तारा के कमरे से आने पर दीदी अपने पलंग पर ढह पड़ी और तरह-तरह से तारा की सिकंदर ऐसी तकदीर पर जलन उतारने लगी। यह जलन भी अब उन्हें थका डालती है। अब कोई चीज उन्हेंद जोश नहीं देती - न प्रेम, न नफरत।
जिंदगी थक गई है। तन या भार पत्थ र बन गया है, जिसे न उतार पाती है, न छोड़ पाती है। उनके होश में कभी भी उनका मनचाहा न हुआ।
एक बैंक के दफ्तरी के घर पैदा हुई। पढ़ने में सदा अव्वथल आने पर भी दफ्तरी की बेटी होने से अपनी बराबरवालियों में बराबरी का दर्जा न पा सकी। उनके पास अच्छे कपड़े नहीं, शान-शौकत नहीं। छठे में थी, तब बाप ने स्कूाल से उठाकर इनका ब्या ह कर दिया। पति-देव जुआरी, छैला और तुनुकमिजाज। दीदी हठीली, तुनुकमिजाज और रूप-रंग की मामूली। शादी के दो बरस बात ही पति ने धक्केम मारकर घर से निकला दिया। दीदी मैके नहीं गई। उसी मुहल्लेम में रही, अलग कुठरिया लेकर। छोटी बच्चियों की ट्यूशनें करने लगी। सिलाई-बुनाई, कढ़ाई-कसीदे के काम में होशियार थी। हरेक के सुख-दुख में दस कदम आगे बढ़कर शरीक होने वाली, नीयत-बात की साफ और मुँह पर खरी कह डालने वाली नौजवान लड़की - अपने जुआरी पति के अन्यााय से सताई गई अबला नारी -जब सबला बनकर अपनी मुसीबतों से मोर्चा लेने लगी तो सब के मन चढ़ गई। दीदी ने अपने बल पर पढ़कर इंटर किया। जान-पहचान और मुहल्लेन पड़ोस में भला नाम कमाया। म्यूबनिसिपल स्कूलल में मास्टसरनी हो गई। अपनी शक्ति पर दीदी जितना आगे बढ़ सकती थी, बढ़ गई। फिर भी दीदी अपने को सुख न दे सकी, शांति न पा सकी।
दीदी को इसकी झुँझलाहट है। सैकड़ों बुखार इसी न खत्म होने वाली झुँझलाहट का सहारा लेकर अमरबेल-से बढ़ते हैं। मन की उमंग, जीवन का रस सूखता गया, सूखता गया। वही सूनापन दीदी को खाए डालता है। उसी की खीज है, उसी की आग है, जो दीदी को किसी करवट में भी चैन नहीं लेने देती।
दीदी अपने-आप के लिए एक सजा बन गई हैं। दीदी अपने से नफरत करती हैं। वह अपने-आप से बचती है। वह सारी दुनिया से बचकर चलती है। उन्हेंी सारी दुनिया से नफरत है। नफरत को पनाह मिलती है खुदपस्तीद में और उसकी भी एक हद है। लेकिन इसके लिए दीदी क्याह करें कि वह बेसाख्ता उस हद तक बाहर गुजर जाती हैं। मन के सपने सन्निपात की तरह बातों में उबल पड़ते। क्याख उन्हेंर सुख पाने का अधिकार नहीं? क्याे उन्हेंा किसी की छाया पाने का अधिकार नहीं? क्या उन्हेंय पुरुष पाने का अधिकार नहीं? उनमें कौन-सी कमी है? रूप? मगर गुण तो है। चरित्र है। वैसे दीदी अपने को देखने-सुनने में भी किसी से कम कर नहीं मानती। हर एक के नाक-नक़्श, बोल-चाल में खोट निकालती हैं - किसी को भी नहीं छोड़ती। तब फिर क्यों उन्हेंप किसी का प्यातर नहीं मिलता? किसी पर अधिकार क्यों नहीं मिलता?
वह अपना अधिकार लेगी। उन्हें पति चाहिए - कुछ अफसर, आई.सी.एस. जैसा, न हो तो डॉक्टीर ही चलेगा। मगर बँगला, कार, रेफ्रीजिरेटर, रेडियो और टेलीफोन होना निहायत जरूरी है। वह पति के साथ हवाई जहाज पर उड़ा करे, सभा-सोसायटियों में लेक्च र दिया करे - यही सब जो आज की दुनिया में एक शानदार, इज्जतदार, बड़े आदमी कहलाने की इच्छाो रखने वाले के मन में होता है, वही दीदी के मन में भी हैं। 'कुछ-कुछ' में उनके सपने 'बहुत-कुछ' हो जाते हैं, और बहुत-कुछ का अंत नहीं। अधिकारों और आजादी की अंत नहीं। जीवन मृगजल की तरह भागता चला-बेतहाशा, बेपनाह! कोई भी हो, उससे क्याी? कल्प ना का सतीत्व तो कभी भंग होता नहीं - क्योंरकि दुनिया किसी के मन की क्याो जान सकती है? और तब-वह गंगा की तरह निर्मल है, यह दुनिया को दिखाई देती है, इसके लिए दीदी को सब से मान मिलता है।
दीदी अपने तन से, अपनी सूरत से नफरत करती थी। जितना नफरत करती, उतना ही उसे सजाने-सँवारने में, किसी तरह से प्या र के काबिल बनाने में उनका ध्याान जाता। सादगी इज्जत की निशानी है। इसीलिए दीदी बड़ी सादगी के साथ अपने को सजाती थी। कपड़ा साफ और उजला रहे, जरूरत के वक्त दिन में दो बार बदल लेती थी। मुँह और माँग चमकती रहे, चाहे दिन में बार-बार कंघे-शीशे के सामने जाना पड़ते।
दीदी पलंग से उठी। स्टूलल से लैंप उठाकर सिंगारदान की मेज पर लाई और अपने को निहारने लगी। जुड़ा खोल डाला। तारा के कमरे में जाने से पहले भी दीदी सिंगारदान की मेज पर ही थी। दीदी ने कंघा हाथ में उठाया और गुनगुनाने लगी, 'मोहब्बनत कर के भी देखा, मोहब्बत में भी धोखा है।
तारा के मास्टउननी बनने के बाद तारा की तरफ से ग्रामोफोन के रिकार्डों की फरमाइश दीदी ही किया करती, महीने में दो बार कैप्टेन वर्मा का चपरासी हाजिरी बजा आता था। तारा के साथ रहते हुए उन्हें करीब-करीब वही मान-सम्माान, सुख भोग मिलता था, जो तारा को मिलता था। तारा रानी की मास्टकरनी की बड़ी आवभगत थी और उस आवभगत के साथ दीदी तारा के रोमांस में शरीक थी। दीदी तारा के लिए प्रेम के खत लिखती थी। तारा के पति से पाए गए प्रेम पत्र दीदी अपने हाथ में लेकर पढ़ती थी, तारा उनके कंधे से लगी हुई सुना करती थी। दीदी तारा के शरीक थी। इसके बाद खुद भी कर्नल तिवारी से खत-किताबत का सिलसिला जारी किया। तारा की तरक्की की रिपोर्ट अँग्रेजी में भेजने लगी। कर्नल ने अपने खतों में इनके काम को सराहा, पत्नीप की सहेली के नाते कुछ अपनापन भी दिया - दीदी हवा में गाँठें बाँधने लगी।
एक बार गाँव की छोटी लड़कियों को पढ़ाने का काम तारा के जिम्मेर सौंपने के लिए दीदी ने कर्नल से इजाजत माँगी। उन्हों़ने अपनापन जताने की नीयत से यह भी लिखा कि वह तारा से खूब काम लेना चाहती हैं, जिससे उसमें जिम्मे दारी की भावना बढ़े। तुरंत कर्नल का जवाब आया कि हर काम में मिसेज तिवारी की सेहत और खुशी का पहले ध्यािन रखा जाएँ।
दीदी के कलेजे में आरी चल गई। तब से गुनगुनाने का जी चाहने पर गाया करती 'मोहब्ब्त कर के भी देखा...।' फिर इसके बाद जब तारा ने अपने पति के पत्रों पर से दीदी का अधिकार हटा लिया तो वह सहसा अपने को बेआसरा महसूस करने लगी। दोनों के बीच वक्त अकेला गुजरने लगा। इसी अकेलेपन में दीदी को दो-दो तीन-तीन बार बाल सँवारने की आदत पड़ गई। तारा का ग्रामोफोन अपने कमरे में लाकर कभी घंटों अकेली बैठी-बैठी रिकार्ड बजाया करती।
दीदी हारने लगी, खीझने लगी और तड़पकर अपनी स्थिति को सँभालने लगी। वह अपने शहर और पढ़े-लिखेपन के बल पर दंभ और चतुराई के साथ तारा पर हावी होने की कोशिश करने लगी।
तब से दोनों की नजरों में जो काट आई थी, उससे दुनियादारी की नजर में तो कोई खास भेद न पड़ा, मगर उनके दिलों पर एक गहरा पर्दा जरूर पड़ गया।
छह रोज पहले कर्नल तिवारी के आने की खबर से दीदी तिलमिला गईं। उन्हें। इस बात का डर और विश्वा स हो गया कि पति के आते ही तारा उन्हें नौकरी से बर्खास्तस कर देगी।
यह शक रह-रहकर तूफान उठाने लगा। उनकी हिफाजत, चैन-आराम और पेट की समस्या को सुलझाने या उलझा देने की शक्ति भी किसी दूसरी स्त्री के हाथ में है, यह खयाल दीदी की जलन को चैन न लेने देता था। अपनी इस बेबसी से वह नफरत करती थी, और इसीलिए वह तारा से नफरत करती थी। उन्हेंथ अपने ऊपर भी झुँझलाहट थी कि क्यों उन्होंलने एक झूठे मनबहलाव को अपना सहारा बनाया।
मगर क्याे उन्हेंऊ प्रेम करने का हक नहीं? तकदीर की सिफारिश के जोर पर बेवकूफियों और निकम्मेापन के इस बंडल, तारा को तो मान-सम्माकन, रुपया-रुतबा, सामाजिक हिफाजत-सब कुछ मिल जाए और उन्हेंे जीवन भर के लिए खाली अशांति? यह कहाँ का न्याफय है? अपनी शक्ति और काबलियत पर जिंदगी से इतनी बहादुरी के साथ मोर्चा लेने के बावजूद उनकी रोटी और दैनिक जीवन की जरूरतें तक दूसरों की मर्जी की मुहर लगे बिना उन्हेंल मयस्सउर न हो? इसे वह कैसे बर्दाश्ति कर ले?
गिरे हुए दूध पर चौका लगाने की जिद ठानकर दीदी ने तारा से छेड़ लेनी शुरू की। उसके हर काम में, हर बात पर दीदी एक न चिप्पीद जरूर लगाने लगी, 'साजन आएँगे, देखेंगे कि उनकी देहातिन जूलियट शहर के साबुन से रगड़-रगड़ नहाने के बाद भी गाँव की बोसदगी से बसी हुई हैं।' तारा के पति आ रहे हैं, इस खयाल को उन्होंनने तारा का सबसे बड़ा डर बना दिया। हर सेकंड जाता और तारा की चिंता दूनी कर जाता। हँसी और कहकहों की दीवार उठाकर दीदी दिन-रात को छिपी मार मारने लगी। तारा कभी सँभल जाती, कभी लड़खड़ाती और कभी मुकाबला करते-करते थक जाती। दीदी हर वक्त तारा के चेहरे पर अपनी दवा का असर देखा करती। उसे देखकर खुशी दीदी के कलेजे में जहर बुझी छुरी-सी उतरती चली जाती। इस तरह वह कर्नल तिवारी के खत से बदला ले रही थी।
दीदी अपनी हेकड़ी से तारा को यह जताती कि उनकी गुण-विद्या का तेज तारा के रूप और तकदीर, दोनों से बड़ा है और उनका जन्मसिद्ध अधिकार है कि सुहाग के चुनाव में वह भी उम्मीददवारी करें। इशारे-इशारे में एक दिन उन्होंअने तारा को एक नए तर्क से चौंका दिया कि वे तारा-कर्नल के विवाह को विवाह ही नहीं मानती। शादी उम्र भर की साझेदारी है। इतनी बड़ी उम्र में छोटी उम्र की युवती से शादी करना और फिर बिना लियाकत देखे ही टीका चढ़ा देना बुद्धि के कानून से गलत है और गलती का फल एक न एक दिन जरूर ही मिलता है।
दीदी खिलखिलाकर हँसती हैं, मजाक करती हैं, ताने कसती हैं और सिंगार करती हैं। दीदी गाती हैं, 'मुहब्बलत कर के भी देखा...।' और दीदी तारा को बार-बार डसकर उलट-उलट जाती हैं। उन्हें कल नहीं पड़ती।
सिंगारदान के आईने से ढोलक बजाकर अपनी खूबसूरती का सर्टिफिकेट ले लेने के बाद दीदी उठीं। कमरे में इधर-उधर टहलती रहीं।
अपनी किताबों और नोट बुकों में उन्हें 'नवजीवन' का वह पुराना अंक मिल गया, जिसमें पंडित जवाहरलाल नेहरू से हाथ मिलाते हुए कर्नल तिवारी की तसवीर छपी थी। दीदी ने उसे उठा लिया। देखती रही। पलंग पर आकर लेट गई और टकटकी बाँधकर देखती रही। फिर नींद आ गई।
दीदी को अपने कमरे से चलने के लिए कहने के बाद तारा पछताई। लाख बुराई होने पर भी उसे दीदी से बिगाड़ नहीं करना चाहिए था। मगर उसके पति पर कोई दूसरी स्त्री अपना झूठा अधिकार जमाना चाहे और वह चुपचाप रहे, यह बात भी अब तारा की सहन-शक्ति से बाहर होती चली जा रही थी। अपने अमंगल से वह इस हद तक डर गई कि नफरत फूट पड़ी। वह दीदी को कुचल डालना चाहती थी।
वह चाहती थी कि दीदी को उसी दम बरखास्ति कर दिया जाएँ। यह उसके बस में न था। इसलिए वह सोचती थी कि पति के आने के बाद वह पहले दीदी को ही निकलावाकर बाहर करेंगी।
यही दूसरी उलझन उसका रास्ताक रोकती थी। उसे नहीं मालूम कि उसके पति उसके हो भी सकेंगे या नहीं। उसे नहीं मालूम कि वह अपने पति को क्यों कर अपना बनाए। अम्मा उसे पाउडर और कलाई की घड़ी लगा लेने के लिए जोर दे गई। दद्दू ने भी अम्माक से कहलाया है कि तारो उनके आगे नीकी-नीकी रहे। सातों विलायत घूमे, सातों इलम छाने हैं। कोई बात उनकी मर्जी से हेठी न हो। तारा सोचती कि कलाई की घड़ी, साड़ी-पाउडर से क्यां वे राजी हो जाएँगे? और जो उनकी यही चाहना रही तो फिर उसके भाग क्योंत खुले? शहरों में एक से एक पढ़ी-लिखी और फैशनवालियाँ पड़ी हैं। विलायत में तो परियों-जैसी मेमें उन्हें् मिल जाती। तब तारा से उन्हेंह क्याफ चाहिए?
तारा मन ही मन घुट रही थी। उसकी रक्षा के लिए कोई उपाय नहीं। घड़ी में वक्त आगे खिसकता जा रहा हैं। हद, घंटे-डेढ़-घंटे में उसके पति आ जाएँगे। और वह अभी तैयार भी तैयार भी नहीं हुई। उसे समझ ही नहीं पड़ता कि वह कैसे तैयार हो? उसकी सलाहकार, मददगार, दीदी भी उसकी दुश्मुन हो बैठी है। धमकियाँ देती हैं कि यह अनमेल विवाह दुखों का घर बनेगा। उसका सुहाग मुलम्मेा की तरह नकली साबित होगा और दीदी के कहे मुताबिक यह बातें सच होंगी ही, क्योंुकि वह निकम्मीी है, गँवार-देहातिन है, वह अपने पति को रिझाना नहीं जानती।
तब क्याी उसका सारा किया-धरा, सारी मेहनत और लगन, उसके अरमान, सपने - सब घंटे भर बाद धूल में मिल जाएँगे?
काश कि उसे अब भी मालूम पड़ जाएँ कि उसमें क्या कमी है? क्यों् वह अपने पति को अपना नहीं बना सकती?