ही, पर आज मैं... उन्हेंि लेकर ही जाऊँगा। नही

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दो आस्थाएँ भाग 5

25 जुलाई 2022
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हो रहा है, ठीक है। तो फिर दादा हमारा विरोध क्यों  करते हैं? भोला, हम फूफाजी का न्याकय नहीं कर सकते। इसलिए नहीं कि हम अयोग्यय हैं, वरन इसलिए कि हमारे न्यालय के अनुसार चलने के लिए उनके पास अब दिन नहीं

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दो आस्थाएँ भाग 6

25 जुलाई 2022
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तुम अपने प्रति मेरे स्नेफह पर बोझ लाद रहे हो। मैं आत्म शुद्धि के लिए व्रत कर रहा हूँ... पुरखों के साधना-गृह की जो यह दुर्गति हुई है, यह मेरे ही किसी पाप के कारण... अपने अंतःकरण की गंगा से मुझे सरस्वमत

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धर्म संकट

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>शाम का समय था, हम लोग प्रदेश, देश और विश्‍व की राजनीति पर लंबी चर्चा करने के बाद उस विषय से ऊब चुके थे। चाय बड़े मौके से आई, लेकिन उस ताजगी का सुख हम ठीक तरह से उठा भी न पाए थे कि नौकर ने आकर एक सादा

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प्रायस्चित

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पाँचवा दस्ता भाग 1

25 जुलाई 2022
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सिमरौली गाँव के लिए उस दिन दुनिया की सबसे बड़ी खबर यह थी कि संझा बेला जंडैल साब आएँगे। सिमरौली में जंडैल साहब की ससुराल है। वहाँ के हर जोड़ीदार ब्राह्मण किसान को सुखराम मिसिर के सिर चढ़ती चौगुनी माया

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पाँचवा दस्ता भाग 2

25 जुलाई 2022
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कर्नल तिवारी घर बसाना चाहते थे। घर के बिना उनका हर तरह से भरा-पूरा जीवन घुने हुए बाँस की तरह खोखला हो रहा था। दस की उम्र में सौतेली माँ के अत्यासचारों से तंग आकर वह अपने घर से भागे थे। तंगदस्तीथ में ब

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पाँचवा दस्ता भाग 3

25 जुलाई 2022
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तारा के कमरे से आने पर दीदी अपने पलंग पर ढह पड़ी और तरह-तरह से तारा की सिकंदर ऐसी तकदीर पर जलन उतारने लगी। यह जलन भी अब उन्हें  थका डालती है। अब कोई चीज उन्हेंद जोश नहीं देती - न प्रेम, न नफरत। जिंदग

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पाँचवा दस्ता भाग 4

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तारा जब दीदी के कमरे में पहुँची तो वह अखबार से मुँह ढाँके सो रही थी। लैंप सिंगारदान की मेज पर रखा था और दीदी के पलंग पर काफी अँधेरा हो चुका था। दबे पाँव तारा बढ़ने लगी। लैंप उठाकर पलंग के पासवाले स्टू

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पाँचवा दस्ता भाग 5

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जब तारा सुहागवती हुई और अपनी माँ के घर की महारानी बनी, तो मलकिन का मन औरत वाले कोठे पर चढ़ गया। मलकिन को यह अच्छाे नहीं लगता था कि उनके घर में कोई उनसे भी बड़ा हो। बेटी से एक जगह मन ही मन चिढ़कर वह रो

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पाँचवा दस्ता भाग 6

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बार-बार हॉर्न बजने की आवाज और लोगों के घबराहट में चिल्लाँने का शोर बस्तीस में परेशानी का बायस हुआ। सुखराम के बैठक में गाँव के सभी लोग बैठे हुए थे। दामाद का इंतजाम हो रहा था। बाहर पेड़ के चबूतरे के आस

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पाँचवा दस्ता भाग 7

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सिकंदर हार गया भाग 1

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सिकंदर हार गया भाग 2

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जीवनलाल का खून बर्फ हो गया। लीला मिसेज कौल के साथ घर के अंदर ही बैठी रही थी, मिस्‍टर कौल उनसे बातें करते हुए बीच में पाँच-छह बार घर के अंदर गए थे। एक बार तो पंद्रह मिनट तक उन्‍हें अकेले ही बैठा रहना प

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सिकंदर हार गया भाग 3

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जीवनलाल ने कड़ककर आवाज दी, लीला ! लीला चौंक गई। यह स्‍वर नया था। उसने घूमकर जीवनलाल को देखा और बैठी हो गई। जीवनलाल उसके सामने आकर उसकी नजरों में एक बार देखकर क्रमशः अपनी उत्‍तेजना खोने लगे। एक सेकें

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हाजी कुल्फ़ीवाला

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कुशीनारा में भगवान बुद्ध भाग 1

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कुशीनारा में भगवान बुद्ध की विश्राम करती हुई मूर्ति के चरणों में बैठकर चैत्रपूर्णिमा की रात्रि में आनंद ने कहा-‘‘शास्ता, अब समय आ गया है।’’ भगवान बुद्ध की मूर्ति ने अपने चरणों के निकट बैठे इस जन्म के

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कुशीनारा में भगवान बुद्ध भाग 2

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‘‘अठन्नी की क्या कीमत ही नहीं होती ? इस एक अठन्नी के कारण मेरे तैतालीस रुपए खर्च हो गए। शर्म नहीं आती बहस करते हुए भरे बाजार में।’’ मेमसाहब का स्वर इतना ऊँचा हो गया था कि सड़क पर आसपास चलते लोगो— अन्य

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