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बांग्लादेश : आहत लोकतंत्र

28 मई 2022

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हाल ही में संपन्न हुए बांग्लादेश के चुनाव पर हमारे देश के हिंदी और अंग्रेजी समाचार पत्रों में जितने भी लेख छपे उनमें से अधिकतर में यह भाव मुखर था कि शेख हसीना की जीत भारत के लिए बहुत लाभकारी है। इस प्रकार कुल मिलाकर बांग्लादेश के चुनाव परिणाम को भारत की दृष्टि से ही देखा गया है। इस तरह स्वतंत्र दृष्टि के अभाव में बांग्लादेश के चुनाव परिमाण का एक प्रबल पक्ष ओझल ही रह गया कि वहां का लोकतंत्र कैसे आहत हुआ है ! 

चुनाव में विपक्ष का सफाया यही बताता है कि पिछले एक दशक से बांग्लादेश लगभग एक दलीय शासन को झेलने को अभिशप्त रहा है। दिसंबर में हुए चुनाव में 298 सीटों में से 287 सीटें सत्तारूढ़ गठबंधन को मिलीं – लगभग 96 प्रतिशत। ऐसी प्रचंड विजय लोकतंत्र में दुर्लभ है। फिर भी यदि सीटों में न सही प्रतिशत में वोट का ठीक-ठाक हिस्सा विपक्ष को मिला होता तब भी गनीमत होती। जब दिल्ली में अरविंद केजरीवाल को 70 में से 67 सीटें मिली थीं तब भी उन्हें लगभग पचपन प्रतिशत वोट ही मिले थे और मुख्य विपक्षी दल – भाजपा को पैंतीस प्रतिशत वोट मिले थे। लेकिन बांग्लादेश में तो जीतने वालों को 80 प्रतिशत से भी अधिक वोट मिले, जबकि सारे विपक्षी दलों को 20 प्रतिशत से भी कम। इस तरह कहा जा सकता है कि बांग्लादेश का चुनाव बिल्कुल भी प्रतिस्पर्धी नहीं था। यह चुनाव एकपक्षीय था जिसमें विपक्ष के लिए कोई स्थान नहीं था। यहां  तक कि पाकिस्तान में संपन्न हुए हाल का चुनाव, जिसमें आरोप लगाया गया था कि फौज ने इमरान खान का साथ दिया था और विपक्ष को तरह तरह से रोका था, कहीं अधिक प्रतिस्पर्धी था। विपक्ष को अच्छी-खासी सीटें मिलीं। इसका परिणाम है कि वहां की संसद में विपक्ष की आवाज को दबाना कठिन है। इसके विपरीत बांग्लादेश में सरकार बेरोकटोक काम करेगी और निरंकुश होने की संभावना बनी रहेगी। विपक्ष लोकतंत्र का अपरिहार्य अंग है, जिसके बिना कैसा लोकतंत्र ! 

स्पष्ट है ऐसे चुनाव पर प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है। विपक्ष की प्रमुख नेता – खालिदा जिया जेल में थीं। फिर भी अनेक दलों को साथ लेकर विपक्ष ने एकजुटता का परिचय दिया था। वामपंथी दलों ने भी अपना एक गठबंधन बनाया था। जैसा कि हम जानते हैं हर दल का अपना वोट बैंक होता है। जानकार बताते हैं कि दोनों मुख्य दलों का सम्मिलित वोट बैंक 60-65 प्रतिशत है और शेष वोट स्वतंत्र माने जाते हैं। इसलिए आशा की जाती थी कि कम से कम 30-40 प्रतिशत वोट और पचास के आसपास की सीटें चुनाव परिणाम को विश्वसनीय बनाने के लिए जरूरी थीं। पर बांग्लादेश के चुनाव से नहीं लगता कि सत्ताधारी दलों को छोड़कर किसी और दल का कोई वोट बैंक है। असल में बात यह है कि विपक्षी दलों को चुनाव के समय तरह तरह से प्रताड़ित किया गया। उदाहरण के लिए 17 विपक्षी प्रत्याशियों को गिरफ़्तार कर लिया गया और 17 अन्य विपक्षी प्रत्याशियों को कोर्ट द्वारा चुनाव लड़ने से अयोग्य ठहरा दिया गया। विपक्ष का आरोप है कि चुनाव प्रचार के दौरान लगभग 15000 कार्यकर्ताओं को हिरासत में लिया गया जिससे उसका चुनाव प्रचार कमजोर पड़ गया। कहानी यहीं नहीं रुकती। कई बैलेट बक्सों में पहले से ही वोट भरे हुए थे और चुनाव में सत्ताधारी दलों के पक्ष में धांधली देखी गई। अनेक बूथों पर विपक्षी पोलिंग एजेंट ही नहीं थे। चुनाव के दिन सड़कों पर लोगों की आवाजाही बहुत कम थी जिससे जानकार मानते थे कि वोट अधिक नहीं पड़े होंगे। पर वोट काफी मात्रा में पड़े जिसको लेकर संशय होना स्वाभाविक है। यह कम आश्चर्यजनक बात नहीं है कि एक चुनाव आयुक्त ने स्वयं यहां तक कह दिया कि इस चुनाव में विपक्ष के लिए चुनाव व्यवस्था बराबरी की नहीं थी। 

यह बांग्लादेश का दुर्भाग्य है कि 48 वर्ष बीत जाने पर भी परिपक्व होने के स्थान पर वहां का लोकतंत्र निरंतर दुर्बल हुआ है। ऐसा लगता है जैसे बंदूक की नोक पर कोई तानाशाह अपना जनमतसंग्रह कराए और 90-95 प्रतिशत वोट पा जाए। 1971 में बांग्लादेश के अस्तित्व में आने के बाद थोड़े ही समय बाद फौज द्वारा तख्ता पलट हुआ और फौजी शासन लगभग 15 सालों तक चला। उसके बाद शेख हसीना और खालिदा जिया के बीच सत्ता का आदान-प्रदान होता रहा। पिछले दस सालों से एक दलीय शासन व्यवस्था जारी है। 2014 के चुनाव का खालिदा जिया ने बहिष्कार किया था इसलिए शेख हसीना लगभग निर्विरोध ही जीत गईं। यह भी लोकतंत्र के नाम पर मजाक था। पर जिसके पास भी शासन रहा वह लगभग तानाशाह बना। इस मामले में खालिदा जिया का रिकार्ड ज्यादा खराब  है। तानाशाह की बेटी होने, इस्लामी कट्टरपंथियों का साथ देने और भारत-विरोधी होने के कारण खालिदा के शासनकाल में अल्पसंख्यकों पर अधिक अत्याचार हुआ। साथ ही भारत के लिए अनेक मुश्किलें खड़ी की गईं। 

पर मूल प्रश्न यह नहीं है कि शेख और खालिदा में कौन भारत के लिए बेहतर है, बल्कि यह कि कैसे बांग्लादेश का लोकतंत्र सुदृढ़ होगा ? क्योंकि अंतत: सुदृढ़ लोकतंत्र ही बांग्लादेश और भारत दोनों के हित में होगा। दुर्भाग्य से बांग्लादेश के चुनाव पर लिखने वालों में से अधिकतर ने अदूरदर्शिता का परिचय देते हुए वहां के लोकतंत्र के संकट में होने पर चिंता करने की जगह शेख की जीत का ही विश्लेषण किया है।

फ्रीडम हाउस, जो दुनियाभर में लोकतंत्र पर नजर रखता है और किस देश में किस सीमा तक लोकतंत्र है उसका हिसाब रखता है, बांग्लादेश को सिर्फ 45 अंक देता है, जो पाकिस्तान को मिले अंक (43) के निकट हैं। भूटान में अभी अभी लोकतंत्र शुरू हुआ है पर उसे फ्रीडम हाउस ने 55 अंक दिए हैं। इस तरह भूटान लोकतंत्र के मामले में बांग्लादेश से बहुत आगे है। बांग्लादेश का तो हाल यह है कि कश्मीर का जो हिस्सा भारत के पास है और जिसके बारे में अलगाववादी कहते नहीं थकते कि वहां का हाल फौजी छावनी जैसा है उसे फ्रीडम हाउस बांग्लादेश से चार अंक अधिक (49) देता है। इससे सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि बांग्लादेश में लोकतंत्र की स्थिति कैसी होगी ! 

बांग्लादेश ने नि:संदेह आर्थिक मोर्चे पर अप्रत्याशित उपलब्धियां हासिल की हैं। हाल में उसकी आर्थिक वृद्धि दर भारत से भी बेहतर रही है। सामाजिक मोर्चे पर उसका प्रदर्शन और बेहतर रहा है। वहां जीवन प्रत्याशा 72 वर्ष है जो भारत से तीन वर्ष अधिक है, शिशु मृत्यु दर 32 है, जबकि भारत की 39 और प्रजनन दर 2.1 है, जबकि भारत की अभी भी 2.3 है।  ऐसे बेहतरीन प्रदर्शन के कारण बांग्लादेश बुद्धिजीवियों के एक प्रमुख वर्ग का प्रिय देश बन गया है। पर ऐसे बुद्धिजीवी बांग्लादेश का उल्लेख करते समय अक्सर रुमानी हो जाते हैं। क्योंकि नेपाल की सामाजिक मोर्चे पर हासिल उपलब्धियां भी कमतर नहीं हैं, जबकि नेपाल न केवल स्थल रुद्ध देश है बल्कि बांग्लादेश से कहीं अधिक निर्धन भी है। इस दृष्टि से नेपाल की उपलब्धियां कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं। नेपाल जिसने बहुत बाद में लोकतंत्र को अपनाया 55 अंक के साथ बांग्लादेश से काफी आगे है।   

बांग्लादेश की उपलब्धियों के बावजूद यहां बताना उपयुक्त होगा कि इसके अस्तित्व पर जैसा संकट है वैसा बहुत कम देशों पर है। बांग्लादेश का आबादी घनत्व बड़े देशों में सर्वाधिक है। यहां प्रतिवर्ग किलोमीटर 1265 लोग रहते हैं जो भारत से तीन गुना अधिक है और शेष दुनिया के बड़े देशों के औसत से पांच गुना अधिक। बांग्लादेश की समस्या यह है कि आज भी जितने लोग वहां रह रहे हैं उतने को ढ़ोने की शक्ति उसके पास नहीं है। फिर भी विडंबना यह है कि 2050 तक आज के 17 करोड़ से बांग्लादेश की आबादी बढ़कर 23 करोड़ हो जाएगी। अर्थात छह करोड़ अतिरिक्त लोगों का भार उस भूमि को वहन करना पड़ेगा जिसके पास वर्तमान भार वहन करने की भी सामर्थ्य नहीं है।

बांग्लादेश की एक और विडंबना यह है कि यहां सरकारी तंत्र कमजोर है  जिसके फलस्वरूप गैर-सरकारी संस्थाएं यानी एनजीओ का वर्चस्व है। बांग्लादेश को ‘एनजीओ की भूमि’ कहा जाता है, जहां लगभग पचास हजार एनजीओ कार्यरत हैं। बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि वहां एनजीओ सड़क और पुल बनाने जैसे काम भी करते हैं। आरंभ में स्वतंत्रता संग्राम, समुद्री चक्रवात और बाढ़ जैसी आपदाओं के कारण एनजीओ ने विदेशी सहायता से राहत कार्य और भोजन वितरण जैसी जिम्मेदारी उठायी। कालांतर में अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए अपनी कार्य प्रणाली में परिवर्तन करते रहे और आज ‘ब्रैक’ और ‘ग्रामीण’ जैसे एनजीओ संसार के संभवतः सबसे बड़े एनजीओ हैं। ये फौजी शासन से लेकर निर्वाचित सरकारों के साथ काम करने में सिद्धहस्त हैं। पूर्वी पाकिस्तान के समय से ही यहां की आबादी का बढ़ना सबसे बड़ा संकट रहा है। इसके लिए विदेशी दानी भी प्रभाव डालते रहे हैं। इस काम में एनजीओ ने बड़ी भूमिका निभाई और प्रजनन दर में उल्लेखनीय कमी आई। लेकिन हमें याद रखना होगा कि जानकार इस बात पर एकराय हैं कि 1947 से आज तक कम से कम डेढ़ करोड़ बांग्लादेशी भारत आए। यदि इस आबादी को बांग्लादेश की आज की आबादी में जोड़ दिया जाए तो बांग्लादेश की सामाजिक मोर्चे पर हासिल की गईं उपलब्धियां उतनी प्रभावकारी नहीं रहेंगी।

सरकारी तंत्र के लचर होने के कारण बांग्लादेश भ्रष्टाचार की महामारी से पीड़ित रहा है। ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल, जो भ्रष्टाचार को मापने का काम करता है, बांग्लादेश को दुनिया के सबसे भ्रष्ट देशों में गिनता है। 

बांग्लादेश इस्लामी कट्टरवाद का शिकार रहा है। यहां की मस्जिदों और मदरसों को सऊदी अरब से लगातार धन मिलता रहा है और कट्टरपंथी तत्व फलते-फूलते रहे हैं। चटगांव में एक मदरसा इतना बड़ा है कि उसमें 12000 छात्र पढ़ते हैं। यहां महिला का प्रवेश लगभग वर्जित है। मदरसों का जाल सारे देश में है। जिस बांग्ला भाषा के लिए बांग्लादेश ने संघर्ष किया वहां के मदरसों में अरबी पढ़ाई जाती है। कट्टरपंथी तत्व गीत-संगीत, नृत्य आदि पर रोक लगाते हैं। 1947 में पूर्वी पाकिस्तान में हिंदुओं की आबादी लगभग 30 प्रतिशत थी जो आज घटकर सिर्फ 10 प्रतिशत रह गई है। हिंदू निरंतर प्रताड़ित होते रहते हैं जिससे वे पलायन करने पर विवश होते हैं। हिंदू महिलाओं को विशेष रूप से निशाना बनाया जाता है ताकि अपमानित होकर हिंदू बांग्लादेश छोड़ दें। यह प्रक्रिया पिछले सत्तर सालों से जारी है। चूंकि सरकारी व्यवस्था चौकस नहीं है इसलिए उन्हें न्याय नहीं मिलता। तसलीमा नसरीन लिखती हैं कि भारत में भी अल्पसंख्यक प्रताड़ित होते हैं मगर उनके साथ देश खड़ा हो जाता है और न्यायपालिका से उन्हें न्याय मिल जाता है क्योंकि कानून हिंदू और गैर-हिंदू को एक ही आंख से देखता है। परंतु बांग्लादेश में जब कट्टर मुसलमानों द्वारा हिंदुओं पर अत्याचार होता है तो सरकारी मदद और सरकारी सहानुभूति, कुछ भी नहीं मिलती। वहां हिंदुओं की संख्या इतनी कम हो चुकी है कि उन्हें वोट बैंक के रूप में भी नहीं देखा जाता। इस्लामपरस्त पार्टियों के लोग हिंदुओं को डरा-धमका कर रखते हैं। बांग्लादेश में हिंदू सिर्फ दूसरे दर्जे के नागरिक ही नहीं बल्कि विलुप्त होती बंगाली जाति हैं।

यही कारण है कि भारत से कभी भी अल्पसंख्यकों का पलायन नहीं हुआ, जबकि बांग्लादेश से एक करोड़ से भी अधिक अल्पसंख्यक भारत आए हैं। चिरंतन कुमार, जिन्होंने इस विषय पर शोध किया है, ने तो यहां तक सुझाया है कि जिस तरह का मजहबी कट्टरवाद बांगलादेश में है और जिस तरह वहां के अल्पसंख्यक प्रताड़ित किए जाते हैं, वैसा तो पाकिस्तान में भी नहीं है। इसीलिए अल्पसंख्यक इतनी बड़ी संख्या में वहां से पलायन करते हैं। पाकिस्तान की मीडिया में हिंदी से मिलती-जुलती भाषा के प्रयोग के कारण भारत के लोग वहां की घटनाओं से अधिक परिचित रहते हैं। दूसरी ओर बांग्ला के पश्चिम बंगाल तक सीमित होने के कारण सारा देश बांग्लादेश से उतना परिचित नहीं रहता। इसलिए यह हमारी अज्ञानता ही है कि हम बांग्लादेश के बारे में कम जानते हैं। 

अल्पसंख्यकों के अधिकारों को सुरक्षित रखने की दृष्टि से लोकतंत्र से बेहतर कोई व्यवस्था अब तक विकसित नहीं हुई है। लेकिन बांग्लादेश में सिर्फ नाम का लोकतंत्र है। लोकतंत्र को सुदृढ़ करने वाले जितने स्तंभ हैं – न्यायपालिका, मीडिया, चुनाव आयोग, व्यवस्थापिका, कार्यपालिका आदि- उनका सुदृढ़ होना अपरिहार्य है। बांग्लादेश की समस्या यह है कि इनमें से एक भी स्तंभ सुदृढ़ नहीं है। न्यायपालिका तो सरकार के हिसाब से काम करती है और उस पर अब इस्लामी कट्टरवाद भी हावी हो गया है। बांग्लादेश के सर्वोच्च न्यायालय से न्याय की मूर्ति हटा दी गई है क्योंकि मूर्ति इस्लाम में शिर्क है यानी सबसे बड़ा पाप। जब सरकार ही कट्टरपंथियों के आगे झुक जाएगी तो वहां के हिंदुओं की क्या बिसात है कि वे इन तत्वों से लड़ सकें। 2015 में एक के बाद पांच धर्मनिरपेक्ष ब्लॉगर मार दिए गए। पर आश्चर्य की बात है कि अभी तक एक भी आरोपी को दोषी करार नहीं दिया गया है। ऐसी पृष्ठभूमि में रोहिंग्याओं को शरण देना कितना खोखला लगता है !

डीडब्ल्यू का एक वृत्तचित्र है जिसमें दिखलाया गया है कि महिलाओं को लेकर कट्टरपंथी मुसलमान मानते हैं कि उन्हें हथकरघे जैसे कामों तक ही सीमित रहना चाहिए और उन्हें सार्वजनिक जीवन में कोई भूमिका नहीं निभानी चाहिए। बांग्लादेश के कुल निर्यात का 80 प्रतिशत हिस्सा सिर्फ कपड़ा उद्योग से आता है। यानी इसकी अर्थव्यवस्था में विविधता नहीं है जो समृद्धि के लिए अत्यंत आवश्यक है। दुर्भाग्य से इस्लामी तंत्र अनेक आर्थिक गतिविधियों, जैसे चित्रकला, मूर्तिकला, गीत-संगीत, नृत्य, सिनेमा, पर्यटन आदि पर प्रतिबंध लगाता है। बांग्लादेश भी धीरे-धीरे इसी दिशा में बढ़ रहा है।  

बांग्लादेश के सामने एक और बड़ा संकट है। इसकी प्रजनन दर विस्थापन दर के नीचे आने लगी है। इसका अर्थ यह है कि अब प्रत्येक महिला के औसतन दो ही बच्चे होंगे जिससे अंततः जनसंख्या स्थिर हो जाएगी। परंतु बांग्लादेश में यह काम इतनी तेजी से हुआ है कि शीघ्र ही वहां की आबादी में जहां एक ओर युवाओं के अनुपात में कमी आ जाएगी वहीं दूसरी ओर साठोत्तर लोगों की संख्या में बढ़ोतरी। इसका सबसे बड़ा नुकसान यह होगा है कि कमाने वाले कम और उन पर आश्रितों की संख्या अधिक होगी। इससे आर्थिक वृद्धि दर में भी कमी आएगी। चीन इसका सबसे सटीक उदाहरण है। फिर भी चूंकि चीन आर्थिक विकास में काफी आगे बढ़ गया है इसलिए उस पर इतना बुरा असर नहीं पड़ेगा जितना बांग्लादेश पर। इस तरह बांग्लादेश समृद्ध होने से पहले ही बूढ़ा हो सकता है।  

फिर भी लोकतंत्र ही वह रामवाण है जिससे बांग्लादेश की समस्याएं सुलझाई जा सकती हैं। परंतु दुर्भाग्य है कि वहां का लोकतंत्र आहत है और उसका भविष्य कैसा होगा इस बारे में अनुमान लगाना अत्यंत जोखिम भरा काम है। आमतौर पर मुस्लिम बहुल देशों में या तो लोकतंत्र होता नहीं है और अगर होता है तो ऐसा ही एक दलीय जो बड़ी आसानी से निरंकुश हो जाता है। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में भारत को इस बात की चिंता करनी चाहिए कि कैसे इसके पड़ोस में लोकतंत्र जमे।  

लेखक निवेश एवं लोक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग , वित्त मंत्रालय ,भारत सरकार में संयुक्त सचिव हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं । 

6 जनवरी 2019 

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शेख मुजिबुर रहमान, जो जामिया मिलिया इस्लामिया में पढ़ाते हैं, का पिछले 25 जून को ‘द हिंदू’ दैनिक में गो रक्षण के नाम पर घटित हिंसक घटनाओं को लेकर एक अतार्किक और अत्यंत आपत्तिजनक लेख प्रकाशित हुआ। इस स

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मस्जिद की अनिवार्यता

28 मई 2022
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फैजुर रहमान का 7 अगस्त के ‘द हिंदू’ दैनिक में ‘मस्जिद की अनिवार्यता’ विषय पर एक लेख प्रकाशित हुआ। रहमान एक इस्लामी मंच के महासचिव हैं जिसका उद्देश्य है संयत विचार को बढ़ाना या बढ़ावा देना। इस लेख का म

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अनन्य हिंदी प्रेमी अटल बिहारी वाजपेयी

28 मई 2022
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अटल बिहारी वाजपेयी भारत के राजनैतिक क्षितिज में पिछले कई दशकों से सर्वाधिक चमकता हुआ सितारा थे। अपनी मिलनसार प्रवृत्ति, विलक्षण वाकपटुता, मनमोहक वक्तृत्वकला और असाधारण प्रतिउत्पन्नमति के कारण सारे देश

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स्वच्छ भारत की ओर निर्णायक कदम

28 मई 2022
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हमारे देश में गाँव कविता के विषय के रूप में कवियों को आकर्षित करता रहा है। मैथिलीशरण गुप्त की ये पंक्तियाँ तो जगप्रसिद्ध रही हैं – “अहा ! ग्राम जीवन भी क्या है। क्यों न इसे सबका जी चाहे।“ इसी तरह सुमि

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शैक्षणिक संस्थानों का देश के विकास में योगदान

28 मई 2022
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आधी सदी पहले ही अर्थशास्त्रियों ने किसी भी देश के आर्थिक विकास में शिक्षा के महत्व को समझ लिया था। बाद में यह विचार फैलने लगा कि शिक्षा किसी भी व्यक्ति को स्थायी रूप से परिवर्तित कर देती है और उसे मान

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पाकिस्तान में जनसंख्या विस्फोट के निहितार्थ

28 मई 2022
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पिछले दिनों करीब दो दशक बाद पाकिस्तान की छठवीं जनगणना सम्पन्न हुई। इसके अनुसार आज पाकिस्तान की जनसंख्या 20 करोड़ 78 लाख है। 1998 में की गई पिछली जनगणना में पाकिस्तान की जनसंख्या लगभग 13 करोड़ थी और उस

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हवाई यात्रा के लिए बिहार देश का छाया प्रदेश

28 मई 2022
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किसी भी देश के विकास में यातायात और उसमें भी वायु यातायात का योगदान अन्यतम है। भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण ने एक अध्ययन के हवाले से बताया है कि किस तरह वायु सेवा से तेजी से आर्थिक विकास सम्भव होता है।

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हिंदी साहित्याकाश में सूर्य की तरह चमकने वाले ‘दिनकर’

28 मई 2022
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हिंदी साहित्याकाश में सूर्य की तरह चमकने वाले सचमुच में दिनकर ही थे। रामधारी सिंह दिनकर में साहित्य सर्जन के गुण नैसर्गिक रूप से विद्यमान थे। इसलिए आश्चर्य नहीं कि केवल पंद्रह वर्ष की आयु में ही उनका

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क्यों बार बार संकट आता है मालदीव पर?

28 मई 2022
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पिछले कुछ दिनों से मालदीव के संकट में आ जाने के कारण वहाँ का राजनीतिक घटना क्रम बहुत तेजी से बदल रहा है। हुआ यह कि वहाँ के राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन ने मालदीव के सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश

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क्यों नहीं मिल रहा रोजगार युवाओं को?

28 मई 2022
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उन्नीस सौ नब्बे के दशक में आरंभ हुए आर्थिक उदारीकरण के परिणामस्वरूप माना जाता है कि भारत की आर्थिक वृद्धि दर में अभूतपूर्व तेजी आई। जबकि आजादी के बाद से 1980 तक भारत की आर्थिक वृद्धि दर औसतन सिर्फ 3.5

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नेताजी का अमूल्य योगदान इतिहासकारों का मोहताज नहीं

28 मई 2022
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नेताजी सुभाषचन्द्र बोस महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू की तरह हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के पहली पंक्ति के नेता थे। पर अपने आप को भारत माता पर उत्सर्ग करने की आतुरता में उनकी तुलना शहीद भगत सिंह जैसे वीरों

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क्यों बार बार संकट आता है मालदीव पर ?

28 मई 2022
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पिछले कुछ दिनों से मालदीव में राजनीतिक घटना क्रम बहुत तेजी से बदल रहा है। हुआ यह कि वहाँ के राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन ने मालदीव के सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश तथा एक न्यायाधीश को गिरफ़्तार

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भारत-अफ्रीका के गहराते संबंध और इनके निहितार्थ

28 मई 2022
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भारत-अफ्रीका फोरम शिखर सम्मलेन के तीसरे संस्करण का आयोजन 26 से 29 अक्टूबर 2015 तक नई दिल्ली में होने जा रहा है। सभी 54 अफ़्रीकी देशों को निमंत्रण देकर भारत सरकार ने अफ्रीका से अपने संबंधों को आगे ले जा

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1857 की क्रांति की 160वीं जयंती

28 मई 2022
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आज ही के दिन ठीक एक सौ साठ साल पहले यानी 10 मई 1857 को जिस ऐतिहासिक क्रांति का सूत्रपात मेरठ से हुआ वह कई अर्थों में विलक्षण थी । क्रांति का क्षेत्र व्यापक था और इसका प्रभाव लम्बे समय तक महसूस किया गय

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