‘‘अठन्नी की क्या कीमत ही नहीं होती ? इस एक अठन्नी के कारण मेरे तैतालीस रुपए खर्च हो गए। शर्म नहीं आती बहस करते हुए भरे बाजार में।’’ मेमसाहब का स्वर इतना ऊँचा हो गया था कि सड़क पर आसपास चलते लोगो— अन्य साहबों मेमों ने भी सुन लिया और सोहनलाल साहब को देखकर मुस्कराए।
सोहनलाल साहब का सिर झुक गया, मन भारी हो गया। आदमी लाख साहब हो जाए पर क्लर्क का कलेजा पाकर वह डांट फटकार प्रूफ जरूर हो जाता है। लोगों की व्यंग्य भरी मुस्कानें देखकर सोहनलाल साहब का दिल टुकभारी तो हुआ, वैराग्य के किस्म के भाव जागे मगर फिर चिकने घड़े की तरह होकर मेमसाहब का साथ निबाहने के लिए साड़ी, सैण्डिल ब्लाउज, और बुद्ध के बोझ से लदे तेज कदम बढ़ाने लगे।
सड़क के किनारे सायबान पड़े लकडी के एक रिफ्यूजी रेस्टोरां से बुद्ध जयंती के मौसम में रेडियो सुना रहा था’’ बुद्ध शरण गच्छामि।’’ साहब सोचने लगे काश कि आज के दिन लार्ड बुद्धा होते तो वे दफ्तर और मेमसाहब को त्याग कर बुद्ध शरण गच्छामि हो जाते। हिन्दुस्तान आजाद हो गया मगर सोहनलाल साहब को अभी तक आजादी नहीं मिली। आधे मिनट के लिए वे चुल्लू भर दुख में डूब गए।
नई दिल्ली के वातावरण में व्याप्त भगवान् ने विचार कर देखा कि उनके प्रकट होने के लिए उपयुक्त परिस्थिति और क्षण उत्पन्न हो चुका है। तथागत राष्ट्रपति भवन में प्रकट होने के बजाय पीड़ित प्राणियों के बीच में प्रकट होना चाहते थे।
पत्नी और अफसरों द्वारा चिरप्रताड़ित बाबूवर्गीय कुल्चरणवर्ण के साहब सोहनलाल के दाहिने हाथ से अचानक वह कागजी डिब्बा उछल गया जिसमें भगवान की मूर्ति थी।
हाय मेरे बुद्धा। साहब घबराकर बोल उठे डिब्बे को जमीन पर गिरने से बचाने के लिए वे सुधबुध भूलकर लपके। मेमसाहब के साड़ी ब्लाउज का डिब्बा उनकी बगल से खिसक गया।
‘हाय, मेरा साड़ी ब्ला...। मेमसाहब की बात का हार्ट फेल हो गया, आती-जाती भीड़ आश्चर्य उभचुभ होकर ऊपर ताकने लगी और विनयनगरी साहब का तो अजब हाल था-उन्होंने देखा कि उनका बुद्धवाला डिब्बा जमीन पर गिरने के बजाय ऊपर उड़ गया और देखते ही देखते उसमें से एक प्रकाश पुंज निकलकर धरती के अन्दर बढ़ने लगा।
जनता आश्चर्य से देख रही थी। प्रकाश पुंज सिमटकर आकार ग्रहण करने लगा। काषायचीवरधारी भगवान अभयमुद्रा में धरती पर प्रकट हो गए। वे हूबहू म्यूजियमों में रक्खी स्वमूर्तियों जैसे ही थे। भेद केवल इतना था कि सिर घुंघराले केश नहीं थे। भिक्खुओं के समान शास्ता का सिर भी मुण्डित था।
आकाश से भगवान पर पुष्पवर्षा होने लगी। हवा में घंटा शंख आदि मंगलवाद्य गूंजने लगे, इतिहास की सैकड़ों सदियों ने ‘बुद्धं शरण गच्छामि’ का तिबाचा गुंजरित किया। जनता भगवान के पाद पद्मों में विह्वल होकर गिरने लगी। सड़कों पर ट्राफिक जाम हो गया। यह सब देखकर साहब सोहनलाल की प्रत्युपन्नमतिजागी। वे पास की किसी दुकान से प्राइममिनिस्टर को फोन करने के लिए लपके, बौना चांद को छू पाने का ऐसा सुनहरा अवसर भला क्योंकर छोड़ सकता था, खास तौर पर जबकि यह चमत्कार उसके लार्ड बुद्धा ने दिखलाया हो।
दस मिनट के अन्दर सारी दिल्ली में हुल्लड़ मट गया। सरकारी टेलीफोन एक दम से व्यस्त हो उठे।
सरकारी पुर्जों में सवाल जवाब लड़ने लगे :
‘‘यह खबर उड़ाई गई है। स्टंट है।’’
‘‘खबर की सच्चई जांच ली गई है। भारत में सब कुछ संभव है। बुद्धजयंती के अवसर पर भगवान बुद्ध का आना बड़ी महत्त्वपूर्ण बात है। दुनिया में इण्डिया की प्रोस्टिज़ बढ़ जाएगी।’’
‘‘मगर पहले इस बात की जांच कर लेनी चाहिए कि भगवान बुद्ध अपनी मूर्तियों जैसे सुन्दर हैं या नहीं। क्योंकि अगर उनकी पर्सनालिटी वीक हुई तो बुद्ध जयंती का सारा शो बिगड़ जाएगा। लोगों पर बड़ा खराब इम्प्रेशन पडे़गा।
‘ठीक है। मगर यह भी जांच लेना चाहिए कि उनके विचार अब भी वैसे ही हैं और वे हमारी प्रेजेन्ट नेशनल और इन्टरनेशनल पालिसी से मेल खाते हैं या नहीं ?’’
‘‘मगर पहले उनका स्वागत।’’
‘‘कैसे हो सकता है स्वागत ? वह हमारे प्लान में नहीं। और बुद्ध जी को इस तरह लिखा-पढ़ी किए वगैर प्रकट नहीं होना था।’’
लाल फीते पर दौड़ने वाले पुरजे हर कदम पर वैधानिक गांठों से अटकने लगे।
उधर भगवान निरंतर उमड़ते अथाह जन समुद्र के हड़कम्पी जोश से घिरते ही जा रहे थे। बड़े-बड़े धनी धोरियों की डीलक्स लिमोसीन कारें हार्न बजाते और होड़ा-हाड़ी करते हुए भगवान की सेवा में पहुंचने के लिए भक्तों की भीड़ चीरे डाल रही थीं। हर लक्ष्मी-पुत्र चाहता था कि सबसे आगे पहुंचकर वही भगवान को अपना मेहमान बना ले। और इन्हीं लक्ष्मी पुत्रों की भीड़ में लखपति करोड़पतियों को ढकेलते, प्राइम मिनिस्टर को फोन कर लौटे हुए विनयनगरी साहब सोहनलाल भी ठीक उसी प्रकार आगे बढ़े जा रहे थे जिस प्रकार ढाई हजार और कुछ बरस पहले वैशाली के राजपथ पर लिच्छवि कुमारों के रथों से टकराते हुए अम्बपाली का रथ आगे बढ़ा था।
सेठों ने धक्के खाकर कोध और उपेक्षा से सोहनलाल साहब की तरह देखकर कहा-‘‘ए बाबू, अपनी हैसियत देखकर होड़ लो। परे हटो।’’
भगवान के भरोसे विनयनगरी साहब भी आज अकड़ गए बोले-‘‘सोशलिज्म आ गया है जानते हो। भगवान अब तुम्हारी मोनोपली नहीं रही। यू डर्टी कैपिटैलिस्ट।’’
पीड़ित प्राणी को सान्त्वना देने के लिए भगवान विनयनगर पधारे। भगवान की कृपा से विनयनगर इस समय शान नगर बन गया।
इतनी देर में वैधानिक आलस्य और प्रतिबन्धों की फांस काटकर राष्ट्रपति एवं प्रधान मंत्री स्वयं भगवान की सेवा में उपस्थित हुए एवं राष्ट्रपति भवन के मुगलाराम में विहार करने की प्रार्थना की। सोहनलाल साहब की ओर एक दृष्टि डालकर भगवान बोले-‘‘आवुस्स एक दिन इसके यहाँ ही विहार करूँगा। राष्ट्रपति भवन में जनता न पहुंच सकेगी।’’
‘‘भक्तों को भगवान से अलग रखने का विधान आपके देश में अब तक लागू नहीं हुआ प्रभु आप भले पधारे।’’
भगवान ने अत्यन्त विनयशील राष्ट्रपति का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
सोहनलाल और प्रेमलता के चेहरे उतर गए। खैर इतनी देर ही सही, भगवान उनके घर ठहरे यही क्या कम है। प्रेमलता मेमसाहब ने साहब के कान में फूंका। भगवान से कहो सिफारिश कर देंगे। साहब तुरन्त भगवान के पास पहुंचे। उनसे कान में प्रार्थना करने लगे : ‘‘आप नेहरू जी से कह दें। वे मुझे सेकेटरी नहीं तो जाएण्ट इडीशनल या अण्डर-’’
‘‘ये क्या—ये क्या बदतमीज़ी है ? आप भगवान बुद्ध के कान में बात करने की गुस्ताखी कर रहे हैं। जाइये यहां से।’’ जवाहरलाल जी नाराज़ हुए।
दुनिया भर के हवाई जहाज़ पालम हवाई अड्डे पर उतरने लगे। देश-देश की टेलीविज़न फिल्म यूनिट पहुंच गई। चीन, जापान, जावा, सुमात्रा, इण्डोनशिया, थाइलैण्ड बरमा, श्रीलंका, तिब्बत और भारत के कोने-कोने से बौद्ध भिक्षु ‘चलो दिल्ली’ का नारा लगाने धर्म चक्र घुमाते पहुंचनें लगे। दिल्ली काषयचीवरों और मुण्डित मस्तकों से भर गई। त्रिपिटकाचार्य महापण्डित राहुल सांस्कृत्यान और प्रगतिशील कवि नागार्जुन गृहस्थाश्रमी वेष में अपने भिक्क्षु हृदय संभाले दौड़े चले आए। मार्क्सवादी विद्वान डा. राम विलास शर्मा को चूंकि भाषा विज्ञान का मोहन जोदारो खोदते हाल ही में यह पता चल गया है कि भगवान बुद्ध की भाषा में अवधी शब्दों की भरमार है, इसलिए वे भी श्रद्धा पूर्वक भागे चले आए।
पण्डित बनारसी दास जी चतुर्वेदी भगवान के प्रोपेगडार्थ हिन्दी भवन में स्वागत समारोह का प्रबन्ध करने लगे। बुद्ध अभिनंदन ग्रन्थ के चक्कर में डा. नगेन्द्र की मोटर का चक्का अनवरत गति से घूमने लगा। गांधी जी के समान बुद्ध जी का प्रोर्ट्रेट बनवाने के लिए जैनेन्द्र जी दिल्ली के हर मूंगफली वाले की दूकान से छिलके बटोरने के काम में संलग्न हो गए। हिन्दी जगत में, सारे देश के साहित्यिक जगत में नई प्रेरणा का साइक्लोन उठ आया। ‘यशोधरा’ के रचयिता राष्ट्रकवि स्लेट बत्ती लेकर तुरन्त यशोधरा-सर्वस्व नामक महाकाव्य रचने बैठ गए। निरालाजी को भगवान बुद्ध के नाम स्वामी रामकृष्ण परमहंस का पत्र कविता लिखते देख सरकारी पंडे सरकार से लिखापढ़ी करने लगे कि महाकवि भगवान बुद्ध को चायपार्टी देना चाहते हैं इसलिए रुपये लाओ। पंत जी का मेडीटेशन एक घंटे से बढ़कर कई घंटो का हो गया और वे स्वर्ण सूर्य की अवतारणा करने लगे। दिनकर जी बुद्ध जीवन के चार अध्याय लिखने के लिए दिल्ली में अण्डरग्राउण्ड चले गए। नवीन जी, महादेवी जी, सियाराम शरण जी, रामकुमार जी, बच्चन जी, नरेश जी, सभी एक भाव से बुद्ध चिन्तन में रत हो गए। प्रयोगवादी कवियों ने भी बुद्ध जी पर अनेक प्रयोग कर डाले।
प्रेस कान्फ्रेंस हुई। भगवान से तरह-तरह के प्रश्न पूछे गए। स्टालिन के प्रति रूस के रवैये को आप किस दृष्टि से देखते हैं ? क्या आप प्रेजिडेन्ट आइजन हावर से शान्ति की अपील करने अमेरिका जाना पसन्द करेंगे ? अपने और नेहरू जी के पंचशील की तुलना कीजिए। सारिपुत और महायोग्यलायन की पवित्र अस्थियों के बारे में आपके क्या विचार है ? बम्बई महाराष्ट्र को मिलना चाहिए अथवा नहीं ? उत्तर प्रदेश के सेल्सटैक्स आर्डिनैंस पर आपके क्या विचार है ? हिन्दी में प्रयोगवाद के बाद क्या आएगा ? आदि अनंत प्रश्नों की झड़ी लग गई। अनेक यूनिवर्सिटियों ने डाक्टरेट की डिगरियां देने का निश्चय कर डाला : भगवान को नोबुल शान्ति पुरस्कार और स्टालिन शान्ति पुरस्कार देने की बात भी बड़ी जोर से उठी। कुछ प्रभावशाली लोगों ने यह आपत्ति उठाई कि स्टालिन चूंकि इधर बदनाम हो गए हैं इसलिए उनके नाम का पुरस्कार न दिया जाए।