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तुर्की : ईसाइयत और इस्लाम द्वारा सनातन धर्म का विनाश

28 मई 2022

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डॉ. शैलेन्द्र कुमार

तुर्की : एक परिचय

इस्लाम की दृष्टि से तुर्की एक महत्वपूर्ण देश है । यह संसार के सभी मुसलमानों के मजहबी और राजनीतिक मुखिया — खलीफा का मुख्यालय भी रह चुका है ।1 तुर्की की सरकार के अनुसार, इस देश की जनसंख्या में 99 प्रतिशत मुसलमान ही हैं और मुसलमानों की कुल संख्या साढ़े सात करोड़ बताई जाती है ।2 यदि मुसलमानों का अनुपात इतना है तो यह समझना कठिन है कि इसकी कुल जनसंख्या सवा आठ करोड़ कैसे है ? फिर भी यदि इसे सच मान लिया जाए तो मुसलमानों की जनसंख्या के हिसाब से सारे विश्व में तुर्की आठवां सबसे बड़ा देश है । इससे बड़े देश हैं — इंडोनेशिया, भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नाइजीरिया, मिस्र और ईरान । इसकी अर्थव्यवस्था का आकार 720 अरब डॉलर का है, जबकि प्रतिव्यक्ति आय है लगभग साढ़े आठ हजार डॉलर । जीवन प्रत्याशा है 77 वर्ष । भारत की जनसंख्या 135 करोड़ है, इसकी अर्थव्यवस्था का आकार 2700 अरब डॉलर का है और इसकी प्रतिव्यक्ति आय केवल दो हजार डॉलर है । जीवन प्रत्याशा 69 वर्ष है । इस तरह भारत की तुलना में तुर्की एक समृद्ध देश है ।

तुर्की की अर्थव्यवस्था की एक विशेषता यह है कि यह पर्यटन से अपेक्षाकृत अधिक धन कमाता है । विदेशी पर्यटकों को आकर्षित करने की दृष्टि से विश्व में इसका छठा स्थान है । 2019 में तुर्की में पांच करोड़ से अधिक विदेशी पर्यटक आए थे । इन पर्यटकों से तुर्की ने 22 अरब डॉलर से अधिक का राजस्व अर्जित किया । जबकि भारत में केवल एक करोड़ सत्तर लाख ही पर्यटक आए और 27 अरब डॉलर से थोड़ा अधिक राजस्व अर्जित किया गया ।3 इस प्रकार स्पष्ट है कि जनसंख्या की दृष्टि से तुर्की से सोलह गुना बड़ा देश भारत अत्यल्प विदेशी पर्यटक आकर्षित करता है । एक प्रश्न यह उठता है कि इतने अधिक विदेशी पर्यटकों के आगमन के बावजूद तुर्की भारत से कम राजस्व क्यों अर्जित करता है ?  तो इसका उत्तर यह है कि तुर्की में जो विदेशी आते हैं वे संख्या में तो अधिक होते हैं, परंतु वे अधिक दिनों तक वहां नहीं ठहरते । जबकि दूसरी ओर, भारत में जो पर्यटक आते हैं वे अधिक दिनों तक ठहरते हैं और सामान्यतः पर्यटकों द्वारा बिताए गए समय पर ही राजस्व निर्भर करता है । इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि भारत एक विशाल पर्यटक क्षेत्र है और ऐसी विविधता भी अन्यत्र दुर्लभ है, इसलिए जो लोग यहां आते हैं वे पर्याप्त समय बिताते हैं । फिर भी यह तो स्पष्ट है कि तुर्की की संपन्नता में विदेशी पर्यटकों का उल्लेखनीय योगदान है ।  कहां 720 अरब डॉलर वाली अर्थव्यवस्था में 20 अरब डॉलर और कहां 2700 अरब डॉलर में मात्र 22 अरब डॉलर !

तुर्की में बड़ी संख्या में विदेशी पर्यटक इसकी यूरोप से निकटता के कारण आते हैं । इसके सारे पश्चिमी पड़ोसी देश संपन्न व विकसित यूरोपीय देश हैं । अतः वे बड़ी सहजता से तुर्की आ जाते हैं । जबकि भारत विकसित देशों से बहुत दूर है और इसीलिए यहां थोड़ी कठिनाई से पर्यटक आते हैं । तुर्की के पर्यटन की एक और विशेषता है और वह यह कि तुर्की में सर्वाधिक पर्यटक केवल इस्तांबुल शहर में ही आते हैं । वर्ष 2019 में लगभग डेढ़ करोड़ विदेशी पर्यटक इस्तांबुल आए थे । इसके महत्व को इस प्रकार समझा जा सकता है कि इतने बड़े भारतवर्ष में उसी वर्ष लगभग पौने दो करोड़ विदेशी पर्यटक ही आए थे । अब प्रश्न उठता है कि ऐसा क्या है इस्तांबुल में जिससे इतनी बड़ी संख्या में विदेशी आकर्षित होते हैं ? इस्तांबुल वास्तव में पूर्व और पश्चिम के संगम पर अवस्थित एक ऐतिहासिक नगर है ।  तुर्की का इस्तांबुल वाला क्षेत्र यूरेशिया भी कहा जाता है अर्थात यह क्षेत्र यूरोप और एशिया का मिलन-स्थल है । इस्तांबुल शहर सहित तुर्की का पश्चिमी भू-भाग जहां यूरोप का हिस्सा है वहीं शेष तुर्की एशिया का ।  इस्तांबुल शहर एक हजार वर्ष से अधिक समय तक पूर्वी रोमन साम्राज्य की राजधानी रह चुका है । इसलिए यूरोपीय पर्यटकों को यहां अपने शहर की अनुभूति होती है । इस्तांबुल की भौगिलिक स्थिति भी इसे दर्शनीय बनाती है । इसके उत्तर में काला सागर स्थित बॉसफोरस की खाड़ी है और दक्षिण में मारमरा सागर । इससे थोड़ी ही दूरी पर पश्चिम में यूनान और बुल्गारिया हैं । इस्तांबुल में यात्री बंदरगाह भी हैं और यहां यात्रियों को लेकर क्रुज जहाज आते हैं ।  इस्तांबुल शहर तुर्की का सांस्कृतिक और आर्थिक केंद्र भी है ।

एक शहर, तीन नाम : बाइजैंटाइन, कुस्तुन्तुनिया और इस्तांबुल

सामान्यतः यही समझा जाता है कि रोम के सम्राट कॉंस्टैंटाइन ने 330 ई में इस शहर को बसाया था और अपने नाम पर ही इसका नाम रखा कॉंस्टैंटिनोपल । कहते हैं यह सिकंदर का अनुकरण था, जिसने सिकंदरिया नाम का एक ऐतिहासिक शहर मिस्र में बसाया था । पर कॉंस्टैंटाइन द्वारा इस शहर को बसाने की कथा पूरी तरह सच नहीं है, क्योंकि इस शहर का इतिहास और भी पुराना है । वास्तव में इसका पुराना नाम है — बाइजैंटाइन । बाइजैंटाइन या बाइजैंटिअम एक यूनानी शब्द है, जिसका अर्थ है बाइजैंटिअम की यूनानी बस्ती । बाइजस नाम के किसी व्यक्ति द्वारा इस बस्ती को बसाने के कारण इसका नाम बाइजैंटिअम पड़ा । 330 ई में इसी स्थान पर रोमन सम्राट कॉंस्टैंटाइन ने अपने नाम से एक शहर बसा कर उसका नाम रख दिया कॉंस्टैंटिनोपल । इसे ही कॉंस्टैंटाइन ने “ नया रोम ” या  “ पूर्वी रोम ” भी   कहा । बाद में पूर्वी रोमन या बाइजैंटाइन साम्राज्य बहुत शक्तिशाली बना और जहां पश्चिमी अर्थात रोमन साम्राज्य 476 ई में समाप्त हो गया, वहीं बाइजैंटाइन साम्राज्य लगभग एक हजार वर्ष तक अर्थात 1453 ई तक विद्यमान रहा । कॉंस्टेंटाइन ने इसे बाइजैंटाइन साम्राज्य अर्थात पूर्वी यूरोप के साम्राज्य की राजधानी घोषित कर दिया और चौथी शताब्दी से लेकर पन्द्रहवीं शताब्दी के मध्य तक अनवरत इस नगर की प्रतिष्ठा बाइजैंटाइन साम्राज्य की राजधानी के रूप में अक्षुण्ण रही । इसी कॉंस्टैंटिनोपल को अरबी भाषा में कुस्तुन्तुनिया कहा जाता है । चूंकि भारत का संपर्क यूनानी भाषा से कहीं अधिक अरबी भाषा से रहा है, इसलिए हम कुस्तुन्तुनिया से अधिक परिचित हैं । कालांतर में कुस्तुन्तुनिया पूर्वी यूरोप का सर्वाधिक प्रसिद्ध नगर बन गया ।

ईसाइयों द्वारा सनातन धर्म व संस्कृति का विनाश

हमारे लिए इस्तांबुल का इतिहास जानना परम आवश्यक है । इससे हमें दो इब्राहिमी मजहबों  — ईसाइयत और इस्लाम के चरित्र को बड़ी सहजता से समझने में सहायता मिलेगी ।  हमें यह जानकर आश्चर्य होगा कि कैसे इस पूर्वी रोमन साम्राज्य में हमारे जैसे प्रकृतिपूजकों और बहुदेववादियों का समूल नष्ट करके पहले ईसाइयत ने अपना पैर जमाया और फिर उसे उखाड़ कर वहीं इस्लाम खड़ा हो गया । उदाहरण के लिए, इस्तांबुल शहर में वर्ष 2018 में सेह सुलेमान मस्जिद के पुनरुद्धार के समय हुई खुदाई में बहुदेववादियों की 1700 वर्ष पुरानी कब्रगाह मिली । इसके एक हिस्से में एक वेदी भी प्राप्त हुई जिसका प्रयोग शपथ के समय रक्त डालने के लिए किया जाता था । बाइजैंटियम काल में इसे लूटा गया । इसी कब्रगाह के स्थान पर 1453 में उस्मानी तुर्कों की विजय के बाद सेह सुलेमान मस्जिद बनाई गई । इस्तांबुल से थोड़ी ही दूरी पर एक झील — इजनिक में 2015 से खुदाई का काम चल रहा   है । इस झील में पानी के नीचे 390 ई में निर्मित एक रोमन चर्च — बसीलिका का पता   चला ।  कहा जाता है कि 740 ई में आए एक भूकंप के कारण यह चर्च जलमग्न हो गया    था । परंतु इससे भी आश्चर्य की बात यह है कि इस चर्च के नीचे एक मंदिर का पता चला    है । यह प्रकृतिपूजकों और बहुदेववादियों का मंदिर था जिसमें अपोलो अर्थात सूर्य देवता की पूजा होती थी । ईसाइयों के प्रसार से पहले अर्थात 180 से 192 ई के बीच रोमन सम्राट कोमोडस के शासनकाल में यहां इस सूर्य मंदिर का निर्माण हुआ था ।

इसी प्रकार इस्तांबुल के सर्वाधिक लोकप्रिय ऐतिहासिक स्मारकों में शामिल हाइया सोफीया के निर्माण के पीछे एक मंदिर के विध्वंस का इतिहास छुपा हुआ है । हाइया सोफीया सातवीं शताब्दी का संसारभर में प्रसिद्ध एक चर्च है, जिसे उस्मानी तुर्कों ने मस्जिद में बदल दिया और जिसे बीसवीं शताब्दी में तुर्की के प्रथम राष्ट्रपति, मुस्तफा कमाल पाशा ने एक स्मारक मात्र घोषित कर दिया । हाइया सोफीया में जो सर्वाधिक प्राचीन वास्तुकला है वह है इसका द्वार । इस द्वार का रहस्य यह है कि इसको एक मंदिर से लूटा गया था । यह द्वार दूसरी शताब्दी ई पूर्व सिडनस के काल का है । इस बारे में दास लिखते हैं कि द्वार पर जैसा पौधों का चित्रांकन और पुष्पांकन किया गया है तथा स्वास्तिक अंकित किया गया है उससे कोई भी इसे किसी भारतीय मंदिर का द्वार समझ लेगा । पर इस द्वार को सम्राट जस्टिनियन ने एक बहुदेववादी मंदिर से लूटा था । यह तुर्की के टारसस में एक यूनानी मंदिर था । दास सुझाते हैं कि चूंकि तुर्की के इतिहास से बहुदेववादियों के इतिहास को मिटा दिया गया है, इसलिए यह बताना कठिन है कि यह मंदिर किस देवता को समर्पित था । परंतु इस द्वार पर जैसी कलाकृतियां अंकित हैं उनसे ऐसा लगता है कि हमारे भारतीय मंदिर का ही द्वार है । आश्चर्य की बात तो यह है कि द्वार एक मात्र सामग्री नहीं है जिसका प्रयोग हाइया सोफीया में किया गया है । सच तो यह है कि बहुदेववादियों के अनेक मंदिरों को तोड़ कर और उनसे प्राप्त सामग्री से इस चर्च का निर्माण हुआ है । दास बताते हैं कि तुर्की का एक पुराना स्थान है — एफेसस, जहां डायना या आर्तेमिस का एक मंदिर था । यह मंदिर विश्व के सबसे बड़े आश्चर्यों में शामिल था । 356 ई पूर्व में इसे एक विक्षिप्त व्यक्ति ने आग के हवाले कर दिया । बाद में इसका पुनरुद्धार किया गया और 401 ई तक इसका अस्तित्व बना रहा । लेकिन तभी इसे जस्टिनियन प्रथम ने नष्ट कर दिया । वह ऐसा भीषण आक्रमण करना चाहता था कि यह मंदिर पूरी तरह धूल-धुसरित हो जाए । फिर भी इसके आठ अत्यंत शक्तिशाली पाषाण स्तंभ बच गए । इन स्तंभों को उसने हाइया सोफीया में प्रयुक्त किया । कहा तो यह भी जाता है कि हाइया सोफीया का निर्माण जिस स्थान पर हुआ वहां भी एक मंदिर था । संयोगवश तुर्की के ही मंदिरों से हिटलर को स्वास्तिक मिला था और वह इससे इतना प्रभावित हुआ कि इस चिह्न को अपना लिया । यहीं जर्मन पुरातत्त्ववेत्ताओं को संस्कृत का ‘ आर्य ’ शब्द भी मिला । स्वास्तिक और आर्य के कारण हम बड़ी आसानी से इन मंदिरों को सनातन संस्कृति से जोड़ सकते हैं ।

हाल ही में तुर्की में एक और महत्वपूर्ण मंदिर का पता चला है । तुर्की के पश्चिमी-दक्षिणी छोर पर लजीना अभयारण्य में 20 प्राचीन स्तंभों को फिर से स्थापित करने का काम चल रहा है । इस स्थान को बहुदेववादियों का केंद्र माना जा रहा है । इसे यूनानी देवी हेकेट का संसार में सबसे बड़ा मंदिर माना जा रहा है । पूरे मंदिर, वेदी और अन्य पूजा स्थलों की खुदाई अभी शेष है । यह मंदिर विशाल रहा होगा क्योंकि धूप और वर्षा से बचने के लिए यह लोगों की शरणस्थली के रूप में भी काम आता था । यहां स्थानीय और विदेशी पर्यटकों के अतिरिक्त लगभग एक लाख बहुदेववादी प्रति वर्ष आते हैं । खुदाई करने वालों का अनुमान है कि जब यह मंदिर पूर्णत: प्रकाश में आ जाएगा तो बड़ी संख्या में लोग इसे देखने आएंगे ।

कालचक्र का चमत्कार देखिए कि जिस तरह अनेक मंदिरों का विध्वंस करके कुस्तुन्तुनिया में  हाइया सोफीया चर्च का निर्माण हुआ, उसी प्रकार इसका भी विध्वंस किया गया और उस्मानी तुर्कों ने इसे एक मस्जिद में परिवर्तित कर दिया । मस्जिद का रूप देने के लिए चारों ओर मीनारें खड़ी की गईं । लेकिन गुम्बद रहने दिया गया । इस प्रकार हाइया सोफीया मूलतः एक मंदिर था, जिसे चर्च ने हड़प लिया । कालांतर में इस चर्च को एक मस्जिद द्वारा हड़प लिया गया । दोनों बार भीषण रक्तपात हुआ । पहली बार बहुदेववादियों और ईसाइयों के बीच तो दूसरी बार ईसाइयों और मुसलमानों के बीच । लगभग पांच सौ साल बाद इसे संग्रहालय बना दिया और अब इसे एक बार फिर पिछले ही साल मस्जिद बना दिया गया है । अतः ईसाइयत और इस्लाम की बात तो होती है पर बहुदेववादियों या तथाकथित पेगन की नहीं होती और इस प्रकार पेगन का कोई उत्तराधिकारी नहीं बन पाता । वैसे सब कुछ को पेगन कह कर उसे किसी भी संप्रदाय से जोड़ा नहीं जाता और ऐसा माना जाता है कि यह संप्रदाय अनाथ है । पर सच यह है कि यह सब हमारे सनातन धर्म से जुड़ा हुआ है और सच्चे अर्थों में पेगन हमारे सहधर्मी तथा सामगोत्रीय हैं और इस प्रकार हम इनके वास्तविक उत्तराधिकारी हैं । वैसे तो  ईसाइयत से पूर्व अखिल संसार प्रकृतिपूजकों और बहुदेववादियों का ही था, परंतु तुर्की के क्षेत्र में तो इनका व्यापक प्रभाव था । पर यह सब कैसे समाप्त हुआ ? इस दारुण कथा को जानने के लिए हमें ईसाइयत का इतिहास जानना होगा ।

हमारी सामान्य धारणा के विपरीत ईसाइयत का आरंभ ईसा मसीह से न होकर वस्तुतः रोमन सम्राट कॉंस्टैंटाइन से हुआ । वास्तव में यह कॉंस्टैंटाइन ही था जिसने ईसाइयत को तलवार के बल पर पूरे साम्राज्य में फैलाया । स्पष्ट है कि इसके लिए घोर रक्तपात किया गया । कॉंस्टैंटाइन से पहले ईसाइयत को मानने वाले बहुत थोड़े ही लोग थे । कॉंस्टैंटाइन राक्षसी प्रवृत्ति का व्यक्ति था । उसने अपनी पत्नी को उबलते पानी में डाल कर मार दिया था । कॉंस्टैंटाइन ने रोमन साम्राज्य में फैले बहुदेववादियों पर ऐसे-ऐसे अत्याचार किए कि विवश होकर उन लोगों को ईसाइयत अपनानी पड़ी । इस संदर्भ में विद्वान लेखक मैंगेसेरियन ईसाइयत और इस्लाम के चरित्र के बारे में बड़ी सटीक टिप्पणी करते हैं । वह लिखते हैं कि जब ईसाइयत और इस्लाम के मानने वाले मुट्ठीभर लोग थे — 12 मछुआरे या इतने ही रेगिस्तान में ऊंट हांकने वाले तब किसी ने भी अत्याचार की बात नहीं की । तब सबसे बड़ा दंड मरने के बाद यानी भविष्य में ही दिया जा सकता था । किंतु जैसे ही ईसाइयत ने एक राजा ( कॉंस्टैंटाइन ) को ईसाई बनाया और जैसे ही मुहम्मद एक विजेता बने अर्थात तलवार उठा ली तब भविष्य का दंड वर्तमान में दिया जाने लगा । ( पृष्ठ 159 ) और बल प्रयोग के बाद ही बड़ी संख्या में लोग ईसाई और मोहम्मदी बने ।

प्रश्न उठता है कि ईसाइयत इतनी असहिष्णु और हिंसक क्यों बनी ? इस बारे में कैथरीन निक्सी लिखती हैं कि ईसाइयत एक सहिष्णु संप्रदाय हो सकती थी । और यह पहले से निश्चित भी नहीं था कि ईसाइयत हिंसा के रास्ते पर चलेगी । ऐसे ईसाई भी थे जिन्होंने सहिष्णुता के लिए आशा व्यक्त की । लेकिन सारी आशाएं चकनाचूर हो गईं । ऐसा क्यों हुआ ? तो निक्सी लिखती हैं कि जो लोग असहिष्णु होना चाहते हैं उनके हाथ में एक गॉड का सिद्धांत बहुत शक्तिशाली शस्त्र प्रदान करता है । यह बहुत बड़ी बात है कि एक गॉड या एक अल्ला वाले बड़ी आसानी से असहिष्णु या हिंसक हो सकते हैं । इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि ईसाई लेखकों ने यह घोषणा की कि बाइबिल मूर्तिपूजा-विरोध के मामले में बहुत स्पष्ट  है । एक ईसाई लेखक ने तो शासकों को याद दिलाया कि इस बुराई अर्थात मूर्तिपूजा का तिरस्कार करना और उसे दंडित करना सम्राटों का अनिवार्य दायित्व है । और मूर्तिपूजा के लिए गॉड किस प्रकार का दंड देता है ? बाइबिल की पुस्तक — ‘ व्यवस्थाविवरण ’ में लिखा है कि, “ जो लोग मूर्तिपूजा करते हैं उनकी पत्थर से मार-मार कर हत्या की जानी चाहिए । और यदि कोई पूरा शहर ही इस पाप से ग्रसित हो तो उसके लिए भी स्पष्ट आदेश है कि पूरे शहर का ही विनाश कर देना चाहिए ।”

इस प्रकार कोई आश्चर्य नहीं कि यूरोप में शताब्दियों तक यह विनाशलीला चलती रही । पांचवीं शताब्दी में एथेंस शहर में थोड़ी ऊंचाई पर स्थित पवित्र क्षेत्र — ऐक्रोपोलिस के ठीक मध्य में एथिना4 देवी की एक हजार वर्ष से स्थापित विशाल प्रतिमा को, जो कि अखिल साम्राज्य की सर्वाधिक प्रसिद्ध कलाकृतियों में से एक थी, गिरा दिया गया । इस प्रतिमा को एथेंस से नए शहर कुस्तुन्तुनिया ले जाया गया । एक प्रकार से ईसाइयों के शहर द्वारा  बहुदेववादियों के शहर का तख्तापलट करके उजाड़ फेंका गया । अतः जहां यह ईसाइयों के लिए विजय थी वहीं बहुदेववादियों के लिए सब कुछ गंवा देने वाली एक घोर अपमानजनक घटना । यह इतना बड़ा कुकृत्य था कि एथेंस के एक दार्शनिक के सपने में एथिना आने लगी और यह निर्वासित देवी उससे अपने लिए शरण मांगने लगी । वहीं, अन्य दार्शनिकों को यह घटना इतनी बुरी लगी कि उन्हें अब अपने मुंह से ‘ ईसाई ’ शब्द बोलना भी अच्छा नहीं लगता था ।

ऐसी घटनाएं एक ही शहर में नहीं हुईं, बल्कि लगभग सभी शहरों में हुईं । इस प्रकार सारे साम्राज्य में लूट इतने व्यापक स्तर पर हुई कि लूटी हुई कलाकृतियों का एक बाजार खड़ा हो गया, जिसमें पैसे के लालच में ईसाइयों ने बहुमूल्य मूर्तियों को बेचना शुरू किया । दूसरी ओर, बहुदेववादियों ने यह सोचकर कि अच्छे कलाप्रेमी इन मूर्तियों को नष्ट होने से बचा लेंगे इन मूर्तियों पर ऐसा कुछ लिखना शुरू किया जिससे यह पता न लगे कि ये बहुदेववादियों की मूर्तियां हैं । अतः ऐसा लिखा गया कि इन मूर्तियों को महान यूनानी मूर्तिकारों ने बनाया है ताकि ईसाइयों के हथौड़ों से ये बच जाएं । कुछ लोगों ने इसका उपहास करना भी शुरू कर दिया । जब एक यूनानी कवि ने एक समृद्ध ईसाई के घर में अनेक देवताओं की पंक्तिबद्ध मूर्तियां देखीं तो उसकी यही प्रतिक्रिया थी कि ऑलिम्पस के निवासी ईसाई बन कर निर्विघ्न रूप से यहां रह रहे हैं, क्योंकि कम-से-कम वे हांडे में पिघला कर थोड़े से पैसों के लिए बेचे जाने से बच गए हैं ।  अतः ईसाइयत के प्रसार की कहानी बलात पंथपरिवर्तन और शासकीय उत्पीड़न की कहानी है । यह एक ऐसी कहानी है जिसमें महान कलाकृतियों को नष्ट किया गया, ऐतिहासिक व सुंदर भवनों को क्षत-विक्षत किया गया और सबसे बड़ी बात यह कि लोगों की स्वतंत्रता छीन ली गई । यह एक ऐसी कहानी है जिसमें जिन लोगों ने ईसाइयत स्वीकार नहीं की उन्हें अवैध घोषित किया गया और उन्हें खोज-खोज कर मारा गया । ( पृष्ठ 91-100 )

तो यह कथा है कुस्तुन्तुनिया की जिसका निर्माण बहुदेववादियों के शवों पर हुआ । यही कुस्तुन्तुनिया एक हजार साल तक पूर्वी रोमन साम्राज्य की प्रतिष्ठा का कारण बना रहा । पर अचानक उस क्षेत्र के इतिहास को प्रभावित करने वाली एक घटना घटी । इस बारे में जफर सैयद बताते हैं कि 29 मई 1453 की रात को उस्मानी फौज अर्थात तुर्की सेना शहर के बाहर की दीवारों के बाहर हल्ला बोलने की तैयारी कर रही है । उस्मानी तोपों को शहर की दीवार पर गोले बरसाते डेढ़ महीने से अधिक समय बीत चुका है । तोपों का मुंह केंद्रित करके तीन स्थानों पर दीवार को जबरदस्त क्षति पहुंचाई जा चुकी है । यह सब 21 वर्षीय उस्मानी सुल्तान मोहम्मद सानी के नेतृत्व में हो रहा है । सुल्तान के आह्वान पर उस्मानी फौज ने दीवार के पहले से ही कमजोर किए गए हिस्सों पर हमला बोल दिया । एक तरफ जमीन पर और दूसरी तरफ समुद्र में खड़े जहाजों पर तैनात तोपों के दहानों ने आग बरसाना शुरू कर दिया । इस आक्रमण के लिए बाइजैंटाइन के सैनिक तैयार खड़े थे, पर डेढ़ महीने की घेराबंदी से उनका मनोबल टूट चुका था । सुबह होते-होते उस्मानी विजयी हो चुके थे । कहते हैं कि 700 साल के लंबे संघर्ष के बाद मुसलमान अंततोगत्वा कुस्तुन्तुनिया जीत चुके थे । इस विजय से केवल एक शासन का अंत और दूसरे का आरंभ नहीं हुआ । इस घटना के साथ ही विश्व के इतिहास का एक अध्याय समाप्त हुआ और दूसरा आरंभ । एक ओर 27 ई पूर्व में स्थापित हुआ रोमन साम्राज्य 1480 वर्ष तक किसी-किसी रूप में बने रहने के बाद सदा के लिए तिरोहित हो   गया । दूसरी ओर, उस्मानी साम्राज्य ने नई ऊंचाइयों को छुआ और अगली चार शताब्दियों तक तीन महाद्वीपों — एशिया, यूरोप और अफ्रीका के एक बड़े हिस्से पर बिना किसी विशेष अवरोध के शासन करता रहा । 1453 ही वर्ष था जिसे मध्यकाल का अंत और आधुनिक काल का आरंभ माना जाता है ।

शहर पर तुर्कों के कब्जे के बाद यहां से हजारों की संख्या में यूनानी भाषी भागकर यूरोप और विशेषकर इटली में जा बसे । उस समय यूरोप अंधकार युग से गुजर रहा था । कुस्तुन्तुनिया में अरस्तू, अफलातून, बतलिमुस, जालिनुस जैसे दार्शनिक विद्वान की थाती विद्यमान थी । इसने यूरोप में प्राचीन यूनानी ज्ञान को पुनर्जीवित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । कहते हैं कि इसी से यूरोप का पुनर्जागरण आरंभ हुआ, जिसने आने वाली शताब्दियों में यूरोप को शेष विश्व से आगे ले जाने में सहायता की ।

इस्लाम द्वारा ईसाइयत का विनाश

लंबी गिरावट के दौर के बाद पहले से ही बाइजैंटाइन शासन अंतिम सांसें गिन रहा था और कुस्तुन्तुनिया जो शताब्दियों तक विश्व का सबसे बड़ा और सबसे समृद्ध शहर रहा था, अब उस्मानियों के कब्जे के बाद उसकी आबादी सिकुड़ कर कुछ हजार रह गई थी और शहर के कई हिस्से वीरानी के कारण एक-दूसरे से कट कर अलग-अलग गांवों में परिवर्तित हो चुके    थे । युवक सुल्तान ने अपने राज्य में फरमान भेजा, ‘ जो कोई चाहे, वो आ जाए, उसे शहर में घर और बाग मिलेंगे…।’ सिर्फ यही नहीं, उसने यूरोप से भी लोगों को कुस्तुन्तुनिया आने का निमंत्रण दिया ताकि फिर से शहर बस जाए । उसने बड़े पैमाने पर नए निर्माण का सिलसिला शुरू किया जिसका सबसे बड़ा उदाहरण तोपकापी महल और ग्रैंड बाजार हैं । जल्द ही तरह-तरह के शिल्पकार, कारीगर, व्यापारी, चित्रकार, कलाकार आदि इस शहर का रुख करने  लगे । सुल्तान फातेह ने हाइया सोफीया को चर्च से मस्जिद बना दिया । लेकिन उसने शहर के दूसरे बड़े गिरिजाघर कलिसाय-ए-हवारियान को यूनानी रूढ़िवादी संप्रदाय के पास ही रहने दिया और यह संप्रदाय एक संस्था के रूप में आज भी विद्यमान है । सुल्तान फातेह के बेटे सलीम के दौर में उस्मानी सल्तनत ने खिलाफत का दर्जा हासिल कर लिया और कुस्तुन्तुनिया उसकी राजधानी बनी । इस प्रकार कुस्तुन्तुनिया मुस्लिम दुनिया के सारे सुन्नियों का प्रमुख शहर बन गया ।

जफर सैयद बताते हैं कि यूरोप पर कुस्तुन्तुनिया के पतन का गहरा असर पड़ा था और वहां इस सिलसिले में कई पुस्तकें और कविताएं लिखी गई थीं और कई पेटिंग बनाई गईं जो लोगों की सामूहिक चेतना का हिस्सा बन गईं । यही कारण है कि यूरोप इसे कभी नहीं भूल सका । नाटो5 का हिस्सा होने के बावजूद, यूरोपीय संघ सदियों पुराने जख्मों के कारण तुर्की को अपनाने में आनाकानी से काम लेता है । यूनान में तो आज भी गुरुवार को मनहूस दिन माना जाता है । 29 मई 1453 को गुरुवार का ही दिन था ।

पश्चिम में रोमन साम्राज्य के पतन के बाद यह राज्य कुस्तुन्तुनिया में बना रहा और चौथी से तेरहवीं सदी तक इस शहर ने विकास की वो कामयाब सीढ़ियां तय कीं कि इस दौरान दुनिया का कोई और शहर उसकी बराबरी का दावा नहीं कर सकता था । यही कारण है कि मुसलमान शुरू से ही इस शहर को जीतने का ख्वाब देखते आए थे । इसलिए इस लक्ष्य को प्राप्त करने की खातिर कुछ शुरुआती कोशिशों की नाकामी के बाद 674 ई में एक जबरदस्त नौसैनिक बेड़ा तैयार कर कुस्तुन्तुनिया की ओर रवाना कर दिया गया । इस बेड़े ने शहर के बाहर डेरा डाल दिया और अगले चार साल तक लगातार दीवार पार करने की कोशिश की जाती रही । आखिर 678 ई में बाइजैंटिनी जहाज शहर से बाहर निकले और उन्होंने आक्रमणकारी अरबों पर हमला कर दिया । इसमें अरबों की हार हुई ।

उसके बाद 717 ईस्वी में बनु उमैया के अमीर सुलेमान बिन अब्दुल मलिक ने बेहतर तैयारी के साथ एक बार फिर कुस्तुन्तुनिया की घेराबंदी की, लेकिन इसका भी अंजाम अच्छा नहीं हुआ और दो हजार के करीब नौसेना की जंगी कश्तियों में से सिर्फ पांच बचकर वापस आने में सफल हो पाईं । शायद यही कारण था कि इसके बाद छह शताब्दियों तक मुसलमानों ने  कुस्तुन्तुनिया की तरफ रुख नहीं किया ।

दूसरी ओर, बाइजैंटाइन साम्राज्य प्रगति करता रहा । कुस्तुन्तुनिया के पुस्तकालय, यूनानी और लैटिन लेखकों की पांडुलिपियों के संरक्षण हेतु विशेष रूप से महत्वपूर्ण रहे, जिस समय अस्थिरता और अव्यवस्था से पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अफ्रीका में उनका बड़े पैमाने पर विनाश किया जा रहा था । शहर के पतन के समय, हजारों शरणार्थियों द्वारा ये पांडुलिपियां इटली लाई गईं, और पुनर्जागरण काल से लेकर आधुनिक विश्व में संक्रमण तक इन पांडुलिपियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । इस प्रकार कई शताब्दियों तक पश्चिम पर इस शहर का बढ़ता हुआ प्रभाव अतुलनीय रहा है । प्रौद्योगिकी, कला और संस्कृति के संदर्भ में, और इसके विशाल आकार के साथ, यूरोप में हजार वर्षो तक कोई भी शहर कुस्तुंतुनिया के समानांतर नहीं था ।

325 ई में कॉंस्टैंटाइन ने एक अज्ञात यहूदी पंथ — ईसाइयत को अपने राज्य का रिलिजन घोषित किया । साथ ही कॉन्स्टैंटाइन ने कुस्तुन्तुनिया के बिशप को बहुत महत्व दिया और 381 ई में ईसाइयों की दूसरी परिषद ने इसे रोम के बाद सारे संसार में दूसरा सर्वाधिक प्रतिष्ठित बिशप माना । अंततः यह विश्वव्यापी प्रधान के रूप में जाना जाने लगा और रोम के साथ ईसाइयत का एक प्रमुख केंद्र बन गया । पर इसने पूर्वी और पश्चिमी ईसाइयत के बीच सांस्कृतिक और धार्मिक मतभेद बढ़ाने का काम किया और कालांतर में बड़े विवाद का कारण बना, जिसके कारण 1054 के बाद से पूर्वी रूढ़िवादी ( ऑर्थोडॉक्स ) से पश्चिमी कैथोलिक पृथक हो गए ।

वैसे तो बाइजैंटाइन अर्थात पूर्वी साम्राज्य के लोग ईसाई थे और स्वयं को रोमन मानते थे, परंतु उनकी भाषा लैटिन न होकर यूनानी थी । आठवीं और नौंवी शताब्दी में बाइजैंटाइन सम्राटों ने एक आंदोलन चलाया जिसने मूर्तियों और धार्मिक चित्रों की पवित्रता को अस्वीकार कर दिया तथा इनकी पूजा पर प्रतिबंध लगा दिया । इस आंदोलन को ‘ मूर्तिभंजन ’  नाम दिया गया । यह आंदोलन 843 ई तक चला जब चर्च परिषद ने धार्मिक चित्रों के प्रदर्शन के पक्ष में निर्णय सुनाया । दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में यूनानी यहां की राजभाषा बनी और कला तथा साहित्य का उन्नयन हुआ । आज के बुल्गारिया, सर्बिया और रूस के लोगों को इन्हीं दिनों ईसाई बनाया गया, जिससे हमें पता चलता है कि इन देशों की ईसाइयत बहुत पुरानी नहीं है । ग्यारहवीं शताब्दी में ईसाइयों और मुसलमानों के मध्य क्रूसेड या जिहाद का आरंभ हुआ । यह क्रूसेड 1095 ई में आरंभ होकर 1291 ई तक चला । ईसाइयत को लेकर बाइजैंटाइन के चर्च ने 451 ई में ईसाइयों की दुनिया को रोम, सिकंदरिया, ऐंटीओक और यरुशलम में विभाजित किया । इस्लामी साम्राज्य द्वारा सिकंदरिया, ऐंटीओक और यरुशलम पर अधिकार कर लेने के बाद भी बाइजैंटाइन सम्राट ही पूर्वी ईसाइयों का प्रमुख बना रहा ।

सातवीं शताब्दी में इस साम्राज्य को इस्लाम की ओर से, फारस अर्थात ईरान से भी अधिक शक्तिशाली आक्रमण झेलना पड़ा और जिसके परिणामस्वरूप सीरिया, इस्राइल, मिस्र और उत्तरी अफ्रीका गंवाने पड़े और साम्राज्य छोटा हो गया । 1369 ई के बाद से एक अधीनस्थ सामंती राज्य की तरह बाइजैंटाइन साम्राज्य उस्मानियों को कर और सैन्य सहायता देता रहा । 1421 ई में मुराद द्वितीय के सुल्तान बनने के बाद से साम्राज्य का अंत निकट दिखने लगा । मुराद ने बाइजैंटाइन को मिल रही सारी सहायता बंद कर दी और कुस्तुन्तुनिया की घेराबंदी आरंभ कर दी । मोहम्मद ने इसको आगे बढ़ाया और 29 मई 1453 ई को कुस्तुन्तुनिया को जीत लिया ।

कुस्तुन्तुनिया की रक्षा के लिए केवल सात हजार सैनिक थे, जबकि उस्मानी सेना में थे पचास से अस्सी हजार । कुस्तुन्तुनिया की पराजय के बाद इस शहर को लूटने के लिए तुर्की सुल्तान मोहम्मद ने अपने लोगों को तीन दिन का समय दिया । यही उस समय की इस्लामी रीति थी और ऐसा ही वादा सुल्तान मोहम्मद ने किया भी था । इस आधिकारिक लूट के दौरान  महिलाओं का बलात्कार हुआ, ईसाइयों का संहार हुआ और 30,000 लोगों को गुलाम बना कर बेचा गया । यहां तक कि हाइया सोफीया चर्च में भी बलात्कार हुआ और जो बूढ़े अपनी जान बचाने के लिए यहां एकत्रित हुए थे उनकी भी हत्या कर दी गई । चौथे दिन ही अर्थात 2 जून को सुल्तान ने देखा कि लगभग सारा शहर वीरान हो चुका है । वास्तव में जो बच गए थे वे भी शहर छोड़ कर भाग गए । इस बीच चर्चों को तोड़ा गया था और उन्हें अपवित्र किया गया था । घर रहने योग्य नहीं थे ।  दुकानें खाली हो चुकी थीं । शहर की स्थिति ऐसी थी कि सुल्तान ने तीन दिन के बाद लूट को बंद करने का आदेश दिया और जो लोग शहर छोड़ कर चले गए थे उन्हें वापस आने के लिए कहा । यह भी कहा कि उन लोगों को मजहब की स्वतंत्रता दी जाएगी ।

जफर सैयद ने 1453 की उस्मानी तुर्कों की जीत और उसके परिणामों का वर्णन लगता है कि बहुत बढ़ा-चढ़ा कर किया है । क्योंकि तथ्यों को देखने से यही प्रतीत होता है कि यह युद्ध एकपक्षीय था । इस युद्ध से सदियों पहले से ही उस्मानियों ने बाइजैंटाइन साम्राज्य के अनेक क्षेत्र जीतने आरंभ कर दिए थे, जिसके परिणामस्वरूप यह साम्राज्य टूट-सा गया था । यहां तक कि बाइजैंटाइन उस्मानियों को कर देने वाला एक राज्य तक बन गया था । इसलिए प्रश्न तो यह उठना चाहिए कि उस्मानियों ने इसको जीतने के लिए इतनी लंबी प्रतीक्षा क्यों की ? दूसरा, यह युद्ध कहीं से भी बहुत बड़ा युद्ध नहीं लगता । भारत जैसे देशों के लिए तो यह अत्यंत छोटा-सा युद्ध था, क्योंकि जहां बाइजैंटाइन के पास मात्र 7,000 सैनिक ही थे, वहीं उस्मानियों के पास थे पचास से अस्सी हजार । इस युद्ध के दूरगामी परिणामों को लेकर यह कहा गया है कि बाइजैंटाइन की पराजय से यूरोप में पुनर्जागरण आरंभ हुआ । इसमें कोई दो मत नहीं कि बड़ी संख्या में यूनानी विद्वान और यूनानी साहित्य इटली आदि यूरोपीय देशों में गया । परंतु यह भी कहा जाता है कि 1453 से काफी पहले से ही यह सिलसिला आरंभ हो गया था । हां, इतना अवश्य है कि बाइजैंटाइन की पराजय के बाद इसमें तेजी आई । पर उस्मानी तुर्कों द्वारा मुख्यतः ईसाइयों और अन्य गैर-मुसलमानों के साथ जो बर्बरतापूर्ण व्यवहार हुआ जफर सैयद उसकी चर्चा नहीं करते । जबकि ईसाई इतिहासकारों का मानना है कि उस्मानी साम्राज्य की पूरी अवधि में ईसाइयों के साथ दोयम दर्जे के नागरिक की तरह व्यवहार किया गया । उन्हें अपेक्षाकृत अधिक कर देना होता था और पृथक पहचान के लिए भिन्न प्रकार की पोशाक पहननी होती थी । पूर्वी रूढ़िवादी चर्च तो चलता रहा पर अत्यंत दबाव में । हजारों ईसाई शहीद हुए । यहां तक कि चर्च के प्रमुख भी मारे गए । अनेक चर्च, ईसाइयों के मठ और विद्यालय बंद कर दिए गए या नष्ट कर दिए गए । सबसे बड़ी बात तो यह है कि आज भी तुर्की में ईसाइयों को मूलभूत मानवाधिकारों से वंचित रखा जाता है ।

उपरोक्त के संदर्भ में कहा जा सकता है कि यूरोप, एशिया और उत्तरी अफ्रीका के जिस विशाल क्षेत्र में पहले हमारे जैसे सनातनी रहते थे उन्हें येन केन प्रकारेण ईसाई बना कर उनके धर्म, संस्कृति और सामाजिक परंपराओं को नष्ट कर दिया गया । कालांतर में ऐसा हुआ कि उसी क्षेत्र के एक बड़े हिस्से पर एक नए मजहब — मोहम्मदी या इस्लाम का अधिकार हो  गया । इस्लाम ने लगभग उसी प्रकार ईसाइयों के रिलिजन को समाप्त करना चाहा जैसे ईसाइयों ने सनातनियों का धर्म नष्ट किया था । बस अंतर इतना ही था कि जहां ईसाइयों ने वहां के सनातनियों का पूरी तरह सफाया कर दिया था ठीक वैसा मुसलमानों ने नहीं किया । यही कारण है कि पूर्वी यूरोप के ईसाई बच गए । साथ ही, इस्लामी देशों में आज भी थोड़े-बहुत ईसाई हैं । फिर भी इससे एक बात तो स्पष्ट है कि ईसाइयत और इस्लाम सर्वथा अपना एक पृथक समाज बनाते हैं और ये दोनों किसी और को अपने साथ नहीं रहने देते । यही कारण है कि या तो वे दूसरों का पंथपरिवर्तन कराते हैं या उन्हें मार डालते हैं । इन इब्राहिमी मजहबों और सनातन धर्म में यही मूलभूत अंतर है । सनातन धर्म सबके साथ रहने वाला धर्म  है । इस प्रकार सनातन एकमात्र धर्म है जो सर्वसमावेशी है । तार्किक एवं वैज्ञानिक विचारों को केवल यही धर्म पूरी स्वतंत्रता दे सकता है । स्पष्ट है कि इस धरा का उन्नयन केवल सनातन ही कर सकता है । इसमें मानवों के बीच की विविधता का उत्सव मनाया जाता है । इस प्रकार केवल यही धर्म मानवीय है । यह सारी दुनिया का दुर्भाग्य ही है कि आज भी इन इब्राहिमी मजहबों के चरित्र में कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं आया है । इसलिए हम देखेंगे कि तुर्की में मुस्तफा कमाल पाशा जैसे आधुनिक और निरंकुश शासक के कठोर प्रयासों के बावजूद कैसे आज वहां इस्लामी कट्टरता हावी है ।

उस्मानी साम्राज्य का तुर्की गणतंत्र में परिवर्तन और मुस्तफा कमाल पाशा

बीसवीं शताब्दी आते-आते समय ने एक बार फिर पलटा खाया और इस बार उस्मानी साम्राज्य का विनाश हुआ। प्रथम विश्व युद्ध में पराजय के बाद उस्मानी साम्राज्य की राजनीतिक व्यवस्था और और मजहबी स्वरूप में अभूतपूर्व परिवर्तन आया । पहला परिवर्तन तो यह हुआ कि यूरोप और उत्तरी अफ्रीका के सारे क्षेत्र और एशिया में तुर्की को छोड़कर शेष क्षेत्र उस्मानी साम्राज्य के हाथ से निकल कर स्वतंत्र हो गए । दूसरा यह कि उस्मानी साम्राज्य के केंद्रीय स्थल तुर्की में राजतंत्र समाप्त हुआ और गणतंत्र की स्थापना हुई । इसमें तुर्की के प्रथम राष्ट्रपति — मुस्तफा कमाल पाशा की अन्यतम भूमिका थी । अब देखिए कि पाशा ने तुर्की के लिए क्या किया । इस संबंध में इतिहासकार डॉ. धनपति पाण्डेय बताते हैं कि पाशा का दृढ़ विश्वास था कि यूरोपीय सभ्यता को अपनाकर ही तुर्की का नव-निर्माण किया जा सकता है और इसे शक्तिशाली बनाया जा सकता है ।6 पर इस्लाम तुर्की के मार्ग में सबसे बड़ा बाधक साबित हो रहा था । पाशा का मानना था कि यूरोप की उन्नति का मूल कारण यही है कि वहां के उन्नतिशील राज्यों में रिलिजन का शासन तथा जीवन में अत्यंत गौण स्थान है । पाशा यूरोप के इसी स्वरूप को अपनाना चाहते थे । पर उन्हें पता था कि तुर्की की जनता कट्टर मुसलमान है, जबकि पाशा के विषय में यह बात प्रचलित थी कि वह नास्तिक हैं । अतः इस्लाम को लेकर कट्टर लोग उनका विरोध करने लगे और उनके सभी शत्रु इस्लाम की आड़ लेकर एकत्रित होने लगे । पाशा भी अब इन लोगों का खुल कर सामना करने की प्रतीक्षा करने लगे । तभी अचानक उन्हें अवसर मिल गया । भारत के दो प्रसिद्ध सुन्नी मुसलमानों — आगा खां और अमीर अली ने अंकरा की सरकार को एक पत्र लिखा कि हिंदुस्तानी मुसलमान खलीफा के प्रति किए जा रहे असम्मान का विरोध करते हैं और यह मांग करते हैं कि खलीफा के पुराने अधिकार उन्हें लौटा दिए जाएं । पाशा यह सुन नहीं सकते थे । उन्होंने आगा खां की मंशा पर शीघ्र ही कुठाराघात किया और उन्हें अंग्रेजों का पिट्ठु बताते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा कि यह अंग्रेजों की चाल है कि तुर्की में ऐसे नाजुक समय में खलीफा के प्रश्न को लेकर राष्ट्रवादी तुर्कों में फूट डाली जाए । अंग्रेजों से तुर्की के लोग पहले से ही घृणा करते थे । अब पाशा के इस विचार के कारण वे अंग्रेजों से और भी घृणा करने लगे । इसके फलस्वरूप तुर्की में राष्ट्रीय एकता की भावना जागी । तुर्की की राष्ट्रीय सभा ने भी पाशा का साथ दिया और यह निर्णय किया कि उन व्यक्तियों को फांसी दी जाए जो सुल्तान के विचारों का समर्थन और लोकतंत्र का विरोध करें । अब क्या था !  इसी निर्णय के अनुसार, 3 मार्च 1924 को तुर्की को पंथनिरपेक्ष राज्य घोषित कर दिया गया और खिलाफत अर्थात खलीफा रूपी पद या संस्था को सदा के लिए समाप्त कर दिया गया । खलीफा चुपचाप तुर्की से बाहर चले गए, जबकि सुल्तान के सभी वंशज तुर्की से निकाल दिए गए । मुसलमानों के इतिहास में यह एक भयंकर क्रांति मानी जाती है ।

जैसा कि इस विवरण से स्पष्ट है कि तुर्की में खिलाफत को समाप्त किया जाना और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के बीच सीधा संबंध है । 1857 से लेकर 1947 तक चले भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में दो ही बार मुसलमानों ने बड़ी संख्या में हिस्सा लिया । पहली बार 1857 में जब मृत मुगलिया या तुर्की सल्तनत को पुनर्जीवित करना था और दूसरी बार तुर्की की  मृतप्राय खिलाफत को बचाना था । इस प्रकार 1920-22 में महात्मा गांधी द्वारा चलाए जा रहे असहयोग आंदोलन में 1857 के बाद पहली बार मुसलमानों ने खुल कर हिस्सा लिया ।  अली बंधुओं — शौकत अली और मुहम्मद अली ने 1919 में अखिल भारतीय खिलाफत समिति का गठन किया । मौलाना अबुल कलाम आजाद ने, जो स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार में शिक्षा मंत्री बने, अपने समाचारपत्र — ‘ अल हिलाल ’ के माध्यम से खिलाफत आंदोलन का खूब प्रचार किया ।7 यह गांधी और कांग्रेस की ऐतिहासिक भूल थी कि उन्होंने इस्लाम के हित के लिए मुसलमानों का साथ दिया और उनसे सहायता ली । यह ऐसी भूल थी, जिसकी इस देश को भारी कीमत चुकानी पड़ी । इसने यह सिद्ध कर दिया कि मुसलमान तभी राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेंगे जब उसमें इस्लाम के लिए कुछ विशेष होगा । और जब मुसलमानों ने देखा कि ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा है तो उन्होंने अपना रास्ता अलग कर लिया और इस अलगाव की परिणति पाकिस्तान के रूप में हुई । पर यह कैसी विडंबना थी कि जिस खिलाफत के लिए भारत के मुसलमान जान दे रहे थे उसे तुर्की के मुसलमान त्याज्य समझ रहे थे और जब उसको समाप्त किया गया तो संभवतः किसी ने वहां आंसू तक नहीं बहाए । सबसे बड़ी बात तो यह है कि भारतीय मुसलमानों के कारण ही पाशा ने तत्काल खिलाफत का नामो निशान मिटा दिया । अन्यथा संभव था कि खिलाफत थोड़े और समय तक रह जाती । मुसलमानों के दोहरे चरित्र का इससे सटीक उदाहरण कहीं नहीं मिलेगा ! जिस देश में खिलाफत थी उस देश के लोगों का इससे कोई लेना-देना नहीं था, जबकि वहां से हजारों किलोमीटर दूर भारत के मुसलमान दुबले हुए जा रहे थे । आगे हम देखेंगे कि पाशा किस सीमा तक इस्लाम का विरोध करने लगे ।

इस तरह खलीफा या सुल्तान को अस्तित्वविहीन कर पाशा एक निरंकुश शासक बन गए ।अब तक तुर्की की अपनी लिपि नहीं थी और तुर्की भाषा के लिए अरबी लिपि ही प्रयुक्त होती थी । पाशा के आदेश के आधार पर तुर्की से अरबी लिपि का पूर्ण बहिष्कार कर दिया गया और इसकी जगह पश्चिम की लैटिन लिपि को अपनाया गया । पाशा ने यह घोषणा भी की कि वे व्यक्ति सरकारी नौकरी से वंचित कर दिए जाएंगे, जिन्हें लैटिन लिपि का ज्ञान नहीं  होगा । भाषा में भी सुधार लाया गया । अब तक तुर्की में अरबी और फारसी भाषाएं प्रचलित थीं । उनका बहिष्कार किया गया और उनकी जगह फ्रेंच भाषा अपनाई गई । पाशा को लगता था कि फ्रेंच भाषा के अध्ययन से तुर्की का पश्चिमीकरण करना आसान होगा । पाशा, इफेन्दी आदि फारसी उपाधियों को छोड़ दिया गया और कमाल ने स्वयं अतातुर्क ( तुर्क का पिता ) की उपाधि प्राप्त की ।

अब देखिए कि जिस अरबी भाषा के बिना मुसलमान की पहचान संकट में पड़ जाती है, क्योंकि इसे मुसलमानों के उम्मा की भाषा और नमाज पढ़ने के लिए अनिवार्य मानी जाती है, उसे एक ही झटके में सदा के लिए तुर्की से बाहर कर दिया गया । तुर्की के बाद फारसी वह भाषा है जिसे बड़ी संख्या में मुसलमान प्रयोग में लाते हैं । परंतु फारसी को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया गया । मुसलमानी दुनिया में तुर्की लिपि का स्थान सर्वोपरि है । पहले फारसी भाषा की लिपि अरबी न होकर पहलवी होती थी, किंतु जब ईरान पर मुसलमानों का आक्रमण हुआ और इस्लामी शासन स्थापित हुआ तब से उस पर अरबी भाषा और अरबी लिपि को थोप दिया गया । बाद में जब सामानी वंश ने शासन करना आरंभ किया तब से फारसी भाषा का प्रयोग पुनः प्रारंभ हुआ, पर थोड़े बदलाव के साथ लिपि अरबी ही रखी गई । उर्दू भी थोड़े बदलाव के साथ अरबी लिपि में ही लिखी जाती है । फारसी भाषा बाद में ईरान के अतिरिक्त मध्य एशिया और भारत में प्रचलित हुई । इस प्रकार इस्लामी दुनिया का एक बड़ा हिस्सा फारसी का प्रयोग करता रहा । पर इसे भी पाशा ने तुर्की से बाहर कर दिया ।

राष्ट्रीयता के प्रचार के लिए कमाल ने एक और कदम उठाया । उन्होंने तुर्की के प्राचीन शहरों के नामों को बदल कर उन्हें नया नाम दिया । आधुनिक नाम देते समय उन्होंने पश्चिमी देशों के नामों को ध्यान में रखा । यूरोपीय नामों के आधार पर उन्होंने कॉंस्टैंटिनोपल या कुस्तुन्तुनिया का नाम बदल कर इस्तांबुल कर दिया ।  इसी प्रकार अंगोरा को बदल कर अंकाला, आद्रिनोपल को एडीर्न और स्मना को इजमीय कहा जाने लगा । इस कदम से यह बात स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है कि तुर्की एक संस्कृतिविहीन देश था, अन्यथा वह एक विदेशी शब्द को हटा कर दूसरे विदेशी शब्द को कभी नहीं अपनाता । पर आश्चर्य की बात तो यह है कि इससे राष्ट्रीयता का प्रचार कैसे होता !  उदाहरण के लिए, कॉंस्टैंटिनोपल एक विदेशी शब्द था तो इस्तांबुल भी विदेशी या यूनानी शब्द है । ‘ इस्तांबुल ’ शब्द से सामान्यतः हमें ऐसा प्रतीत होता है कि इसमें वैसे ही ‘ स्तान ’ लगा होगा जैसा हिंदुस्तान, पाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान आदि में । पर यह सच नहीं है । यह शब्द यूनानी भाषा का है जो अपने शुद्ध रूप में ‘ इस्तंबुल ’ है और जिसका अर्थ होता है ‘ शहर में ’ या ‘ शहर को ’ । परंतु अब इस्तांबुल ही रूढ़ हो गया   है । संभवतः पाशा को कॉंस्टैंटिनोपल शब्द से यह संकेत मिलता रहा हो कि एक रोमन सम्राट ने इस शहर को बसाया था, इसलिए उन्होंने इस नाम को हटा दिया । जो भी कारण रहा हो यह काम तब उचित माना जाता जब इस्तांबुल नाम का कोई शहर पहले से होता और उसका नाम हटाकर कॉंस्टैंटिनोपल रखा गया होता । ऐसी स्थिति में इसे भूल सुधार कहा जा सकता था । पर सबसे अच्छा यह होता कि इसका मूल नाम बाइजैंटाइन ही फिर से रखा गया होता । परंतु इससे पाशा के सामने समस्या यह आती कि इस नाम से पुराने बाइजैंटाइन साम्राज्य की गंध आती, क्योंकि बाइजैंटाइन एक शहर होने के साथ-साथ एक साम्राज्य भी था, जैसे विजयनगर साम्राज्य, दिल्ली सल्तनत आदि । इस प्रकार पाशा ने पुराने साम्राज्य और पुराने सम्राट की स्मृति को मिटाकर इस्तांबुल कर दिया ।

राष्ट्रीयता को बढ़ावा देने के लिए पाशा ने यह भी किया कि उन्होंने तुर्की महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति में सुधार के लिए काम किया । सर्वप्रथम पर्दा प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया । शिक्षा के लिए अलग विद्यालय खोले गए । विवाह के लिए सिविल मैरेज की पद्धति आरंभ की । सत्रह वर्ष से कम आयु की लड़की के विवाह पर रोक लगा दी गई । मतदान का अधिकार दिया गया । महिलाओं के लिए एक विशेष कानून बनाया गया जिसके अनुसार बहुपत्नी प्रथा समाप्त कर दी गई और उन्हें सार्वजनिक तथा राजनीतिक समानताएं प्रदान की गईं । परिवार तथा धन संबंधी विधियां भी बनाई गईं ।  पाशा के इन कदमों से भारत और यहां के मुसलमानों को बहुत कुछ सीखना चाहिए । हमारे यहां तो पर्दा प्रथा इस कद्र बढ़ी है कि अब चहुंओर बुर्का दिखाई देता है । यहां ध्यातव्य है कि विवाह के लिए निकाह, जिसका उल्लेख कुरान में है, को समाप्त करके सिविल मैरेज शुरू किया गया । यह यदि हमारे देश में लागू हो जाए तो अनेक मुल्ला-मौलवी की आवश्यकता नहीं रहेगी । पर इससे भी बड़ी बात यह कि लड़कियों के विवाह की न्यूनतम आयु निर्धारित कर दी गई । यह अपने-आप में अत्यंत क्रांतिकारी कदम था । आज तक हमारे आधुनिक और लोकतांत्रिक कहे जाने वाले देश में मुसलमान लड़कियों की न्यूनतम आयु सीमा निर्धारित नहीं है । यह भी एक कारण है कि मुसलमानों की संख्या अपेक्षाकृत तेजी से बढ़ रही है, क्योंकि अल्पायु में विवाह करने के कारण इन लड़कियों को संतानोत्पत्ति का बहुत लंबा समय मिलता है । और इससे भी बड़ा काम यह किया गया कि बहुपत्नी प्रथा समाप्त कर दी गई । हमारे देश का दुर्भाग्य देखिए कि स्वतंत्रता के सात दशक से भी अधिक समय बीत जाने के बाद भी मुसलमान चार पत्नियां रख सकते हैं ।

पाशा यहीं तक नहीं रुके । लोगों के परिधान में भी सुधार किया गया । इसके लिए पश्चिमी देशों की नकल की गई । फेज टोपी तथा पगड़ी का प्रयोग कानूनी रूप से अपराध घोषित किया गया । फेज टोपी पहनना इतना बड़ा अपराध था कि कुछ लोगों को इसके पहनने पर दस-दस साल की सजा दी गई । इस टोपी के बदले में हैट पहनना अनिवार्य कर दिया गया । ऐसी व्यवस्था की गई कि लोग यूरोपीय पोशाक पहनें, कोट और पतलून धारण करें और टाई का प्रयोग करें । वैसे तो यह कदम भी तुर्की की संस्कृतिशून्यता को ही दर्शाता है, पर यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि जो टोपी मुसलमानों की पहचान बनी हुई है, उसे एक झटके में पाशा ने समाप्त कर दिया । आज हम चारों ओर यह टोपी देखते हैं, विशेषकर नमाज पढ़ने के लिए तो इसे अनिवार्य-सा बना दिया गया है । जबकि इतिहास से पता चलता है कि यह टोपी यहूदियों से ली गई थी और इसका इस्लाम से कोई लेना-देना नहीं है ।

पाशा ने इतिहास को नए तरीके से लिखवाया । इस नवीन इतिहास में तुर्की की जातियों को सर्वश्रेष्ठ बतलाया गया । जबकि सच यह है कि तुर्की के लोग खानाबदोश जाति के थे और गोबी की मरुभूमि ( मंगोलिया ) में रहा करते थे । पर इस नूतन इतिहास में उनके वास्तविक  इतिहास को छिपा लिया गया और यह कहा गया कि तुर्की लोग अंकोला ( तुर्की का एक स्थान ) के ही चिर-निवासी हैं तथा उनकी प्राचीन सभ्यता पूर्ण विकसित थी । एक इतिहासकार ने तो यहां तक लिख दिया कि यहां के लोग ‘ आर्य ’ थे । अब देखिए कि अपनी जाति को श्रेष्ठ बताने के लिए किस प्रकार सफेद झूठ का सहारा लिया गया । पर इससे भी स्पष्ट हो जाता है कि तुर्की जाति कैसी थी । पहली बात तो यह कि तुर्क उस क्षेत्र के न होकर बाहरी थे और यह भी कि इनका इतिहास गौरवशाली नहीं था । आर्यों से स्वयं को जोड़ने के पीछे भी यही कारण था ।

पाशा के नेतृत्व में पंथनिरपेक्ष राज्य की स्थापना की घोषणा करके राज्य को मजहब से पृथक कर दिया गया और पुराने इस्लाम मजहब का पूर्ण बहिष्कार कर दिया गया । सन 1924 की एक राजकीय घोषणा से तुर्की के सुल्तान के पुराने अधिकारों को समाप्त कर दिया गया । अब तुर्की का सुल्तान इस्लाम का मुखिया नहीं रहा । तुर्की की मस्जिदें संपत्ति से भरी रहती  थीं । अब इन्हें जब्त करने के लिए राजकीय घोषणा की गई । कहते हैं कि मस्जिदों की संपत्ति को जब्त करने से राजकोष भर गया । तुर्की की शिक्षा पर पहले मस्जिदों और मदरसों का प्रभाव रहता था उसे अब समाप्त कर दिया गया । टोपी पर प्रतिबंध लगने के कारण लोग खुले सिर नमाज पढ़ने लगे । मुसलमान शुक्रवार को मस्जिद जाते थे और यह दिन पूर्णत: अवकाश का दिन होता था । पर इसे बंद कर दिया गया और रविवार को अवकाश का दिन माना गया । मस्जिदों में वायरलेस और रेडियो लगाए गए और राज्य की ओर से इस्लाम के विरुद्ध प्रचार किया जाने लगा । मस्जिदों और मदरसों को शिक्षा से बाहर करके पाशा ने बड़ा ही क्रांतिकारी काम किया । शुक्रवार की जगह रविवार को छुट्टी का दिन घोषित करना भी क्रांतिकारी कदम था, क्योंकि इस्लाम में शुक्रवार का विशेष महत्व है । वैसे इसके पीछे यूरोप को खुश करना भी उद्देश्य था । यूरोप को प्रसन्न करके के लिए ही इस्लामी संवत को छोड़कर ग्रेगोरियन संवत को अपनाया गया । यह भी इस्लाम पर बहुत बड़ा प्रहार था, क्योंकि मुसलमान अपने संवत को अपने मजहब का हिस्सा मानते हैं ।

इस प्रकार इसमें कोई संदेह नहीं कि पाशा ने इस्लाम के विरुद्ध और वह भी आज से सौ वर्ष पूर्व ऐसे क्रांतिकारी कदम उठा कर बड़ा ही साहसी काम किया । पर हम यह पाते हैं कि ये सारे काम लोकतांत्रिक प्रक्रिया से न होकर तानाशाही तरीके से ही हुए । संभवतः यह भी एक कारण हो कि कालांतर में लोग फिर से कट्टर इस्लाम की ओर झुके । हां, इतना अवश्य है कि अनेक लोगों को इस पंथनिरपेक्षता की आदत हो गई, इसीलिए तुर्की में ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं है, जो इस्लाम को ही नहीं मानते । अतः हम यह कह सकते हैं कि विश्व में लोकतांत्रिक प्रक्रिया से इस्लाम में कहीं भी सुधार नहीं हुआ है, क्योंकि जहां भी सुधार हुआ है तानाशाही तरीके से ही हुआ है । चीन का दूसरा उदाहरण हमारे सामने है । चीन में भी इस्लामी टोपी, अरबी में नमाज पढ़ना, अरबी भाषा के प्रयोग आदि पर रोक लगी हुई है । लेकिन चीन के इन कदमों की जहां निंदा हो रही है वहीं तुर्की की कोई निंदा नहीं करता । इसका अर्थ यह हुआ कि एक मुसलमान मुसलमानों के साथ कुछ भी करे तो क्षम्य है, पर कोई दूसरा करे तो  अक्षम्य । हमारे देश में तत्काल तीन-तलाक को रोकने के कानून को लेकर भी मुसलमानों के आक्रोश का यही कारण है कि कैसे सरकार ने हमारे मजहबी मामले में हस्तक्षेप किया ।

अब हम पाशा के व्यक्तित्व के अन्य पहलुओं पर प्रकाश डालेंगे । पाशा एक सैन्य अधिकारी थे जिन्होंने उस्मानी साम्राज्य के भग्नावशेष पर तुर्की गणतंत्र की स्थापना की और उसके प्रथम राष्ट्रपति बने ( 1923-1938 ) । इनके शासनकाल में तुर्की में नाम के लिए ही लोकतंत्र था । विपक्ष को कठोरतापूर्वक दबाया गया । एकदलीय व्यवस्था स्थापित की गई । विपक्षी समाचारपत्रों पर प्रतिबंध लगा दिया गया, वामपंथी मजदूर संगठनों को दबा दिया गया और कुर्दी स्वायत्तता पर लगाम लगाई गई । जब वह तुर्की की सेना में ब्रिगेडियर-जनरल थे तब उन्हें पूर्वी तुर्की, सीरिया और फिलस्तीन में लड़ने के लिए तैनात किया गया था । इस युद्ध में पंद्रह लाख आर्मेनियाई मारे गए और बड़ी संख्या में अन्य लोगों को उस क्षेत्र से भगा दिया गया । पर कहा जाता है कि इतने बड़े नरसंहार से पाशा को नहीं जोड़ा जाता । यह अनायास नहीं है कि पाशा बाद में एक कठोर तानाशाह बने । वास्तव में उन्होंने लोकतंत्र की भ्रूणहत्या कर दी । वस्तुतः जिस लोकतंत्र का अभी जन्म भी नहीं हुआ था उसका गला घोंट दिया गया । इसलिए देखिए कि क्या एकदलीय व्यवस्था को लोकतंत्र कहा जा सकता है ? जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही न हो वहां कैसा लोकतंत्र ! कोई आश्चर्य नहीं कि पिछले दो दशकों से तुर्की में कुछ-कुछ वैसा ही हो रहा है जैसा पाशा के शासनकाल में हो रहा था । सच तो यह है कि कुछ लोग मानते हैं कि तुर्की के वर्तमान राष्ट्रपति एर्दोआन, पाशा से भी एक कदम आगे हैं और उनकी इच्छा भी है कि तुर्की में उन्हें पाशा से ऊपर का स्थान दिया जाए ।

अब हमारी स्वाभाविक उत्सुकता यह जानने की होगी कि पाशा के बाद तुर्की में क्या हुआ ? क्या तुर्की एक पंथनिरपेक्ष, आधुनिक, उदार और पश्चिमी-यूरोपीय देश बन पाया, जैसा कि पाशा का सपना था ? क्या सार्वजनिक जीवन में इस्लाम की भूमिका नगण्य हो गई ? संयोगवश इस संदर्भ में एक पुस्तक है जिसमें 1950 के दशक के बाद के तुर्की का वर्णन मिलता है । वैसे यह पुस्तक मुख्यतः इस्तांबुल शहर पर केंद्रित है, पर इससे तुर्की के विषय में भी जानकारी मिलती है । आत्मकथात्मक शैली में लिखी इस पुस्तक के लेखक हैं ऑहन पामुक । इसमें पामुक लिखते हैं कि, “ उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में इस्तांबुल की यात्रा के दौरान गलियों में लोक जीवन की विविधता को देखकर फ्रांसीसी उपन्यासकार — गुस्ताव फ्लोवेयर की आंखें चौंधिया गई थीं और उन्होंने अपने एक पत्र में भविष्यवाणी की कि अगली एक शताब्दी में यह शहर सारे विश्व की राजधानी बन जाएगा । किंतु इसके ठीक विपरीत ही हुआ । उस्मानी साम्राज्य के पतन के बाद विश्व इस्तांबुल को लगभग भूल-सा गया । जिस शहर में मेरा जन्म हुआ वह इतना निर्धन, जीर्ण-शीर्ण और अलग-थलग था कि वैसा पिछले दो हजार वर्ष के इतिहास में कभी नहीं रहा । मेरे लिए यह शहर सदा ही लुटा, उजड़ा हुआ और साम्राज्य के पतन के अवसाद से ग्रसित रहा है।”  ( पृष्ठ 19 ) इससे स्पष्ट है कि उस्मानियों ने इस शहर का क्या हाल कर दिया था, जिसे पाशा भी नहीं संभाल नहीं सके । पामुक आगे लिखते हैं कि,

“ इस्तांबुल के अन्य तुर्कों की तरह बचपन में मेरी भी बाइजैंटियम में कोई रुचि नहीं थी । मैं इस शब्द को डरावने, दाढ़ी वाले, काले चोंगे वाले यूनानी ऑर्थोडॉक्स पादरियों, शहर के जल-सेतुओं, हाइया सोफीया और लाल ईटों वाली दीवारों वाले पुराने चर्चों से जोड़ता   था । मेरे लिए यह सब इतना प्राचीन था कि इसको जानने की कोई आवश्यकता नहीं    थी । यहां तक कि जिन उस्मानियों ने बाइजैंटियम को जीता था वे भी बहुत दूर के लगते  थे । आखिरकार हमारे जैसे लोग “ नई सभ्यता ” की पहली पीढ़ी थे । जहां तक बाइजैंटिनों की बात है तो हमें ऐसा ही बताया गया था कि वे उस्मानियों के विजयी होने के बाद ही हवा में उड़ गए। पर मुझे यह बात किसी ने नहीं बताई थी कि जूतों, केक एवं पेस्ट्री और सिलाई में काम आने वाली वस्तुओं या बिसाती वस्तुओं की दुकानें बाइजैंटिनों के वंशज ही चला रहे  हैं । इन दुकानों को चलाने में इन लोगों का पूरा परिवार लगा रहता था । बाइजैंटिन यूनानी   थे । मुझे बताया गया कि ये यूनानी शहर की झुग्गियों में रहने वाले गरीबों की तरह ही सम्मान के योग्य नहीं हैं । मैं यही सोचता था कि अवश्य ही इसका कोई लेना-देना इस बात से होगा कि उस्मानियों ने उनका शहर छीन लिया था । जब इस्तांबुल विजय, जिसे महान चमत्कार भी कहा जाता है, की पांच सौवीं शताब्दी 1953 में मनाई गई तो मुझे कुछ भी चमत्कारिक नहीं लगा ।”

उपरोक्त वर्णन में इस बात का उल्लेख आया है कि उस्मानी ऐसा बताते थे कि उनकी जीत के बाद यूनानी हवा में उड़ गए । वैसे तो यह बात सच नहीं है, जैसा कि स्वयं पामुक आगे बताते हैं, किंतु इस वक्तव्य से मुसलमानों की प्रवृत्ति का पता चलता है । वे वास्तव में यही चाहते थे कि यूनानी यहां से भाग जाएं । इतना ही नहीं, जो यूनानी इस शहर में थे वे दोयम दर्जे के नागरिक के समान ही जीवन जी रहे थे । दोयम दर्जे के नागरिक की सबसे बड़ी पहचान यही होती है कि वह जमीन से जुड़े कृषि व्यवसाय या सरकारी नौकरी से नहीं जुड़ पाता, जिसके फलस्वरूप उसे दुकान का ही सहारा रहता है । हमारे यहां तिब्बतियों की ऐसी ही स्थिति है ।

आगे देखिए कि किस प्रकार दंगे करवाकर तुर्की सरकार ने अंततः यूनानियों को इस्तांबुल से सदा के लिए भगा दिया । पामुक लिखते हैं :

“ कुछ ऐतिहासिक घटनाओं के संदर्भ में जैसे लोग बात करते हैं उससे आप बड़ी आसानी से यह कह सकते हैं कि आप पूर्व ( एशिया ) में खड़े हैं या पश्चिम ( यूरोप ) में । पश्चिम के लोगों के लिए जहां 29 मई 1453 कुस्तुन्तुनिया का पतन है वहीं पूर्व वालों के लिए यह इस्तांबुल की विजय है । इस प्रकार ईसाइयों और मुसलमानों में यह शहर बंटा रहा है । तीसरा विकल्प ही नहीं रहा । वैसे यह विडंबना ही है कि पश्चिमीकरण और तुर्की राष्ट्रीयता के पनपने के कारण ही इस्तांबुल का विजयोत्सव मनाना आरंभ किया गया । बीसवीं शताब्दी के आरंभ में इस्तांबुल के आधे लोग ही मुसलमान थे और आधे ही थे बाइजैंटिन यूनानी लोग । जब मैं बच्चा था तब शहर के अधिक वाचाल राष्ट्रवादियों के बीच यह धारणा आम थी कि जो कोई इस शहर का नाम कुस्तुन्तुनिया लेता है वह विदेशी और पुनःसंयोजनवादी है । अर्थात अपनी पुरानी भूमि को वापस लेने का सपना देखता है कि इस शहर के मालिक यूनानी तुर्कों को यहां से भगा देंगे, जिनका इस शहर पर पांच सौ साल से कब्जा है । या कम-से-कम तुर्कों को दोयम दर्जे का नागरिक बना देंगे ।  फिर भी ये केवल राष्ट्रवादी ही थे जो उस्मानी विजय पर बल देते थे, जबकि उनके विपरीत अधिकतर उस्मानी इस शहर को कुस्तुन्तुनिया बोलने को लेकर संतुष्ट थे ।

मेरे समय में भी ऐसे तुर्की जो पाश्चात्य गणतंत्र के विचार के प्रति कृतसंकल्प थे वे इस उस्मानी विजय पर अधिक ध्यान नहीं देना चाहते थे । कई वर्षों की तैयारी के बावजूद पांच सौ वर्षों के 1953 के उत्सव में न तो राष्ट्रपति और न ही प्रधानमंत्री ही शामिल हुआ । अंतिम समय में यह विचार हुआ कि यूनानी और पश्चिमी मित्रों को यह अपमानजनक लगेगा । परंतु तीन वर्षों के बाद ही विजयोत्सव के ज्वर से ग्रस्त तुर्की शासन ने जान-बूझकर लोगों को उकसाया और पूरे शहर में यूनानियों और अन्य अल्पसंख्यकों की संपत्ति की लूटपाट की गई । इन दंगों के दौरान अनेक चर्चों को नष्ट किया गया और अनेक पादरियों की हत्या की गई । परिणाम यह हुआ कि 1453 के बाद के पचास वर्षों में जितने यूनानियों ने इस शहर से पलायन नहीं किया था उससे कहीं अधिक 1953 के बाद के पचास वर्षों में किया है । जिन मुहल्लों में यूनानी अधिक संख्या में थे उनमें अधिक हिंसा हुई और आतंक मचाया गया । दंगाइयों ने यूनानियों की दुकानों को जला दिया और यूनानी एवं अमरीकी महिलाओं का बलात्कार किया गया । ये दंगाई वैसे ही निर्मम और बर्बर थे जैसे कि 1453 में उस्मानी तुर्की सैनिक रहे होंगे । बाद में पता चला कि इन दंगाइयों को सरकार का संरक्षण प्राप्त था, जिन्होंने दो दिनों तक शहर को नर्क में बदल दिया था । इस बीच यदि कोई गैर-मुसलमान बाहर दिख गया तो वह हिंस्र भीड़ का शिकार हुआ । यूनानियों का सारा सामान गलियों में बिखेर दिया गया ।” ( पृष्ठ 223-26 )

क्या यह घटना मोहम्मद सुल्तान द्वारा 1453 में दी गई तीन दिन की लूट की छूट से तनिक भी भिन्न थी ? इस प्रकार यह इस्लाम का स्थायी चरित्र है कि दूसरों को लूटो, मारो-काटो और  मिटा दो । इसीलिए पांच शताब्दियों में भी इसमें रत्तीभर भी परिवर्तन नहीं आया । यह लूट इस्लाम के संस्थापक मुहम्मद बिन अब्दुल्ला के द्वारा ही आरंभ हुई थी । वास्तव में इस लूट के द्वारा ही धन-संग्रह करके मुहम्मद ने सेना खड़ी की और राज्यव्यवस्था कायम की । लूट के माल के वितरण का विस्तृत वर्णन कुरान में है, जिससे यह पता चलता है कि इस्लाम में यह काम अनुचित नहीं माना जाता ।

पामुक तुर्की फिल्म उद्योग के बारे में भी लिखते हैं और बताते हैं कि तुर्की फिल्म उद्योग उन दिनों प्रति वर्ष सात सौ फिल्में बना रहा था, जो सारे संसार में केवल भारत से ही कम होती   थीं । इस प्रकार तुर्की फिल्म उद्योग संसार का दूसरा सबसे बड़ा उद्योग था । ( पृष्ठ 119 ) परंतु पामुक द्वारा दी गई यह जानकारी सही नहीं है । लगता है कि तुर्की को एक उदार देश दिखाने के उद्देश्य से पामुक ने ऐसी बात लिखी है । थोड़ी खोज-बीन से ही पता चल जाता है  कि 1970 के दशक में तुर्की में सर्वाधिक 300 फिल्में बनी थीं, जो बाद में घटने लगीं ।        ‘ स्क्रीन ऑस्ट्रेलिया ’ से पता चलता है कि विश्वभर में फिल्म निर्माण की दृष्टि से 2010 में तुर्की का सत्रहवां स्थान था । पहले की तुलना में 2010 में तुर्की में फिल्मों की संख्या गिर कर 62 पर आ गई थी । 2018 में पहली बार पिछले एक दशक में यह संख्या सर्वाधिक बढ़कर 175 पर पहुंची । इस प्रकार भारत से तुलना करके पामुक यही दिखाने का प्रयास कर रहे हैं कि तुर्की फिल्म-निर्माण के क्षेत्र में बहुत आगे था । लेकिन भारत से तुलना इसलिए निरर्थक है, क्योंकि तुर्की में निर्मित फिल्मों की कुल संख्या भारत का मात्र पांच प्रतिशत ही रही है । फिल्मों पर उपलब्ध साहित्य को देखकर ऐसा लगता है कि तुर्की फिल्मों ने विश्व में अपनी कोई पहचान भी नहीं बनाई है और न ही इसका कोई अंतरराष्ट्रीय बाजार ही है । वैसे भी पूरी तरह मुसलमानों का और तानाशाही देश होने के कारण तुर्की से बहुत उच्च कोटि की फिल्मों की अपेक्षा नहीं की जा सकती । ऐसी फिल्मों के लिए देश में पर्याप्त विविधता और विचारों की स्वतंत्रता होनी अपरिहार्य है जो सामान्यतः लोकतांत्रिक देशों में ही संभव है । इस्लाम चित्र बनाने तक पर रोक लगाता है । यह अकारण नहीं है कि विश्व के 25 सबसे बड़े फिल्म निर्माता देशों में केवल तीन ही मुसलमान-बहुल देश हैं — इंडोनेशिया, तुर्की और मलेशिया ।

अब हम देखते हैं कि तुर्की से बाहर तुर्की के लोकतंत्र को किस प्रकार देखा जाता है । अमरीका स्थित ‘ फ्रीडम हाउस ’ एक ऐसा संगठन है जो विश्व के दो सौ देशों में वहां के लोगों के राजनीतिक अधिकारों और नागरिक स्वतंत्रता का विश्लेषण करता है और इन देशों को एक क्रम में रखता है । यह काम वार्षिक रूप से किया जाता है । इसके अनुसार तुर्की में बिल्कुल स्वतंत्रता नहीं है । इसे इस वर्ष सौ में से केवल 32 अंक मिले हैं । इसकी तुलना जब हम अफगानिस्तान से करते हैं, जिसे 27 अंक मिले, तो हमें समझ में आता है कि तुर्की में कितनी स्वतंत्रता है और किस सीमा तक यह देश लोकतांत्रिक है ! और यदि पाकिस्तान की बात करें तो उसे 37 अंक मिले, जिससे पता चलता है कि तुर्की का लोकतंत्र उस पाकिस्तान से भी बदतर है, जहां निरपवाद रूप से सेना का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष शासन रहा है ।

तुर्क कौन हैं ?

अब हम यह जानने का प्रयास करेंगे कि तुर्क हैं कौन ? ये कहां से आए ? आदि-आदि, जिससे हमें उनके इतिहास और चरित्र का पता चल सके । इस बारे में अखिलेश बताते हैं कि आज जिस भौगोलिक क्षेत्र को हम तुर्की कहते हैं उसे पहले  ‘ एशिया माइनर ’ कहा जाता था और वहां भारतीय भाषाओं से प्रभावित यूरोपीय भाषाएं बोली जाती थीं । वहां अनेक जातियों के लोग रहा करते थे । कालांतर में जब यह रोमन साम्राज्य का हिस्सा बना तो इसे एक प्रांत बनाया गया और नाम दिया गया — ‘ एशिया ’। पर बाद में जब एक पूरे महादेश को ही एशिया कहा जाने लगा तो उससे अलग दिखाने के लिए रोम ने इसे ‘ एशिया माइनर ’ अर्थात लघु एशिया कहना शुरू किया । इससे इतना तो स्पष्ट हो गया कि लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व तक यहां तुर्की नाम का कोई देश नहीं था । इस प्रकार स्पष्ट है कि तुर्क लोगों का इस क्षेत्र से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं था । वास्तव में न तो यह क्षेत्र तुर्कों का था और न ही तुर्क यहां रहते  थे । रोम साम्राज्य के अधीन यह प्रांत — एशिया माइनर पूरी तरह यूनानी संस्कृति और सभ्यता से प्रभावित था । इस प्रांत में सर्वाधिक संख्या यूनानी और आर्मेनियाई लोगों की थी ।

तुर्कों का मूल स्थान पश्चिमी मंगोलिया था । पांचवीं शताब्दी से ये लोग वहां से मध्य एशिया में प्रवेश करने लगे । यहां तुर्क फारसी बोलने वाले लोगों को अपदस्थ करके या उनके साथ समायोजन करके रहने लगे । धीरे-धीरे तुर्क अरब और ईरानी शासकों के लिए भाड़े के सैनिकों का काम करने लगे । वर्ष 1037 ई में तुर्कों का पहला साम्राज्य — ‘ सेलजूक ’ अस्तित्व में आया । इसका केंद्र तो मध्य एशिया में था, किंतु इसमें ईरान, इराक आदि देशों का बड़ा हिस्सा शामिल कर लिया गया । अब इसकी पश्चिमी सीमा बाइजैंटाइन साम्राज्य की पूर्वी सीमा को छूने लगी । यहां ध्यातव्य है कि सेलजूक साम्राज्य में तुर्क अल्पसंख्यक थे, परंतु  पारसी, अरब और कुर्द जैसे बहुसंख्यकों पर शासन कर रहे थे । 1071 ई में एक निर्णायक युद्ध में सेलजूक ने बाइजैंटाइन को बुरी तरह परास्त कर दिया । अब झुंड-के-झुंड तुर्क एशिया माइनर में आने लगे और छोटे-छोटे राज्य बनाकर शासन करने लगे । मंगोलों के आक्रमणों के बाद तो और भी बड़ी संख्या में तुर्क मध्य एशिया छोड़ कर यहां आने लगे ।  इसके बाद से बाइजैंटाइन साम्राज्य दुर्बल पड़ने लगा और अंततः 1453 में उसका अस्तित्व ही समाप्त हो गया । जिन लोगों ने बाइजैंटाइन साम्राज्य को अपदस्थ करके अपना शासन स्थापित किया उन्हें उस्मानी तुर्क कहते हैं । इसका कारण यह है कि उस्मान के नेतृत्व में ही इस शासन की स्थापना हुई थी और इसीलिए इसे उस्मानी साम्राज्य कहा गया । पर यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि उस्मानी8 तुर्क एक व्यापक शब्द है, जिसमें तुर्कों के अलावा अन्य जातियों के लोग भी   थे । वैसे भी तब यह एक विशाल साम्राज्य था जिसमें नाना प्रकार की जातियों सहित अनेक देश शामिल थे । जबकि तुर्की से अभिप्राय केवल एक जाति — तुर्क से ही है, जो मध्य एशिया से वहां गए  ।

सामान्यतः ऐसा देखा गया है कि कोई भी अल्पसंख्यक वर्ग चाहे कितना ही प्रभावी क्यों न हो कालांतर में वह बहुसंख्यक समुदाय में घुल-मिल जाता है । परंतु अल्पसंख्यक तुर्कों ने ऐसा नहीं किया । अतः हुआ यह कि बहुसंख्यक समाज को ही तुर्कों के साथ मिलना पड़ा और जिसके परिणामस्वरूप इन लोगों को तुर्की मजहब अर्थात इस्लाम, तुर्की भाषा और संस्कृति को अपनाना पड़ा । इस प्रकार एक विजेता जाति ने विजित जातियों पर पूरी तरह सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित किया । इसे ही तुर्कीकरण कहा जाता है । वास्तव में ईसाइयत और इस्लाम यही करते आए हैं । ये दोनों मजहब अन्य संप्रदायों की आस्था, विश्वास और संस्कृति को मिटाना ही अपना कर्तव्य समझते हैं । यही कारण है कि ये एकांतिक अर्थात एक्सक्लुसिव    हैं । ये दूसरे संप्रदायों के साथ मिल-जुल कर रहना नहीं जानते । ये सनातन धर्म के सर्वसमावेशी सिद्धांत के ठीक विपरीत चलते हैं । पर इस विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि आज तुर्की में जो लोग तुर्क कहे जाते हैं उनमें सर्वाधिक यूनानी और उसके बाद आर्मेनियाई लोग हैं न कि तु र्क । आनुवंशिक आधार पर भी यह सिद्ध किया जा चुका है कि केवल 9 से 15 प्रतिशत तुर्क ही मध्य एशिया से संबंधित हैं ।

मध्य एशिया में एक क्षेत्र है, जिसे तुर्किस्तान कहा जाता है । इसी का एक भाग तुर्कमेनिस्तान देश है । इससे स्पष्ट है कि आज भी तुर्कों का अस्तित्व मध्य एशिया में बना हुआ है । परंतु तुर्कों ने यहां से दूर जाकर एक और देश तुर्की बना लिया । सभ्यता और संस्कृति के मामले में तुर्क बहुत विपन्न थे । आज तक इनकी भाषा के लिए अपनी कोई लिपि नहीं है । तुर्की साहित्य भी उच्च कोटि का नहीं रहा । यह अकारण नहीं है कि भारत में जो तुर्क आए, जिनमें सर्वप्रमुख मुगल थे,  वे सांस्कृतिक दृष्टि से इतने दरिद्र थे कि उन्हें फारसी भाषा और फारसी संस्कृति अपनानी पड़ी । वैसे वे चाहते तो भारत की उच्चतर संस्कृति अपना सकते थे, परंतु अपने अहंकार के कारण वे विजित जाति के सामने तुच्छ नहीं दिखना चाहते थे । इसीलिए यहां फारसी को राजभाषा का दर्जा दिया गया ।

कुर्दों का अदम्य संघर्ष

अब देखिए कि तुर्कों के एकांतिक स्वभाव के कारण आज तुर्की में एक समुदाय विशेष अर्थात कुर्दों के साथ कैसा भीषण अत्याचार हो रहा है । तुर्की में नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों को जिन कारणों से दबाया जाता रहा है उनमें सर्वप्रधान है तुर्की का कुर्दों के प्रति शत्रु-सदृश व्यवहार । स्वाभाविक है कि हम यह जानना चाहेंगे कि कुर्द कौन हैं और क्यों वे तुर्की में इतने प्रताड़ित हैं । कुर्द मेसोपोटामिया9 के मूल निवासी हैं । इस तरह स्पष्ट है कि कुर्द उन लोगों में से हैं जो वहां हजारों वर्षों से रह रहे हैं, जबकि तुर्क बाहर से आए हैं । इस प्रकार जो मूल निवासी हैं वे ही प्रताड़ित हैं । कुर्द केवल तुर्की में ही नहीं हैं, वरन इराक, ईरान, सीरिया और आर्मेनिया अर्थात पांच अलग-अलग देशों में बिखरे हुए हैं । पांचों देशों को मिलाकर कुल तीन से साढ़े तीन करोड़ कुर्द हैं । जिस क्षेत्र में कुर्द फैले हुए हैं, उसे कुर्दिस्तान कहा जाता है । कुर्द सीरिया की आबादी का 7 से 10 प्रतिशत हैं । सीरिया में रह रहे कुर्दों को मूलभूत अधिकारों से वंचित रखा गया है । लगभग तीन लाख कुर्दों को नागरिकता तक नहीं दी गई है । कुर्दी भूमि को लेकर अरबों में बांट दिया गया है ताकि उस क्षेत्र का अरबीकरण हो । कुर्द इराक की आबादी का 15 से 20 प्रतिशत हैं । इराक एकमात्र देश है जहां कुर्दों की अपनी स्वायत्त सरकार है और उन्हें कुछ अधिकार भी प्राप्त हैं । लेकिन ईरान में रहने वाले कुर्द की स्थिति दयनीय है । उनके साथ लगभग वैसा ही व्यवहार होता है जैसा कि तुर्की में ।

तुर्की राज्य और कुर्दों के बीच बहुत पुराना वैमनस्य है । कुर्द तुर्की की कुल आबादी का 15 से 20 प्रतिशत हैं । संख्या के हिसाब से तुर्की में डेढ़ करोड़ से भी अधिक कुर्द हैं । इस प्रकार सर्वाधिक कुर्द तुर्की में ही हैं । 1920 और 1930 के दशकों में तुर्की सरकार ने अनेक कुर्दों को अपने निवास स्थानों से दूर हटाकर कहीं और बसा दिया । कुर्दों के नाम और पोशाक भी बदल दी गई । कुर्दी भाषा के प्रयोग को सीमित कर दिया गया । कुर्दों की अलग जातीय पहचान को समाप्त कर दिया गया । उन्हें ‘ पहाड़ी तुर्की ’ कहा गया, जो कुर्दों के लिए घोर अपमानजनक है । अपने लिए एक स्वतंत्र देश की मांग करते हुए कुर्दों ने 1978 से सशस्त्र संघर्ष आरंभ किया, जिसमें अब तक 40,000 लोग मारे जा चुके हैं ।

अपने अप्रैल 2021 वाले अंक में ‘ द इकोनॉमिस्ट ’ पत्रिका लिखती है कि हजारों कुर्द राजनेता और कार्यकर्ता आज तुर्की की जेलों में बंद हैं । कुर्दों का मानना है कि अभी भी तुर्क और कुर्द एकसमान जीवन नहीं जी सकते । तुर्की केवल अपने ही देश में कुर्दों के विरुद्ध नहीं लड़ रहा, वरन सीरिया के उस क्षेत्र में 2016 से तीन बार आक्रमण कर चुका है जहां के कुर्द अपने लिए एक छोटा-सा राज्य मांग रहे हैं । 2017 में तुर्की ने ईरान और इराक के साथ मिलकर कुर्दों की पार्टी — पीकेके को दंडित करने के लिए एक अभियान चलाया । पीकेके एक सशस्त्र समूह है जो तुर्की के सुरक्षा बलों से चार दशकों से लड़ रहा है । हाल ही में एर्दोआन ने कुर्दी सरकार पर आक्रमण करने की धमकी भी दी है । कुर्दों की राजनीतिक पार्टी — एचडीपी को 2015 के तुर्की के राष्ट्रीय चुनाव में काफी जनसमर्थन मिला, जिसका परिणाम यह हुआ कि एर्दोआन बहुमत प्राप्त करने में असफल रहे । इसी प्रकार सीरिया में भी कुख्यात जिहादी आतंकवादी संगठन — आइएसआइएस10 से लड़ने के लिए कुर्दों को पश्चिमी देशों का समर्थन मिला । इस बीच जब कुर्द विद्रोहियों ने तुर्की में अपनी स्वायत्तता की घोषणा कर दी तब तुर्की ने इन पर भयंकर प्रहार किया जिसमें 3,000 लोग मारे गए । अब एर्दोआन पूरी तरह कुर्दों का सफाया करना चाहते हैं ।

प्रथम विश्व युद्ध के बाद जब उस्मानी साम्राज्य को तोड़कर अनेक देश बनाए गए तब कुर्दों ने भी अपने लिए एक देश की मांग की । 1920 की सेव्र की संधि में कुर्दिस्तान की व्यवस्था भी की गई । परंतु कमाल पाशा के कुर्द-विरोधी अड़ियल रवैये के कारण 1923 की लुजान की संधि में तुर्की ने कुर्दिस्तान की संभावना को समाप्त कर दिया । इस प्रकार पिछली एक शताब्दी से कुर्द अपने देश के लिए संघर्षरत हैं । लेकिन 21 वीं शताब्दी में कुर्द अचानक महत्वपूर्ण हो गए हैं । 2013 के मध्य में आइएस ने सीरिया में कुर्दों पर अनेक बार आक्रमण किया । परंतु 2014 के मध्य तक अर्थात एक साल के अंदर ही सीरिया के कुर्दों ने अपने शौर्य व पराक्रम से आइएस को पीछे धकेल दिया और पश्चिमी देशों की सहायता से सीरिया के पूरे कुर्दी क्षेत्र से बाहर कर दिया । अक्टूबर 2017 में कुर्दों ने सीरिया में आइएस को इसके मुख्यालय राका से भी बाहर कर दिया । सीरिया में आइएस की अंतिम शरणस्थली — बहूज से भी उन्हें मार्च 2019 में निकाल दिया गया । अंततः कुर्दों की वीरता के कारण सीरिया इस इस्लामी आतंक — आइएस से मुक्त हो गया ।

इराक के कुर्दी क्षेत्रों पर भी आइएस ने आक्रमण किया और यहां भी कुर्द लड़ाकों ने उनसे लोहा लिया । यहां विस्मयकारी बात यह हुई कि इराकी सेना आइएस के आक्रमण से पहले ही भाग चुकी थी । अगस्त 2014 में आइएस ने इराक के सिंजार सहित अनेक शहरों पर आक्रमण किया । सिंजार में हजारों यजीदियों को आइएस ने या तो मार दिया या बंदी बना लिया । जनवरी 2015 में कुर्दों ने आइएस को परास्त करके अपने कुछ क्षेत्र भी वापस ले  लिए । इस युद्ध में लगभग 1600 लोग मारे गए ।

इराक में 2017 में हुए जनमतसंग्रह में 90 प्रतिशत कुर्दों ने अपनी स्वतंत्रता के पक्ष में मत दिया । परंतु इसके प्रत्युत्तर में इराकी और ईरानी सेना ने मिलकर कुर्दी क्षेत्रों पर आक्रमण किया और उसका एक-तिहाई हिस्सा वापस ले लिया । फिर भी विडंबना देखिए कि आज उत्तरी इराक में कुर्दों के क्षेत्र में कहीं अधिक शांति है । यहां का तेल का भंडार भी दक्षिणी इराक से बड़ा है । सीरिया से भाग कर आए कुर्द शरणार्थियों को यहां बसाया जा रहा है । ईरान वाले हिस्से से भी कुर्द यहां आ रहे हैं । स्थिति ऐसी बन गई कि अब अरब लोग कुर्दी क्षेत्र में घूमने के लिए और कुछ बसने के लिए भी आ रहे हैं । अरबों के लिए वहां जाना और बसना आसान कर दिया गया है । इस क्षेत्र के पचास लाख लोगों में आज हजारों लोग अरब हैं ।  एक कुर्दी मंत्री का अरबील शहर, जो कि इराक में कुर्दों की राजधानी है, के बारे में कहना है कि, “ हमारे शहर की संस्कृति केवल कुर्दी नहीं, बल्कि यह अनेक संस्कृतियों का संगम है ।”

विदित है कि पिछले एक दशक से सीरिया में गृह युद्ध चल रहा है । परंतु सीरिया संकट के संदर्भ में कहा जाता है कि तुर्की का रवैया ज्यादातर अनुत्पादक ही साबित हुआ है, विशेषकर आइएस से निपटने के मामले में । आरंभ में तुर्की ने आइएस को अपनी धरती पर पनपने की छूट दी । अंकरा और इस्तांबुल आइएस में भर्ती के मुख्य केंद्र बन गए थे, क्योंकि एर्दोआन की सरकार ने इस आशा के साथ इन गतिविधियों को खुली छूट दी कि आइएस तुर्की की सबसे बड़ी समस्या — कुर्दों से निपटने में काम आएगा । जहां एक ओर तुर्की ने कुर्द विरोधी रवैये के कारण आइएस को अपनी सीमा से तेल के गैरकानूनी कारोबार को निर्बाध रूप से संचालित करने की छूट दी, वहीं दूसरी ओर, तुर्की के प्रमुख पश्चिमी सहयोगी और नाटो के साथी कुर्द लड़ाकों को प्रशिक्षण और हथियार मुहैया करवा रहे थे । इन कुर्द लड़ाकों का काम आइएस और अन्य विद्रोही गुटों को आगे बढ़ने से रोकना था । एर्दोआन के लिए कुर्दों की राजनीतिक पार्टी — पीकेके के प्रति कठोर रवैया अपनाना और कुर्द स्वतंत्रता आंदोलन के विरुद्ध खड़ा होना बहुत महत्वपूर्ण है । पीकेके का प्रभाव क्षेत्र इराकी कुर्दिस्तान है और कुर्दों को अपने लिए सबसे बड़ा खतरा आइएस ही लगता था । 2016 में आइएस ने एक ऑडियो संदेश में तुर्की के सैन्यबलों और तुर्की की धरती पर भी “ अपने गुस्से की आग को फैलाने ’ को कहा । एक और बयान में आइएस ने इस्लामी पहलू जोड़ते हुए तुर्की के ईसाई राज्यों — अमरीका, यूरोपीय देश और रूस के साथ के संबंधों की बात की थी । इस बयान में तुर्की को ‘ क्रॉस का रक्षक ’ बताया गया था ।

इस प्रकार लगता है कि तुर्की का दोनों ओर से नुकसान ही हो रहा है । एक ओर आइएस तो दूसरी ओर कुर्द । तुर्की को दोनों का सामना करना पड़ रहा है । तुर्की की स्थिति ऐसी है कि हम कह सकते हैं कि माया मिली न राम । तुर्की ने कुर्दों के दमन के लिए आइएस का साथ दिया, पर अब वही आइएस तुर्की के लिए भस्मासुर बन गया है ।

कुर्दों के साथ ईरान में भी बहुत कठोर व्यवहार किया जाता है । इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि वे इराक के कुर्दी राज्य में जाने लगे हैं । वैसे ईरान से भागना आसान नहीं है । पर शायद आर्मेनिया में कुर्दों की स्थिति अपेक्षाकृत अच्छी है । मैंने स्वयं आर्मेनिया एक विदुषी से चर्चा की तो पता चला कि उन्हें मूलभूत अधिकार मिले हुए हैं और वे आर्मेनिया की सरकार में भी हैं ।

डॉ. राधेश्याम द्विवेदी बताते हैं कि कुर्द कट्टर सुन्नी मुसलमान, योद्धा, कुशल घुड़सवार होने के साथ-साथ बंजारा जाति के हैं । इनका अतिथिसत्कार जगप्रसिद्ध है । भाषाविदों का मानना है कि कुर्दी भाषा पर हिन्दी, यूरोपीय भाषाओं और फारसी का प्रभाव है । वैसे तो अमरीका या इराक कभी नहीं चाहेगा कि उत्तरी इराक का कुर्दी क्षेत्र एक अलग देश बन जाए, किंतु आज जो स्थिति है उससे ऐसा लगता है कि एक स्वतंत्र कुर्दिस्तान की संभावना प्रबल होती जा रही है । इराक के उत्तरी क्षेत्र में तीन ऐसे राज्य हैं जिनको कुर्दी राज्य कहा जाता है । इन्हीं राज्यों की जो सरकार है वह क्षेत्रीय कुर्दी सरकार के नाम से जानी जाती है । 1980 के दशक में जब इराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन ने कुर्दों को दबाना शुरू किया तो एक दौर ऐसा भी आया जिससे साफ लगने लगा कि कुर्दों के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है । जब सद्दाम हुसैन ने कुर्दों पर आक्रमण किया तो कहते हैं कि एक से दो लाख के बीच कुर्दों का संहार  हुआ । 2003 में अमरीका द्वारा इराक पर किए गए आक्रमण से कुर्दों की स्थिति संभली । हाल ही में भारत से सहायता के लिए बलूचिस्तान के बाद अब कुर्दों ने भी आवाज उठाई है । इराक के स्वशासित कुर्दी क्षेत्र ने भारत से मांग की है कि भारत आइएस से उसकी लड़ाई में सहायता दे ।

प्रश्न उठता है कि जब कुर्द सुन्नी मुसलमान हैं तो फिर इनके साथ मुसलमान ही क्यों इतना अत्याचार करते हैं । इसलिए हमें इस विषय की गहराई में जाना होगा । वास्तव में यदि इस्लाम को छोड़ दिया जाए तो कुर्दों की वहां के मुसलमानों के साथ कोई समानता नहीं है । कुर्दों की अलग भाषा, अलग परंपरा और अलग जाति है ।  कुर्दों का संबंध आर्यों से बताया जाता है । कहते हैं कि चार हजार वर्ष पूर्व भारत से आर्य जाकर आज के कुर्दिस्तान के क्षेत्र में पहुंचे थे । ये जातीय रूप से ऐसे अल्पसंख्यक हैं जिनका अपना कोई राज्य नहीं है । ये प्रथम विश्व युद्ध के पहले तक खानाबदोश जीवन जीते थे । वैसे तो कुर्द ईरान, इराक, तुर्की, सीरिया और आर्मेनिया में रहते हैं, परंतु ये इन देशों के लोगों से बिल्कुल भिन्न हैं । कुर्दों में अधिकतर सुन्नी मुसलमान हैं, फिर भी ये अन्य धर्मों को भी मानते हैं । विद्वानों का मत है कि सातवीं शताब्दी से पहले ये लोग भगवान बुद्ध को मानते थे । सम्राट अशोक के समय से ही कुर्दों के भारत से बहुत आत्मीय संबंध थे । इस्लाम के फैलने के कारण इनमें से अधिकतर लोग सुन्नी मुसलमान हो गए और ईरान में रहने वाले कुछ कुर्द पन्द्रहवीं शताब्दी में शिया बने । फिर भी कुर्दों की सभ्यता और संस्कृति अलग है । भारत से वैसे भी मेसोपोटामिया के बहुत घनिष्ठ संबंध रहे हैं । वहां की अनेक वस्तुएं सिंधु घाटी की सभ्यता में प्राप्त होती हैं तो अनेक भारतीय वस्तुएं वहां ।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कुर्द सनातनी मुसलमान हैं और यही कारण है कि इनमें कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जो इन्हें मुसलमानों से अलग करती हैं । मुसलमान होते हुए भी ये मजहब के मामले में उदार हैं । यही कारण है कि ये सर्वसमावेशी हैं और सबका स्वागत करते हैं । और संभवतः इनकी उदारता ही वह कारण है जिससे आइएस इन्हें संसार में अपना सबसे बड़ा  शत्रु मानता है । अन्यथा क्या कारण हो सकता है कि जहां कुर्द रहते हैं वहीं आइएस ने आक्रमण किया । कुर्द योद्धा जाति है । वह आइएस जिससे सरकारें नहीं भिड़ पाईं उससे कुर्द लड़े और ऐसा लड़े कि उनके दांत खट्टे कर दिए ।  अब प्रश्न उठता है कि कैसे इन कुर्दों ने आइएस को परास्त किया ? इसका उत्तर भी इनकी उदारता में निहित है । सारे संसार के मुसलमानों के विपरीत कुर्द समाज में महिलाओं की भूमिका अप्रतिम है । आज बड़ी संख्या में कुर्दी महिलाएं सेना में शामिल हैं । ये प्रशिक्षित महिला सैनिक आइएस से लोहा लेती रही हैं ।

इस प्रकार कुर्दी संघर्ष का सबसे अनूठा पहलू है महिलाओं की सेना । ये महिलाएं पुरुषों के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर युद्ध में हिस्सा लेती हैं । यह अपने-आप में विलक्षण बात है । कुर्दी महिलाएं कहती हैं कि सैनिक बनने के कारण समाज में उनके प्रति सम्मान बढ़ा है । दूसरा, उन्हें अचानक पुरुषों के साथ बराबरी का अधिकार भी मिला है । आखिर ऐसा क्या है कुर्दी समाज में जो अपनी महिलाओं को लड़ाका बनने की अनुमति देता है । इसका एक कारण तो व्यावहारिक हो सकता है कि सेना में महिलाओं के शामिल होने से इनकी युद्ध करने की शक्ति दोगुनी हो जाती है । साथ ही इससे महिलाओं में आत्मविश्वास बढ़ता है, जिससे समाज में उनका योगदान भी बढ़ता है । कहते हैं कि तुर्की के विरुद्ध लड़ रहे कुर्दों के प्रमुख ने बहुत पहले ही कुर्दी महिलाओं को फौज में शामिल होने के लिए प्रेरित किया था । इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि कुर्दी महिलाएं 1960 और 1970 के दशक से ही सैन्य प्रशिक्षण लेकर कुर्दी सेना का हिस्सा बनने लगीं । कुर्दी महिला सैनिकों का कहना है कि आरंभिक दिनों में उन्हें युद्ध के मैदान में पुरुष सैनिकों को भोजन देने, दवा-दारू करने आदि के लिए जाना पड़ता था । पर जब वे देखती थीं कि अनेक पुरुष मर गए हैं, तो उन्हें क्षोभ होता था कि वे क्यों नहीं लड़ सकतीं ? इसके अतिरिक्त ऐसा भी होता था कि घर में पुरुष के मारे जाने से वे असुरक्षित महसूस करती थीं और शत्रुओं द्वारा पकड़ लिए जाने पर उनके साथ कैसा भी दुर्व्यवहार हो सकता था । जबकि एक सैनिक के रूप में वे सहजता से अपनी रक्षा कर सकती थीं । चाहे जो भी कारण हो पर आज इन कुर्दी महिला सैनिकों को देख कर यही लगता है कि कुर्दों के स्वतंत्रता संघर्ष को लंबे समय तक नहीं दबाया जा सकता । एक तरह से इन महिला सैनिकों ने सारे संसार पर उपकार भी किया है, क्योंकि यदि ये आइएस रूपी दैत्य से नहीं लड़तीं तो पता नहीं यह दैत्य क्या करता !  पर सबसे सुखद आश्चर्य की बात यह है कि जिस अरब में महिलाएं आपादमस्तक काले बोरे में कैद रहती हैं, वहां मरु उद्यान की तरह कुर्दी महिलाओं की तस्वीरों को सैन्य वेशभूषा में देखना एक सुखद व अविस्मरणीय अनुभव है !  इस प्रकार ये कुर्दी महिलाएं मरुभूमि में शाद्वल की तरह हैं ।

पर हमारे लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि कुर्द भारतीय मूल के लोग हैं और इनकी धार्मिक मान्यता, सामाजिक उदारता, भाषा आदि में भारतीयता परिलक्षित होती है । इस तरह हमें चाहिए कि हम उनकी यथाशक्ति सहायता करें । भारत सरकार को भी चाहिए कि वह भारतीय मूल के होने के कारण कुर्दों की सहायता करे ।  यदि हमारा साथ मिलेगा तो कुर्दों का मनोबल बढ़ेगा । यह कैसी विडंबना है कि जो लोग तुर्की में प्रताड़ित हैं वे भारतीय मूल के और उस क्षेत्र के मूल निवासी हैं, परंतु उन्हें प्रताड़ित करने वाले तुर्क बाहर से आए हुए हैं । तुर्की की स्थिति यह है कि वह तुर्की में कुर्दों पर अत्याचार करने के अतिरिक्त सीरिया में रह रहे कुर्दों का भी दमन करता है । हाल में उत्तरी सीरिया में रह रहे कुर्दों पर तुर्की ने आक्रमण करके अनेक कुर्दों को मार दिया । कुर्दों को यदि यहां स्वतंत्रता मिलेगी तो तुर्की को लगता है कि वह भी प्रभावित होगा । इसलिए सभी अंतरराष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन करते हुए तुर्की ने सीरिया पर आक्रमण किया । इससे आइएस के विरुद्ध चल रहे युद्ध के कमजोर पड़ने की भी आशंका है । फिर भी तुर्की ने कुर्दों के खतरे को आइएस से भी बड़ा मान कर सीरिया पर आक्रमण किया ।

प्रताड़ित यजीदी

पर कुर्द एकमात्र संप्रदाय नहीं है जो इस पश्चिमी क्षेत्र में प्रताड़ित है । इसके अतिरिक्त एक दूसरा किंतु अपेक्षाकृत बहुत छोटा समुदाय है यजीदियों का जो कुर्दों से भी अधिक प्रताड़ित  है । इस समुदाय का अस्तित्व ही संकट में है । वैसे पहले ही यजीदियों का उल्लेख हो चुका है, पर अब हमें थोड़े विस्तार से जानना चाहिए कि यजीदी कौन हैं और क्यों प्रताड़ित हो रहे हैं ? हाल में यजीदी तब चर्चा में आए जब आइएस ने इनके ऊपर अकल्पनीय अत्याचार  किया । 2014 में आइएस के जिहादियों द्वारा किए गए आक्रमण से बचने के लिए यजीदियों  ने उत्तरी इराक स्थित सिंजार की पहाड़ी पर जाकर शरण ली । लगभग 40,000 यजीदी यहां एकत्रित थे । वहां भी आइएस के जिहादियों ने उन्हें नहीं छोड़ा और कहते हैं कि 40 बच्चों सहित 500 यजीदी मारे गए । लगभग सात लाख यजीदी हैं, जो उत्तरी इराक में रहते हैं । घोर अत्याचार के बावजूद यजीदियों ने अपने सामंजस्यवादी या समन्वयवादी धर्म को जीवित रखा  है । इस धर्म का संबंध पारसी धर्म से है । पर कहते हैं कि इस पर ईसाइयत और इस्लाम का भी प्रभाव है । फिर भी यह इब्राहिमी मजहब नहीं है । इनके विषय में कहा जाता है कि ये असुर की पूजा करते हैं । इसी कारण से इन्हें काफिर माना जाता है और इन पर अनवरत आक्रमण होते रहते हैं । अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में उस्मानी शासन में यजीदी का 72 बार संहार किया गया । वर्ष 2007 में हुए आतंकवादी हमलों में लगभग 800 यजीदी मारे   गए । आतंकवादी संगठन अल कायदा ने इन्हें काफिर घोषित किया । आइएस ने इनकी लड़कियों को सेक्स स्लेव या गुलाम बनाकर अरबों के हाथों बेच दिया ।

यजीदी इराक के प्राचीनतम अल्पसंख्यक समुदायों में से एक हैं । यजीदी जातीय आधार पर कुर्दी हैं । यजीदी अपने ईश्वर को यजदा नाम से पुकारते हैं, इसलिए उन्हें यजीदी कहा जाता है । इराक, सीरिया, ईरान, तुर्की आदि देशों में ये बिखरे हुए हैं । इनके धर्म में मोर का बहुत महत्व है । जबकि ध्यान देने वाली बात यह है कि इस क्षेत्र में मोर नहीं पाए जाते । इससे ऐसा लगता है कि मोर का चित्र भारत से गया हो । हिंदुओं में मोर भगवान कार्तिकेय का वाहन है और इस तरह एक पवित्र पक्षी है । हाल ही में एक यजीदी पुजारी ने अमरीका स्थित दक्षिण भारतीय मुरुगन मंदिर में जाकर पूजा की । इससे लगता है कि ये मुरुगन या कार्तिकेय के भी भक्त हैं । इनके यहां मयूर की आकृति का दीया बहुत पवित्र माना जाता है, जिससे ये आरती भी करते हैं । साथ ही, यजीदी 21 किरणों वाले सूर्य की उपासना भी करते हैं । इनके मंदिरों के मुख्य द्वार के ऊपर 21 किरणों वाला सूर्य बना होता है । इनकी पूजा-पद्धति में अग्नि की प्रधानता है । मंदिरों में यत्र-तत्र अग्नि प्रज्वलित होती रहती है और श्रद्धालु उसकी पूजा करते हैं । ये देवताओं की मूर्तियों की भी पूजा करते हैं । मंदिर की दीवार पर सांप की आकृति बनाते हैं । यजीदियों में जातियां भी हैं और गोत्र भी । कोई और इस संप्रदाय में शामिल नहीं हो सकता । ये पंथपरिवर्तन के बिल्कुल विरुद्ध हैं । इस प्रकार यजीदी केवल जन्म लेते हैं बनाए नहीं जाते । ये पुनर्जन्म और मोक्ष को भी मानते हैं । इनके धर्म में संगीत की प्रधानता   है । हिंदुओं की तरह ये अपने माथे पर तिलक भी लगाते हैं । हिंदुओं की तरह ही प्रणाम भी करते हैं । कुर्दी महिलाओं की भांति यजीदी महिलाएं भी लड़ाका हो गई हैं और ये महिलाएं भी बुर्का नहीं पहनतीं ।

इस प्रकार ऐसा प्रतीत होता है कि यजीदी कुर्द ही हैं, किंतु कुर्दों की तरह ये मुसलमान नहीं बने और अपनी जड़ों से जुड़े रहे । निस्संदेह ये भारतीय मूल के हैं । इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि हम उनकी यथासंभव सहायता करें । कैसी विषम परिस्थिति में यजीदी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं । ऐसे में अवश्य ही भारत सरकार को इनकी सहायता के लिए आगे आना चाहिए । किसी ने ठीक ही कहा है कि इतने बड़े देश का क्या लाभ यदि हम उन्हें इतना भी आश्वस्थ न कर सकें कि हम उनके साथ हैं । वास्तव में ये सनातन धर्म के ध्वजवाहक हैं और इस नाते हमें उन पर गर्व होना चाहिए ।

दयनीय रोमा

कुर्दों और यजीदियों के बाद इस क्षेत्र में एक और समुदाय है जिसका संबंध भारत से है और जो सर्वाधिक प्रताड़ित है । यह समुदाय है रोमा या रोमानी लोगों का । पूजा खाती रोमा या रोमानी लोगों के विषय में लिखती हैं कि ये भारतीय मूल के हैं । 12 फरवरी 2016 को रोमा पर हुए अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कहा कि सुविख्यात चित्रकार पाब्लो पिकासो, अभिनेता व फिल्म निर्माता चार्ली चैप्लिन आदि रोमा थे । तीस देशों में फैले रोमा की संख्या लगभग दो करोड़ मानी जाती है । परंतु सर्वाधिक रोमा, लगभग साढ़े सत्ताईस लाख, केवल तुर्की में बसे हैं । उसके बाद दस लाख अमरीका में और आठ लाख ब्राजील में । यूरोप के विभिन्न देशों यथा रोमानिया, बुल्गारिया, रूस, स्लोवाकिया, हंगरी, सर्बिया, स्पेन, और फ्रांस में भी इनकी संख्या अच्छी-खासी है । रोमानी भाषा हिन्दी से मिलती है । संख्या की दृष्टि से इनके यहां एक, दो, तीन, चार, पांच, छह, दस और बीस के लिए एक, दुई, त्रिन, श्तार, पंची, शो, देश, बीश हैं । मनुष्य के लिए मानुष शब्द है और बाल, कान, नाक आदि शब्द वैसे ही प्रयुक्त होते हैं । काला शब्द को ये कालो बोलते हैं ।

कहते हैं कि रोमा की पहली खेप सिकंदर की सेना के साथ ही यूरोप चली गई थी । ये लोग लोहे का काम करते थे और युद्ध के लिए अस्त्र-शस्त्र बनाते थे । इसके अतिरिक्त शारीरिक श्रम करना, नाचना-गाना आदि भी इनके पेशे में शामिल था । कहा जाता है कि हर एक रोमा  गायक और अद्भुत कलाकार होता है । ये लोग शोक मनाने के लिए श्वेत वस्त्र धारण करते हैं, रोमा की दुल्हनें हथेली पर मेंहदी रचाती हैं, बाल-विवाह भी इनमें होता है और इनके आराध्य देव हैं — शिव, काली और अग्नि । ये सभी ऐसी बातें हैं जो इनको भारत से जोड़ती हैं । कुछ विद्वानों द्वारा किए गए अध्ययन से पता चलता है कि ये लोग 1500 वर्ष पूर्व भारत से गए । जो रोमा आज यूरोप में हैं उनके विषय में अध्ययन बताता है कि ये लोग लगभग 900 वर्ष पूर्व भारत से गए । भारत के राजस्थान और पंजाब प्रांतों से ही अधिकतर रोमा बाहर गए बताए जाते हैं । कहते हैं कि रोमा आज के पाकिस्तान और अफगानिस्तान आदि को पार कर पश्चिम की ओर निकल गए थे । वहां से ईरान, इराक होते हुए वे तुर्की पहुंचे । फारस, तौरस की पहाड़ी और कुस्तुन्तुनिया होते हुए वे यूरोप के अनेक देशों में फैल गए । कालांतर में ये अमरीका और ब्राजील तक पहुंच गए ।

जब से ये लोग भारत से गए हैं इनके साथ केवल अत्याचार ही हुआ है और सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि आज भी ये उत्पीड़न के शिकार हैं । जर्मनी, इटली और पुर्तगाल में इनके साथ भीषण भेदभाव हुआ । नाजियों ने इन्हें मरने के लिए लेबर कैंप में बंद कर दिया । कहते हैं कि हिटलर के इस अत्याचार के कारण लगभग दस लाख रोमा मारे गए । यह यहूदियों जैसा ही जनसंहार था, पर हमारे लिए लज्जा की बात यह है कि हम इस बारे में जानते तक नहीं हैं । वर्ष 1943 में तुर्की की सरकार ने एक कानून बना कर रोमा लोगों को नागरिकता से वंचित कर दिया । 1980 के दशक में चेकोस्लोवाकिया ने रोमा महिलाओं की नसबंदी करा दी ताकि रोमा जाति सदा के लिए समाप्त हो जाए । अब भी इनके बच्चों को गायब करने का समाचार आता रहता है । वर्ष 2010 में फ्रांस की सरकार ने इनके 51 अवैध शिविरों को तोड़ कर हटा दिया । ये विकसित कहे जाने वाले देश हैं और किस प्रकार रोमा लोगों के साथ अन्याय करते हैं !

संयोगवश भारतीय मूल के अमरीका के एक प्रोफेसर वेद नंदा रोमा लोगों पर न केवल अध्ययन, वरन उनकी सहायता के लिए काम भी कर रहे हैं । प्रो. नंदा जेनेवा स्थित संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार संस्था में रोमा के विषय को लेकर गए । वह बताते हैं कि अमरीका में 1939 से ही रोमा की उपस्थिति की जानकारी है । रोमा आज अमरीका के अनेक शहरों में    हैं । ये अक्सर अदृश्य रहते हैं । पुलिस के डर से ये सार्वजनिक नहीं होते । ये अपनी पहचान छुपाते हैं । हाल ही में हारवर्ड में इन पर अध्ययन हुआ है, जिसमें यह बात निकल कर सामने आई है कि रोमा लोगों को किस प्रकार प्रताड़ित किया जाता है । इन्हें कोई अधिकार नहीं मिला हुआ है । समाज इनके प्रति पूर्वाग्रहों से ग्रसित है । इन्हें आधुनिक गुलाम समझा जाता है । कोरोना काल में इन पर और भी अधिक अत्याचार हुआ है, क्योंकि इन्हें कोरोना फैलाना वाला माना गया । सर्वत्र इनकी कथा अत्यंत दुखद है ।

आवश्यकता इस बात की है कि हम लोग सायास इनके विषय में जानें और इनके लिए आवाज उठाएं । इनका दोष इतना ही है कि हजारों वर्षों से अपनी मातृभूमि से दूर रहने के बाद भी इन्होंने अपना धर्म और संस्कृति नहीं छोड़ी है । इन लोगों ने कमला हैरिस और बॉबी जिंदल की तरह लोभ और लाभ के कारण ईसायत स्वीकार नहीं की । यदि ये ईसाई बन गए होते और अपनी पहचान मिटा देते तो आज कम-से-कम इनका जीवन तो निरापद रहता । वैसे  प्रो. नंदा बताते हैं कि अमरीका में रहने वाले रोमा लोगों में से अनेक ने ईसाइयत और कुछ ने इस्लाम स्वीकार कर लिया है । यह हमारा दायित्व है कि हम इन लोगों की यथासंभव सहायता करें । जहां तक भारत सरकार का प्रश्न है तो निस्संदेह उसका यह नैतिक दायित्व है कि वह रोमा लोगों की हर प्रकार से सहायता करे । परंतु इस बारे में प्रो. नंदा का अनुभव बहुत कड़वा रहा है । वह स्वयं तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिले थे । परंतु उन्होंने इस विषय में कोई विशेष रूचि नहीं दिखाई । अब जाकर मोदी सरकार  ने  2016 में रोमा पर एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया है । पर यह सरकार भी इससे आगे नहीं बढ़ पाई । प्रो. नंदा निराश होकर बोलते हैं कि भारत इस कद्र अपनी ही समस्याओं में उलझा हुआ है कि वह रोमा लोगों के लिए समय नहीं निकाल पाएगा । वैसे विश्व हिंदू परिषद ने अवश्य रोमा लोगों में रुचि दिखाई है ।

कुर्दों, यजीदियों और रोमानियों के संदर्भ में हमने देखा कि ये सभी आर्य हैं और इस प्रकार भारत से जुड़े हुए हैं । आर्यों के प्रसार के संबंध में हमें यह जानकार सुखद आश्चर्य होगा कि जहां ईरान शब्द में आर्य है वहीं आर्मेनिया — आर्य-मेनिया में भी आर्य है । बड़ी बात यह है कि स्वयं आर्मेनियाई बड़े गर्व से यह बात कहते हैं । हमने यह भी देखा कि तुर्क तक स्वयं को आर्य कहने का प्रयास करते हैं । ऐसा गौरवशाली अतीत संसार में अन्यत्र दुर्लभ है ।

आज का तुर्की

इस प्रकार हमने देखा कि एक शहर जो पहले सनातनियों का था उसे ईसाइयों ने वहां के मंदिरों को तोड़कर और सनातनियों को मार कर एक ईसाई शहर बनाया और लगभग एक हजार वर्ष बाद उसी शहर को इस्लाम ने हड़प लिया और वहां के सर्वप्रसिद्ध चर्च को मस्जिद में परिवर्तित कर दिया । इससे यह सिद्ध होता है कि ईसाइयत और इस्लाम न तो किसी और के साथ रह सकते हैं न ही उनकी संस्कृति को अक्षुण्ण रहने दे सकते हैं । यह इसी प्रवृत्ति का परिणाम है कि तुर्की और उसके आसपास के देशों में कुर्दों, यजीदियों और रोमा लोगों के प्रति उस सीमा तक अत्याचार किया जाता रहा है जहां तक यह संभव है । पर हम यह देखेंगे कि सचमुच तुर्की आज कहां खड़ा है और वह इस प्रवृत्ति से कितना लाभान्वित हुआ है ।

इस बारे में सबसे पहले हम यह जानना चाहेंगे कि तुर्की में आज इस्लाम या मुसलमानों की क्या स्थिति है ? हमें यह जानकर आश्चर्य होगा कि 2019 के एक समाचार के अनुसार, पिछले दस सालों में तुर्की में नास्तिकों की संख्या तीन गुना बढ़ गई है । दूसरी ओर, जो लोग इस्लाम को मानते थे उनका अनुपात 55 प्रतिशत से घट कर 51 प्रतिशत हो गया है । वहां के लोग बताते हैं कि तुर्की में मजहबी जबरदस्ती होती है । जबकि तुर्की के मजहबी मामलों के आधिकारिक निदेशक डायनेट ने 2014 में अपनी घोषणा में देश की 99 प्रतिशत से अधिक आबादी को मुसलमान बताया था । मजहब के एक जानकार का कहना है कि, “ हालांकि 99 प्रतिशत तुर्क मुसलमान हैं, मगर वे इस्लाम को सिर्फ सांस्कृतिक और सामाजिक तौर पर लेते हैं । वे आध्यात्मिक ( मजहबी ) मुस्लिम होने के बजाय सांस्कृतिक मुस्लिम हैं ।” नास्तिकों के संगठन के प्रमुख का कहना है कि एर्दोआन ने सोचा कि वह मजहबी मुसलमानों की एक पूरी पीढ़ी पैदा कर सकते हैं, पर उनकी यह योजना बुरी तरह से पिट गई है । हमने हमेशा कहा है कि राज्य को मजहबी समुदायों द्वारा शासित नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि इससे लोग अपनी आस्था पर सवाल उठाते हैं और मानवतावादी नास्तिक बन जाते हैं । लोगों ने यह सब होते हुए देखा और खुद को इन सब चीजों से दूर कर लिया । जो लोग तर्क से सोचते हैं वे वास्तव में नास्तिक बन जाते हैं । आज लोगों को यह बोलने में डर नहीं लगता कि वे नास्तिक हैं । मगर सरकार अभी भी लोगों को मजहब का पालन करने के लिए मजबूर कर रही है । लोगों के ऊपर अभी भी मस्जिदों में दबाव बनाया जा रहा है । इस समाचार से स्पष्ट है कि वह तुर्की जिसने इस्लाम के नाम पर इतना अत्याचार किया और आज भी कर रहा है उसके पैरों के नीचे से धरती खिसक चुकी है । यदि यह स्थिति बनी रही तो संभव है कि आने वाले कुछ वर्षों में वहां इस्लाम के पीछे चलने वाले लोग अल्पमत में आ जाएंगे । उसके बाद विवश होकर तुर्की को अपना स्वभाव बदलना पड़ेगा ।

पर अभी हमें आज की बात करनी है । हम कह सकते हैं कि आज तुर्की की स्थिति अत्यंत चिंताजनक है । सांस्कृतिक रूप से वह आज भी विपन्न है । संस्कृति के उन्नयन के लिए समाज में पर्याप्त उदारता और विविधता होनी अपरिहार्य है । तुर्की ऐसा देश है, जिसमें लगभग सभी मुसलमान ही माने जाते हैं । इस प्रकार नैसर्गिक रूप से जो जातीय विविधता थी उसे नष्ट कर दिया गया । तुर्क स्वयं यह बात स्वीकार करते हैं कि अपने से अलग मजहब या जातियों को परास्त करने और उन्हें मिटाने से ही उनकी मुख्य विचारधारा का निर्माण हुआ है । इस्लाम वैसे भी एक कैदखाना है, जिसमें से आसानी से कोई बाहर नहीं जा सकता । कमाल पाशा ने भी नहीं सोचा होगा कि उनके बाद उनका पंथनिरपेक्ष देश एक कट्टर इस्लामी देश में परिवर्तित हो जाएगा । आज तुर्की इस बात के लिए व्याकुल है कि कैसे वह दुनिया के सभी इस्लामी देशों का मुखिया बन जाए । दशकों से संग्रहालय की तरह प्रयुक्त हो रहे हाइया सोफीया को एर्दोआन ने फिर से मस्जिद बना दिया है । इस प्रकार जड़ से उखड़े हुए तुर्क इसी तरह का बर्ताव कर सकते हैं । इनमें आत्मविश्वास का सर्वथा अभाव है । यह देश स्थायी रूप से उलझन और दुविधा में रहता है कि यूरोप की ओर झुक जाए या कट्टर इस्लाम की ओर लौट चले । पिछले सौ साल में तुर्की किसी स्पष्ट निर्णय पर नहीं पहुंचा सका है । इसका भी एक कारण  है ।  चूंकि इसके पास अपना कुछ भी नहीं है इसलिए इसे पता ही नहीं है कि इसे क्या करना चाहिए । कमाल पाशा का यूरोप की ओर झुकना भी कुछ वैसा ही था । क्या कोई देश स्वयं अपने तरीके से प्रगति करके अपनी पहचान नहीं बना सकता ? क्या उसके पास यूरोपीय होना या कट्टर इस्लामी होना दो ही विकल्प हैं ? अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण भी तुर्की एक पेंडुलम की तरह झूलता रहता है — कभी यूरोप की ओर तो कभी एशिया की ओर । पामुक कटाक्ष करते हुए लिखते हैं कि, “ हमलोग स्वयं को कहना चाहते हैं कि गणतंत्र की स्थापना के बाद तुर्की एक पश्चिमी देश बन गया है और हमने अपने-आप को उस्मानी जड़ों से काट लिया है और ‘ अधिक तार्किक और वैज्ञानिक ’ लोग बन गए हैं ।

तुर्की का सपना था कि वह यूरोपीय संघ में शामिल होकर यूरोपीय कहलाएगा और विकसित देश बन जाएगा । पर इसके लिए उसका मन साफ नहीं था । मन में इस्लाम बैठा था । इस्लामी कट्टरता बैठी थी । सहिष्णुता नाम की कोई चीज नहीं थी । कुर्दों पर अत्याचार किया गया । मीडिया की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया गया । सारे संसार में सबसे अधिक संख्या में पत्रकारों को जेल में डालने वाले देशों के नाम के लिए तुर्की और चीन में प्रतिस्पर्धा होती रहती है । चूंकि चीन पूरी तरह तानाशाह है और वहां की आबादी भी बहुत अधिक है अतः आनुपातिक दृष्टि से चीन से भी अधिक पत्रकार तुर्की की जेल में डाले जाते हैं । इतना ही नहीं, एर्दोआन ने संविधान में संशोधन करा कर अपने अर्थात राष्ट्रपति के अधिकार असीमित करा लिए हैं । साथ ही, प्रधानमंत्री का भी पद समाप्त कर दिया गया है ।  पिछले दो दशकों से वहां एक तरह से निरंकुश शासन है । ये सारी बातें तुर्की की यूरोपीय संघ की सदस्यता की पात्रता के विरुद्ध जाती हैं । रेडमंड लिखते हैं कि यूरोप का यह मानना है कि तुर्की एक इस्लामी देश है और इसमें यूरोपीय चरित्र का अभाव है, इसलिए वह यूरोपीय संघ का सदस्य नहीं बन सकता ।

यफई के अनुसार, वैसे तो तुर्की पिछले चार दशकों से यूरोपीय संघ का सदस्य बनने का सपना देख रहा है, पर दो दशक से तो इस पर औपचारिक रूप से काम हो रहा है । न्याय व्यवस्था, भ्रष्टाचार, मानवाधिकार तथा अर्थव्यवस्था ये ऐसे विषय हैं जिनके कारण बताया जाता है कि अभी तुर्की यूरोपीय संघ का सदस्य नहीं बन सकता । इनके अतिरिक्त कुर्दों के प्रति तुर्की का बर्ताव और आपातकाल को बढ़ाना भी तुर्की के विरुद्ध जाता है । यफई का तो यहां तक कहना है कि संभवतः यूरोपीय नेताओं की दृष्टि में यूरोपीय संघ एक ‘ ईसाई क्लब ‘ है, इसलिए लगता है कि तुर्की कभी भी यूरोपीय संघ का सदस्य नहीं बन सकता । फिर भी वह प्रश्न उठाते हैं कि यदि ऐसा है तो यूरोप सीधे-सीधे मना क्यों नहीं कर देता ?

हमारी भूमिका

उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि आज न केवल तुर्की एक कट्टर इस्लामी देश है, वरन असहिष्णु भी । उसका कुर्दों और रोमा लोगों के प्रति अन्यायपूर्ण व्यवहार सर्वविदित है । वह आधुनिक और यूरोपीय तो बनाना चाहता है, किंतु अपनी इस्लामी कट्टरता को छोड़ना भी नहीं चाहता । वह यूरोप से तो उदारता की अपेक्षा करता है, लेकिन स्वयं उदार नहीं होना चाहता । अतः संभव है आने वाले समय में इसकी परेशानी और भी बढ़े, क्योंकि वहां नास्तिकों की संख्या बढ़ रही है । तुर्की ने सदा भारत का विरोध किया है । कश्मीर विषय पर यह उन थोड़े से मुसलमान-बहुल देशों में था जिन्होंने पाकिस्तान का साथ दिया । इसलिए भारत के लिए यह और भी आवश्यक है कि वह कुर्दों और रोमा लोगों के पक्ष में खुल कर बोले और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ऐसा वातावरण बनाए कि जनमत तुर्की के विरुद्ध हो सके । इसके अतिरिक्त बौद्धिक वर्ग का यह दायित्व बनता है कि वह सनातन धर्म के पक्ष में खड़ा हो और अपने लेखन के द्वारा तुर्की पर दबाव बनाए । यह हमारे लिए चिंता की बात है कि क्यों हमारा बौद्धिक वर्ग ऐसे विषयों को नहीं उठाता ? क्यों ऐसे विषयों पर गंभीर शोध नहीं करता ? इस देश की प्राचीनतम और समृद्धतम संस्कृति पर उसे गर्व क्यों नहीं होता ?

भारत एवं सनातन धर्म के प्रतिनिधि कुर्दों, रोमानियों और यजीदियों को समर्पित।

लेखक निवेश एवं लोक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग , वित्त मंत्रालय ,भारत सरकार में संयुक्त सचिव हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं । 

5 जून 2021  



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