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पाँचवा दस्ता भाग 7

25 जुलाई 2022

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महँगी के मारे बिरहा बिसरगा -

भूलि गई कजरी कबीर।

देखि के गोरी क उभरा जोबनवाँ,

अब ना उठै करेजवा मा पीर।।

मोटर के हार्न ने गीत को रोक दिया। गाड़ीवान ने मोटर को जगह देने के लिए अपने छकड़े को सड़क के किनारे सरका ले जाने की कोशिश शुरू की। उतने ही समय में कार उसके पास से तेज रफ्तार में गुजरती हुई, चंद की सेकेंडों में छकड़े को पीछे छोड़कर चढ़ाई की तरफ बढ़ गई।

दूर चढ़ाई से देवी के गीतों की आवाज आ रही थी। मोटर का हॉर्न तेजी से बज उठा। दुबारा जोर से किर्र-किर्र हुई।

चढ़ाई पर कुछ औरतें, बच्चेी-‍बच्चियाँ और दो-चार मरद गठरी-मुठरी सँभाले, मोटर की रोशनी से उन लोगों के लिए राह सूझने के बजाए और भी खो गई थी। मोटर के हॉर्नों के बार-बार बजने से उसकी घबराहट और चिल्लह-गुहार को अपनी थाह नहीं मिल रही थी।

चढ़ाई का मामला, ब्रेक लगाना मुश्किल था। कार गरमाई - ईडियट्स! एक बाजू हो जाओ।

मोटर कार से दूसरी आवाज आई - "हटो हटो! अरे, एक अलंग हुई जाओ।"

कार बढ़ती ही रही। बटोही घबरा-घुबरू कर, चूहों की तरह जिसे जहाँ जगह मिली, दुबककर खड़े हो गए।

कार उनके बीच से गुजरती हुई चढ़ाई पर चढ़ गई। लालटेनों की रोशनी में देवी माता के दर्शन कर लौटती हुई टोली ने देखा, सुखराम के बड़कऊ खिड़की से मुँह निकाले बैठै थे। जंडैल साब मोटर चला रहे थे और पीछे एक अरदली बैठ था।

तारा ने भी हाथ उठाए। मुख पर घूँघट न होते हुए भी नजरों में लाज के अनगिनत पर्दे पड़े जा रहे थे।

कर्नल तिवारी ने तारा को नजर भरकर देखा और रूहानी नशे में मदमाते हो, मुस्केराकर हाथ बढ़ाते हुए बोले - ये लीजिए अपनी अमानत।

उनके हाथ में तालियों का गुच्छा  था। तारा एक डग ठिठकी, फिर पति के हाथ से गुच्छाथ लेकर सूटकेस की तरफ बढ़ गई।

तारा की ओर टकटकी बाँधकर लगी हुई कर्नल तिवारी की चाह भरी आँखों को दीदी कनखियों से छिप-छिपकर देखती रहीं।

एक दृश्य- के तौर पर दीदी के लिए यह बड़ा ही मनभावना था। दीदी को अपने जीवन में पहली बार ही स्त्री -पुरुष के भावों की ऐसी तन्महयता, ऐसी सरल धारा का स्वेरूप देखने को मिला। इस दृश्यी से उनकी कल्परना भर गई। ऊपरी तौर पर सारा व्यनवहार निभाते हुए भी उनका मन उसी में रमा रहा।

दो पहर रात बीतने पर अँधेरे पाख का चाँद ऊपर आया - छत पर समाधि-सी लगाए बैठी हुई दीदी को तसल्लीत देने के लिए। दो कमरों की दरमियानी छत पर दीदी बैठी थी। तारा के कमरे के दरवाजे बंद थे। सारा आलम खामोश था - सिर्फ दीदी के बेकरार दिल को छोड़कर।

दीदी को इस वक्त न किसी से शिकायत थी और न जलन। उन्हेंर अपने फूटे नसीब पर बड़ी करुणा आ रही थी।

तारा उनकी निगाहों में आज जितनी ऊँची उठती थी, उतना ही वह अपने लिए गिरावट महसूस करती थी। उन्होंनने आज तारा में जो चमत्का्र-सा परिवर्तन पाया था, उससे दीदी में नफरत या गुस्साइ नहीं, बल्कि भय भरी श्रद्धा जागी थी। तारा में इस परिवर्तन का कारण वह प्रेम और अधिकार की तीव्र भावना मानती थी। अपने साथ तारा की बातों में जो तेजी दीदी ने शाम को पाई थी, वही रात में बड़े सधाव और शक्ति के साथ तब देखने को मिली, जब दीदी कर्नल से चढ़ाई के हंगामे को लेकर राजनीति पर बातें करने लगी थी। कर्नल साहब को शिकायत थी कि हिंदुस्ता न के लोग अभी मोटर से घबरा जाने की हद तक पिछड़े हुए हैं। दीदी को भी कर्नल के इस अनुभव से एतराज न था। मगर तारा ने इस सवाल को जिस नजर से देखा, वह सीधी और सच्चीभ थी। कर्नल और दीदी दोनों को ही यह स्वी कार करना पड़ा। तारा ने बतलाया कि लड़ाई के जमाने से, जब से फौजी लारियाँ इस सड़क पर अंधाधुंध रफ्तार से दौड़ने लगी हैं, कितने ही आदमी और जानवर घात खा चुके हैं। मोटर को देखकर उनकी जान निकल जाती है। बेचारे घबराएँ नहीं तो क्याी करें?

तारा ने राजनीति, महँगाई और लड़ाई आदि के चरचे में जो सीधा रुख अख्ति़यार किया था, जो सीधी बातें कहीं थी, वह दीदी के दिमाग में भावना की तेजी के साथ चक्क र काट रही थी।

दीदी का मन अपनी पीड़ा से उमड़कर अब जग की पीड़ा में मिल रहा था।

तारा की बातों को ही अपनी अनुभूति का रंग देकर वह सोच रही थी कि जब तक पैसे का बँटवारा ठीक-ठीक न होगा, दुनिया इसी तरह अमीरों और गरीबों में बँटती जाएँगी। अरमानों का अंत नहीं। पैसेवाला चाहता है कि जितनी तेजी के साथ उनका मन सारी दुनिया पर छा जाता है, उतनी ही तेज रफ्तार से वह दुनिया का मालिक हो जाए। हजार तरकीबों से वह अपनी ताकत बढ़ाता है - पैसे की, ओहदे की ताकत। उस ताकत के जो आत्मााभिमान का नाम देकर वह शराफत के साथ अपना गुरूर बढ़ाता है, गुस्साो बढ़ाता है। उसके गुरूर, गुस्सेथ और नफरत की रफ्तार उसके मन की तरह ऊँची और तेज होती जाती है। पूरी ताकत के साथ वह दुनिया से नफरत करता है। वह दाम बढ़ाता है, टैक्सत बढ़ाता है, डंडे-गोलियों और बमों की बरसात को और भी तेज करता है।

वह अपनी कौम से नफरत करता है। अपने से छोटे को खा जाने में और बराबरवाले को तबाह कर देने में वह हर वक्त अपना ध्याअन जमाए रखता है। इसीलिए दूसरे की तरफ से भी वह चौकन्ना  बना रहता है और इसीलिए वह अपने-आप से नफरत करता है। वह जिंदगी से नफरत करता है।

मगर वह जिंदगी से नफरत कर ही नहीं सकता, क्योंतकि उसे जीने से प्या र है। यही उसकी सबसे बड़ी उलझन है। इसी से उसके मन की तेज रफ्तार झकोले खाती है। वह सँभालने की असफल कोशिशें करता है और ज्यों -ज्यों  अपने ऊपर से उसका भरोसा उठता जाता है, वह खीझकर अपनी सारी ताकत के साथ उछाल मारता है। वह अपनी झूठी ताकत से जुआ खेलकर जिंदगी को जीतना चहता है।

मगर यह जुआ क्यों ? यह जिद क्यों ? कुछ के स्वाार्थ के लिए दुनिया के अरबों इनसानों के जीवन के साथ जुआ क्योंा खेला जाएँ? वह भी, खास तौर से उस वक्तर, जब कि जिंदगी हर तरफ से अपने लिए रास्तेआ बंद पाकर घुट रही हो। जब सामाजिक जीवन को, मजबूरियों के आगे सिर झुका-झुकाकर आत्माेभिमान को खत्म  कर डालने के लिए रोज-बरोज दबाया जा रहा है, तब राष्ट्रीआयता, अंतरराष्ट्री यता, आदर्श और सिद्धांत का सत्य  और आत्मािभिमान-यह सब क्याा मजाक है? आत्मातभिमान का झूठा घमंड किसलिए होता है?

अपने ही बोझ के सामने आदम का बच्चाो आज भुनगा बना जा रहा है। फिर सम्मायन किसका रहा? राष्ट्रों  का, जनता का या चार राजनीतिज्ञों का, जो किताबी तर्कों की दकियानूस आदत में बँधे हुए, जनता की महानता को अपने कैबिनेट-हॉलों और पार्लमेंट भवनों की विशालता के आगे भूल जाते हैं। जनता उनके लिए चहारदीवारी के अंदर बंद हो जाती है, एक कमरे में सिमट आती है। जनता उनकी जबानों से बँध जाती है। जनता अपने पंचों की मर्जी की गुलाम और अपनी मर्जी की गुनहगार हो जाती है और यह तब तक होता रहेगा, जब तक समाज पर पैसे की हुकूमत किसी भी रूप में रहेगी। इस सत्य  से किसी तरह भी आँख नहीं मींची जा सकती। पैसे की झूठी शक्ति, जब कि सच्चीस होने का दावा कर जीवन के सत्यस को धोखा दे रही हो, तब सब से पहले उसे तबाह करना ही आज का ऊँचे से ऊँचा आदर्श है, सबसे बड़ा सिद्धांत है।

दीदी में तेजी थी। अपने से निकलकर इनसानियत के उसूलों के सहारे दुनिया पर छा जाने के बाद भी वह तेजी और तड़प अपनी राह न पा सकी। दीदी अब थक चुकी हैं। उन्हेंय भी अब आराम चाहिए, सुख चाहिए, घर चाहिए।

तारा के कमरे के दरवाजे बंद हैं। दीदी के मन के दरवाजे बंद हैं। तारा के कमरे से रोशनी छनकर दरवाजे के ऊपर बनी हुई बेलदार जाली से बाहर आई। दीदी हड़बड़ाकर अपने कमरे की तरफ भागी।

लैंप के उजाले में घड़ी देखते हुए तारा ने कहा - ठीक-ठीक, तीन बजकर इक्कीखस मिनट। अभी अगर शर्त बद लेते तो मैं तुम्हें हरा देती।

नाज की नजर से तारा ने अपने पति को देखा।

पलंग पर उठकर बैठते हुए कर्नल तिवारी ने मुस्क राकर कहा - तुमसे हारने में ही मुझे जीत मिलती है।

लैंप की रोशनी में तारा के मुँह पर सुहाग के सुख, संतोष और अभिमान की गंभीरता देखकर कर्नल को अपना जीवन भरा-भरा लगा। उन पर मादकता छा गई। पलंग से उठे, तारा के पास आए। उसकी ठोढ़ी को चुटकी से उठाते हुए कहा - रानी, तुम सचमुच मेरी रानी साबित हुई। मुझे कभी भी इतनी उम्मी द न थी। आज तुमसे मैंने जो कुछ पाया है, वह अपनी किसी भी बड़ी सफलता में नहीं पाया। तुम मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी सफलता हो।

तारा ने छिटकते हुए कहा - बस बस, रहने दो न मेरी सफलता का बखान। सारी रात बिता दी इसी चरचे में।

मेज से सिगरेट का टिन उठाकर, सिगरेट निकालते हुए कर्नल ने कहा - तुम्हा रे ध्याचन में मैंने रातें गुजार दी और तुम्हेंर एक ही रात के जागने से शिकायत होती है?

तारा बोली - हाँ-हाँ, लड़ाई में मेरा ही तो ध्या'न आता होगा।

सिगरेट जलाकर कर्नल ने कहा - इसमें झूठ नहीं। लड़ाई के मैदान में सिपाही अपने घर का ध्याान ही करता है। अपने घर की हिफाजत के लिए ही वह दूने जोश से लड़ता है।

मगर इस तरह लड़ने से कहीं घर की हिफाजत होती है? दुनिया तबाह हुई जा रही है।

सिगरेट का कश खींचते हुए कर्नल ने कहा - तुम्हाारी तरह से सोचते हुए तो मुझे भी सही मालूम होता है। मगर यह भी सच है कि सच्चीक डिमोक्रेसी हासिल करने के लिए विरोधी ताकतों से हमें लड़ना ही होगा। उन्हें  खत्म‍ करना होगा। कश्मीनर में ही ले लो-हैदराबाद को लो। सारी दुनिया के मसले को लो। इन झूठी ताकतों को कैसे खत्मह किया जा सकता है? लड़ाई से ही न?

कर्नल कमरे में टहलते हुए बातें कर रहे थे। तारा मेज के सहारे खड़ी हुई थी। उसने कहा - "ठीक है। मगर यह क्यों  नहीं देखते की इन लड़ाइयों से महँगी और लूट कितनी बढ़ती है। अखबारों में पढ़ती हूँ कि सारी दुनिया में यही हाहाकार मचा हूआ है। सबका ही नुकसान है। सबके आदमी लड़ाई में मरते-कटते हैं, तबाही मचती है। तब फिर सब राष्ट्र  मिलकर यह क्यों नहीं मान लेते कि किसी दूसरे तरीके से सब के लिए नापास कर दिया जाएँ। जो सुख प्रेम और मेल में है, वो लड़ाइयों में कैसे मिलेगा?"

सिगरेट का आखिरी कश खीचकर उसे फेंकने की गरज से खिड़की की तरफ जाते हुए कर्नल ने हँसकर कहा - "फौज-पलटनें नहीं रहेंगी तो मुझे कौन पूछेगा?"

"मैं।" तारा ने अपना सारा विश्वाेस और प्रेम एक लफ्ज में भर दिया।

कर्नल खिड़की के बाहर देख रहे थे। कार सामने खड़ी थी। पिछले पहर की चाँदनी उस पर पड़ रही थी। अचानक उनकी निगाह ने गौर किया, उनकी कार में कोई बैठा था।

कर्नल में तेजी आई। फौरन अपनी अटैची खोलकर टार्च निकाली और मोटर पर रोशनी फेंककर देखा - एक औरत-मर्द बैठे थे, एक-दूसरे के सिर से सिर जोड़े हुए सो रहे थे।

कर्नल गरजे, "कार में कौन है?"

रात के सन्नारटे में आवाज चारों तरफ गूँज गई। तारा झपटकर खिड़की पर आई। मोटर पर सोता हुआ जोड़ा चौंककर जागा, सुखराम के बैठके की कुंडी खड़की, दो-चार घरों से आवाजें आने लगी, "कौन है? कौन है?"

कर्नल टार्च लिए हुए तेजी से दरवाजा खोलकर नीचे की तरफ चले।

कर्नल के नीचे पहुँचने तक सुखराम ने मुजरिम को पकड़ लिया था। चार-पाँच आदमी और भी आ गए थे। गालियों, घूँसों और तमाचों से सुखराम ने मर्द की मरम्मदत शुरू कर दी थी। औरत आदमियों से घिरी हुई अपने मरद को पिटते देखकर रो रही थी। मर्द सफाई दे रहा था कि मैं चोर नहीं हूँ।

कर्नल पहुँचे। मुजरिम के मुँह पर टार्च फेंकी। सुखराम और दूसरे लोगों ने पहचाना, रमजानी धोबी का लड़का कल्लूे था और यह औरत? उसकी जोरू थी। मोटर में क्याा करने के लिए आए थे? चुराने के लिए तो उसमें कुछ सामान नहीं। तब आग लगाने आया होगा। सुखराम के‍ दिमाग में साँप रेंगा, रमजानी शहर में कपड़े धोता है। लीगवाले हकीम साहब, के यहाँ जाता है। यह साला जरूर पाँचवे दस्तेीवाला है। सुखराम ने अपनी दलील पर जोर दिया। लोग इस दलील से जोर पाकर फिर कल्लूँ पर टूट पड़े। भीड़ बढ़ गई थी। दो-चार भद्दी गालियाँ और एक-दो तमाचे कल्लू  की जोरू पर भी पड़ गए।

तारा, मलकिन, दीदी और महरी भी दरवाजे पर आ गई थी। औरत पर हाथ उठते देख, तारा तड़प उठी। उसने तेज आवाज में महरी से कहा, "स्यादमी। उस औरत को यहाँ बुला ला। शरम नहीं आती औरत पर हाथ उठाते।"

मलकिन ने एतराज किया। तारा ने उसे अनसुना कर श्याामा को जाने के लिए डाँटा। श्याामा दौड़ी गई।

कर्नल ने पूछताछ की। सुखराम और दूसरे लोगों ने भी कल्लूा से यह कबूल करवाना चाहा कि यह किसी का सिखाया-पढ़ाया हुआ जंडैल साब की मोटर में आग लगाने आया था। लेकिन मार खाकर भी कल्लूक यह कबूल नहीं कर सका। वह अपनी घरवाली के जिद करने पर, उसे नजदीक से मोटर दिखाने लाया था। उसी की जिद पर वह उसे लेकर मोटर में बैठा और सुख में दोनों की आँखें लग गई।

लोगों को इस पर यकीन ही नहीं आता। वे चाहते थे कि कल्लूु यह कबूल कर ले कि ये लोग हकीम के सिखाने से पाँचवें दस्तें की कार्रवाई करने आए थे।

सुखराम के बैठके में कल्लूे की औरत रो-रोकर कह रही थी - "मेरी जिद के कारन आज उनकी जान पे बनि आई। हाय मोरे अल्लाे, मोरी दीन-दुनिया उजरी जाति है।"

तारा की आँखों में आँसू बहने लगे। उसने श्यारमा से कहा - "उन्हेंत यहाँ बुला लाओ और कहना कि कल्लूक को भी ले आएँ।"

मलकिन और दीदी तारा को देख रही थी।

कर्नल तिवारी को अपनी पत्नीर के कहने से, कल्लूह की उस सफाई पर विश्वा स हो गया कि जिसे किसी हद तक मानते हुए भी वह गँवार देहातियों के हंगामे से दूर रहकर, कोई फैसला करने की उलझन में खड़े-खड़े मार का तमाशा देख रहे थे।

बैठक के बाहर दहलीज में सुखराम थे, बड़कऊ थे, दो-एक पड़ोसी बुजुर्ग भी खड़े थे। तारा जोश में आकर बोली - "पाँचवाँ दस्ता  इसमें नहीं हमारे मनों में है। एक झूठे-शक पे बेचारों की दुर्दशा कर डाली।"

कर्नल चुप रहे। उन्हेंं अफसोस था। बात को हल्काह और खुशगवार बनाने की नीयत से उन्होंखने कहा - सवेरे तुम दोनों हमारे साथ चलना। मैं तुम्हें् मोटर पर सैर कराऊँगा।

नहीं मालिक!" कल्लूा बोला - "इसकी हठधर्मी के मारे एक बार मोटर पर बैठकर बहुत सजा भुगत ली। मार से जादा मुझे इज्ज"त का गम है। गरीब की सच्चीं बात की भी बड़ों में कदर नहीं? मैं गरीब हूँ तो इसलिए पाँचवाँ दस्ता  हो गया और जो लोग बड़े हैं, आपुस में एक-दूसरे का गला काटते हैं, आगें लगाते हैं, सारी खिलकत को उजाड़ते हैं, उन्हेंट कोई पाँचवाँ दस्तार नहीं कहता। वाह रे इनसाफ!"

कल्लू  के माथे का खून बहकर आँख पर आया। तहमत के छोर से उसे पोंछते हुए उसने अपनी घरवाली से कहा - चल री! हजार बार समझाया था कि तेरी झोंपड़ी में बड़े-बड़े महलों में भी जादा सुख है। मुलु तू नहीं मानी अब खड़ी क्याआ है, चलती क्योंत नहीं?"

दोनों बैठके से चले गए।

सारा आलम सिर झुकाए खामोश रहा।

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रचनाएँ
अमृत लाल नागर की कहानी संग्रह
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अमृतलाल नागर हिन्दी के उन गिने-चुने मूर्धन्य लेखकों में हैं जिन्होंने जो कुछ लिखा है वह साहित्य की निधि बन गया है उपन्यासों की तरह उन्होंने कहानियाँ भी कम ही लिखी हैं परन्तु सभी कहानियाँ उनकी अपनी विशिष्ठ जीवन-दृष्टि और सहज मानवीयता से ओतप्रोत होने के कारण साहित्य की मूल्यवान सम्पत्ति हैं। फिर स्वतंत्र लेखन, फिल्म लेखन का खासा काम किया। 'चकल्लस' का संपादन भी किया। आकाशवाणी, लखनऊ में ड्रामा प्रोड्यूसर भी रहे। कहानी संग्रह : वाटिका, अवशेष, तुलाराम शास्त्री, आदमी, नही! नही!, पाँचवा दस्ता, एक दिल हजार दास्ताँ, एटम बम, पीपल की परी , कालदंड की चोरी, मेरी प्रिय कहानियाँ, पाँचवा दस्ता और सात कहानियाँ, भारत पुत्र नौरंगीलाल, सिकंदर हार गया, एक दिल हजार अफसाने है।
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कुशीनारा में भगवान बुद्ध की विश्राम करती हुई मूर्ति के चरणों में बैठकर चैत्रपूर्णिमा की रात्रि में आनंद ने कहा-‘‘शास्ता, अब समय आ गया है।’’ भगवान बुद्ध की मूर्ति ने अपने चरणों के निकट बैठे इस जन्म के

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कुशीनारा में भगवान बुद्ध भाग 2

25 जुलाई 2022
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‘‘अठन्नी की क्या कीमत ही नहीं होती ? इस एक अठन्नी के कारण मेरे तैतालीस रुपए खर्च हो गए। शर्म नहीं आती बहस करते हुए भरे बाजार में।’’ मेमसाहब का स्वर इतना ऊँचा हो गया था कि सड़क पर आसपास चलते लोगो— अन्य

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