संभवतः जब से मनुष्य इस धरा पर आया है तब से वह किसी न किसी तरह अपने स्वास्थ्य की देखभाल कर रहा है। इसलिए प्राचीन काल से ही अनेक देशों में स्वास्थ्य के क्षेत्र में नाना प्रकार की खोजें हुईं। भारत में तो अनेक चिकित्सा प्रणालियां विकसित हुईं जिनमें आयुर्वेद प्राचीनतम है। इसे चार वेदों में से अंतिम वेद अथर्ववेद का उपवेद कहा गया है। भारत में धंवंतरी से लेकर चरक, सुश्रुत, वाग्भट्ट और नागार्जुन जैसे महान चिकित्सकों की अत्यंत सम्पन्न और सुदीर्घ परम्परा रही है। कहते हैं कि इन चिकित्सकों ने शल्य चिकित्सा पर भी काम किया था।
फिर भी ये पारम्परिक चिकित्सा प्रणालियाँ आधुनिक चिकित्सा प्रणालियों से दो मूलभूत अर्थों में भिन्न थीं। पहला तो यह कि पूर्व में किसी भी संक्रामक रोग के उपचार के लिए सटीक ऐंटिबायोटिक दवा नहीं थी। जिससे या तो संक्रमण (इन्फ़ेक्शन) दूर होने में बहुत समय लगता था या रोगी मर जाता था। इसीलिए आधुनिक चकित्सा प्रणाली से पहले हैजा, प्लेग, चेचक जैसी महामारियों से असंख्य लोग मर जाया करते थे। इस दृष्टि से ऐंटिबायोटिक दवाओं ने लोगों की जान बचाने का अभूतपूर्व काम किया है। दूसरा यह कि आधुनिक चिकित्सा पद्धति का अभिन्न हिस्सा है शल्य चिकित्सा। ऐसे अनेक रोग हैं जिनमें शल्य चिकित्सा का कोई विकल्प नहीं है। परंतु शल्य चिकित्सा के लिए ऐंटिबायोटिक दवाओं का होना अपरिहार्य है। क्योंकि किसी भी चीर-फाड़ के बाद घाव भरने के लिए ऐंटिबायोटिक दवाओं का सेवन अनिवार्य होता है।
लेकिन दुर्भाग्य से ऐंटिबायोटिक दवाओं के बेअसर होते जाने से पहली बार हमारे सामने एक विकराल स्थिति उपस्थित हो गई है। इस स्थिति का बड़ी आसानी से सामना किया जा सकता था यदि पहले की तरह ही नई नई और अधिक प्रभावकारी ऐंटिबायोटिक दवाएँ प्रयोगशालाओं से बाजार में आती रहतीं। लेकिन, जैसा कि विशेषज्ञ बताते हैं, पिछले दो-तीन दशकों से नई ऐंटिबायोटिक दवाओं का ईजाद ही नहीं हुआ है। अब हाल यह है कि मनुष्य ने अधिकतर ऐंटिबायोटिक दवाओं के प्रति रेसिस्टेंस विकसित कर लिया है। इस बात की सहज कल्पना की जा सकती है कि यदि ऐंटिबायोटिक दवाएँ प्रभावकारी नहीं रहेंगी तो न तो हम किसी संक्रामक रोग से ही बच पाएँगे और न ही कोई शल्य चिकित्सा सफल हो पाएगी। इस प्रकार हम अचानक आधुनिक चिकित्सा प्रणाली से पूर्व के युग में प्रवेश कर जाएँगे।
अब प्रश्न उठता है कि ऐसी स्थिति क्यों बनी और अगर बनी तो इसका निदान क्या है? असल में ऐंटिबायोटिक दवाएँ हमारे शरीर के अंदर के जीवाणुओं को मारती हैं या उन्हें बढ़ने नहीं देतीं जिससे हम स्वस्थ हो जाते हैं। परंतु हुआ यह कि पिछले लगभग सौ सालों से, जब से ऐंटिबायोटिक दवाओं का ईजाद हुआ, हमने इन दवाओं का अनाप-शनाप उपयोग किया जिसके परिणामस्वरूप हमारे अंदर के जीवाणु इन दवाओं के अभ्यस्त हो गए। इसका असली कारण यह बताया जाता है कि जब जीवाणुओं पर बार बार ऐंटिबायोटिक दवाओं का हमला होता है तब उनके स्वरूप में परिवर्तन हो जाता है यानी हम जिन जीवाणुओं पर हमला करते हैं वे बदल चुके होते हैं और किसी और ही तरह के जीवाणु बन जाते हैं। इसके बाद हम इन नए जीवाणुओं के लिए दूसरी दवा का प्रयोग करते हैं जिसमें हम थोड़े दिनों के लिए सफल भी होते हैं। इस तरह यह सिलसिला चलता रहता है और एक समय ऐसा आता है जब हमारे ऊपर कोई भी ऐंटिबायोटिक दवा काम नहीं करती। इसी प्रकार जब हम किसी भी ऐंटिबायोटिक दवा का कोर्स पूरा नहीं करते हैं तब भी हमारे अंदर रेसिस्टेंस विकसित हो जाता है। कोर्स पूरा नहीं करने के कारण जीवाणु मर ही नहीं पाते हैं और उल्टे उस दवा को लेकर अभ्यस्त हो जाते हैं।
बात इतने पर ही नहीं रुकती है। मनुष्य के अंदर अनेक मामलों में अस्पतालों में भी ऐंटिबायोटिक दवाओं के विरुद्ध रेसिस्टेंस विकसित हो जाता है। यह कितनी अजीबोगरीब बात है कि जहाँ रोगी उपचार के लिए जाते हैं वहाँ उनमें ऐंटिबायोटिक रेसिस्टेंस विकसित हो जाता है। असल में अस्पताल आज एक प्रमुख स्थान है जहाँ से रोगी अपने साथ ऐंटिबायोटिक रेसिस्टेंस बाहर ले जाते हैं। इसके लिए अस्पताल में अत्यधिक ऐंटिबायोटिक दवाओं का प्रयोग जिम्मेदार है। वहाँ हर समय हर चीज के साथ-साथ फर्श, दीवार आदि की सफाई के लिए तरह तरह के जीवाणु-कीटाणु नाशक दवाओं का प्रयोग किया जाता है जिससे ये जीवाणु-कीटाणु भी ऐसी दवाओं के अभ्यस्त हो जाते हैं। अंततः इससे रोगी प्रभावित होता है। इसके अलावा आधुनिक अस्पताल की बनावट भी इसके लिए कुछ हद तक जिम्मेदार है। अस्पताल चारों ओर से बंद होते हैं ताकि एसी का असर बना रहे। ऐसे में अंदर की हवा अंदर ही घूमती रहती है जिससे अंदर के जीवाणु-कीटाणु अंदर ही कैद रहते हैं और कालांतर में इतने ताकतवर हो जाते हैं कि उन पर दवा का कोई असर नहीं होता।
परंतु मनुष्य में केवल उपरोक्त कारणों से ही ऐंटिबायोटिक रेसिस्टेंस नहीं विकसित होता है। बल्कि इसके और भी कारण हैं। मनुष्य की तरह ही पशु भी रोग ग्रस्त हो जाते हैं और उन्हें भी ऐंटिबायोटिक दवाएँ दी जाती हैं। यदि ऐसी स्थिति में उन पशुओं का दूध, अंडे और मांस का प्रयोग किया जाए तो अपने आप मनुष्य के शरीर में आंशिक रूप में ऐंटिबायोटिक दवाएँ प्रवेश कर जाती हैं। चूँकि मनुष्य तो उस रोग से ग्रसित नहीं था जिससे पशु। इसलिए संभव है मनुष्य में ऐंटिबायोटिक रेसिस्टेंस विकसित हो जाए और भविष्य में ऐंटिबायोटिक दवाएँ असरकारी न हों। पशु विशेषकर मुर्गियों और मछलियों को जल्दी बड़ा करने के लिए भी ऐंटिबायोटिक दवाएँ दी जाती हैं जिन्हें ग्रोथ प्रोमोटर कहा जाता है। जाहिर है इनके सेवन से हमारे अंदर ऐंटिबायोटिक दवाओं का अंश प्रवेश कर जाता है।
कृषि उत्पादों के माध्यम से भी हमारे अंदर ऐंटिबायोटिक रेसिस्टेंस विकसित होता है। बहुत सारे मामलों में फसलों पर किटाणु नाशक दवाओं का प्रयोग किया जाता है। जब हम ऐसी फसलों को ग्रहण करते हैं तब ये दवाएँ हमारे शरीर में प्रवेश कर जाती हैं और हमारे अंदर ऐंटिबायोटिक रेसिस्टेंस विकसित होता है। कहीं कहीं सिंचाई के लिए कृषि में जिस पानी का इस्तेमाल होता है वह गंदा होता है और सम्भव है कि उस पानी में तरह तरह के रसायन घुले हों। यदि हम उन उत्पादों का प्रयोग करें जिनके अंदर रसायन आदि हैं तो हमारे शरीर में ऐंटिबायोटिक रेसिस्टेंस विकसित हो सकता है।
जाहिर है कि ऊपर दिए गए तमाम कारणों से मनुष्यों में ऐंटिबायोटिक रेसिस्टेंस विकसित हो रहा है। इसका अर्थ यह है कि ऐंटिबायोटिक दवाओं का असर नहीं हो रहा है। टीबी के इलाज में इन दिनों इसीलिए इतनी परेशानी हो रही है क्योंकि टीबी प्रभावित लोगों में मल्टी-ड्रग रेसिस्टेंस विकसित हो चुका है। विशेषज्ञों की राय है कि अगर यही हाल रहा तो छोटी छोटी बीमारियों से भी लोग मर जाएँगे। परंतु सबसे बड़ा संकट तो यह है कि एचआइवी-एड्स और कैंसर जैसी बीमारियाँ तो लाइलाज हो जाएँगी। क्योंकि इनमें ऐंटिबायोटिक दवाओं का बहुत ज्यादा प्रयोग होता है। इसलिए अगर यह कहा जाए कि स्वास्थ्य को लेकर आपातकाल आ गया है तो बिल्कुल अतिशयोक्ति नहीं होगी। विशेषज्ञों की राय है कि पूरे विश्व में प्रतिवर्ष लगभग सात लाख लोग ऐंटिबायोटिक रेसिस्टेंस के कारण मर जाते हैं। एक अनुमान के अनुसार, यदि वर्तमान स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ तो, सन 2050 तक यह संख्या बढ़कर प्रतिवर्ष एक करोड़ हो जाएगी। सिर्फ भारत में प्रतिवर्ष 60,000 शिशु ऐंटिबायोटिक रेसिस्टेंस के कारण मर जाते हैं।
इस समस्या की विकरालता को ध्यान में रखते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक विशेषज्ञ समूह बनाया। इस समूह ने सारे विश्व के लिए ‘ग्लोबल ऐक्शन प्लान’ बनाने और हर देश के लिए ‘नैशनल ऐक्शन प्लान’ बनाने की सिफारिश की। यह समस्या कितनी गम्भीर है इसका अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि 2016 में संयुक्त राष्ट्रसंघ की महासभा में इस पर विचार विमर्श किया गया और विश्व स्वास्थ्य संगठन, खाद्य व कृषि संगठन और पशु स्वास्थ्य (विश्व) संगठन को निर्देश दिया गया कि यथाशीघ्र एक कार्यक्रम बनाया जाए। यह अच्छी बात है कि अब तक विश्व स्वास्थ्य संगठन के ‘ग्लोबल ऐक्शन प्लान’ की तर्ज पर सौ से अधिक देशों ने अपना ‘राष्ट्रीय ऐक्शन प्लान’ तैयार कर लिया है।
अब प्रश्न यह है कि ऐसी गम्भीर समस्या का निदान क्या है ? पहला निदान तो यह है कि हर सम्भव प्रयास करके हम इतने स्वस्थ रहें कि हमें ऐंटिबायोटिक दवाओं की जरूरत ही न पड़े। यह काम असम्भव नहीं है। यदि हम अपने आप को खूब साफ रखें तो बहुत हद तक इन्फ़ेक्शन से बचे रहेंगे। विकसित देशों में साफ-सफाई पर अच्छा खासा साहित्य लिखा गया है। विशेषकर हाथों को साफ रखने को अत्यंत आवश्यक माना गया है। क्योंकि बहुत सारे मामलों में संक्रमण हाथों के रास्ते ही हमारे अंदर जाता है।
इसके बाद जरूरी है हमारे आस-पास की सफाई। अगर हमारे आस-पास सफाई रहेगी तो बहुत हद तक हम संक्रमण से बचे रहेंगे। इसके बावजूद जब हमें इन्फ़ेक्शन हो जाए तब हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि हम ऐंटिबायोटिक दवाओं के विकल्पों का सहारा लें। उदाहरण के लिए जब हमें सर्दी-खांसी या जुकाम हो तब हमें पारम्परिक उपचार का सहारा लेना चाहिए। वैसे भी आमतौर पर ये रोग वायरल होते हैं और कहते हैं कि ऐंटिबायोटिक दवाएँ इनका उपचार नहीं हैं। लेकिन जब हम गलती से ऐंटिबायोटिक दवाएँ लेते हैं तो वैसे जीवाणु मर जाते हैं जिन्हें असल में मरना नहीं चाहिए। ऐसी स्थिति में ऐंटिबायोटिक रेसिस्टेंस विकसित होने की सम्भावना प्रबल होती है।
इसके बाद जो सबसे जरूरी बात है वह यह कि जब ऐंटिबायोटिक दवाओं का प्रयोग अवश्यंभावी हो जाए तब हमें बिना डॉक्टर की सलाह और बिना जाँच के ऐसी दवाएँ नहीं लेनी चाहिएं। सबसे अधिक ऐंटिबायोटिक रेसिस्टेंस विकसित होने के लिए अनुमान से दवा लेने की प्रथा जिम्मेदार है। आम तौर पर हम अपने आप या किसी से भी पूछकर ऐंटिबायोटिक दवाएं ले लेते हैं जो हमारे स्वास्थ्य के लिए सर्वाधिक हानिकारक है। अतः ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए कि हर स्वास्थ्य केंद्र पर जाँच की सुविधा उपलब्ध हो।
जैसा कि हमने एचआइवी-एड्स के मामले में देखा है कि उपचार से अधिक महत्वपूर्ण रोकथाम है। वैसे ही इस मामले में भी रोकथाम के लिए हमें पूरे जोर-शोर से इसका प्रचार करना चाहिए। इसका जितना प्रचार होगा लोग उतने ही जागरुक होंगे और ऐंटिबायोटिक दवाओं के प्रयोग में कमी आएगी। वैसे तो पूरी दुनिया इस समस्या से दो-चार हो रही है। परंतु विकसित देशों की तुलना में विकासशील देशों के लिए इस समस्या से पार पाना अत्यंत कठिन है। विकासशील देशों में संसाधनों का अभाव है। इसलिए प्रत्येक रोगी को यथोचित जाँच करके ही ऐंटिबायोटिक दवा दी जाए यह बहुत चुनौतीपूर्ण काम है। साथ ही इन देशों में साफ-सफाई की भी कमी है। इसलिए संक्रमण की आशंका कहीं अधिक है। भारत के लिए तो यह समस्या और भी गम्भीर है क्योंकि अधिक जनसंख्या होने के कारण लोगों के स्वास्थ्य की रक्षा करना एक महती चुनौती है। भारत के गावों और कस्बों में जाँच की कौन कहे लोग यूँ ही दुकान से खरीदकर ऐंटिबायोटिक दवाएँ ले लेते हैं। जाहिर है ऐसे में बड़ी संख्या में लोग ऐंटिबायोटिक रेसिसटेंट हो सकते हैं।
वैसे तो भारत ने भी अपना ऐक्शन प्लान बना लिया है। लेकिन असली काम इसको लागू करने का है। इसके लिए पूरी सरकारी और गैर-सरकारी स्वास्थ्य मशीनरी को तैयार होना होगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन तो साहित्य तैयार करके दे देगा और दिशा-निर्देश जारी कर देगा। परंतु जूझना तो हमें ही होगा। चूँकि ऐंटिबायोटिक रेसिस्टेंस मनुष्य के अलावा पशु और कृषि में भी विकसित हो रहा है। इसलिए हमारा प्रयास होना चाहिए कि इनमें भी ऐंटिबायोटिक दवाओं का कम से कम प्रयोग हो। बतौर ग्रोथ प्रमोटर तो ऐंटिबायोटिक दवाओं के प्रयोग पर रोक लगाने का प्रयास किया ही जाना चाहिए। सिंचाई के लिए ऐसे पानी का इस्तेमाल होना चाहिए जिसमें रसायन आदि न हों। ऐंटिबायोटिक रेसिस्टेंस मनुष्य, पशु और कृषि तीनों को प्रभावित करता है। इसीलिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इन तीनों की एक साथ देख-रेख की योजना बनाई है और इसे ‘वन हेल्थ’ यानी ‘एक जैसा स्वास्थ्य’ नाम दिया है।
संयोगवश भारत में चल रहा स्वच्छता अभियान हमें इस समस्या से लड़ने में सहायता करेगा। कहते हैं कि यदि खुले में शौच की प्रथा बंद हो जाए तो संक्रमण की आशंका काफी हद तक घट जाएगी। इसका कारण यह है कि शौच संक्रमण का एक बड़ा माध्यम है। प्रधानमंत्री ने अपने मन की बात कार्यक्रम में की समस्या को उठाकर जागरुकता फैलाने की दृष्टि से बहुत बड़ा काम किया है। इसी तरह आयुष्मान भारत योजना भी इस दिशा में काफी लाभदायक सिद्ध होगी।
भारत के पक्ष में एक और बात है। यदि हम अपनी पारम्परिक चिकित्सा पद्धति को अपना लें तो संक्रमण की रोकथाम में बहुत मदद मिलेगी। आयुर्वेद की विशेषता यह है कि इसकी औषधियाँ रोग को ठीक करने के साथ-साथ स्वस्थ व्यक्तियों के स्वास्थ्य में और निखार लाने में प्रभावी हैं। अर्थात यह चिकित्सा के दोनों उद्देश्यों की पूर्ति करता है – स्वस्थ को रोगी नहीं होने देता और रोगी को पुनः स्वास्थ्य प्रदान करता है।
तत्काल तो हमसे जो भी बन पड़े, करना चाहिए ताकि इस अभूतपूर्व संकट से हम उबर सकें। यदि इस आसन्न संकट को हमने हल्के से लेने की गलती की तो हम इसकी भरपाई नहीं कर पाएँगे। मनुष्य की जिजीविषा उसे नए ऐंटिबायोटिक ईजाद करने को बाध्य करेगी। लेकिन जब भी नए ऐंटिबायोटिक आएँगे तो फिर भी दो कारणों से हमें सतर्क ही रहना पड़ेगा। पहला तो यह कि जितने ऐंटिबायोटिक अभी उपलब्ध हैं उतने ही नए ऐंटिबायोटिक आएँगे इसकी सम्भावना क्षीण बतायी जाती है। दूसरा यह कि नए ऐंटिबायोटिक भी कुछ दिन बाद इसी तरह बेअसर हो जाएँगे ऐसी सम्भावना भी बनी ही रहेगी। इसलिए ऐंटिबायोटिक का प्रयोग रामवाण अर्थात अंतिम शस्त्र की तरह करने के अलावा हमारे पास कोई और विकल्प नहीं है।
लेखक निवेश एवं लोक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग , वित्त मंत्रालय ,भारत सरकार में संयुक्त सचिव हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं ।
4 सितम्बर 2018