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पाँचवा दस्ता भाग 2

25 जुलाई 2022

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कर्नल तिवारी घर बसाना चाहते थे। घर के बिना उनका हर तरह से भरा-पूरा जीवन घुने हुए बाँस की तरह खोखला हो रहा था। दस की उम्र में सौतेली माँ के अत्यासचारों से तंग आकर वह अपने घर से भागे थे। तंगदस्तीथ में बेसहारा और फटे हाल भटकते-भटकते लखनऊ आए। एक फौजी, हिंदुस्ता नी कप्तान के बँगले पर नौकरी मिली। अपनी मेहनत और ईमानदारी से सबको भा गए। इनके ब्राह्मण होने और मुसीबत के मारे होने की कथा ने कप्तान साहब की धर्मात्माभ बहू को इनसे छोटा और मुसीबत के मारे होने की कथा ने कप्तान साहब की धर्मात्मार बहू को इनसे छोटा काम न लेने की बुद्धि दी। कप्तान साहब इने-गिने हिंदुस्तानियों में थे, जिन्हों ने खुशामद के बल पर फौज में अफसरी का ओहदा उस जमाने में हासिल किया था। रोब और दबदबे के आदमी थे। उनकी निगाह हो जाने से ये पढ़े-लिखे और जवान होने पर फौज में भरती हो गए। पहली लड़ाई देखी, फिर दूसरी लड़ाई देखी। फिर घर बसाने की इच्छा  उनके मन में सैलाब के पानी की तरह तेजी से बढ़ने लगी।

घर का न होना, किसी अपने का न होना, उनकी सारी सफलता को निकम्माल बना देता है और अपने से उनका मतलब है अपनी पत्नीस, अपने बच्चेक। उम्र और ओहदे बढ़ने के साथ-साथ उनकी यह इच्छा  भी बढ़ती गई। अपने देश से दूर, लड़ाई के मैदान में हर एक को अपने घर की याद आती थी। उनके मातहत छोटे से छोटा सिपाही भी डाक के दिन घर से चिट्ठी पाने के लिए बेचैन रहता था। हर एक ने खर्चा भेजने के लिए, अपने घर के किसी न किसी रिश्तेलदार का नाम लिखवाया था। फौज में भरती के वक्त कप्तान साहब के मार्फत ही उनके घर का पता दिया गया था और वह घर अब मिट चुका था। कप्तान और उनकी पत्नीा के दुनिया में न रहने के बाद उनके दोनों लड़कों ने इनसे कोई संबंध न रखा। अपने सौतेले भाई-बहनों के साथ फिर से नाता जोड़ने की इच्छां कभी-कभी होती तो है, मगर मन को किसी तरह का उत्साीह नहीं मिलता। अलावा इसके जाने कौन कहाँ होगा? चालीस बरसों से कोई खैर-खबर नहीं। दुनिया से उनका जो कुछ भी नाता है, वह नाश और प्रलय का है। स्त्री  से उनका जो भी नाता है, वह फौजी चकलों और सोयायटी की तितलियों के आवारा तन तक ही सिमटकर रह जाता है।

लड़ाई के दौर में उनके बहुत-से साथियों ने अपनी शादियाँ भी की। किसी ने किसी फिल्मि स्टा र से, किसी ने गोरी चमड़ीवाली मेम से। कइयों ने 'इलेस्रेश  टेड वीकली' में तस्वीार छपाने लायक सामाजिक विवाह भी किए। मगर कर्नल तिवारी ऐसा घर नहीं चाहते थे। उनके ख्याल में ऐसा घर घर नहीं रहता, चकले का दूसरा रूप बन जाता है या फिर नासमझी का घिरौंदा। वह घर चाहते थे, जैसे कि 'भले लोगों' के होते हैं। वह घर चाहते थे, जैसा कि उनको पालने वाले कप्तान साहब का था। वह घरवाली चाहते थे, दुनियादारी चाहते थे, नाते-गोते और रस्मा-रिवाज चाहते थे।

मगर चाहने से ही सब कुछ नहीं मिल जाता। वह दुनिया को आबाद करना चाहते थे और उसे बर्बाद करना उसका फर्ज था। इनसानियत और राजनीतिक आदर्शो के नाम पर यह विनाश ही उनके ईमान के लिए सबसे बड़ा सत्यस था।

कर्नल तिवारी मोर्च पर मोर्च बढ़ते चले गए, साथ ही साथ उनकी उम्र और घर बसाने को इच्छा  भी दिनोंदिन तेजी के साथ जोर पकड़ती गई। जर्मनी, जापान पर साथी देशों की विजय उनके लिए महज एक साधारण घटना का ही मूल्यक रखती थी। अपने सैनिक जीवन के अनुभव और दुनिया की राजनीति के रवैये से वह यह जानते थे कि लड़ाई अभी खत्मस नहीं हुई। बिजलियों की रोशनियाँ, आतिशबाजियाँ, शराब जलसे, सम्मातन, तमगे और ऊँचे-ऊँचे ओहदों के हुजूम में उन्हें  महज लड़ाई के नक्शेा ही दिखाई देते थे। शांति कही भी न थी। फिर भी यह चेतना उनके मन में बहुत साफ और उभरी हुई न थी। ऊपरी तौर पर उन्हेंश इस बड़ी जीत में अपने हिस्सेच का अहसास था और राजनीतिक रूप में अपने देश की गुलामी को ही वह अपनी उदासीनता का कारण मानकर सनके हुए थे।

लौटकर देश आए। उनका देश हलचलों से भरा हुआ था। उनका मन भी हलचलों से भरा हुआ था। देश और मिट्टी का प्याशर उनके दिल में सच्चा। होते हुए भी खोखला था। समुंदर पार पराई धरती पर देश के ध्याटन से अपनेपन का नाता जुड़ जाता था। देश आने पर वह अपनापन भी खो गया। उनका कहीं भी अपना ठिकाना न था, अपना घर न था। छुट्ठी लेकर बड़े-बड़े, शहरों में घूम-घूमकर वह अपने को बहलाते रहे। दोस्तोंथ के यहाँ मेहमान हुए, दोस्तों़ के बच्चों  के चचा-चाऊ बने, उनकी बीवियों को भाभी कहकर पुकारा, मगर मन का नाता न जुड़ा।

कर्नल तिवारी एक उलझन में फँस गए। पचास की उम्र हुई, शादी कर के घर बसाएँ तो कितने रोज के लिए? अपनी ढलती उम्र में किसी जवान जहान लड़की का पल्लाक बाँधने में उनके दिल को एक महसूस होती थी। लेकिन वह झिझक इतनी बड़ी कभी न हो सकी कि शादी का ख्याल उनके मन से उतार दे। उलझन में दिन गुजरते गए और उनके बंगाल जाने का हुक्म  आ गया।

नोआखाली के दंगे दबाए जाने के लिए फौज की ताकत माँगते थे। नोआखाली का अनुभव कर्नल तिवारी के लिए दुनिया की दो बड़ी लड़ाइयों से भी ज्यादा तीखा साबित हुआ। उन्हों ने लड़ाई के बड़े-बड़े मैदान देखे थे। बमों से उजड़ते और जलते हुए घर और बेबस इनसानों के तड़प और चीख भरे मौत के नज्जारों को भी, खुद-हिस्साे लेकर देखा था और उसमें हिस्सा  लेने के वजह से उन्हें  मान-सम्माेन और इज्जत-ओहदा मिला था। वह लड़ाई थी और वह दंगे। उन लड़ाइयों के लड़ाकुओं को बहादुर, देशभक्त , राजभक्तथ, और इनसानियत का पुजारी माना जाता था, जबकि इन दंगों में लड़ने वाले गुंडे, कमीने और हैवानियत के पुतले माने जाते हैं।

कर्नल तिवारी के बहुत से साथी हिंदू अफसरों को सरकारी तौर पर अपनी डयूटी बजाते हुए, गैर-सरकारी तौर पर मुसलमानों से नफरत थी। हिंदू और तो और-बच्चोंू, बड़े-बूढ़ों और जवानों के ऊपर ढाए जाने वाले जुल्मा हर एक का खून खोला रहे थे। कर्नल तिवारी का अनुभव दूसरे किस्म का था। घर और रिश्तों  के नाश को इतने नजदीक से और बेलाग होकर वह पहली बार देख रहे थे। उनके दिमाग में धर्म, जाति, और देश अहसास न था। वह तो महज यही देख रहे थे - जलता हुआ घर और तरह-तरह से तबाह होती हुई जानें, यह नरक का नज्जाोरा दो-दो बार सारी दुनिया को हिला देने के बाद भी आज कायम है। वह दृश्यी उनके दिल पर बोझ डाल रहा था। उनके दूसरे साथी जब कभी दबी जवान से अपनी कौमपरस्तीय प्रकट करते, तो उन्हें  कर्नल से जवाब मिलता - "दरअसल हमें जो बुरा लगता है, यह बेबसों को तबाह होना, घरों का उजड़ना। देश, जाति, धर्म और आदर्शों के नाम पर हम हैवानियत देते हैं। जो बुरा है, वह हर हालत और रंग में बुरा ही रहेगा। निहत्थे, हिंदुओं पर मुसलमानों के जुल्मै अगर बुरी चीज है, तो हिरोशिमा और नागासाकी पर अमेरिका के एटम बम गिराने को भी उतना ही बुरा मानना होगा। जर्मनों को अंगरेजों-रूसियों के नगर उजाड़ना और रूसियों-अंगरेजों का तबाह करना - यह सब एक ही किस्मो के तराजू पर तोलने लायक घटनाएँ हैं। मैं इन बेबसों को तबाह करने वाले गुंडों से बदला लेने के लिए तो हर वक्त मु़स्तै द हूँ, मगर हिंदू के नाते मुसलमानों से बदला लेने का खयाल भी मेरे सपने तक में नहीं आ सकता।"

कर्नल तिवारी लड़ाई से चिढ़ते चले गए। जितना नाश देखा, जितना चिढ़े, उतनी ही उनकी घर बसाने की इच्छाव लौ की तरह ऊँची उठती गई, उन्हेंह घर चाहिए। दुनिया में हर शख्स को घर की भूख है। जिंदगी घर की भूख हैं - चींटी से लेकर इनसान तक।

कर्नल तिवारी का घर इक्या-वन बरस की उम्र में अट्ठारह साल की देहातिन तारा से आबाद हुआ। जीवन की सब से बड़ी साध पूरी करते हुए भी कर्नल को चैन नहीं मिला। बसंत पंचमी की लगन धरी गई थी, ब्याूह की तैयारियाँ हो रही थी कि एक दिन अचानक कश्मीनर जाने का हुक्मै मिला। कर्नल तिवारी मन में खीझ उठे। मगर जिंदगी भर की आदत और फर्ज का ध्यादन उनके अंदर मुस्तैतदी का दम भरने लगा। देश सेवा भगवान की सेवा से भी बड़ी वस्तुय है, पर निजी जीवन की सबसे बड़ी माँग भी अपने हक से लिए विद्रोह करती थी। कर्नल तिवारी को ऐसा लगता था कि उनकी शादी अगर इस बार न हुई तो जिंदगी-भर के लिए उनकी यह सबसे बड़ी साध भी उनसे दूर हो जाएगी। उन्हों ने तय किया कि यह शादी करके ही अपनी डयूटी पर जाएँगे। उनके पास अड़तालीस घंटे का वक्त था। उसके अंदर ही उन्हें  शादी करनी थी और कितनी ही जल्दी  में क्योंर न की जाए... बरसों से दबे हुए हौसले ठाठ-बाट से ही पूरे होंगे।

तुरंत माधो गुरू के नाम सम्महन भेजा गया और माधो गुरू उसी रात के आठ बजे जंडैल साब की मोटर पर बैठकर सिमरौली गए, और जंडैली हुकुम सुनाया तो सबके हाथ-पैर फूल गए। एक दिन में क्या -क्या, हो सकता है? फिर शहर के बड़े-बड़े अफसर आएँगे, सैकड़ों मोटरें आएँगे, सबका इंतजाम दिन में कैसे हो जाएगा? ओर फिर पूस में ब्याुह, लो भी दिन में दस बजे के भीतर लगन धरी जाएँ, यह सब कैसे चलेगा?

लेकिन जंडैल के हुकुम से सब चल गया। दूसरे दिन मोटर ट्रकों में भर-भरकर कु‍र्सियों, भेजें और कनात शामियाने पहुँच गए। होटल वाले का तंबू कनात अलग लगा। सुखराम महाराज चार पैरों से दौड़ने लगे, अपनी तरफ से भी कुछ कर दिखाने का जोम था। श्रीरामपुर के ठाकुर साहेब के यहाँ से हथिनी माँग लाए। शहर से नफीरी और झइयम-झइयम बाजे वाले को भी बुलवा लिया। नाई अलग न्योीते की सुपारी बाँटने चला गया। गैस के हंडों की रोशनी में काम-काज और तैयारियाँ करते-करते ही रात बीत गई। जैसे-जैसे दिन चढ़ने लगा, सुखराम की नब्जा छूटने लगी।

चालीस मोटरें आई। जडैंल साहब के हुकुम से रस्में  तो सब हुई, मगर ब्यालह डेढ़ घंटे में ही निपट गया। मेहमानों की चाय हुई। बड़े-बड़े फूलों के गुलदस्तेह और चाँदी-सोने का सामान मिला। बारह बजे तक ब्याहह की सारी भीड़-भाड़ निबट गई और ऊपरवाली कोठरी में जंडैल साहब के आराम के लिए पलंग बिछा दिया गया।

तारा ब्या ह के पहले अपने-आप के लिए भार थी और ब्याीह के बाद एक उलझन बन गई।

उसने अपनी शादी को आँखों से नहीं, कानों से देखा था। घूँघट से ढँकी हुई मंडप में उसके साथ बैठते हुए, भाँवरे फिरते हुए, गंठजोड़े से कुल देवता को प्रणाम करते हुए तारा का मन सँकरे-सन्नाबटे में गुम था। पत्नी  होना और इतनी बड़भागनी पत्नीठ होना देहात में रहने वाली तारा के लिए बड़ा विचित्र अनुभव था। दिल का सन्नााटा अपने-आप से दहल रहा था। यह गुम्मी , यह दहलन और भी सख्त हो गई, जब कर्नल तिवारी ने उसकी कोठरी में कदम रखा। तारा सहमी सिकुड़ी गठरी-सी पलंग पर बैठी रही - अंत तक! मन क्याा होगा? जो हो! की धुकधुकी लेकर गहरे में जा समाया। उसके क्षण बहुत तेजी के साथ सिमटने लगे।

तिवारी अपनी पत्नीे को चाहते थे। तारा के महावर लगे गोरे पैरों में बिछुए और मेहँदी लगे गोरे हाथों में अँगूठियाँ, अजीब किस्मे से कर्नल तिवारी को तारा के बहूपन का एहसास करा रहे थे। तारा उनकी थी, उनकी अपनी। अपनी तारा के गोरे मुख को वह देखना चाहते थे। घूँघट हटाने के लिए बार-बार कहते रहे, पास बैठ गए, कि कंधे पर हाथ रखकर घूँघट हटा दें। जिंदगी भर उन्हों ने औरत की लाज से खिलौने की तरह खेला है, मगर अपनी दुलहिन के घूँघट में उन्हेंघ नारी लाज की वह पवित्रता दिखाई दी, जिसके बिना उनका अब तक का जीवन का सूना था। कर्नल तिवारी अपनी पत्नील का घूँघट न हटा सके और तारा की लाज अपने-आप को छोड़ न सकी। कहते ही चले गए, बिना मुख देखे गए, मगर तारा की गुम्मी  न टूटी।

जाते वक्त अपने ससुर से कह गए - "आज से आपकी साहबजादी के आराम और खर्च की सारी जिम्मेकदारी मेरे ऊपर है। यों तो मैं अपने दोस्ती कैप्टेरन वर्मा के बंगले पर उनके लिए सब इंतजाम कर जाता, मगर चूँकि उस माहौल के लिए वह एकदम नई हैं, उन्हेंन वहाँ परायापन महसूस होगा। फिर भी जिस हैसियत की जिंदगी उन्हेंउ आगे चलकर बितानी है, उसके लिए यह जरूरी तबीयत रवाँ हो जाए। कैप्टेयन वर्मा सब जरूरी इंतजाम कर देंगे और जी हाँ, ससुराल की तरफ से मैंने आपकी साहबजादी का नाम रानी बहू रखा है।"

दूसरे दिन से सुखराम उसे तारारानी, कभी रानी बिटिया और कभी रन्नोस कह कर पुकारने लगे। भैया रन्नो  कहने लगे, छुटकऊ रानी जिज्जीब। एक अम्मास और सिउ नरायन की दद्दा को छोड़कर धीरे-धीरे सारा गाँव उसे तारो या तारा कहने के बजाए अब रानी, रानी बिटिया कहने लगा। इसके तारा को बड़ी शर्म आती थी और उस शर्म से जो घुटन होती थी, उसे वह कभी भी सहन नहीं कर सकती थी। यह उस बर्दाश्त  नहीं होता कि उसका अपना नाम भी उसके लिए पराया बना दिया जाए। लोग अपने लिए खुशामद क्यों  कर पसंद कर लेते हैं, यह सवाल उसके लिए एक बेहूदा पहेली की तरह न हल होने वाला और दम घोंटने वाला बन गया।

ब्या ह के बाद इसे इस घर में जो कुछ भी होता, उसके लिए होता। काछी के बगीचे से दोनों बखत भाजी आने लगी, बकरी का दूध कढ़कर आए तो सबसे पहले उससे पूछा जाए। भैया, दद्दू छुटकऊ - किसी ने भी चाहे खाया हो, चाहे न खाया हो, उसकी थाली पहले परोस दी जाए। तारा को लगता कि धरती फट जाए और वह उसमें समा जाए। क्याा बिटिया के लिए किसी घर में भी ऐसी हाजरी साधी जाती है? उसके लिए तो मैके का गाँव ही ससुराल बना दिया गया। यह अनहोनी भी होनी बदी थी। पैसे और ओहदे की ताकत जो चाहे सो करा ले। पैसे और ओहदे की सारी शक्ति उसके हाथ में सौंपकर एक अनजान आदमी उसे अपनी बनाकर - सब अपनों से बिराना बनाकर - चला गया। लेकिन वह इस शक्ति का क्यान करे? अपने पन को अपने-आपसे क्योंा कर मिटा दे? तारा के प्राण आठों पहर के लिए हत्यास में टँग गए। वह नहीं चाहती कि कोई उसे बदला हुआ समझे।

सारे गाँव के लिए तारा का ब्यांह एक चमत्काहर था। दूसरों की सफलता पर डाह करना दुनियादारी का नियम है। यह डाह देखा-देखी में एक-दूसरे को नई-नई सफलताएँ पाने के लिए उकसाती है। मगर तारा की तकदीर ने उसे जो सफलता बख्शी थी, उस नहले पर दहला कोई क्योंल कर चढ़ाए? लोगों के मन में जलन निकम्मीस हो उमड़-घुमड़कर बैठ जाती थी। इसीलिए सुखराम की बेटी उनके हर जोड़ीदार के लिए ऊपरी तौर पर बड़ी ही प्या री हो गई। यह प्याीर बहुतों के घर में सुधार का शौक बना। सिमरौली में तारा के ब्याडह के बाद नीलाम की अमेरिकन फौजी पतलूनों और बूटों की खपत जवानों में बढ़ गई। सस्तेक किस्म के पाउडर और वैस्ली न का चलन भी ज्यादा हो गया। तारा का मरद जब उसके लिए नित नई अनोखी चीजें भिजवाता है तो हिर्स में गाँव के जवानों की जोरुओं को भी कुछ न कुछ तो फैशन में रहना ही चाहिए। यों तारा के ब्याहह से पहले भी गाँव में फैशन बढ़ने लगा था। लड़ाई की महँगी में बहुत से जवान गाँव छोड़कर शहरों में चले गए थे। जब वे गाँव लौटते तो अपनी हेकड़ी जताने के लिए शहर के चलन लाते। अब उनकी माँग सिमरौली के घर-घर में ज्यादा हो गई। अपनी-अपनी आमदनी का तंग दायरा लोगों के मनों में खर्चें की उमंग को रह-रहकर छेड़ने लगा। छोटे लोगों से बड़े लोगों तक, सभी एक न बुझने वाली प्याउस से तड़पने लगे।

तारा की मास्टगरनी ने जब बगैर फीस लिए गाँव की लड़कियों-बहुओं को पढ़ाने की मंशा जाहिर की तो कइयों की इच्छाब जागी। पढ़ने वालियों में घमंड जागा, न पढ़ने वालियाँ कलह करने में अब 'एमे-बीए' पास करने लगी। टहोके मारना, ताने कसना, बड़प्प़न और फैशन की शेखी पहले से ज्या दा बढ़ गई। बाप की हैसियत पर बेटे-बेटियों की हिर्स ने बड़ों में खींचतान पहले से भी ज्यादा बढ़ा दी।

पुराने और नए जमाने का महाभारत छिड़ने लगा। सासों को नई बहुओं के नए-नए फैशन पसंद न थे, बहुओं को सासों की हुकूमत पसंद न थी। जिनके मालिक शहरों के कमासुत थे, वे अपने को बहुत कुछ समझा करती थी। देवरानी-जेठानियों की कशमकश नई जमीन पर और भी तेजी से लहलहाने लगी। बूढ़े माँ-बापों की शिकायत थी कि उनके बेटे अपनी कमाई का मोट भाग अब घर में न देकर अपने-अपने बीवी-बच्चोंि को देते हैं। लड़कों को अपने माँ-बापों से यह शिकायत थी कि वह, पुराने खूसट, अपने बेटों का सुख नहीं देख सकते। हर भाई घर के झगड़ों में बहस के तौर पर दूसरे भाई पर यह इलजाम लगाता कि जब वह इतनी आमदनी होने पर घर को इतना खर्च देता है, तो वह अपनी आमदनी के हिसाब से घर के खर्च के लिए ज्यादा रकम क्यों  दे।

घरों में चूल्हों  फूटने लगे। जिन घरों के चेहरे पक्के  थे, उकने बेटे-बहुएँ हिस्साद पत्ती के लिए दिन-रात अपने माँ-बापों से कलह-क्लेजश करने लगे। घरों में सास का सिंहासन बहुओं की हाथ-हाथ भर लंबी जवानों की मार से चरमराने लगा। सास घर की मालकिन का पद-गौरव एक से छिनकर कइयों के हिस्से  में बँट गया। घर की हर ब्यापहता स्त्री  घर पर ज्यादा से ज्यादा हुकूमत चाहती है। उस हुकूमत के लिए जिसका पति जितना कमाता है, उतना ही ब्यायहता का अधिकार होता है, जिसका पति कम कमाता है, वह कम अधिकारों वाली होती है। जो मन से कमजोर होती हैं, वह घर में सबसे ज्यादा सुहागवंती, भागवंती का पक्ष लेकर दूसरों पर अपनी जलन उतारने के लिए रोज चार चासनी ज्यादा चढ़ाने की कोशिश करती हैं। सास अगर सख्त हुई, यानी उसके खास संदूकचे का किसी को पता न चल सका, तो कलह बहुओं में ही रही, सास का पद किसी न किसी तरह अपनी आबरू सँभाले बना रहा। जो खुला खजाना रखती है, उनकी तालियों का गुच्छा  किस बहू-बेटी के हाथ में सबसे ज्यादा आता-जाता है, इसका कलह-कलेश ठेठ सास तक पहुँचता है, जिसमें खुद सास भी एक मुजरिम होती है। जो मन की कमजोर हैं वह सबसे ज्यादा जोम रखने वाली बहू की तरफदार हो जाती हैं। पैसे की इस छुटाई-बड़ाई ने माँ के प्यामर को भी ऊपरी तौर पर तब्दीैल कर दिया। घर में हर एक का हर एक से रिश्ताु पैसे का है।

निकम्मेत माँ-बाप, निकम्मे  बेटे-बहुएँ, विधवा बेटियाँ और बड़ी कुँवारी लड़कियाँ, जो पैसे नहीं कमा पाते, वे अपने को इस पैसे की दुनियादारी में सबसे ज्यादा डाँवाडोल हालत में पाते हैं।

फौज में रहकर आए हुए जवान और शहरी स्कूेलों में पढ़ने वाले लड़के गाँवों में अपने साथ एक पूरा बंदर का बंदर खरीद लाए थे। सिनेमा स्टाेरों के नाम, सिनेमा की धुनें, धूप के अमेरिकन चश्में , सिगरेट और सिगार तक, जेब में ऊँचा रूमाल, जिनके पास फाउंटेन पेन नहीं है वह क्लिप लगी पेंसिलें खोंसकर चलते हैं। अब चमड़े के पर्स रखने का चलन भी चल गया है। घड़ियाँ, साइकिलें जिनके पास हैं, वह गाँव के बड़े हीरो माने जाते हैं। उन्हें। आँख लड़ाए बिना खाना ही हजम नहीं होता। आपस में दोस्तोंच की बातचीत की अहम चर्चा यही है कि कौन कितनी बार 'लव' कर चुका है।

ब्यातह के बाद तारा गाँव की सबसे बड़ी हीरोइन बन गई। तारा को लोग दूर से ही देख पाते हैं। कभी भी कही गाँव में किसी के यहाँ जब मिलने-जुलने जाती है तो लोग देखते रह जाते हैं। साथ में या तो दीदी होंगी या महरी। दीदी और तारा बगैर चद्दर के सादी पोशाक में निकलती हैं। जिन जवानों में ज्यादा हौसला है, वह हाथ जोड़कर नमस्तेर कर लेने का रिश्ताै बाँध लेते हैं।

दीदी के चरचे भी कभी-कभी बेवजह ही हो जाते हैं। उनका हीरो बनने का खयाल भी आमतौर पर लोगों के दिमाग में नहीं आता। उनके चेहरे पर एक तेजी है, एक अलगाव है, जो देखते ही दूसरे के मन को झटका देता है। हाँ उन्हेंन पसंद करने वाले करीब-करीब सभी हैं। पढ़े-लिखे और विदेश से लौटे नौ जवानों की महफिल में दीदी की मिसाल दी जाती है और तारा के चर्चे होते हैं। रानी नाम तो बात को और भी सुगम कर देता है।

रानी उसे नीचे तबके के लोग भी कहने लगे हैं। गाँव का छोटा किसान और खेतिहार मजदूर उसे बड़े दिल से रानी कहता है। उनके लिए गाँव की अपनी एक लड़की या बहन का रानी बनना अपने लिए एक बड़प्पनन की बात लगती थी। यही बात बढ़कर बहुतों में खुशामद बनी, बहुतों ने सीधी तरह एक खुशी की बात के तौर पर उसे माना, बगैर किसी मतलब के कइयों ने उससे भी वही रुख रखा, जो वे तमाम पैसे और ओहदेवालों से रखते थे। जंडैल की जोरू को सरकार के खिलाफ, काँग्रेस के खिलाफ, चार खारी-खोटी सुनाकर वह अपने जी की भड़ास निकाल लेते थे। तारा के लिए गाँव में निकलने पर यह एक सबसे बड़ी सजा थी। पति की तारीफ उसके जवान मन के सपनों को बहुत ऊँचा उठा देती थी। जब वह किसी से अपने पति की तारीफ सुनती तो सिर का पल्लां कुछ न कुछ घूँघट-सा बन ही जाता था। अपने पति के बड़प्पकन और तारीफ की बातें सुनने की तो आदत थी, लेकिन ऐसे झूठ-मूठे आवाजें-तवाजे सुनकर वह काँप जाती। ऐसा क्योंब होता है? उसका पति किसी का भी दुश्मून क्यों  हो? यह कांग्रेस तो सबके लिए अच्छीह थी - देश के लिए आजादी ले आई। फिर ये लोग उसकी बुराई क्योंव करते हैं?

तारा के लिए अपने पति का पेशा-ओहदा एक अजब उलझन बन गया। न जाने कब से हर एक के मन में यह बात जम जाती है कि फौज का सिपाही एक बड़ी चीज होता है। उसने और गाँव की हर औरत ने ढोलक के गीतों वाले 'बाँके सिपहिया' को सदा के पहचान रखा है। इन आवाजों-तवाजों को सुनकर तारा के मन में सहज सवाल उठता है कि आखिर उन्हों ने इन लोगों का क्या  बिगाड़ा है?

और साथ ही साथ तारा के ध्यावन में यह बात भी अटकती कि आखिर किसी ने उनका क्याय बिगाड़ा है, जो वह दूसरों से लड़ते हैं? बड़ी-बड़ी दूर हो आए। जर्मनी को मार और अब जो वह कश्मीुर में लड़ रहे हैं, तो किसके साथ उनकी दुश्मबनी है? दीदी से अक्सनर इस बात पर बहस हो जाती थी। दीदी कहती - "वह एक सिद्धांत के लिए लड़ते हैं। एक आदर्श के लिए लड़ते हैं। राष्ट्रक और देश के लिए लड़ते हैं।"

मगर इससे भी तारा के मन की चुभन निकल न सकी। राष्ट्रं, आदर्श और सिद्धांत कोई भी हो, वह दो बिना जान-पहचान के आदमियों को आमने-सामने खड़ा करके दुश्मलनी क्योंध पैदा करवाता है? जिनकी दुश्मजनी है, वही आपस में लड़ के फैसला क्योंे नहीं कर लेते? करोड़ों को सिपाही बना-बनाकर कटवा क्योंज देते हैं? घरों के ऊपर हवाई जहाज आ-आकर जो शहर के शहर बमों से मटियामेट कर जाते हैं, तो उन शहरवालों ने उन हवाई जहाज वालों का क्या  बिगाड़ा था? हवाई जहाज वालों से उनकी कभी की जान-पहचान भी नहीं थी, फिर दुश्मानी कैसे हो गई?

दीदी इस बात पर उसे कई बार समझा चुकी हैं कि यह लड़ाई कुछ आपस की दुश्म नी जैसी नहीं हुआ करती। दीदी बड़े जोश के साथ उसे समझाती - "यह लड़ाई वह लड़ाई है, जो सदा से होती चली आई है और इस लड़ाई में लड़ने वाले लोग वीर और योद्धा माने जाते हैं। पुराने जमाने में जैसे महारथी हुआ करते थे, वैसे अब के जमाने में कर्नल-कमांडर होते है।"

तारा इस दलील से लाजवाब तो ही जाती, मगर उसके मन से यह सवाल न जाता। लड़ाई है तो अच्छीइ, उसके पति को इतना मान-सम्मा न और रूतबा दिया, मगर तारा के लिए वह बड़ी खराब हैं। उसके प्राण टँगे रहते हैं और इसी वजह से यह सवाल उसके मन से छूट ही नहीं पाता कि लड़ाई की जरूरत ही क्याग है?

वह लड़ाई से काँपती है और जब कभी जी जोर से धड़क जाता है, तो साड़ी का पल्ला, फौरन पीछे गिराने के लिए हाथ बढ़ जाता है। उड़ी के मोर्चा से जब उनके जख्मी होने की खबर आई थी, तो पैरों के नीचे धरती का भान बिसर गया। जब तक अस्पोताल में रहे, किसी करवट भी कल न पड़ी। दिल की धड़कनों में एक तीर-सा बिंध गया कि उसने अपने-आप को उस दिन सौंप क्यों  न दिया?

वह अब घूँघट से नफरत करने लगी थी, वह घूँघट से डर गई थी। तारा एक तरह से अपना भरोसा खो रही थी। तकदीर ने उसे चमकाया तो, मगर इतनी जोर से उछाला देकर कि मन में खूद अपनी ही चमक बैठ गई। वही चमक बहाने-बहाने जी में डोला करती थी।

तारा अपने से पराई हो गई थी। इस पराएपन को वह बर्दाश्त  नहीं कर पाती थी और वह सदा चौकन्नान रहकर इस बात के ध्याइन में रहा करती थी कि कोई उसे बदती हुई न समझे। इस चौकन्नेनपन से तारा को इन आठ महीनों में थका-हरा डाला। वह हर-एक को खुश रखना चाहती थी कि हर-एक उससे खुश रहे। इसके लिए वह अपने व्यरवहार और कामकाज से सदा सावधान रहने की कोशिश किया करती थी, फिर भी बराबर यही महसूस किया करती कि वह सबको खुश नहीं कर पाएगी। उसे एक डर-सा बँध गया कि लोग उससे मन ही मन में नाराज रहते हैं और ऊपर का प्याार दिखाते हैं।

जब मैके के घर की नई मंजिल चढ़ाने की बात, दामाद की ओर से ससुर को चिट्ठी में लिखकर आई और दद्दू ने आँगन में आकर सुनाई तो तारा को भी अच्छीह नहीं लगी थी। अम्माो को सचमुच खला था। उन्होंेने कहा - "वह लाख बड़े आदमी हों, पर हमारी भी गँवई-गाँव की मरजाद है। लोग सात गाँव तक नाम धरेंगे कि बेटी के धन पर धन्नाभ सेठ बनते हैं।"

सुखराम महाराज इस पर 'हँ-आँ-आँ...' कर के ही रह गए। बड़काऊ जोर से बोले - "यह कोई कहेगा ही कैसे? हम नहीं कह देंगे कि वह अपनी बहु के लिए बनवा रहे हैं। हम क्याक कर सकते? एक तरह से हमने यहाँ जगह देकर उनकी ही तकनीक बचाई है। मास्ट रनी के लिए कहीं न कहीं तो जगह बनती ही।"

दद्दू इसी बात को ले उड़े - दामाद जब अपने मुँह से कहता है तो हम कर ही क्या  सकते हैं। हमारा तो यही धर्म है कि दामाद कहे, हम तुम्हा रे सिर पर मकान बनाएँगे, तो झट से हाथ जोड़कर झुक जाएँ।

इसी तर्क के सहारे बँधकर, मन के लोभ को सुंदर जामा पहनाकर, दद्दू और भैया तारा के गुलाम हो गए।

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रचनाएँ
अमृत लाल नागर की कहानी संग्रह
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अमृतलाल नागर हिन्दी के उन गिने-चुने मूर्धन्य लेखकों में हैं जिन्होंने जो कुछ लिखा है वह साहित्य की निधि बन गया है उपन्यासों की तरह उन्होंने कहानियाँ भी कम ही लिखी हैं परन्तु सभी कहानियाँ उनकी अपनी विशिष्ठ जीवन-दृष्टि और सहज मानवीयता से ओतप्रोत होने के कारण साहित्य की मूल्यवान सम्पत्ति हैं। फिर स्वतंत्र लेखन, फिल्म लेखन का खासा काम किया। 'चकल्लस' का संपादन भी किया। आकाशवाणी, लखनऊ में ड्रामा प्रोड्यूसर भी रहे। कहानी संग्रह : वाटिका, अवशेष, तुलाराम शास्त्री, आदमी, नही! नही!, पाँचवा दस्ता, एक दिल हजार दास्ताँ, एटम बम, पीपल की परी , कालदंड की चोरी, मेरी प्रिय कहानियाँ, पाँचवा दस्ता और सात कहानियाँ, भारत पुत्र नौरंगीलाल, सिकंदर हार गया, एक दिल हजार अफसाने है।
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एटम बम

25 जुलाई 2022
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चेतना लौटने लगी। साँस में गंधक की तरह तेज़ बदबूदार और दम घुटाने वाली हवा भरी हुई थी। कोबायाशी ने महसूस किया कि बम के उस प्राण-घातक धड़ाके की गूँज अभी-भी उसके दिल में धँस रही है। भय अभी-भी उस पर छाया ह

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एक दिल हजार अफ़साने

25 जुलाई 2022
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जीवन वाटिका का वसंत, विचारों का अंधड़, भूलों का पर्वत, और ठोकरों का समूह है यौवन। इसी अवस्था में मनुष्य त्यागी, सदाचारी, देश भक्त एवं समाज-भक्त भी बनते हैं, तथा अपने ख़ून के जोश में वह काम कर दिखाते

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शकीला माँ

25 जुलाई 2022
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केले और अमरूद के तीन-चार पेड़ों से घिरा कच्चा आँगन। नवाबी युग की याद में मर्सिया पढ़ती हुई तीन-चार कोठरियाँ। एक में जमीलन, दूसरी में जमलिया, तीसरी में शकीला, शहजादी, मुहम्मदी। वह ‘उजड़े पर वालों’ के ठ

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दो आस्थाएँ भाग 1

25 जुलाई 2022
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अरी कहाँ हो? इंदर की बहुरिया! - कहते हुए आँगन पार कर पंडित देवधर की घरवाली सँकरे, अँधेरे, टूटे हुए जीने की ओर बढ़ीं। इंदर की बहू ऊपर कमरे में बैठी बच्चेर का झबला सी रही थी। मशीन रोककर बोली - आओ, बुआज

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दो आस्थाएँ भाग 2

25 जुलाई 2022
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 अरे तेरे फूफाजी रिसी-मुनी हैंगे बेटा! बस इन्हेंआ क्रोध न होता, तो इनके ऐसा महात्मां नहीं था पिरथी पे। क्याअ करूँ, अपना जो धरम था निभा दिया। जैसा समय हो वैसा नेम साधना चाहिए। पेट के अंश से भला कोई कैस

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दो आस्थाएँ भाग 3

25 जुलाई 2022
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प्रेम नेम बड़ा है। - पति के क्षोभ और चिंता को चतुराई के साथ पत्नीक ने मीठे आश्वाजसन से हर लिया; परंतु वह उन्हेंक फिर चाय-नाश्ताक न करा सकी। डॉक्ट।र इंद्रदत्त शर्मा फिर घर में बैठ न सके। आज उनका धैर्य

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दो आस्थाएँ भाग 4

25 जुलाई 2022
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खाती हूँ। रोज ही खाती हूँ - पल्लेँ से आँखें ढके हुए बोलीं। इंद्रदत्ती को लगा कि वे झूठ बोल रही हैं। तुम इसी वक्त मेरे घर चलो, बुआजी। फूफा भी वैसे तो आएँगे ही, पर आज मैं... उन्हेंि लेकर ही जाऊँगा। नही

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दो आस्थाएँ भाग 5

25 जुलाई 2022
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हो रहा है, ठीक है। तो फिर दादा हमारा विरोध क्यों  करते हैं? भोला, हम फूफाजी का न्याकय नहीं कर सकते। इसलिए नहीं कि हम अयोग्यय हैं, वरन इसलिए कि हमारे न्यालय के अनुसार चलने के लिए उनके पास अब दिन नहीं

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दो आस्थाएँ भाग 6

25 जुलाई 2022
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तुम अपने प्रति मेरे स्नेफह पर बोझ लाद रहे हो। मैं आत्म शुद्धि के लिए व्रत कर रहा हूँ... पुरखों के साधना-गृह की जो यह दुर्गति हुई है, यह मेरे ही किसी पाप के कारण... अपने अंतःकरण की गंगा से मुझे सरस्वमत

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धर्म संकट

25 जुलाई 2022
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>शाम का समय था, हम लोग प्रदेश, देश और विश्‍व की राजनीति पर लंबी चर्चा करने के बाद उस विषय से ऊब चुके थे। चाय बड़े मौके से आई, लेकिन उस ताजगी का सुख हम ठीक तरह से उठा भी न पाए थे कि नौकर ने आकर एक सादा

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प्रायस्चित

25 जुलाई 2022
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जीवन वाटिका का वसंत, विचारों का अंधड़, भूलों का पर्वत, और ठोकरों का समूह है यौवन। इसी अवस्था में मनुष्य त्यागी, सदाचारी, देश भक्त एवं समाज-भक्त भी बनते हैं, तथा अपने ख़ून के जोश में वह काम कर दिखाते

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पाँचवा दस्ता भाग 1

25 जुलाई 2022
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सिमरौली गाँव के लिए उस दिन दुनिया की सबसे बड़ी खबर यह थी कि संझा बेला जंडैल साब आएँगे। सिमरौली में जंडैल साहब की ससुराल है। वहाँ के हर जोड़ीदार ब्राह्मण किसान को सुखराम मिसिर के सिर चढ़ती चौगुनी माया

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पाँचवा दस्ता भाग 2

25 जुलाई 2022
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कर्नल तिवारी घर बसाना चाहते थे। घर के बिना उनका हर तरह से भरा-पूरा जीवन घुने हुए बाँस की तरह खोखला हो रहा था। दस की उम्र में सौतेली माँ के अत्यासचारों से तंग आकर वह अपने घर से भागे थे। तंगदस्तीथ में ब

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पाँचवा दस्ता भाग 3

25 जुलाई 2022
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तारा के कमरे से आने पर दीदी अपने पलंग पर ढह पड़ी और तरह-तरह से तारा की सिकंदर ऐसी तकदीर पर जलन उतारने लगी। यह जलन भी अब उन्हें  थका डालती है। अब कोई चीज उन्हेंद जोश नहीं देती - न प्रेम, न नफरत। जिंदग

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पाँचवा दस्ता भाग 4

25 जुलाई 2022
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तारा जब दीदी के कमरे में पहुँची तो वह अखबार से मुँह ढाँके सो रही थी। लैंप सिंगारदान की मेज पर रखा था और दीदी के पलंग पर काफी अँधेरा हो चुका था। दबे पाँव तारा बढ़ने लगी। लैंप उठाकर पलंग के पासवाले स्टू

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पाँचवा दस्ता भाग 5

25 जुलाई 2022
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जब तारा सुहागवती हुई और अपनी माँ के घर की महारानी बनी, तो मलकिन का मन औरत वाले कोठे पर चढ़ गया। मलकिन को यह अच्छाे नहीं लगता था कि उनके घर में कोई उनसे भी बड़ा हो। बेटी से एक जगह मन ही मन चिढ़कर वह रो

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पाँचवा दस्ता भाग 6

25 जुलाई 2022
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बार-बार हॉर्न बजने की आवाज और लोगों के घबराहट में चिल्लाँने का शोर बस्तीस में परेशानी का बायस हुआ। सुखराम के बैठक में गाँव के सभी लोग बैठे हुए थे। दामाद का इंतजाम हो रहा था। बाहर पेड़ के चबूतरे के आस

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पाँचवा दस्ता भाग 7

25 जुलाई 2022
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महँगी के मारे बिरहा बिसरगा - भूलि गई कजरी कबीर। देखि के गोरी क उभरा जोबनवाँ, अब ना उठै करेजवा मा पीर।। मोटर के हार्न ने गीत को रोक दिया। गाड़ीवान ने मोटर को जगह देने के लिए अपने छकड़े को सड़क के क

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सिकंदर हार गया भाग 1

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अपने जमाने से जीवनलाल का अनोखा संबंध था। जमाना उनका दोस्‍त और दुश्‍मन एक साथ था। उनका बड़े से बड़ा निंदक एक जगह पर उनकी प्रशंसा करने के लिए बाध्‍य था और दूसरी ओर उन पर अपनी जान निसार करनेवाला उनका बड़

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सिकंदर हार गया भाग 2

25 जुलाई 2022
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जीवनलाल का खून बर्फ हो गया। लीला मिसेज कौल के साथ घर के अंदर ही बैठी रही थी, मिस्‍टर कौल उनसे बातें करते हुए बीच में पाँच-छह बार घर के अंदर गए थे। एक बार तो पंद्रह मिनट तक उन्‍हें अकेले ही बैठा रहना प

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सिकंदर हार गया भाग 3

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जीवनलाल ने कड़ककर आवाज दी, लीला ! लीला चौंक गई। यह स्‍वर नया था। उसने घूमकर जीवनलाल को देखा और बैठी हो गई। जीवनलाल उसके सामने आकर उसकी नजरों में एक बार देखकर क्रमशः अपनी उत्‍तेजना खोने लगे। एक सेकें

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हाजी कुल्फ़ीवाला

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जागता है खुदा और सोता है आलम। कि रिश्‍ते में किस्‍सा है निंदिया का बालम।। ये किस्सा है सादा नहीं है कमाल।। न लफ्जों में जादू बयाँ में जमाल।। सुनी कह रहा हूँ न देखा है हाल।। फिर भी न शक के उठाएँ स

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कुशीनारा में भगवान बुद्ध भाग 1

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कुशीनारा में भगवान बुद्ध की विश्राम करती हुई मूर्ति के चरणों में बैठकर चैत्रपूर्णिमा की रात्रि में आनंद ने कहा-‘‘शास्ता, अब समय आ गया है।’’ भगवान बुद्ध की मूर्ति ने अपने चरणों के निकट बैठे इस जन्म के

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कुशीनारा में भगवान बुद्ध भाग 2

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‘‘अठन्नी की क्या कीमत ही नहीं होती ? इस एक अठन्नी के कारण मेरे तैतालीस रुपए खर्च हो गए। शर्म नहीं आती बहस करते हुए भरे बाजार में।’’ मेमसाहब का स्वर इतना ऊँचा हो गया था कि सड़क पर आसपास चलते लोगो— अन्य

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