शेख मुजिबुर रहमान, जो जामिया मिलिया इस्लामिया में पढ़ाते हैं, का पिछले 25 जून को ‘द हिंदू’ दैनिक में गो रक्षण के नाम पर घटित हिंसक घटनाओं को लेकर एक अतार्किक और अत्यंत आपत्तिजनक लेख प्रकाशित हुआ। इस संदर्भ में सबसे पहले यह स्पष्ट किया जाता है कि गो रक्षण के नाम पर घटित हिंसक घटनाएँ निंदनीय और भर्त्सनीय हैं। इस मामले में कानून को सख्ती से काम करना चाहिए ताकि कोई कानून को अपने हाथ में न ले।
परंतु इस लेख में कई बातें तथ्यों और तर्कों से परे हैं जिनका विश्लेषण ही इस लेख का विषय है। पहली बात तो यह है कि लेखक का दावा है कि गो रक्षण का विषय सिर्फ उच्च जातियों तक सीमित है क्योंकि उनका कहना है कि मुसलमानों की तरह दलित भी गो मांस का सेवन करते हैं। यहाँ यह बताना उपयुक्त होगा कि दलित वर्ग में सैकड़ों जातियाँ हैं जिनमें से सिर्फ कुछ ही गो मांस का सेवन करती हैं। शेष दलित जातियाँ ऐसा नहीं करती हैं और जो ऐसा करती भी हैं वे मृत गायों का मांस उपयोग में लाती हैं। इस बारे में बहुत से दोहे, कहावतें और कहानियाँ साहित्य में उपलब्ध हैं। मुख्य बात यह है कि ये जातियाँ गो हत्या नहीं करतीं। इसके अतिरिक्त बाकी जातियाँ भी गो रक्षण को लेकर उतनी ही संवेदनशील रही हैं जितनी कि उच्च जातियाँ। इस प्रकार लेखक की यह धारणा कि गो रक्षण सिर्फ उच्च जातियों तक ही सीमित है, पूरी तरह गलत और भ्रामक है। इस संदर्भ में लेखक ने स्वयं ही प्रकारांतर से अपनी इस धारणा को गलत माना है, क्योंकि लेखक ने लिखा है कि ‘सभी राजनैतिक दलों में रूढ़िवादी नेता रहे हैं जिन्होंने भाजपा के अस्तित्व में आने से पहले ही कई राज्यों में गो हत्या पर प्रतिबंध लगा दिया था।’ यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि सभी राजनीतिक दलों के रूढ़िवादी नेता क्या सिर्फ उच्च जातियों से ही थे? जाहिर है नहीं थे। इसके अलावा लेखक को नहीं मालूम कि गो रक्षण हिंदू धर्म की तमाम जातियों की आस्था से जुड़ा हुआ विषय है और इस तरह सभी जातियाँ गाय का सम्मान करती हैं। यही नहीं, दरअसल गो रक्षण सभी भारतीय धर्मावलंबियों – हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख आदि – की आस्था का विषय है।
इसी तरह लेखक ने जिन्ना को लेकर कहा है कि पाकिस्तान की मांग के पीछे मुसलमानों की खान-पान की आदत भी थी। यदि यह सच है तो फिर जिन मुसलमानों ने भारत में रहना स्वीकार किया उन्हें तो हिंदुओं की आस्था का सम्मान करना चाहिए क्योंकि उनका पाकिस्तान न जाना यही दर्शाता है कि उनके लिए खान-पान की आजादी उतनी महत्वपूर्ण नहीं थी। लेखक ने जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद का हवाला देते हुए लिखा है कि जिन्ना को मुसलमानों पर अल्पसंख्यक का ठप्पा लगना गवारा नहीं था। लेकिन लेखक यह भूल गए कि जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद को तो तभी करारा झटका लग गया था जब बड़ी संख्या में मुसलमानों ने भारत में ही रहने का फैसला लिया। इसके बाद बांग्लादेश के अस्तित्व में आने पर तो द्विराष्ट्रवाद पूरी तरह तिरोहित हो गया। जहाँ तक अल्पसंख्यक दर्जा न स्वीकार करने की बात है तो यह जिन्ना की इस्लामी सोच का परिणाम थी। यह बात बहुत हद तक सच है कि प्रचलित इस्लाम मुसलमानों का अल्पसंख्यक होना स्वीकार नहीं करता है। इसका प्रकारांतर से यह अर्थ होता है कि इस्लाम शासन ही कर सकता है उसे शासित होना कतई स्वीकार्य नहीं है। हालांकि शासक और शासित का वर्गीकरण ही लोकतंत्र के मूल्यों के खिलाफ है। लेकिन इसके आगे का तथ्य यह है कि मुस्लिम बहुल देश अपने यहाँ अल्पसंख्यकों को बराबरी का दर्जा नहीं देते हैं। इसका एक प्रबल उदाहरण यह है कि जब पाकिस्तान बना तब भी गैर-मुस्लिम वहाँ बड़ी संख्या में रह गए थे। लेकिन उन्हें इस कद्र प्रताड़ित किया गया कि धीरे-धीरे वे पाकिस्तान और कालांतर में बने बांग्लादेश से भी बाहर होते गए। यह प्रक्रिया आज भी जारी है। इसका नतीजा यह हुआ है कि आज इन दोनों देशों में अल्पसंख्यकों की संख्या आनुपातिक दृष्टि से नगण्य है। ऐसी ही स्थिति पश्चिम एशिया की भी है जहाँ से धीरे-धीरे यहूदी और ईसाई जैसे समुदाय मुस्लिम बहुल देशों से बाहर होते गए। जबकि विडंबना यह है कि ये समुदाय वहाँ सदियों से यानी इस्लाम के वजूद में आने से पहले से रह रहे थे। जबकि दूसरी ओर भारत में मुस्लिम आबादी अन्य सभी समुदायों की तुलना में सर्वाधिक तीव्र गति से बढ़ी है। इसका सीधा सा अर्थ है कि सामान्यतः भारत में अल्पसंख्यकों को लेकर परिस्थिति अनुकूल रही है।
अल्पसंख्यक का दर्जा न स्वीकार करना और बहुसंख्यक होने की स्थिति में अल्पसंख्यकों का जीवन दूभर कर देना ऐसे गंभीर विषय हैं जो मुस्लिम बहुल देशों को लोकतांत्रिक होने से रोकते हैं। लोकतंत्र के लिए यह आवश्यक है कि समाज उदार हो जिसमें सबके अधिकार बराबर हों। परंतु दुर्भाग्य से इस्लाम का जो प्रचलित रूप है वह इसकी अनुमति नहीं देता। हमारे देश में ही कश्मीर एक ऐसा उदाहरण है जो हमें शर्मसार कर देता है जहाँ से चुन-चुन कर अल्पसंख्यकों को घाटी से बाहर कर दिया गया। यह स्वतंत्र भारत की सबसे बड़ी त्रासदी है। घाटी से बाहर किए गए कश्मीरी पंडित आज भी अपने ही देश में शरणार्थी बन कर रह रहे हैं। इसलिए आश्चर्य नहीं कि दुनिया के पचास से भी अधिक मुस्लिम बहुल देश या तो बिल्कुल भी लोकतांत्रिक नहीं हैं या बहुत ही सीमित अर्थों में हैं। इस तरह लेखक द्वारा जिन्ना की अतार्किक बातों का हवाला देना बिल्कुल अनुचित है।
अम्बेडकर को लेकर जो बात कही गई है वह तो अपमानजनक है। यह कहना कि यदि दलित एक क्षेत्र विशेष में रह रहे होते तो अम्बेडकर अलग दलित राष्ट्र की मांग करते, उनके राष्ट्र प्रेम पर प्रश्न चिह्न लगाता है। लेखक को संभवतः नहीं मालूम कि अम्बेडकर को इस देश से कितना प्रेम था! इसके अलावा यदि लेखक इस्लाम के विषय में उनके विचार जान लें तो संभवतः वह उनका उल्लेख इस तरह नहीं करते। अम्बेडकर ने भारत विभाजन पर अपनी पुस्तक में लिखा है, “इस्लाम मुस्लिम और गैर-मुस्लिम के बीच भेद करता है और यह अलगाववाद का भेदभाव है। इस्लाम का भाईचारा सार्वभौमिक भाईचारा नहीं है।” अम्बेडकर मुस्लिम समुदाय की प्राथमिकताओं के विषय में लिखते हैं कि -“मुसलमानों की रुचि राजनीति में नहीं, बल्कि धर्म में है।” यही कारण था कि जब उनके धर्म परिवर्तन की बात आई तो उन्होंने इस्लाम और ईसाइयत के साथ ही किसी भी अभारतीय धर्म को सिरे से खारिज कर दिया। उनके द्वारा भारतीय धर्म को अपनाने की घटना स्वयं सिद्ध कर देती है कि वह इस देश और यहाँ की संस्कृति से किस हद तक जुड़े हुए थे।
मुसलमानों द्वारा गो मांस भक्षण के संदर्भ में लेखक ने यह बात उठाई है कि इस बारे में कोई निश्चित सिद्धांत नहीं है कि मुसलमानों ने कब और कैसे गो मांस भक्षण आरंभ किया? पर लेखक का कहना है कि किसी भी तरह इसका उद्देश्य हिंदुओं का अपमान करना नहीं है। यहाँ पर उल्लेखनीय है कि जो हमलावर मुसलमान यहाँ आए उनके अपने यहाँ मांस भक्षण उनके भोजन का अभिन्न हिस्सा था। आज भी पश्चिम और मध्य एशिया में मांस का प्रयोग बहुत ही आम बात है। इस तरह आश्चर्य नहीं कि भारत में आने पर भी उनकी यह आदत जारी रही और इस आदत में गो मांस भक्षण भी शामिल था। मुसलमानों द्वारा भारत में गो मांस भक्षण का प्रमाण बहुत पहले से ही मिलता है। लगभग पांच सौ वर्ष पहले ही कबीर दास ने लिखा था – “दिन में रोजा रखत हैं रात हनत हैं गाय।”
परंतु ध्यान देने वाली बात यह है कि आज जितने मुसलमान यहाँ है उनमें से अनुमानतः एक प्रतिशत भी विदेशी मूल के नहीं हैं। इस प्रकार जो शेष अधिसंख्यक हैं वे यहीं के हैं और यहाँ की संस्कृति के पोषक और वाहक भी। उनके लिए गो मांस के प्रति इस तरह का आग्रह उनकी नैसर्गिक संस्कृति और प्रवृत्ति के विरुद्ध जाता है। हमारे देश में पूर्वोत्तर के राज्यों में रह रहे आदिवासी सदियों से अनेक तरह के पशुओं का मांस खाते रहे हैं। उनके लिए सुअर, गाय आदि पशुओं का मांस उनके आहार का अंग रहा है। यह उनकी संस्कृति का हिस्सा है। इसी तरह गोवा में पुर्तगालियों ने क गो मांस को अपने आहार का हिस्सा बनाया। लेकिन जहाँ तक मुसलमानों का प्रश्न है तो चूँकि उन्होंने सिर्फ अपना धर्मांतरण किया है इसलिए उनकी संस्कृति वही है जो शेष बृहत् समाज की है। इस प्रकार मुसलमानों के लिए गो मांस का सेवन नैसर्गिक न होकर एक अर्जित आदत मानी जानी चाहिए। वैसे भी जिन राज्यों में गो हत्या प्रतिबंधित है वहाँ ऐसा करना कानून का उल्लंघन है।
दूसरी बात यह है कि मुसलमानों के लिए गो हत्या आस्था का विषय न होकर सिर्फ भोजन का विषय है, लेकिन हिंदुओं, बौद्धों, जैनों, सिखों आदि – सभी भारतीय धमावलंबियों- के लिए यह घोर आस्था का विषय है। इससे हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि यदि मुसलमानों के लिए गो भक्षण धार्मिक आस्था का विषय नहीं है तो जान-बूझकर न सही पर अनजाने ही मगर यह भारतीय धर्मावलंबियों के लिए अपमानजनक है, क्योंकि इससे उनकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचती है।
इस संदर्भ में उन मुसलमानों की भूरि-भूरि प्रशंसा करनी चाहिए सिर्फ इसलिए गो मांस का सेवन नहीं करते क्योंकि इससे उनके गैर-मुस्लिम मित्रों की आस्था को ठेस लग जाएगी। इस प्रकार देखा जाए तो आपसी समझ-बूझ से इस समस्या का हल निकाला जा सकता है। चूंकि परंपरा से ऐसी धारणा बन गई है कि मुसलमान होने के लिए गो मांस भक्षी होना जरूरी है इसलिए इस बात का प्रचार होना चाहिए कि गो हत्या से इस्लाम का कोई संबंध नहीं है। इसी तरह मजहब और संस्कृति के बीच के संबंधों पर भी विमर्श होना चाहिए। खान-पान, पहनावा-ओढ़ावा, बोल-चाल आदि का संबंध जितना संस्कृति से उतना मजहब से नहीं।
लेखक निवेश एवं लोक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग , वित्त मंत्रालय ,भारत सरकार में संयुक्त सचिव हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं ।
जुलाई 2018