जीवनलाल का खून बर्फ हो गया। लीला मिसेज कौल के साथ घर के अंदर ही बैठी रही थी, मिस्टर कौल उनसे बातें करते हुए बीच में पाँच-छह बार घर के अंदर गए थे। एक बार तो पंद्रह मिनट तक उन्हें अकेले ही बैठा रहना पड़ा था - यह सब उन्हें याद आने लगा। जीवनलाल गूँगे रह गए।
एक दिन लीला अपने पिता के घर गई थी। शाम को जीवनलाल जब अपने घर लौटकर आए तो उन्होंने बड़ी उतावली के साथ अपनी ससुराल में फोन किया। पता लगा कि लीला वहाँ से कौल साहब के यहाँ गई है। जीवनलाल को करारा आघात लगा। वे बिना खाए-पिए ही आरामकुर्सी पर पड़ रहे। एक बार जी में आया कि कौल के यहाँ टेलीफोन करें, मगर फिर उस इच्छा को दबा गए।
रात के साढ़े दस बजे लीला आई। जीवनलाल ने देखा, उसके गले में नौरतन का बड़ टीकोंवाला हार था। पता लगा कि मिस्टर कौल ने आठ हजार के दो हार खरीदे - एक अपनी पत्नी के लिए और दूसरा जीवनलाल की पत्नी के लिए। तीस लाख के टेंडर का लालच रहते हुए भी यह चार हजार का नौरतीनी हार जीवनलाल के संपूर्ण जीवन को निगलता हुआ नजर आया। जीवन फिर भी खामोश रहे।
इसके बाद अक्सर ही जब वे घर लौटकर आते तो उन्हें नौकरों से, बच्चे की आया से खबर मिलती कि सेठानी साहब कौल साहब के यहाँ गई हैं। कौल साहब से मिलने पर जीवनलाल कटकर रह जाते। इनकी नजरें उनके सामने उठती न थीं। उनके सामने इन्हें बार-बार ऐसा महसूस होता कि विश्व-विजेता सिकंदर किसी साधारण शत्रु से हार गया है। जीवनलाल कौल साहब से अक्सर मिलने के लिए मजबूर थे, क्योंकि ठेका स्वीकार कर लेने के बाद वे उसमें कई लाख रुपया फँसा चुके थे। यह रुपया उनका अपना न था। चार महाजनों से लिया गया था और उसका ब्याज उन पर दौड़ने लगा था। लक्ष्मी और महालक्ष्मी के मोह ने उन्हें झिंझोड़ना शुरू कर दिया। जीवनलाल अपने को कठघरे में बंद शेर की तरह अनुभव करते थे।
उनका बच्चा छह महीने का हो गया था। जीवनलाल अपने बच्चे को बेहद चाहते थे। इसके पहले भी वे पिता बने थे, मगर उन्हें पिता कहलाने का अधिकार इस बच्चे के द्वारा पहली बार प्राप्त हुआ था। जीवनलाल बच्चे की दुहाई देकर अपनी पत्नी को इशारे से समझाते और पत्नी सुनकर भी अनसुना कर जाती। जब कभी जवाब देती तो बहुत पैना।
आरंभ के चार महीनों में बात धीरे-धीरे ही बढ़ती रही। उनकी पत्नी का श्रीमती कौल के घर आना-जाना दिनोंदिन बढ़ता ही जाता था। अक्सर ही पति-पत्नी इनके यहाँ खाने पर बुलाए जाते, अक्सर ही सिनेमा देखने का प्रोग्राम भी बनता था। किसी के घर में कोई खास चीज बनती तो दूसरे के यहाँ जरूर भेजी जाती। शुरू में अक्सर और फिर तो सुबह-शाम जब भी जीवनलाल घर में रहते, उनके कानों में दो-एक बार यह भनक अवश्य ही पड़ती, मेम साब, कौल साब का फोन है। सुनकर मेम साब ऐसे भागतीं, जैसे लोहा चुंबक की ओर आता है। एक बार शाम को घर लौटकर आने पर मालूम हुआ कि मेम साहब कौल साहब की कोठी पर गई हैं। रात मैं लौटकर भी न आईं, न कोई संदेश ही मिला। दूसरे दिन सवेरे हारकर स्वयं ही फोन किया। श्रीमती कौल से बातें हुईं। पता लगा कि लीला तो त्रिभुवन के साथ कल शाम ही बाहर गई है, वह शायद आज तीसरे पहर तक आएगी।
जीवनलाल झटका खा गए। अपने ऊपर बहुत संयम रखकर उन्होंने बड़ी विनय के साथ श्रीमती कौल से कहा, मेरी तकदीर में जो कुछ बदा होगा सो होगा ही, मगर आप अपने जीवन को क्यों नष्ट कर रही हैं?
श्रीमती कौल ने एक आह भरकर कहा, अब उसका क्या किया जाए जीवनलाल जी। फिर भी अपनी तरफ से मैं यह कोशिश कर रही हूँ कि लीला मेरी दुश्मन न बने। इसीलिए बच्चे को मैंने अपने पास ही रख लिया है। उन दोनों को आजादी दे दी है।
मैं अपने बेटे को लेने के लिए अभी आता हूँ। जीवनलाल की अहंता उनके स्वर में अपने बेटे पर अधिकार करने के लिए केंद्रित हो उठी, किंतु उधर से श्रीमती कौल का उत्तर आया, इस समय आने का कष्ट न करें, लाल साहब! आपका फोन आने के वक्त मैं कार में बैठ चुकी थी। मैं अभी-अभी अपनी चचेरी बहन के यहाँ जा रही हूँ, रुक नहीं सकती, और बच्चा भी मेरे ही साथ जा रहा है।
जीवनलाल तड़पकर रह गए। उस दिन वह काम-धाम में अपना मन न लगा सके। तीसरे पहर लीला जब अपने बेटे के साथ घर आई तो पति को घर में ही पाया। लीला को देखते ही एक बार तो उनकी आँखों में खून झलक आया, परंतु उन्होंने अपने-आप पर काबू पा लिया। ठंडे स्वर में बोले, मेरे साथ जो चाहो सो करो, पर अपने बच्चे के हक में क्यों काँटे बोती हो, लीला?
सुनकर लीला की त्योरियाँ चढ़ गईं, कहा, बच्चे से तुम्हें क्या मतलब?
सुनकर जीवनलाल के रोम-रोम में आग सुलग उठी, तड़पकर बोले, बच्चा मेरा है।
वैसी ही तड़प-भरी आवाज में लीला का उत्तर मिला, वह तुम्हारे पाप से पैदा हुआ है, तुम्हारे पुण्य से नहीं। उसका बाप एक व्यभिचारी पुरुष है। व्यभिचारी किसी का पिता या पति नहीं होता, वह केवल बुरा होता है। फिर बुरा चाहे किसी भी नाम का हो, क्या फर्क पड़ता है।
अहंता की कचोटें यह सुनकर एकाएक थम गईं। करारा आघात खाकर वह मानो जड़ हो गईं। मनोवृत्तियाँ निकम्मी पड़ने लगीं, आग की लपटें अपने-आप ही को खाकर क्रमशः मंद पड़ने लगीं। कमजोरी के अथाह सागर में आदर्श के तिनके का सहारा लेकर जीवनलाल ने कुछ उखड़ी और कुछ बुझी-सी आवाज में कहा, स्त्री जाति ही तो दुनिया की इज्जत है। औरत को लेकर ही इज्जत का सवाल उठता है। मेरी और तुम्हारी बुराई में बहुत अंतर है।
मगर मेरी बुराई की जड़ भी तुम्हीं हो। पराई औरतों की इज्जत बिगाड़ने में मजा आता है? मैं भी कभी पराई थी, तब उपदेश न दिया?
जीवनलाल सिर झुकाए बैठे रहे, गोया कमरे में अकेले बैठे रहे, फिर तेजी से उठकर बाहर चले गए। उन्होंने इस तरह झटके के साथ कुर्सी छोड़ी, मानो पिस्तौल का ट्रिगर छोड़ा हो, इस तरह खटखट गए मानो गोली छूटी हो।
जीवनलाल उस समय सचमुच घातक मूड में थे। यदि उनके पास पिस्तौल होती तो शूट कर देते - शायद लीला को - शायद अपने को - या शायद दोनों को ही। हिंसा का जब मूड बना तो अपना सब-कुछ, घर-मकान, बाग-बाड़ी, जमीन-जायदाद, इज्जत-आबरू, दीन-दुनिया सब-कुछ, धूल-खाक कर देने की तमन्ना बवंडर-सी उठी और रोम-रोम पर छा गई, पर वे किसी को न मार सकते थे, वे अपने गुनाह के एहसास से बँधे हुए थे। उस बंधन को तोड़ नहीं सकते थे। जब लाला शंभूनाथ ने उनकी और प्रकाशो बीबी की चोरी पकड़ी, तब प्रकाशो बीबी ने किस दृढ़ता के साथ पति को अपने प्रेम में बाधक होने से रोका था। जीवनलाल तब मन ही मन में कितने प्रसन्न हुए थे। लाला शंभू के चरित्र में इस प्रकार की कोई खोट न थी। वे पत्नी के धन से दबे थे और इशारतन जीवनलाल उस दबाव को बढ़वाया ही करते थे। लेकिन अपने केस में वे खुद ही दबे थे। लीला को भी उन्होंने खींच-खींचकर अपनी वासना का भोग बनाया था। वे किस जबान से लीला को, श्री या श्रीमती कौल को बुरा कहते? अपने परोपकार से दबाकर उन्होंने कितना ही मध्यवर्गीय गरीब स्त्रियों और कुमारियों को अपनी इच्छा के आगे समर्पित कराया था। वे अपनी दुराचारी वृत्ति के दास थे। यह सच है कि वे इस लालच से ही परोपकार न करते थे, पर यह भी सच है कि अपनी इस कुदरती खूबी का फायदा वे अपने तन की प्यास बुझाने के लिए खूब उठाते थे।
दिन बीतने लगे। लीला और जीवनलाल की बोलचाल एकांत में एकदम बंद हो गई। चार के समाज में वे अपना रिश्ता कायम रखते थे। लीला उस समय इनसे इतना मीठा व्यवहार रखती कि इन्हें भी दिखावे से मजबूर होकर मिठास घोलनी ही पड़ती थी। जीवनलाल अधिक-से अधिक घर से बाहर रहने लगे। उन्होंने काम में अपने-आपको जी-जान से झोंक दिया। उनकी यह हार्दिक इच्छा थी कि म्यूनिसिपैलिटी का काम जितनी जल्द हो सके पूरा कर दिया जाए, जिससे कि भविष्य में वे कौल साहब के प्रभाव से बच सकें, शायद तब वे लीला के ऊपर भी अंकुश रख सकें। उनका ऐश-आराम छूट गया था, हाँ, फुरसत मिलने पर वे शराब अधिक पीने लगे। वे शहर की जानी-पहचानी नजरों से कन्नी काटने लगे थे। हर एक की नजरों में उन्हें अपने लिए मखौल और ताना भरा नजर आता था। अकेलेपन की साथी व्हिस्की के गिलास के साथ सन्नाटे के क्षणें में अक्सर उनके कानों में नगर-भर की काँव-काँव गूँजा करती, जीवन, तूने बहुत से पतियों, पिताओं और माताओं के कलेजे चीरे हैं... तू शहद-भरी छुरी है। तेरे कलेजे में घाव करने के लिए भी एक शहद-भरी छुरी आई। तेरा रकीब तेरे कलेजे में घाव कर तेरा उपकार करता है। याद कर, जब तू शंभूनाथ पर अपना उपकार लादता था, तब उनकी नजरें तेरी ही तरह झुकी रहती थीं। उस समय उनका चेहरा भी दिल की टीस को उसी तरह कसे रखता था, जैसे आजकल तू रखता है।
उदार प्रकृति के लोग अपने दुर्भाग्य का बोझ पराए दोषों पर बहुत अधिक नहीं पटका करते, वे अपने दोषों के बोझ से स्वयं दबते और पीड़ा पाते रहते हैं। जीवनलाल ऊँची उमर में आकर विवाह के चक्कर में फँसे और विवाह के पहले ही बरस में ऐसी गाज गिरी कि उनके जीवन की धारा ही रुकती नजर आई। वे बिजनेस में अपना मन फेंकते-न फेंकते तो क्या करते-दिल के तपते रेगिस्तान को उठाए-उठाए उनके प्राण बावले हो जाते। जीवनलाल अपनी निगरानी में बनती हुई इमारतों के नक्शों में, निर्माण में, उसके हिसाब-किताब में सुबह से लेकर रात तक हठपूर्वक लगे रहते थे। उन्हें एक क्षण की छुट्टी नहीं थी। उन्हें चैन नहीं था। चैन सिर्फ दो ही चीजों में पाते थे। लीला के घर में न होने पर अपने बच्चे के साथ खेलने में या ड्राइंग-रूम को बंद कर व्हिस्की और सिगरेट को साथ लेकर दर्द से घुटने और फिलॉसफी सोचने में।
दस-ग्यारह महीनों में ही जीवनलाल का स्वास्थ्य गिर गया। उनके दोस्त-अहबाब चिंता करने लगे। लीला ने फिर भी पति के प्रति अपने व्यवहार का रूखापन और कसाव न छोड़ा। लीला इन्हें छेदने के लिए हरदम पैनी बनी रहती थी। लीला किसी भी बहाने सुना-सुनाकर कौल द्वारा दी भेंटों का बखान करती। कई गहने, कई साड़ियाँ लीला और मिसेज कौल के एक-से हो गए थे। बच्चे के लिए भी अक्सर आते-आते बहुत-से खिलौने त्रिभुवननाथ कौल की भेंट के रूप में जमा हो चुके थे। लीला के कमरे में एक बेशकीमती वार्डरोब भी कौल की भेंट के रूप में जीवनलाल की दृष्टि में हरदम चुभा करता था।
एक दिन बच्चे के कमरे में प्रवेश करने पर जीवनलाल ने देखा कि जहाँ उनकी, लीला की, लीला के पिता की तस्वीरें रक्खी हुई थीं, वहाँ अब एक और फोटोग्राफ भी शामिल हो गया था। इस फोटो में त्रिभुवननाथ कौल के एक ओर उनकी पत्नी खड़ी थी और दूसरी ओर लीला, उनका बच्चा विवेक त्रिभुवननाथ की गोद में था। देखते ही जीवनलाल पर ऐसी बीती कि मन का बाँध टूट गया। वे स्थिर न रह सके, आपा खो बैठे। तस्वीर हाथ में लिए हुए वे तेजी से बाहर निकल आए।
लीला अपने कमरे में लेटी हुई कोई उपन्यास पढ़ रही थी।