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पाँचवा दस्ता भाग 1

25 जुलाई 2022

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सिमरौली गाँव के लिए उस दिन दुनिया की सबसे बड़ी खबर यह थी कि संझा बेला जंडैल साब आएँगे।

सिमरौली में जंडैल साहब की ससुराल है। वहाँ के हर जोड़ीदार ब्राह्मण किसान को सुखराम मिसिर के सिर चढ़ती चौगुनी माया देख-देखकर अपनी छाती में साँप लोटता नजर आता था। बेटी के बाप तो कई धनी-धोरी किसान थे, मगर जंडैल के ससुर एक सुखराम ही हो सके। लड़ाई की चढ़ती में जो किसान चेत गए थे, उनमें एक सुखराम भी थे। कच्चेर घर पर नया फँसूफी चेहरा बनवा लिया गया था, सो अब तारा का ब्याएह होते ही आठ महीने में दो पक्कीन मंजिलें भी चुन गई। 'लखनऊ' से ठेकेदार आया, मकान में अँग्रेजी फैसन बना गया। गुसलखाना और डरैसरूम - जाने कैसे-कैसे डिजैन ऊपर की मंजिल में निकाले गए हैं। सुखराम के घर तो मानो कलजुग से सतजुग आ गया।

तारा के लिए कहा ही क्या। जाए? उसे तो भाग ने आसमान से सात सखी का झुमका ही ला के सजा दिया है। जितनी ब्या‍ह के लिए भारी पड़ रही थी, उतनी ही फूल-सी सुहागवती बनी। शहर से नित-नई चीजें आती हैं, हर महीने डेढ़ सौ रुपये का मनीआर्डर सरकार से आता है। तारा की साड़ियाँ रखने के खातिर ऐने जड़ा हुआ बड़ा भारी कपाट आया, सिंगारदान और बढ़िया मसहरीदार पलंग, उस पर हाथ पर ऊँचा गद्दा और फोनूगिराफ बाजा, हरमुनिया बाजा, सिट के सिट जड़ाऊ गहने-रानी-महारानियों के भी ठाट-बाट और क्याब होते होंगे? तारा के लिए मास्टेरनी आई। मास्ट रनी का कमरा-गुसलखाना बना। मास्टटरनी के साथ किताबें आई और अब तो पंडित सुखराम मिसिर के घर के आगे लोटनेवाला कुत्तान भी ए बी सी डी भौंकता है।

जंडैल साब के घर नहीं है। जिंदगी लड़ाई के मैदान में ही बीत गई। अब पचास की उमिर में ब्याईह किया, सो भी ऐसे जंडैली ढंग से कि दिन में दस बजे की लगन निकाली गई, दोपहर में सुहागरात हुई और तीन बजे का टिफिन खा के जंडैल साब चले भी गए। उसी दिन उन्हेंी हवाई जहाज में बैठकर काश्मी र की लड़ाई लड़ने जाना था। ये सब बड़ी-बड़ी बातें गाँव में सुनी गई थी। इसके बाद अखबारों में खबर छपी थी कि उन्हों ने काश्मीयर में एक लड़ाई जीती है, उन्हें। बड़ा इनाम-ओहदा मिला है। फिर एक बार अखबारों में उनकी फोटू भी छपी, लड़ाई के मैदान में पंडित जवाहरलाल उन से हाथ मिला रहे थे। कुछ दिन हुए, तब ये खबर आई थी कि एक नए मोर्चे पर उन्होंंने दुश्मननों को बड़ी बहादुरी के साथ मार भगाया, पर आप बहुत चोट खा गए। जब तक अस्प ताल में रहे, रोज 'तारा' के पास काश्मी र से तार आता था। अब सुना कि एक महीने की छुट्टी पर तारा से मिलने के लिए आ रहे हैं। यह भी सुना है कि यहाँ एक रात रहकर सवेरे तारा के साथ मोटर में लखनऊ चले जाएँगे। वहाँ से हवाई जहाज पर उसे बंबई-कलकत्तेर की सैर कराने ले जाएँगे। बड़े लोगों की बड़ी-बड़ी बातें हैं और तारा भी अब रानी है - रानी बहू कहलाती है।

झुटपुटे बखत से गाँव में हरेक के कान बजने लगे कि अब जाने मोटर का 'हारन' सुनाई दिया। सुखराम के घर तो मानो हर एक को दलेल बोल दी गई थी। ऐसी दौड़-भाग कि जैसे एक पूरी बारात की अगवानी का इंतजाम हो। कड़े-धड़े, बाले-बेसर से मढ़ी हुई मालकिन को रसोईघर के पकवानों के सिवा दुनिया की सुध नहीं, सुखराम महाराज को सवेरे से घड़ों पसीना चू गया। बड़कऊ बहनोई की अगवानी के लिए लखनऊ गए हैं, छुटकऊ को सीसा-इलामारी और दरवाजों को कपड़े से रगड़ते-रगड़ते आज पूरे पाँच रोज हो गए, मगर अभी भी संतोख नहीं होता और रानी बिटिया तो आज ऊपर से उतरी ही नहीं।

तारा के ध्या।न में आहट बँध गई थी। 'उनकी' सुध में सब कुछ बिसर गया - 'वो' भी। बस एक ध्यारन बना था और वह उसी में रम गई थी।

सूरज पीपल के पार उतर गया और पत्तोंध की झिलमिलियों से सुनहरी किरनें फूट पड़ीं। काले-धौले बादल पच्छिम में सिमट आए और ढलते सूरज का सिंदूर लेकर रंगीन हो गए। पीपल की चोटी पर बाँस से बँधा हुआ बजरंगबली का मटमैला झंडा अँधेरे को रफ्ता-रफ्ता अपनी ओर खींचने लगा और पीपल के बसेरे आबाद होने लगे। तारा देर तक इन सबको देखती रही थी, पर सूझ कुछ भी न रहा था।

'तारारानी!' मास्ट रनी दीदी ने कमरे में आकर आवाज दी। पेड़ पर कौओं की काँव-काँव, चिड़ियों की चहचहाहट और नीचे के खन में दद्दू, अम्मा  और कामकाज के गुल-गपाड़े के साथ-साथ दीदी की आवाज तारा के कानों में पहुँची। हाथ तुरंत सिर के पल्लेक पर पहुँचा और घूँघट सरकते-सरकते रुक गया। उसने सिर उठाकर दीदी की ओर देखा, परेशानी और थकान पर लजाकर मुस्कसराई, तन और सिमट गया।

दीदी हँसने लगी। दीदी की हँसी तारा को न भाई। आज उसे कुछ भी अच्छाथ नहीं लगता। वो आ रहे हैं। इतने महीनों में पहली बार आ रहे हैं। कहीं घूँघट फिर आड़े न आ जाएँ। वह उन्हें  कैसे देखेगी? कैसे बात करेगी? इसी सोच में उलझते-उलझते तारा खो गई थी और उसी खोएपन में वह सब कुछ भूल गई थी। अब फिर कलेजे की धुकधुकी से मन की लाज सिमटने लगी।

दीदी हँसते हुए पास आई। उसकी साड़ी के पल्लेी को सिर से गिराते हुए कहा “

घूँघट के पट खोल री...

नहीं दीदी, इस दम जाओ!

आदत के खिलाफ और होश में पहली बार तारा ने दीदी को झिड़क-सा दिया, और उठकर खिड़की के पास जा खड़ी हुई। दीदी को बिजली के करेंट-सा धक्कार लगा। उन्हों ने महसूस किया कि उनकी गँवार-देहाती सखी और चेली में भी हुकूमत का रोब आ गया है। हालाँकि आवाज में परेशानी का कंपन भी पहचाना। दीदी को जलन और डाह भरी खुशी हुई। मगर ऊपरी तौर वह और भी जोर से खिलखिलाकर हँस पड़ी और तारा की ठोड़ी का चुम्माऊ लेती हुई कमरे से बाहर हो गई। वह सोच रही थी कि इस फूहड़ को घूँघट से परेशानी है। मजा हो जब कि कर्नल तिवारी आते ही इससे बेरुख हो जाएँ। चार दिन की चाँदनी की तरह इस दिहातिन गुड़िया की हेकड़ी सदा के लिए हवा हो जाएँ।

मन-ही-मन दाँव-पेंच खाती हुई दीदी तारा के कमरे से निकलकर अपने कमरे की तरफ बढ़ गई।

ब्या।ह के बाद से तारा अपने-आप के लिए उलझन बन गई थी। ब्याेह के पहले वह अपने-आप के लिए भार थी। उसकी उम्र सोलह की जवानी को पार कर चुकी थी और उसका ब्याीह नहीं हुआ था। नाते-गोते, टोले-पड़ोस की चार उँगलियाँ उसकी उम्र पर उठने लगी थी। सुखराम मिसिर के बड़े बेटे और लड़की के अब तक कुँवारे रहने के पीछे एक भेद था, जो दुनिया के लिए अब हँसी-ठट्ठे का साधन बन रहा था।

सुखराम जरा पैसे की तरी में आ गए थे। पहले वह गाँव के औसत लोगों में भी गरीब ही माने जाते थे, इसलिए नए धन का मद डबल तरी ला रहा था। बड़कऊ के लिए सुखराम ऐसा रिश्ताा चाहते थे, जहाँ समधी उनके चढ़ते मद को सुहला सके। कुल के हेठे, अकड़ की बीर विक्रम बहादुर। गंज में सट्टे की दलाली करते थे, सो शहर तक घर-आँगन के समान उनका डोलना होता था। मन के नक्शे बढ़ गए थे, इसलिए सुखराम की नजरों के आसपास के गाँवों तक अपनी मेल के गोतों में सबकी कुल-मरजाद छोटी हो गई थी। मगर शहर से कौन आवे? बड़कऊ के ब्यामह की उमर खिंचने लगी। तारा का ब्यादह भी इसी फेर में रोक रखा था। लड़के की ससुराल की रकम से दूने होकर सुखराम तारा का रिश्ताछ शहर में करना चाहते थे, जिससे मरजाद में चार चाँद लगे।

जब ब्याोह की उमरें चढ़ने लगी तो चक्क र में पड़े। खासतौर पर बेटी भारी पड़ने लगी। सुखराम की सारी अकड़ हवा हो जाती, जो गंज में माधो गुरू से भेंट न होती। माधो गुरू जंडैल साहब के लिए कन्याय खोज रहे थे। जंडैल साहब का 'अडर' था कि गाँव में ब्याुह करेंगे, सो देहात के ब्राह्मनों को समधी बनाने के लिए, माधो गुरू इस अकड़ से खोज कर रहे थे, जैसे वह खुद ही जंडैल के बाप हो। सुखराम महाराज की अकड़ को उनकी अकड़ की चरण-शरण पाने में ही अपनी गति दिखाई दी। दुम की तरह माधो गुरू के साथ जुड़ गए। किसी तरह मना-मुनू कर उन्हेंन अपने घर लाए। छप्पडन बिंजन का भोजन करा के एक गिन्नीज दक्षिणा दी। तब लड़की को दिखाया। सुखराम के बच्चेर गोरे हैं। सहज शील और लाज ने तारा की सुंदरता को और भी सँवार दिया था। गिन्नीि की चमक में तारा उन्हेंड साक्षात लक्ष्मीा-जैसी दिखाई दी। ऊपर से मलकिन ने अपनी सोने की बड़ी नथ के बेसर को हाथ से घुमा-घुमाकर यह भी बता दिया कि उनकी बिटिया सब कुछ पढ़ी-लिखी है। रामायन बाँच लेती है, चिट्ठी-पत्री कर लेती है और दोहे-चौपाई तो ऐसे राग से सुनाती है कि पाँच गाँवों की औरतें इसकी बलइयाँ लेती हैं।

मलकिन के बखान से नहीं, अपनी समझ से माधो गुरू को यह विश्वाेस हो गया कि जंडैल साहब का जी हर तरह से भर जाएगा। इत्तेी बड़े फौज के जंडैल हैं - कमांडर-इन-चीफ लाख अपने मन से गाँव के गरीब ब्राह्मन की कन्या् का उद्धार करना चाहें, मगर माधो गुरू की निगाह में जाँचने के लिए तो जंडैल के ससुर की कुछ-न-कुछ अच्छीक हैसियत होना जरूरी था।

अपने मीठे बोल और बुद्धि की चतुराई से, सुखराम गंज की दलाली के नए धंधे में गाँव के एक हल से बारह हलों के किसान हो गए थे। शहर में सफलता पाकर उनके मीठे बोल गाँव में ऐंठने लगे। अपनी हैसियतवाले दूसरों को यों तो जथाजोग मान-सम्माीन देते थे, उनके सौदे-पट्टी में धेले-पौने का ऊँचा मुनाफा भी करा देते थे, मगर इस अहसान के बोझ से, औरों को हल्का  समझकर, अपने बड़प्पेन को भारी-भरकम भी बनाना चाहते थे। लड़ाई की चढ़ती में गाँव के कई घरों के चेहरे पक्के् बने, मगर वह पुरानी मरजाद के ऊँचे फाटक और पक्केे चबूतरों तक ही, जूने-पुराने मेमार कारीगरों के हुनर के भरोसे, घराने की मरजाद बढ़ाकर रह गए। सुखराम शहर के कारीगर लाए। घर का चेहरा फैंफूसी बनवाया। आगे के दरवाजे पर सिरीमिंट का चौखटा बनाकर उस पर फूल-बेल काढ़ी गई। तोता-मैना के डिजैन बने। दरवाजे के दोनों तरफ गुलदस्ते  बनी टेलौं के पत्थबर जड़े गए। दोनों तरफ बड़े-बड़े आले, एक में शंकरजी की फोटू की टैल, दूसरे में राधा-किसन की जोड़ी और दरवाजे के ऊपर गनेसजी। बैठकों का नया चलन किया। यह किसानों में बड़ी बात थी। सुखराम के बोलने में तो करीब-करीब वही बात थी, मगर चलन और रहन-सहन में बहुत फर्क आ गया था। उन्होंेने अपने मकान के ऊपर दो शेर और जंगल की कारीगरी का काम बनवाया। उसके बीच में 'ऊँ' और 'मिश्र निवास' भी लिखवा लिया। पटवारी बैजनाथ का घर दो मंजिल का था, इसलिए गाँव की मरजाद में उस घर का शुमार था। सुखराम मिसिर एक ही मंजिल में ऐसे-ऐसे कर्तबों से चढ़ गए कि चार के चर्चे में किसी-न-किसी बहाने उनका नाम आना जरूरी हो गया। बराबरवाले सब मन-ही-मन उनसे कटते थे और छोटे लोगों को भी 'सरकारी हजूरी' में एक और नए 'मालिक' को जुड़ते देखकर कोई खुशी नहीं हुई थी। जलन इस बात से और ज्यादा थी कि सुखराम अपनी तरफ से किसी को भी लड़ाई का छोटे-से-छोटा मौका नहीं देते थे। गंज के सफल दलालों में सुखराम का आदर होने लगा। कुल के बड़े और पुराने धाक पर निभने वाले घरानों से गाँव की परंपरा में जो नेग-जोग और राम-जुहार की मरजाद कायम थी, सुखराम उस लक्षमन की लकीर को लाँघकर गंज और शहर से अपनी सफलता के लिए नई मरजाद लाए थे। सुखराम के बैठके में एक-न-एक व्यासपारी या दलाल मेहमान बना ही रहता था। सुखराम अपने नए हौसले को गाँव की पुरानी मरजाद पर लाद रहे थे। ऊपर से सब अमनचैन था, मगर मनों में ज्वाेलामुखी भड़क रहे थे।

पैसे से हैसियत बनाने की चढ़ा-ओढ़ इतनी मुश्किल, सख्त और तेज हो गई थी कि हर शख्स एक-दूसरे से सदा एक हाथ आगे बढ़ जाने के लिए ही उतावला और दीवाना बना रहता था। जो चढ़ न सके, पिसते ही चले गए। उनकी गुलामी उतनी ही मुश्किल, सख्त और तेज हो गई। जो जितना बड़ा पैसेवाला है, वह उतना ही अपने से छोटों पर अपनी खुदपरस्ती  का बोझ डालता है। वह आमतौर पर खुशामद को आदर समझता है और इस झूठे रोब में अपनी जीत मानकर ज्यादा से ज्यादा उसकी माँग करता है। हर छोटा आदमी अपने से बड़े आदमी की खुशामद करने को मजबूर है और हर बड़ा आदमी किसी न किसी से छोटा भी है। इसलिए हर आदमी दूसरे की खुशामद करता है और दूसरों से अपने लिए वही चाहता भी है।

लड़ाइयों में पैसे की चढ़ा-ओढ़ बढ़ जाती है। पहली लड़ाई में बहुत से लोग तरह-तरह से बन गए थे और दूसरी लड़ाई के जमाने तक तो पुराने इज्जतदार हो गए थे। इससे दूसरी लड़ाई में औरों का हौसला बढ़ा, क्यों कि इस बार लोग पहचान गए थे कि लड़ाई में व्याकपारी लाल हो जाता है। लोग-बाग, दस-दस बरसों से दूसरी लड़ाई की मनौतियाँ मान रहे थे और जब दूसरी लड़ाई आई तो धड़ाधड़ लोग लाल बनने लगे। जितनी कशमकश बढ़ती गई, उतनी ही चिढ़ थकान और पैसे के जोर पर हैसियत की प्याेस भड़कती गई। नीति, कुनीति, धरम अधरम सब भाड़ में गए और स्वायरथ की दौड़ हर एक के साथ हवा-सी लग गई।

लड़ाई के छह वर्षों में और उसके बाद व्याकपार अब धंधे की भावना से नहीं होता। एक दूसरे को खिझाने, चिढ़ाने और कुचल देने के लिए ही दिवानगी के साथ हर एक अपनी बुद्धि-चतुराई का प्रयोग करता है। सुखराम संस्कीढरत का यह श्लो क जानते हैं कि 'ब्यौ पारे बसती लच्छामी।' और माधो गुरू जैसे धर्मधुरंधर पाधा-पुरोहित ही अपने जिजमानों को ऐसी संस्कीहरत के वेद-शास्त्रों  का प्रमान दे-देकर बढ़ावा देते हैं।

कलजुग के चौथा चरन देने के कारन धरम-करम धरती से लोप हो रहा है। ब्राह्मण महराजों की पहले जैसी धाक अब नहीं रही। पहले जमाने में जिजमान को जरा-सा डर दिखाते ही ब्राह्मण पुरोहितों की पाँचों उँगलियाँ घी में पड़ जाती थी। अब कोई उतना डर नहीं मानता। अँग्रेजी राज ने माधो गुरू-जैसों की पूजा छीन ली। बाबा के जमाने में आठ गाँव पुन्नम में मिले थे। सोने, चाँदी और पीतल के बर्तनों से घर की दो कोठरियाँ गँजी हुई थी। बाप ने सारे कोठों की नथें चुन-चुनकर उतारीं और घर-फूँक तमाशा देखा। माधो गुरू के चार भाई पच्ची स घरों की जिजमानी के हिस्सा।-बाँट में सिर-फुटौवल कर शास्त्रम के बजाए शस्त्री का प्रमाण देने लगे। उनके लड़के अब पत्रे में विश्वाेस नहीं करते, पान, शरबतों की दुकान करते हैं। माधो गुरू ही किसी तरह धरम करम सँभाले बैठे हैं। धरम-पुन्नक करने वाले पुराने जिजमान भी अभी एकदम से लोप नहीं हुए। इसी से धरती अभी भी सँभली हुई है और माधो गुरू को साल में चार-पाँच सौ आमदनी जैसे-तैसे हो जाती है।

ऐसे परम घोर कलजुग में जंडैल साथ जैसा महारथी जिजमानी उन्हें  पूर्व जनम के पुन्नी-परताप से ही अकस्मामत् मिल गया।

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रचनाएँ
अमृत लाल नागर की कहानी संग्रह
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अमृतलाल नागर हिन्दी के उन गिने-चुने मूर्धन्य लेखकों में हैं जिन्होंने जो कुछ लिखा है वह साहित्य की निधि बन गया है उपन्यासों की तरह उन्होंने कहानियाँ भी कम ही लिखी हैं परन्तु सभी कहानियाँ उनकी अपनी विशिष्ठ जीवन-दृष्टि और सहज मानवीयता से ओतप्रोत होने के कारण साहित्य की मूल्यवान सम्पत्ति हैं। फिर स्वतंत्र लेखन, फिल्म लेखन का खासा काम किया। 'चकल्लस' का संपादन भी किया। आकाशवाणी, लखनऊ में ड्रामा प्रोड्यूसर भी रहे। कहानी संग्रह : वाटिका, अवशेष, तुलाराम शास्त्री, आदमी, नही! नही!, पाँचवा दस्ता, एक दिल हजार दास्ताँ, एटम बम, पीपल की परी , कालदंड की चोरी, मेरी प्रिय कहानियाँ, पाँचवा दस्ता और सात कहानियाँ, भारत पुत्र नौरंगीलाल, सिकंदर हार गया, एक दिल हजार अफसाने है।
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दो आस्थाएँ भाग 2

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प्रेम नेम बड़ा है। - पति के क्षोभ और चिंता को चतुराई के साथ पत्नीक ने मीठे आश्वाजसन से हर लिया; परंतु वह उन्हेंक फिर चाय-नाश्ताक न करा सकी। डॉक्ट।र इंद्रदत्त शर्मा फिर घर में बैठ न सके। आज उनका धैर्य

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खाती हूँ। रोज ही खाती हूँ - पल्लेँ से आँखें ढके हुए बोलीं। इंद्रदत्ती को लगा कि वे झूठ बोल रही हैं। तुम इसी वक्त मेरे घर चलो, बुआजी। फूफा भी वैसे तो आएँगे ही, पर आज मैं... उन्हेंि लेकर ही जाऊँगा। नही

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दो आस्थाएँ भाग 5

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हो रहा है, ठीक है। तो फिर दादा हमारा विरोध क्यों  करते हैं? भोला, हम फूफाजी का न्याकय नहीं कर सकते। इसलिए नहीं कि हम अयोग्यय हैं, वरन इसलिए कि हमारे न्यालय के अनुसार चलने के लिए उनके पास अब दिन नहीं

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दो आस्थाएँ भाग 6

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तुम अपने प्रति मेरे स्नेफह पर बोझ लाद रहे हो। मैं आत्म शुद्धि के लिए व्रत कर रहा हूँ... पुरखों के साधना-गृह की जो यह दुर्गति हुई है, यह मेरे ही किसी पाप के कारण... अपने अंतःकरण की गंगा से मुझे सरस्वमत

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जीवन वाटिका का वसंत, विचारों का अंधड़, भूलों का पर्वत, और ठोकरों का समूह है यौवन। इसी अवस्था में मनुष्य त्यागी, सदाचारी, देश भक्त एवं समाज-भक्त भी बनते हैं, तथा अपने ख़ून के जोश में वह काम कर दिखाते

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तारा के कमरे से आने पर दीदी अपने पलंग पर ढह पड़ी और तरह-तरह से तारा की सिकंदर ऐसी तकदीर पर जलन उतारने लगी। यह जलन भी अब उन्हें  थका डालती है। अब कोई चीज उन्हेंद जोश नहीं देती - न प्रेम, न नफरत। जिंदग

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कुशीनारा में भगवान बुद्ध की विश्राम करती हुई मूर्ति के चरणों में बैठकर चैत्रपूर्णिमा की रात्रि में आनंद ने कहा-‘‘शास्ता, अब समय आ गया है।’’ भगवान बुद्ध की मूर्ति ने अपने चरणों के निकट बैठे इस जन्म के

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कुशीनारा में भगवान बुद्ध भाग 2

25 जुलाई 2022
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‘‘अठन्नी की क्या कीमत ही नहीं होती ? इस एक अठन्नी के कारण मेरे तैतालीस रुपए खर्च हो गए। शर्म नहीं आती बहस करते हुए भरे बाजार में।’’ मेमसाहब का स्वर इतना ऊँचा हो गया था कि सड़क पर आसपास चलते लोगो— अन्य

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