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दो आस्थाएँ भाग 4

25 जुलाई 2022

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खाती हूँ। रोज ही खाती हूँ - पल्लेँ से आँखें ढके हुए बोलीं। इंद्रदत्ती को लगा कि वे झूठ बोल रही हैं।

तुम इसी वक्त मेरे घर चलो, बुआजी। फूफा भी वैसे तो आएँगे ही, पर आज मैं... उन्हेंि लेकर ही जाऊँगा। नहीं तो आज से मेरा भी अनशन आरंभ होगा।

करो जो जिसकी समझ में आए। मेरा किसी पर जोर नहीं, बस नहीं। - आँखों में फिर बाढ़ आ गई, पल्लाा आँखों पर ही रहा।

नहीं बुआजी ! या तो आज से फूफा का व्रत टूटेगा...!

कहिए, भाई साहब? - कहते हुए भोला ने प्रवेश किया। माँ को रोते देख उसके मन में कसाव आया। माँ ने अपने दुख का नाम-निशान मिटा देने का असफल प्रयत्नल किया, परंतु उनके चेहरे पर पड़ी हुई आंतरिक पीड़ा की छाया और आँसुओं से ताजा नहाई हुई आँखें उनके पुत्र से छिपी न रह सकीं। भोला की मुख-मुद्रा कठोर हो गई। माँ की ओर से मुँह फेरकर चारपाई पर अपना भारी भरकम शरीर प्रतिष्ठित करते हुए उन्हों ने अपने ममेरे भाई से पूछा - घर बन गया आपका?

तैयारी पर ही है। बरसात से पहले ही कंपलीट हो जाएगा।

सुना है, नक्शा बहुत अच्छाप बनवाया है आपने। इंद्रदत्तन ने कोई उत्तेर न दिया।

मैं भी एक कोठी बनवाने का इरादा कर रहा हूँ। इस घर में अब गुजर नहीं होती।

इंद्रदत्तै खामोश रहे, भोला भी पल भर चुप रहे, फिर बोले - दादा का नया तमाशा देखा आपने? आज कल तो वे आपके यहाँ ही उठते बैठते हैं। हम लोगों की खूब-खूब शिकायतें करते होंगे।

तुमको मुझसे ज्यादा जानना चाहिए, पर-निंदा और शिकायत करने की आदत फूफा जी में कभी नहीं रही - इंद्रदत्त का स्व र संयत रहने पर भी किंचित उत्तेजित था।

 न सही। मैं आपसे पूछता हूँ, इनसाफ कीजिए आप। यह कौन सा ज्ञान है, कि एक जीवन से इतनी नफरत की जाए। और... और खास अपने लड़कों और बहुओं से... पोते पोतियों से नफरत की जाए... यह किस शास्त्रर में लिखा है जनाब, बोलिए! - भोला की उत्तेजना ऐसे खुली, जैसे मोरी से डाट हटाते ही हौदी का पानी गलत बहता है।

इंद्रदत्त ने शांत, दृढ़ स्वलर में बात का उत्तर दिया - तुम बात को गलत रंग दे रहे हो, भोला। इस प्रकार यह विकट, कहना चाहिए की घरेलू समस्या एँ कभी हल नहीं हो सकतीं।

मैं गलत रंग क्या  दे रहा हूँ, जनाब? सच कहता हूँ, और इनसाफ की बात कहता हूँ। ताली हमेशा दोनों हाथों से बजा करती है।

लेकिन तुम एक ही हाथ से ताली बजा रहे हो, यानी धरती पर हाथ पीट-पीट कर।

क्यान? मैं समझा नहीं।

तुम अपने आप ही से लड़ रहे हो और अपने को ही चोट पहुँचा रहे हो, भोला। फूफाजी के सब विचारों से सहमत होना जरूरी नहीं है। मैं भी उनके बहुत से विचारों को जरा भी नहीं मान पाता। फिर भी वे आदर के पात्र हैं। वे हमारी पिछली पीढ़ी हैं, जिनकी प्रतिक्रियाओं पर क्रियाशील होकर हमारा विकास हो रहा है। उनकी खामियाँ तो तुम खूब देख लेते हो, देखनी भी चाहिए; मगर यह ध्या न रहे कि खूबियों की ओर से आँख मूँदना हमारे-तुम्हाेरे लिए, सारी नई पी‍ढ़ी के लिए केवल हानिप्रद है और कुछ नहीं।

भोला ने अपनी जेब से सोने का सिगरेट केस निकाला और चेहरे पर आड़ी-तिरछी रेखाएँ डालकर कहने लगा - मैं समझता था, भाई साहब कि आपने हिस्ट्री -उस्ट्रीक पढ़कर बड़ी समझ पाई होगी। - इतना कहकर भोला के चेहरे पर संतोष और गर्व का भाव आ गया। प्रोफेसर इंद्रदत्त के पढ़े-लिखेपन को दो कौड़ी का साबित कर भोला सातवें आसमान की बुर्जी पर चढ़ गया। - ढकोसला में ढकेलनेवाली ऐसी पिछली पीढ़ियों से हमारा देश और खासतौर से हमारी हिंदू सुसाइटी, बहुत 'सफर' कर चुकी जनाब। अब चालीस बरस पहले का जमाना भी नहीं रहा, जो 'पिताहि देवा पिताहि धर्मा' रटा-रटाकर ये लोग अपनी धाँस गाँठ लें। मैं कहता हूँ, आप पुराने हैं, बड़े निष्ठालवान हैं,होंगे। अपनी निष्ठा -विष्ठाय को अपने पास रखिए। नया जमाना आप लोगों की तानाशाही को बरदाश्तह नहीं करेगा।

तुम अगर किसी की तानाशाही को बरदाश्ता नहीं करोगे तो तुम्हारी तानाशाही...

मैं क्यात करता हूँ जनाब?

तुम अपने झूठे सुधारों का बोझ हर एक पर लादने के‍ लिए उतावले क्यों रहते हो?

तुम फूफाजी को चिढ़ाते हो, भोला। मैं आज साफ-साफ ही कहूँगा। तुम और त्रिभुवन दोनों - इंद्रदत्त ने सधे स्वमर में कहा।

मैं यह सब बेवकूफी की सी बातें सुनने का आदी नहीं हूँ, भाई साहब! जनाब, हमको गोश्त  अच्छाह लगता है और हम खाते हैं और जरूर खाएँगे। देखें, आप हमारा क्याा कर लेते हैं?

मैं आपका कुछ भी नहीं कर लूँगा, भोलाशंकरजी। आप शौक से खाइए, मेरे खयाल में फूफाजी ने भी इसका कोई विरोध नहीं किया। वह नहीं खाते, उनके संस्काशर ऐसे नहीं हैं, तो तुम यह क्यों  चाहते हो कि वह तुम्हाोरी बात, मत मानने लगें? रहा यह कि उन्हों ने अपना चौका अलग कर लिया या वह तुम लोगों के कारण क्षुब्धा हैं, यह बातें तानाशाही नहीं कही जा सकतीं। उन्हेंन बुरा लगता है, बस।

मैं पूछता हूँ, क्यों  बुरा लगता है? मेरी भी बड़े-बड़े प्रोफेसर और नामी आलिम-फाजिलों से दिन-रात की सोहबत है। आपके वेद के जमाने के ब्राह्मण और मुनि तो गऊ तक को खा जाते थे।

भोला ने गर्दन झटकाई, उनके चेहरे का मांस थुल उठा। उनकी सिगरेट जल गई। इंद्रदत्त बोले - ठीक है, वे खाते थे। राम-कृष्ण , अर्जुन, इंद्र बगैरह भी खाते थे पीते भी थे, मगर यह कहने से तुम उस संस्काेर को धो तो नहीं सकते, जो समय के अनुसार परिवर्तित हुआ और वैष्ण्व धर्म के साथ करीब-करीब राष्ट्र व्याोपी भी हो गया।

हाँ, तो फिर दूसरा संस्का्र भी राष्ट्र्व्याहपी हो रहा है।

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रचनाएँ
अमृत लाल नागर की कहानी संग्रह
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अमृतलाल नागर हिन्दी के उन गिने-चुने मूर्धन्य लेखकों में हैं जिन्होंने जो कुछ लिखा है वह साहित्य की निधि बन गया है उपन्यासों की तरह उन्होंने कहानियाँ भी कम ही लिखी हैं परन्तु सभी कहानियाँ उनकी अपनी विशिष्ठ जीवन-दृष्टि और सहज मानवीयता से ओतप्रोत होने के कारण साहित्य की मूल्यवान सम्पत्ति हैं। फिर स्वतंत्र लेखन, फिल्म लेखन का खासा काम किया। 'चकल्लस' का संपादन भी किया। आकाशवाणी, लखनऊ में ड्रामा प्रोड्यूसर भी रहे। कहानी संग्रह : वाटिका, अवशेष, तुलाराम शास्त्री, आदमी, नही! नही!, पाँचवा दस्ता, एक दिल हजार दास्ताँ, एटम बम, पीपल की परी , कालदंड की चोरी, मेरी प्रिय कहानियाँ, पाँचवा दस्ता और सात कहानियाँ, भारत पुत्र नौरंगीलाल, सिकंदर हार गया, एक दिल हजार अफसाने है।
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