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तीन मुसलमान विद्वानों से बातचीत

28 मई 2022

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इस्लाम का थोड़ा-बहुत अध्ययन करने के बाद मेरे मन में यह विचार आया कि देखें मुसलमान विद्वान इस्लाम के बारे में क्या सोचते हैं ? शताब्दियों से इस देश में रहते हुए भी मुसलमान अपनी पहचान को लेकर सदा इतने दुराग्रही क्यों रहते हैं ?  क्या कारण है कि इस देश में सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से मुसलमान सबसे पिछड़े हैं ? इस तरह ऐसा प्रतीत होता है कि मुसलमानों का अलग रहना और उनका पिछड़ापन एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। संभव है इन दोनों के बीच कार्य-कारण का संबंध भी हो। इतना ही नहीं, समय के साथ अपनी अलग पहचान के लिए मुसलमानों का दुराग्रह भी बढ़ा है और मजहबी कट्टरता भी। इसलिए सोचा कि इन विषयों पर मुसलमान विद्वानों की राय जानी जाए। इन विद्वानों से बातचीत के लिए 2019 में मैंने दो बार लखनऊ की यात्रा की। 

प्रॉ. नदीम हसनैन 

अभी मैं इन प्रश्नों पर गुनधुन कर ही रहा था कि आकाशवाणी लखनऊ की एक अधिकारी मित्र ने मुझे प्रॉ. नदीम हसनैन की पुस्तक “Muslims at Crossroads: Changing Face of ‘LIVED ISLAM’ in India” ( “ चौराहे पर मुसलमान : भारत में ‘ जिए गए  इस्लाम ’ का बदलता चेहरा ” ) की जिल्द का पृष्ठ भाग मोबाइल पर भेजा । पृष्ठ भाग पर पुस्तक के विषय में अंग्रेजी में जो जानकारी दी गई थी उसका हिन्दी में भावानुवाद इस प्रकार है :

“ वर्तमान पंथीय-राजनीतिक विमर्श में वहाबी, सलाफी, तकफिरि, कट्टर इस्लाम, उग्रवादी इस्लाम, जिहादी इस्लाम आदि आदि का मीडिया और आम बातचीत में उल्लेख होता रहता है। यहां तक कि साधारण-से-साधारण व्यक्ति भी इन पदों के अतिरिक्त ‘ उदार इस्लाम ’ और ‘ नरम इस्लाम ’ जैसे पदों का भी प्रयोग करता है। पर इन पदों में वे लोग कहां हैं जो प्रतिदिन अपने स्थानीय वातावरण में अपना जीवन बिता रहे हैं ? इस प्रकार उन मुस्लिमों के विषय में पता करना कहीं अधिक महत्वपूर्ण है, जो प्रतिदिन इस्लाम को जीते हैं। यह जिया हुआ इस्लाम स्थानीय संदर्भों अर्थात रीति-रिवाजों से जुड़ा हुआ है। यह साझा संस्कृति को दर्शाता है, जो वस्तुतः गैर-मुसलमानों के साथ मिलकर ही बनती है। पर अब इस साझा संस्कृति को अति दकियानूसी और घोर कट्टरपंथियों द्वारा चुनौती दी जा रही है तथा इसके विरुद्ध सऊदी अरब और खाड़ी के अन्य देशों से प्रेरित होकर सतत अभियान चलाया जा रहा है। ये स्थानीय संस्कृति को गैर-इस्लामी मानते हुए उससे मुसलमानों को अलग करना चाहते हैं। इस प्रकार दक्षिण एशिया के उस इस्लाम का अरबीकरण किया जा रहा है, जिसका पोषण एक विशेष सांस्कृतिक वातावरण में हुआ है। जबकि विडंबना यह है कि अधिकतर रीति-रिवाज, जिन पर आक्रमण किए जा रहे हैं, इस्लाम के मौलिक सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं करते। फील्ड रिसर्च पर आधारित यह पुस्तक ‘ किताबी इस्लाम ’ के परे मुसलमानों के दैनंदिन जीवन में क्या हो रहा है, इस पर विचार करती है।” 

वैसे तो उपरोक्त बातों में अनेक समस्याएं हैं, फिर भी मुझे लगा कि हसनैन साहब विद्वान हैं और उनसे मिलकर बहुत कुछ जाना जा सकता है। इसलिए मैंने आकाशवाणी की अधिकारी से आग्रह किया कि यदि हसनैन समय दें तो मैं उनसे बात करना चाहूंगा। थोड़े ही दिनों बाद प्रयागराज के कुंभ की तैयारी के सिलसिले में मुझे लखनऊ जाना पड़ा। प्रयागराज में अपना काम समाप्त करके मैं लखनऊ लौटा और कल होकर दस बजे सुबह हसनैन साहब के घर के लिए प्रस्थान किया।  साथ में वह अधिकारी मित्र भी थीं। लखनऊ के एक इलाके — निशातगंज1 के मेट्रोसिटी अपार्टमेंट में हसनैन साहब का फ्लैट है। अपार्टमेंट बहुत पुराना नहीं लगा। पांचवीं मंजिल पर फ्लैट होने के कारण हम लिफ्ट से ऊपर पहुंचे। घंटी बजाने पर स्वयं हसनैन साहब ने ही दरवाजा खोला। जींस और ऊपर एक जैकेट पहने दिखे हसनैन साहब। फरवरी का महीना था और अभी ठंड थी। अभिवादन के बाद हम ड्रॉइंग रूम में प्रविष्ट हुए। ड्रॉइंग रूम बहुत बड़ा नहीं था। ड्रॉइंग रूम की दीवारों पर तरह-तरह की छोटी-छोटी पेंटिंग और फोटो टंगी थी। तीन सोफे थे। दो तरफ तीन-तीन लोगों के बैठने और एक ओर दो लोगों के बैठने लायक। कमरे में कहीं भी इस्लाम का कोई चिह्न या प्रतीक नहीं मिला। 

हसनैन साहब एक दर्जन से अधिक पुस्तकों के लेखक हैं। मानव विज्ञान पर उनकी अच्छी पकड़ रही है और वह सिविल सेवा परीक्षा के लिए चलने वाली कोचिंग में अत्यंत लोकप्रिय शिक्षक और लेखक रहे हैं। उन्होंने मानव विज्ञान के अतिरिक्त लखनऊ शहर और मुसलमानों पर भी पुस्तकें लिखी हैं। कुल मिलाकर हसनैन लखनऊ का एक जाना-माना नाम हैं। एक बार मैंने उत्तर प्रदेश के एक ऑनलाइन टीवी चैनल — ‘ लल्लन टॉप ’ पर भी उनकी चर्चा सुनी थी। हसनैन साहब औसत कद के व्यक्ति हैं। गोल चेहरा और गोरा रंग। आयु सत्तर को छूती हुई। उम्र के हिसाब से उनका शरीर मोटा नहीं है। उनके व्यक्तित्व को सुदर्शन ही कहा जाएगा। बातचीत से लगा कि वह आवश्यकता से कहीं अधिक गंभीर हैं। खुल कर बात करने से बचते हैं। संभवतः इसी कारण वह हंसमुख नहीं लगे।

उनका परिवार गाजीपुर और आजमगढ़ के बीच के किसी गांव से आकर लखनऊ में बस गया। उनके पिता अंग्रेजों के जमाने में पुलिस की नौकरी करते थे। वह मिडिल पास कर तरक्की करते-करते सीओ तक पहुंचे और 1952 में सेवानिवृत्त हुए। हसनैन साहब ने सगर्व अपने पिता — गुलाम हसनैन का उल्लेख किया। हसनैन साहब ने बताया कि स्वतंत्रता सेनानियों पर लाठी न चलाने और ऐसे ही एक-दो और काम के लिए उनके पिता को अंग्रेजों ने दंडित किया। आजादी के बाद सरकार ने गुलाम हसनैन साहब को उनकी देशभक्ति के लिए पुरस्कारस्वरूप ताम्रपत्र आदि देकर सम्मानित करने का फैसला किया। किंतु उन्होंने यह कह कर सब कुछ अस्वीकार कर दिया कि, ‘ इस देश के नागरिक होने के कारण यह मेरा कर्तव्य था।’ वह भोजपुरी नहीं बोलते थे ।2 भोजपुरी सिर्फ उनकी पत्नी बोलती थीं। वह चाहते थे कि उनके बच्चे अलीगढ़ और जामिया न जाकर खुली प्रतिस्पर्धा के लिए स्वयं को तैयार करें और लखनऊ में ही पढ़ें। जबकि अलीगढ़ और जामिया में उन्हें आसानी से प्रवेश मिल जाता। पिता के निर्णय का सम्मान करते हुए उनके बच्चों ने लखनऊ में ही पढ़ाई की। हसनैन साहब ने यह नहीं बताया कि उनके माता-पिता की कितनी संतानें थीं। इतना ही कह कर रह गए कि तब फैमिली बड़ी होती थी। उनके पिता कहा करते थे कि, “ सारी दुनिया में अल्पसंख्यकों के साथ थोड़ा-बहुत भेदभाव होता ही है। पर स्वयं को जितना संभव हो इस लायक बनाना चाहिए कि जीवन ठीक से जी सकें।” इसी तरह पाकिस्तान जाने के विकल्प के बावजूद हसनैन परिवार ने भारत में ही रहना पसंद किया। कालांतर में हसनैन साहब के सभी भाइयों ने अच्छी-खासी पढ़ाई की। हसनैन साहब स्वयं मानवशास्त्र या नृशास्त्र में पीएचडी करके लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रॉफेसर और विभागाध्यक्ष तक पहुंचे। उन्होंने अमरीका में भी पढ़ाया। आज उनका एक बेटा अमरीका में प्रॉफेसर है। उन्होंने दशकों पहले सिविल सेवा की कोचिंग में भी पढ़ाना शुरू किया। नौकरी के आखिरी दस साल जब विभाग का काम अधिक हो गया तो कोचिंग छूट गई जिसे सेवानिवृत्त होने के बाद फिर पकड़ लिया। पहले कई शहरों में कोचिंग में पढ़ाते थे। अब सिर्फ लखनऊ और हैदराबाद में पढ़ाते हैं। हैदराबाद उन्हें मौसम के कारण पसंद है। साथ ही लखनऊ के बाद भारत में वही शियाओं का दूसरा सबसे बड़ा शहर है।

गुलाम हसनैन साहब की कही बात कि, “ सारी दुनिया में अल्पसंख्यकों के साथ थोड़ा-बहुत भेदभाव होता ही है ” मेरे मस्तिष्क पर अंकित हो गई। मैं सोचने लगा कि क्या यह बात सच है  ?  क्या यह बात उन्होंने मुस्लिम-बहुल देशों में अल्पसंख्यकों के साथ होने वाले अत्याचारों के आधार पर कही थी, या इसका कोई और आधार था ? इस्लामी राज्य में कानूनी व्यवस्था ऐसी है कि उसमें केवल और केवल मुसलमान ही नागरिक हो सकते हैं और इस प्रकार किसी भी गैर-मुसलमान को नागरिक होने का अधिकार नहीं है। पर यहूदियों और ईसाइयों के लिए इस व्यवस्था में इतना लचीलापन अपनाया गया कि उनकी जान-माल की रक्षा करने के बदले उन्हें ‘ जजिया ’ नामक एक अपमानजनक और विभेदकारी कर देना होगा। इस प्रकार यहूदियों और ईसाइयों को ‘ जिम्मी ’ कहा गया। पर हमारे लिए यह जानना बहुत आवश्यक है कि यह लचीलापन केवल यहूदियों और ईसाइयों तक ही सीमित था, क्योंकि केवल उन्हें ही इब्राहिमी मजहब का हिस्सा माना गया। इस्लाम मानता है कि मुसलमानों की तरह यहूदी और ईसाई भी किताब वाले ( या अहले किताब ) हैं।3 स्पष्ट है कि हिंदू, बौद्ध, पारसी आदि ‘ जिम्मी ’ नहीं हैं और इसलिए उन्हें किसी भी इस्लामी राज्य में रहने का कोई अधिकार नहीं है। कोई आश्चर्य नहीं कि इस्लाम के नियम को मानते हुए, जैसा कि सतीश गंजू बताते हैं, “ कश्मीर के शासक — सिकंदर बुतशिकन ( मूर्तितोड़क ) ने कश्मीर के हिंदुओं को तीन ही विकल्प दिए — इस्लाम स्वीकार करना या मार दिया जाना या कश्मीर छोड़ देना।” सर्वविदित है कि कालांतर में कश्मीर हिंदू विहीन हो गया।

इस्लाम कितना विभेदकारी और अत्याचारी हो सकता है यह जानने के लिए हमें कश्मीर के इतिहास को देखना पड़ेगा। संजय दीक्षित4 और अब्दुल्ला बताते हैं कि कश्मीर का पहला मुसलमान शासक शाहमीर था जिसने 1339 ई में शाहमीर वंश की स्थापना की। इसी वंश में 1354 ई में शिहाबुद्दीन शासक बना और उसके बाद 1373 ई में कुतुबुद्दीन गद्दी पर बैठा। कहते हैं कि शिहाबुद्दीन और कुतुबुद्दीन के शासनकाल में ही मध्य एशिया से एक सूफी आया, जिसका नाम था सैयद अली शाह हमदानी। सही मायने में इसी हमदानी ने कश्मीर को ‘ दारुल इस्लाम ’ या इस्लामी राज्य घोषित करवाया।  जबकि तब, जैसा कि संजय दीक्षित बताते हैं, वहां के 80 प्रतिशत लोग हिंदू या गैर-मुसलमान थे। परंतु चूंकि शासक मुसलमान था, इसलिए हमदानी की दृष्टि में राज्य इस्लामी था। हमदानी ने ही कश्मीर में चारों ओर इस्लाम के प्रसार की सलाह दी । कुतुबुद्दीन पूरी तरह हमदानी के प्रभाव में था। इसी हमदानी ने कश्मीर के शासक को ‘ जिम्मी ’ अर्थात गैर-मुसलमानों, जिनमें अधिकतर हिन्दू थे, के साथ कैसा व्यवहार किया जाए इसके लिए आदेश दिया। इस आदेश को  ‘ अहदनामा ’5 कहा गया और यह भी बताया गया कि यह उमर खलीफा द्वारा विजित नए अरब देशों के साथ जो संधि की गई थी, उसी पर आधारित है। आश्चर्य की बात है कि यह तथाकथित ‘ उमर की संधि ‘ मुहम्मद के मरने के पांच वर्ष बाद अर्थात 637 ई में उन ईसाइयों और संभवतः यहूदियों द्वारा अपनी जान-माल की रक्षा के लिए एक प्रार्थना के रूप में की गई, जिनके देश उमर ने जीत लिए थे। इस संधि में ‘ जिम्मी ’ अर्थात ईसाइयों और यहूदियों ने स्वयं कहा कि अब वे नए गिरजाघर या पूजास्थल नहीं बनवाएंगे, पुराने गिरजाघरों या पूजास्थलों की मरम्मत नहीं करवाएंगे, यदि मुसलमान उनके चर्च में आएंगे, तो वे उनका स्वागत करेंगे, यदि मुसलमान उनके घर आ जाएं तो वे उनका भोजन-पानी के साथ स्वागत करेंगे, वे अपने बच्चों को कुरान नहीं पढ़ाएंगे आदि-आदि। इस संधि में यह भी कहा गया कि यहूदी और ईसाई सरकारी नौकरी नहीं करेंगे। यह समझना कठिन नहीं है कि इन ईसाइयों और यहूदियों ने किस दबाव में ऐसी संधि की होगी। जब तक जान के लाले न पड़ें तब तक कोई ऐसी संधि के लिए तैयार नहीं हो सकता। 

इस प्रकार अब देखिए कि ‘ उमर की संधि ’ पर आधारित ‘ अहदनामा ’ में कश्मीर के हिंदुओं से क्या-क्या अपेक्षित था — “ कि वे नए मंदिर नहीं बनाएंगे, पुराने मंदिरों की मरम्मत नहीं कराएंगे, घोड़े पर नहीं चढ़ेंगे, मुस्लिम नाम नहीं रखेंगे, कोई भी हथियार नहीं रखेंगे, हीरे की अंगूठी नहीं पहनेंगे, सूअर नहीं खाएंगे, मूर्ति वाले हिंदू प्रतीकों का प्रयोग नहीं करेंगे, मुसलमानों की बस्ती के पास घर नहीं बनाएंगे, किसी के मरने पर न शोक मनाएंगे न रोएंगे, मंदिर में यदि मुसलमान आएं तो उनका मेहमान की तरह स्वागत करेंगे, यदि कोई मुसलमान बन रहा हो तो उसे नहीं रोकेंगे, मुसलमानों वाली पोशाक नहीं पहनेंगे आदि आदि। संजय दीक्षित तो इसे 16-सूत्री बताते हैं, परंतु अब्दुल्ला ने इसे 20-सूत्री बताया है। ऐसी अत्याचारी और अमानवीय इस्लामी व्यवस्था के अभ्यस्त मुसलमान कैसे किसी और पर भेदभाव का आरोप लगा सकते हैं ? इस विवरण से यह भी स्पष्ट है कि जन्म से ही इस्लाम किसी और के साथ न रहने के सिद्धांत पर चलता रहा है। इस प्रकार अलगाववाद इस्लाम के रक्त में है। मुसलमानों के घर के पास की तो बात ही छोड़िए मुसलमानों की बस्ती के पास भी कोई घर नहीं बना सकता। यह भी ध्यातव्य है कि गैर-मुसलमानों को कुरान पढ़ने से रोका गया है। आज जो लोग आसानी से कुरान पढ़ कर उसकी आलोचना कर रहे हैं, वह इस्लामी राज्य में संभव ही नहीं था। 

पर हमें यह भी जानना चाहिए कि कश्मीर अकेला प्रदेश नहीं था जहां इस्लामी कानून लागू हुआ था। इसके लिए दिल्ली की गद्दी पर बैठे सुल्तानों ने भी यथासंभव प्रयास किया। डॉ. सतीश चंद्र मित्तल इल्तुतमिश के बारे में लिखते हैं कि,

“ उसने हिंदुओं पर अनेक क्रूर तथा अमानुषिक अत्याचार किए। यहां पर इल्तुतमिश के काल में हुई मुस्लिम आलिमों की एक परामर्श समिति ‘ मुस्तफा अलैहिस्लाम ’ का वर्णन करना गलत न होगा, क्योंकि सुल्तान इससे मार्गदर्शन लेता था। इस समिति ने मुहम्मद साहब के शत्रु का वर्णन करते हुए, हिंदुओं को सबसे कट्टर शत्रु बताया। समिति ने हिंदुओं को कत्ल करने, उन्हें अपमानित तथा तिरस्कृत कर धन-संपत्ति छीन लेने का आदेश देने को कहा। वजीर जुनैदी ने बड़ी चतुराई से, आलिमों की राय सुल्तान को सुना दी, “ हिंदू बहुत बड़ी संख्या में हैं। मुसलमान उनके मध्य दाल में नमक के समान हैं। कहीं ऐसा न हो कि …..वे सुसंगठित होकर चारों ओर से विद्रोह तथा उपद्रव प्रारंभ कर दें। फिर हम बड़े कष्ट में पड़ जाएंगे। जब कुछ वर्ष व्यतीत हो जाएंगे और राजधानी ( सल्तनत ) के भिन्न-भिन्न प्रदेशों के कस्बे मुसलमानों से भर जाएंगे तथा बहुत बड़ी सेना एकत्रित हो जाएगी, उस समय हम यह आज्ञा दे सकेंगे कि या तो हिंदुओं को कत्ल कर दिया जाए या उन्हें इस्लाम स्वीकार करने को विवश किया जाए।

अतः परिस्थितियों से मजबूर होकर वजीर ने अपनी विवशता बतलाई। ……इसके पश्चात आलिमों ने जब वजीर का यह कूटनीतिपूर्ण उत्तर सुना तो उन्होंने सुल्तान से कहा,  “ यदि हिंदुओं के कत्ल की आज्ञा नहीं दी जा सकती तो सुल्तान को चाहिए कि उनका अपने दरबार तथा राजभवन में आदर-सम्मान न होने दें। हिंदुओं को मुसलमानों के मध्य बसने न दें। मुसलमानों की राजधानी, प्रदेशों और कस्बों में मूर्तिपूजा तथा कुफ्र के आदेशों का पालन न होने दें।” सुल्तान और वजीर ने आलिमों की उपरोक्त तीनों बातें मान लीं।” ( पृष्ठ 47-48 )  

इस प्रकार डॉ. सतीश चंद्र मित्तल बताते हैं कि — गुलाम वंश के शासन काल में नागरिकता उन्हें ही प्राप्त थी जो इस्लाम के सिद्धांतों पर अपना जीवन व्यतीत करते थे। कुरान तथा इस्लाम के मुखिया खलीफा का सैद्धांतिक रूप से महत्वपूर्ण स्थान था। हिंदुओं को जजिया देना पड़ता था। उन्हें मुसलमानों के समान अधिकार प्राप्त न थे। वे न कोई ऊंचा पद प्राप्त कर सकते थे, न सम्मानित जीवन व्यतीत कर सकते थे। ( पृष्ठ 49 )

डॉ. सतीश चंद्र मित्तल आगे अलाउद्दीन के विषय में लिखते हैं। उनके अनुसार इल्तुतमिश की भांति सुल्तान अलाउद्दीन ने बियाना के काजी मुगीसुउद्दीन से विचार-विमर्श किया। उन्हीं के शब्दों में, 

“ अलाउद्दीन ने पूछा कि हिंदुओं के बारे में क्या करना चाहिए ? इस पर काजी ने उत्तर दिया, ‘ हिंदू खिराज गुजर ( कर ) देने वाले लोग हैं और जब आपके अधिकारी इनसे चांदी मांगें तो इन्हें बिना किसी सोच-विचार के और बड़े आदर, सम्मान तथा नम्रता के साथ चाहिए कि सोना अदा करें। यदि मुहसिल ( कर वसूल करने वाला ) हिंदू के मुंह में थूकना चाहें तो वह बिना कोई आपत्ति प्रकट किए, मुंह खोल दे, जिससे वह हिंदू के मुंह में थूक सकें। उस दशा में भी वह मुहसिल की आज्ञा का पालन करता रहे। इस प्रकार अपमानित करने, कठोरता प्रकट करने तथा थूकने का ध्येय यह है कि इससे ‘ जिम्मी ’ का अत्यधिक आज्ञाकारी होना सिद्ध होता रहे। इस्लाम का सम्मान बढ़ाना आवश्यक है। दीन को अपमानित करना बहुत बुरा है। खुदा उनको अपमानित रखने के विषय में इसी प्रकार कहता है, विशेषकर हिंदुओं को अपमानित करना दीन के लिए अत्यावश्यक है। कारण कि वे मुस्तफा6 के दुश्मनों में सबसे बड़े दुश्मन हैं। मुस्तफा अलैहिस्सलाम ने हिंदुओं के बारे में यह आदेश दिया है कि या तो वह इस्लाम अपनाएं या फिर उनकी हत्या कर दी जाए और उनकी धन-संपत्ति छीन ली जाए।’ काजी ने पुनः कहा, ‘ इमामे आजम ( इमामे अबू हनीफ ) के अलावा जिनके हम अनुयायी हैं, किसी ने भी हिंदुओं से जजिया वसूल करने की आज्ञा नहीं दी है। दूसरे मजहब ( शाफई, मालिकी, हमवली ) वालों ने इस प्रकार की कोई रवायत नहीं लिखी है। उनके आलिम हिंदुओं के विषय में केवल यह आदेश देते हैं कि या तो उनकी हत्या कर दी जाए या उनसे इस्लाम स्वीकार कराया जाए।’ सुल्तान ने मुगीस की बातों का जवाब मुस्कुराते हुए दिया और कहा कि ‘….. तू समझ ले कि हिंदू उस समय तक मुसलमान का आज्ञाकारी नहीं होता, जब तक कि वह पूर्णत: निर्धन तथा दरिद्र नहीं हो जाता। मैंने यह आदेश दे दिया है कि प्रजा के पास केवल इतना ही धन रहने दिया जाए, जिससे वह प्रत्येक वर्ष कृषि तथा दूध और मट्ठे के लिए पर्याप्त हो सके और वे धन-संपत्ति एकत्रित न कर सकें।’” ( पृष्ठ 55- 56 )

उन्हीं दिनों मौलाना शम्सुद्दीन तुर्क नामक एक हदीसवेत्ता 400 हदीस की पुस्तकें लेकर भारत पहुंचा। उसने सुल्तान अलाउद्दीन की इस बात की प्रशंसा की कि, “ अलाउद्दीन ने हिंदुओं को लज्जित, पतित, अपमानित तथा दरिद्र बना दिया है।” साथ ही यह सुनकर भी वह प्रसन्न था कि हिंदुओं की स्त्रियां तथा बच्चे, मुसलमानों के द्वार पर भीख मांगते हैं। अतः हिंदुओं की दशा इतनी हीन हो गई कि खूतों तथा मुकद्दमों की पत्नियों को मुसलमानों के घरों में जाकर काम करना पड़ता था। ( पृष्ठ 56 )

इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि भारत में हिंदू सहित सारे गैर-मुसलमान ‘ जिम्मी ’ भी नहीं माने गए और इसका परिणाम यह हुआ कि इस्लाम के जानकारों में यह गंभीर विचार-विमर्श का विषय बना कि इनके साथ क्या किया जाए। कोई आश्चर्य नहीं कि इनके लिए दो ही विकल्प थे या तो ये इस्लाम को स्वीकार करें या मार दिए जाएं। बस बात इतनी थी कि अन्य देशों के विपरीत यह देश बहुत विशाल था और इसकी सभ्यता एवं संस्कृति मुसलमानों से श्रेष्ठ थी, इसलिए इस्लाम अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में आंशिक रूप से ही सफल हुआ। अतः मुसलमानों की यह विवशता थी कि वे भारत के गैर-मुसलमानों को ‘ जिम्मी ’ मानें। पर इससे हमें यह बिल्कुल नहीं समझना चाहिए कि इस देश में इस्लाम तनिक भी उदार हुआ। इस्लाम जैसा चौदह सौ साल पहले था वैसा ही आज भी है। मुसलमानों में जो भी अंतर दिखता है वह इस कारण कि अब उनमें वह शक्ति नहीं है। जहां कहीं भी उनमें शक्ति होती है तो वे इस्लाम को अक्षरश: लागू करवाते हैं, जैसे आइएस अर्थात इस्लामी स्टेट, अन्यथा वे आदर्श स्थिति की प्रतीक्षा करते हैं। इस प्रकार इस्लाम जितना विभेदकारी और अत्याचारी दूसरा कोई मजहब नहीं है। हां, इतना अवश्य है कि आरंभ में ईसाइयत भी अत्यंत  विभेदकारी और अत्याचारी थी।7 परंतु इसके अंदर विरोध का स्वर उठने और आधुनिकता अपना लेने के कारण कालांतर में दूसरे धर्मावलंबियों के प्रति उसके व्यवहार में परिवर्तन हुआ। इस प्रकार जहां तक हिंदुओं द्वारा मुसलमानों के प्रति भेदभाव की बात है, तो यह न केवल पूरी तरह मनगढ़ंत है, बल्कि चोर की दाढ़ी में तिनका वाली बात है। चूंकि मुसलमानों का अतीत अत्यंत विभेदकारी रहा है, इसलिए उन्हें इस बात की आशंका सताती रहती है कि क्या पता कहीं दूसरे भी वैसा ही व्यवहार न करने लगें। कितनी अजीब बात है कि ये भारत में तो अवसर की समानता की बात करते हैं, परंतु मुसलमान तो दूसरों को उनके जीने के अधिकार तक से वंचित कर देते हैं। सारे अरब देशों में कभी ईसाइयों का बाहुल्य था, पर धीरे-धीरे उनका सफाया हो गया। वैसे यह दूसरी बात है कि ईसाइयों से पहले वहां हमारी तरह के बहुदेववादी, मूर्तिपूजक और प्रकृतिपूजक लोग रहा करते थे, जिन्हें बलात ईसाई बनाया गया। बाद में इन्हीं ईसाइयों का सफाया करके ये देश मुस्लिम-बहुत बना दिए गए। इसी प्रकार जहां भारत के मुसलमानों की संख्या में आनुपातिक रूप से सर्वाधिक वृद्धि हुई है, वहीं पाकिस्तान में हिंदुओं का सफाया कर दिया गया और बांग्लादेश में आनुपातिक रूप से हिंदू जितने थे उसकी मात्र एक-चौथाई रह गए। इस प्रकार कहां तो अवसर की समानता की बात है और कहां तो जान से ही हाथ धोना पड़ता है ! 

अब देखिए कि अंग्रेजों के शासनकाल में मुसलमानों की क्या स्थिति थी ? भारत में अंग्रेजों के जमाने में बहुसंख्यकों की तुलना में मुसलमानों को कहीं अधिक सुविधाएं प्राप्त थीं। उन्हें चुनाव से लेकर नौकरी तक में आरक्षण प्राप्त था। अंग्रेजों से पूर्व तो शुद्ध रूप से मुसलमानों का ही राज था और तब तो हिंदुओं को शासन-प्रशासन में नौकरी मिल ही नहीं सकती थी। अकबर के बाद इस स्थिति में थोड़ा-बहुत बदलाव हुआ पर वह सदा अत्यल्प ही रहा। इस प्रकार बादशाहों, सुल्तानों और नवाबों के यहां तो सर्वाधिक नौकरियां मुसलमानों को ही मिलती थीं। इसलिए मुसलमानों की तो चांदी थी। इस तरह स्पष्ट है कि हसनैन साहब के पिता के मन में जो आशंका थी उसका न केवल कोई आधार नहीं था, बल्कि संभव है कि उसका एक कारण मुस्लिम लीग और अंग्रेजों द्वारा फैलाई गई अफवाह हो। अंग्रेजों ने यह अफवाह फैलाई थी कि स्वतंत्र होते ही बहुसंख्यक हिंदू अल्पसंख्यक मुसलमानों के साथ भेदभाव करेंगे और इसी आधार पर अंग्रेजों की कृपा से मुस्लिम लीग की स्थापना हुई। फिर भी यह सत्य है कि आज भी अनेक मुसलमान हसनैन साहब के पिता की तरह ही सोचते हैं। 

भेदभाव वाला यह आरोप एक गंभीर विषय है, इसलिए इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करना बहुत आवश्यक है। इस संदर्भ में सबसे पहले हमें अल्पसंख्यकवाद वाले सिद्धांत पर ध्यान देना होगा, जो इस तथाकथित भेदभाव का आधार है। वास्तव में बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के बीच फर्क करने का सिद्धांत शुद्ध रूप से पश्चिम की देन है। पश्चिम में चर्च की कृपा से सारे गैर-ईसाइयों को प्रताड़ित करके ईसाई बनने पर विवश किया गया। परिणाम यह हुआ कि जो थोड़े-से गैर-ईसाई बचे रह गए वे भेदभाव का शिकार हुए। इंग्लैंड में यहूदी को चुनाव में मताधिकार प्राप्त नहीं था। वहां तो ईसाइयों में जो गैर-प्रोटेस्टेंट ईसाई थे उन्हें भी कई अधिकार प्राप्त नहीं थे। इसलिए आधुनिक युग में जब लोकतंत्र बलवती हुआ, तो इन अल्पसंख्यकों के अधिकारों की मांग उठी। इसी कारण से इनके लिए पश्चिमी देशों के संविधानों में विशेष प्रावधान किए गए। जबकि भारत में इस प्रकार की बात नहीं थी। यहां अपनी-अपनी उपासना पद्धति के लिए सभी स्वतंत्र थे और इस प्रकार सबके अधिकार समान थे। हिंदू, बौद्ध, जैन आदि धर्म साथ-साथ रहते आए थे। यहां कभी भी किसी को इसलिए प्रताड़ित नहीं किया गया कि वह किसी विशेष उपासना पद्धति का पालन करता है। यहां तक कि जब मुसलमानों का राज था तब भी इस देश में बहुसंख्यक-अल्पसंख्यकवाद अपनी जड़ें नहीं जमा सका। हमारे साहित्य में इस प्रकार की शब्दावली का प्रयोग कहीं नहीं मिलता है। सबसे बड़ी बात तो यह कि एक मजहब के रूप में मुसलमान या मुस्लिम शब्द तक बहुत प्रचलित नहीं था। आमतौर पर मुसलमानों के लिए सर्वाधिक प्रचलित शब्द था — तुर्क या तुरुक। वैसे मुसलमानों में ईरानी, तुरानी, अफगानी, शिया, सुन्नी आदि अन्य प्रचलित विभाजन थे। संत कबीरदास, श्रीमंत शंकरदेव और यहां तक कि बुल्लेशाह मुसलमान के स्थान पर तुर्क शब्द का ही प्रयोग करते हैं। ‘ मुस्लिम ’ शब्द तो अंग्रेजों द्वारा चलन में आया है। इसलिए जब पश्चिमी बहुसंख्यक-अल्पसंख्यकवाद ने हमारे यहां जड़ें जमानी शुरू कीं, तो अचानक सैयद अहमद खां को संख्या की दृष्टि से हिंदू अधिक और मुसलमान कम दिखने लगे। इस प्रकार यदि गहराई से इस विषय पर विचार करें तो यह पश्चिमी बहुसंख्यक-अल्पसंख्यकवाद भारतीय दर्शन के साथ मेल नहीं खाता और इसलिए जब तक यह समाप्त नहीं कर दिया जाता, तब तक राष्ट्रीय एकता प्राप्त नहीं की जा सकती। क्योंकि यह विचार ही विभेदकारी है और हर समय दोनों प्रकार के समाजों को अलग-अलग पहचान देकर बांटता है। दुर्भाग्य से इस तथाकथित सिद्धांत को हमारे संविधान में शामिल कर लिया गया है। अतः आवश्यक है कि हम गंभीरतापूर्वक इस पर विचार-विमर्श करके इस सिद्धांत को समाप्त करें। 

न केवल पश्चिम ने बहुसंख्यक-अल्पसंख्यकवाद का सिद्धांत दिया, वरन पश्चिम में इस विषय पर पिछली आधी शताब्दी में अनेक अर्थशास्त्रियों ने शोधपत्र भी लिखे, जिनमें अनेक प्रश्नों पर विचार किया गया। क्या नौकरी के लिए चयन करते समय प्रत्याशियों के मध्य भेदभाव किया जाता है ? क्या व्यापार करते समय कोई भेदभाव होता है ? वैसे तो कुछ अमरीकी शोधकर्ताओं की राय है कि थोड़ा-बहुत भेदभाव होता है, लेकिन इस भेदभाव के जो कारण बताए जाते हैं, वे हमारे देश के लिए बिल्कुल प्रासंगिक नहीं हैं। सामान्यतया पश्चिमी देशों में भेदभाव के शिकार वे लोग होते हैं, जो वहां बाहर से जाकर बसे हैं। वहीं अन्य शोधकर्ताओं का मानना है कि भेदभाव सिद्ध करना अत्यंत चुनौतीपूर्ण कार्य है। 

लेकिन हसनैन साहब के पिता की दूसरी बात बिल्कुल सही थी और वह यह कि व्यापक समाज से जुड़कर और खुली प्रतिस्पर्धा में हिस्सा लेकर ही प्रगति की जा सकती है। इस तरह चाहे वह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय हो या जामिया या उस्मानिया इनमें से कोई भी विश्वविद्यालय बहुत आगे नहीं बढ़ सकता।8 पहली बात तो यह है कि इनमें प्रतियोगिता सीमित लोगों में ही होती है और उनमें रहकर लोग कुएं के मेंढक के समान हो जाते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि विश्व के सबसे अच्छे विश्वविद्यालयों में एक भी इस तरह का मजहबी या अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय नहीं है। हमारे देश में भी दिल्ली-स्थित सेंट स्टीफेंस या चेन्नई-स्थित लोयला कॉलेज आदि इसीलिए अच्छा कर पाते हैं  कि इनमें ईसाइयों के अतिरिक्त अच्छे-खासे अनुपात में सर्वाधिक प्रतिभाशाली गैर-ईसाइयों को भी प्रवेश मिलता है। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि खुली प्रतिस्पर्धा में भाग लेकर हसनैन साहब का परिवार इतना आगे बढ़ पाया।

बातचीत के आरंभ में ही हसनैन साहब ने स्पष्ट कर दिया कि वह प्रैक्टिसिंग मुस्लिम नहीं हैं और न ही वह इस्लाम के जानकार हैं। इसीलिए वह मुसलमानों के बारे में लिखते हैं, इस्लाम के बारे में नहीं। लखनऊ पर उन्होंने पुस्तकें लिखी हैं। लखनऊ में जो हिंदू-मुस्लिम मेलजोल है उसका श्रेय उन्होंने शियाओं की उपस्थिति और उदार नवाबों द्वारा स्थापित सुदृढ़ परंपरा को दिया। उन्होंने शिया और सुन्नी के बीच हुए दंगों के लिए राजनीति को जिम्मेदार ठहराया। उनके अनुसार भाजपा ऐसा प्रचार अवश्य करती है कि शिया उसके साथ हैं और एक शिया मंत्री भी प्रदेश की सरकार में है। लेकिन दो-चार सौ लोगों को छोड़ दिया जाए तो शेष शिया सुन्नियों की तरह ही भाजपा विरोधी हैं। वैसे तो उनका मानना है कि दक्षिण एशिया में इस्लाम का जो रूप है वह बिल्कुल अलग है और उसका कारण हिंदुओं से संपर्क है। लखनऊ में शियाओं के त्यौहार हिंदुओं की परंपरा से मिलते-जुलते हैं, इसलिए विवाद की संभावना कम रहती है। मेरे पूछने पर कि सारा देश लखनऊ जैसा क्यों नहीं हो सकता ? इस पर उनका कहना था कि लखनऊ एक कस्बे से शुरू हुआ। इसे बसाया गया। शहर के छोटा होने के कारण सभी एक-दूसरे को जानते थे, जैसे गांवों में होता है। गांवों में एक-दूसरे से परिचित होने के कारण प्रायः दंगे नहीं होते। शहरों में एक-दूसरे को न पहचानने के कारण दंगे होते हैं। फिर भी लखनऊ बदल रहा है। अब मूल लखनवी मुश्किल से तीस प्रतिशत हैं। धीरे-धीरे इनका अनुपात घटता जाएगा। कालांतर में लखनऊ भी अन्य शहरों की तरह हो जाएगा।

मैंने तर्क दिया कि जो बात लखनऊ के बारे में सच है वही बाकी शहरों के बारे में भी है। यदि मुंबई, चेन्नई और कोलकाता को छोड़ दिया जाए जिन्हें अंग्रेजों ने बसाया, तो बाकी शहर तो कमोबेश ऐसे ही थे — आरंभ में छोटे और बाद में बड़े और जहां सदियों से हिंदू-मुसलमान रह रहे थे। दूसरा, मुस्लिम समुदाय भारत में अनुपातिक दृष्टि से सर्वाधिक शहरी समुदाय है।9 फिर क्यों दूसरे शहरों में दंगे-फसाद होते रहते हैं ? मेरी इन बातों का उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। इस प्रकार बजाय यह मानने के कि इस्लाम मुसलमानों को अन्य समुदायों से अलग ही रहना सिखाता है और उनके अलग रहने के कारण ही दंगे-फसाद होते हैं, उन्होंने समाजशास्त्रीय ज्ञान बघार कर मुझे भ्रमित करने का प्रयास किया। इसीलिए मेरे तर्क करने के बाद वह निरुत्तर हो गए। यहां उल्लेखनीय है कि सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी का शेख अहमद सरहिन्दी हिंदू-मुस्लिम एकता का घोर विरोधी था।10 उसने जीवनपर्यन्त सभी संभव उपक्रम किए, ताकि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच न केवल दूरी बनी रहे, वरन और बढ़े। और बड़ी बात यह कि सरहिन्दी अलगाववादी विचारधारा का अकेला पोषक नहीं था। मुसलमानों के भारत में प्रवेश से लेकर आज तक हमारे सामने ऐसे अनेक उदाहरण हैं।   

सोफे पर बैठते ही मैंने बताया कि मैं इस्लाम पर आपके विचार जानना चाहता हूं। मैंने यह भी बताया कि मेरी रुचि यह जानने में है कि क्यों मुसलमान इतने पिछड़े हैं और क्या इस पिछड़ेपन का इस्लाम से कोई संबंध है ? जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है, हसनैन साहब के मुखारविंद से पहला वाक्य निकला — “ मैं प्रैक्टिसिंग मुस्लिम नहीं हूं।” मैं पहले भी कुछ मुसलमानों से यह बात सुन चुका था। यह भी सुना था कि “ मैं प्रैक्टिसिंग ईसाई नहीं हूं।” इसलिए मैं सोचने लगा कि आखिर मुसलमान और ईसाई ऐसा क्यों कहते हैं ? क्या इनका मजहब प्रैक्टिस करने की चीज है।  प्रैक्टिस का सामान्य अर्थ होता है अभ्यास करना। तो क्या मजहब अभ्यास करने की चीज है। पर हम वकीलों, डॉक्टरों जैसे पेशों के बारे में सुनते हैं कि अमुक वकील प्रैक्टिस कर रहा है, तो अमुक डॉक्टर प्रैक्टिस कर रहा है। तो क्या ये मजहब पेशे की तरह हैं ? मैंने कभी किसी हिंदू, जैन, बौद्ध और यहां तक कि किसी नानकपंथी से नहीं सुना कि वह प्रैक्टिस करता है। ऐसा विचार हमारे शास्त्रों में नहीं है। इसलिए इसको समझना और आत्मसात करना कठिन है। वैसे यह बात सही है कि जैसे डॉक्टर रोगियों को दवा लेने के लिए पर्चा लिख कर देता है, ठीक वैसे ही इस्लाम और ईसाइयत अपने अनुयायियों को ऐसी बातें बताते हैं, जिनका अनिवार्यत: पालन करना होता है। इस प्रकार दिन में पांच बार नमाज पढ़ना इस्लाम का अभ्यास करना है। इसी तरह रविवार की सुबह चर्च में प्रार्थना करना भी ईसाइयत का अभ्यास करना है। इस दृष्टि से हसनैन साहब के कहने का मतलब था कि वह नमाज नहीं पढ़ते और रोजा नहीं रखते। फिर वह मुसलमान कैसे हुए ? इस प्रकार हसनैन साहब नाम मात्र के मुसलमान हैं। लेकिन उनके दुर्भाग्य से इस्लाम हसनैन साहब जैसे लोगों को मुसलमान नहीं मानता। इस्लाम की दृष्टि में ऐसे लोग काफिर हैं। 

अब हमारी बातचीत इस्लाम की ओर बढ़ने लगी। मैंने पूछा कि क्या यह अच्छा नहीं होगा कि मुसलमान अरबी भाषा को त्यागकर भारतीय भाषाओं में अनूदित कुरान ही पढ़ें ? इससे यह होगा कि कम-से-कम वे कुरान को तो ठीक से समझेंगे। फिर यह आरोप या बहाना भी समाप्त हो जाएगा कि मुल्ला-मौलवी उन्हें उल्टा-सीधा सिखा देते हैं। हसनैन साहब का उत्तर था कि असल में आरंभ से ही इस्लाम में यह विचार रहा कि मुसलमानों की एक सर्वव्यापी भाषा हो और चूंकि अरबी उनके मजहब से जुड़ी थी, इसलिए अरबी को अपनाया गया। मैंने प्रतिप्रश्न किया कि क्या ऐसा नहीं है कि अरबी भाषा के कारण ही मुसलमान अपने मजहब को ठीक से समझ नहीं पाते ? मैंने अपने प्रश्न को स्पष्ट करते हुए बताया कि आरंभ में हिंदुओं के धर्मग्रंथ संस्कृत में ही थे। परंतु समय के साथ-साथ देश के सभी हिस्सों में अपनी-अपनी भाषा में धर्मग्रंथ लिखे गए और धर्म आगे बढ़ता गया। इस कारण से सामान्यतः किसी को इस बात की शिकायत नहीं होती कि पंडित क्या कहते हैं। हसनैन साहब ने इस पर कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दिया। वह बस यही बताने लगे कि दक्षिण एशिया का मुसलमान अरब से भिन्न है और उसकी अपनी विशिष्ट संस्कृति है। दक्षिण एशिया में हिंदुओं से मिलकर इस्लाम का अलग स्वरूप बना। जबकि सलाफी, वहाबी कहते हैं कि इस्लाम में अशुद्धि या मिलावट आ गई है। 

अरबी भाषा के प्रयोग के संदर्भ में हसनैन साहब ने मुस्लिम ‘ उम्मा ’ का उल्लेख किया। उनका कहना था कि सारी दुनिया के मुसलमान वास्तव में एक परिवार की तरह हैं, जिन्हें ‘ उम्मा ’ कहा जाता है। इसलिए इस्लाम में यह परिकल्पना की गई कि दुनियाभर के मुसलमान एक परिवार की तरह एक ही भाषा अर्थात अरबी में बातचीत करेंगे। मैंने हसनैन साहब से प्रश्न किया कि वैसे तो इस्लाम में उम्मा की परिकल्पना है, किंतु कहना कठिन है कि इसमें कितना सत्यांश है ? मैंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि मुझे तो यह परिकल्पना ही उचित नहीं लगती, क्योंकि कैसे सारे संसार के मुसलमान एक परिवार की तरह व्यवहार करेंगे, जबकि उनमें घोर असमानताएं हैं। इसके अतिरिक्त जब यह परिकल्पना की गई तब से लेकर आज तक कभी भी मुसलमानों ने एक परिवार की तरह व्यवहार नहीं किया है। जिस पैमाने पर मुसलमानों में आपस में ही मारकाट होती रही है उससे तो यही लगता है कि उम्मा वाली परिकल्पना कपोल-कल्पना के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। अतः मैंने हसनैन साहब से आग्रह किया कि वह इस पर प्रकाश डालें। परंतु थोड़ी देर तक सोचने के बावजूद वह कुछ विशेष नहीं बोल पाए। 

योशिको ओदा ने ‘ उम्मा ’ पर ही शोध किया है। ओदा बताते हैं कि उम्मा का अर्थ है मजहबी समुदाय। कुरान में 64 बार उम्मा शब्द का उल्लेख हुआ है और संदर्भ के अनुसार इसका अर्थ भी बदला हुआ है। इसलिए पक्के तौर पर कहना कठिन है कि इसका अर्थ क्या है।  फिर भी ओदा के अनुसार उम्मा के सर्वाधिक प्रयुक्त दो अर्थ हैं — एक मजहबी समुदाय और एक प्रकार के लोग, जनजाति या राष्ट्र। एक मजहबी समुदाय के रूप में कहा गया है कि यह एक आदर्श स्थिति है और आश्चर्यजनक रूप से इसमें यहूदी और ईसाई भी शामिल किए हैं। जबकि ओदा सुझाते हैं कि यहूदियों और ईसाइयों के साथ मुसलमानों का सदा बैर ही रहा है। इस प्रकार इसका अर्थ बनता है बिना किसी गुटबाजी के मुसलमानों का समुदाय। कुरान में प्रयुक्त उम्मा का निहितार्थ यह है कि अरब समाज एक उम्मा है, क्योंकि तब मुसलमान केवल अरब क्षेत्र में ही थे । कुरान ( 13 : 30 ) के अनुसार, अल्ला ने मुहम्मद को उम्मत ( उम्मा का बहुवचन ) में भेजा है। इस तरह उम्मा अरब समाज तक ही सीमित था और इसी अर्थ में  ‘ कौम ’ शब्द का भी प्रयोग किया गया है। तात्पर्य यह कि उम्मा और कौम एक-दूसरे के पर्याय हैं। 

‘ उम्मा ’ की चर्चा के बाद हसनैन साहब इस्लाम के उद्भव की बात करने लगे। मैंने प्रश्न किया कि आपके हिसाब से इस्लाम के उदय के क्या कारण थे ?  और यह भी कि जिन देशों और समाजों की परिस्थिति अरब से भिन्न है उनके लिए इस्लाम को अपनाना कितना आसान रहा है  ?  हसनैन साहब ने उत्तर देना शुरू किया, “ देखिए ! इस्लाम से पहले अरब में बच्चियों को जिंदा ही जमीन में गाड़ दिया जाता था। मुहम्मद साहब ने इस पर रोक लगा दी और यह प्रथा बंद हो गई। मैंने प्रतिप्रश्न किया कि लेकिन एक अच्छे काम के बाद आज तक मुस्लिम महिलाओं को घरों में और बुर्कों में बंद कर दिया और आज भी उन्हें आधुनिक नहीं बनने दिया जा रहा है तो महिलाओं को इस्लाम से क्या मिला ? कुरान के अनुसार एक महिला के पास पुरुष की तुलना में आधा ही दिमाग होता है और इसी कारण से संपत्ति बांटने के समय महिला को आधी संपत्ति ही मिलती है। फिर महिलाओं को क्या लाभ मिला ? मेरे इस प्रश्न को सुनते ही हसनैन साहब की भृकुटि तन गई और वह चुप हो गए। थोड़ी देर बाद बोले, “ आपका प्रश्न असुविधाजनक ( इनकनविनिएंट ) है।” इस प्रकार इस प्रश्न को दरकिनार करते हुए वह मेरे पहले प्रश्न की और लौटते हुए बोले, “ इस्लाम से पहले अरब में  ‘ दौरे जहिलिया ’ था। इस्लाम के बाद ही उनमें ज्ञान-विज्ञान आदि का प्रसार हुआ।” मैंने उनको रोकते हुआ पूछा, “ हसनैन साहब ! मैं आपसे एक मुसलमान के रूप में नहीं, बल्कि मानवशास्त्र के विद्वान के रूप में यह जानना चाहता हूं कि क्या आप यह बात मानते हैं कि इस्लाम से पहले अरब में ‘ दौरे जहिलिया ’ था यानी वहां के लोग जाहिल और मूर्ख थे ? और यदि इस सिद्धांत को मान लें तो क्या इसका यह अर्थ नहीं होगा कि मुहम्मद साहब के पुरखे जाहिल थे ? जबकि मैंने पढ़ा है कि अरबी भाषा में जो श्रेष्ठ काव्य लिखा गया है, वह इस्लाम-पूर्व का ही है। इसके बाद एक बार फिर हसनैन साहब चुप हो गए और फिर से उन्होंने वही बात दुहराई कि, “ आपका प्रश्न बहुत इनकनविनिएंट है।” थोड़ी देर रुककर उन्होंने मुझसे ही प्रश्न किया कि, “ क्या आप कुरान पढ़ते हैं ? बिना रुके अगला  प्रश्न किया कि, “ आप कुरान कैसे पढ़ लेते हैं ?” आगे बोलते रहे, “ मैं तो कुरान पढ़ ही नहीं पाता। कुरान इतना बोरिंग ( उबाऊ ) है कि मैं नहीं पढ़ पाता। यदि कभी मेरी राइटिंग ( लेखन ) में कुरान की किसी आयत को कोट ( उद्धरित ) करना होता है, तो मैं सीधे उस आयत पर ही पहुंचता हूं और उस आयत को कोट करने के बाद कुरान बंद कर देता हूं।

मैं हसनैन साहब की इस स्पष्टवादिता से बहुत प्रभावित हुआ। मैंने सोचा कि कम-से-कम यहां एक मुसलमान विद्वान है जो बिना किसी अपराधबोध के यह कहने का साहस रखता है कि कुरान एक उबाऊ पुस्तक है। यह वही कुरान है जिस पर मुसलमान जान छिड़कते नहीं थकते हैं। वैसे बात बिल्कुल सही है। एक तो कुरान की पृष्ठभूमि अरब की है। इसकी संस्कृति विदेशी है। अल्ला और पैगंबर का विचार भी विदेशी है। कुरान में सर्वत्र हिंसा है और कहीं भी अहिंसा जैसे मानवीय गुणों का बखान नहीं है। कुरान के अल्ला से हर समय डरना पड़ता है। कुरान में बार-बार नर्क का भय दिखाया जाता है और जन्नत का सपना दिखाया जाता है। हमारी संस्कृति में ईश्वर से प्रेम किया जाता है। हम स्वयं ईश्वर की तरह या ईश्वर बनाना चाहते हैं। ‘ अहं ब्रह्मास्मि ’ मानने की परंपरा है। ऐसे में जो व्यक्ति भारतीय परिवेश में पला-बढ़ा है उसे यदि कुरान अजीब लगे तो इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। पर यह स्वीकारोक्ति हसनैन साहब को सचमुच बड़ा बनाती है। मैंने उनके प्रश्न का उत्तर दिया। मैंने कहा, “ देखिए ! मैं इस्लाम को समझना चाहता हूं, इसलिए कुरान पढ़ना मेरा कर्तव्य बन जाता है। मुझे तो कुरान पढ़ने में आपसे भी अधिक कष्ट होता है।  फिर भी क्योंकि मुझे इसे पढ़ना है, इसलिए पढ़ता हूं।”

इस संदर्भ में हमारे लिए ‘ दौरे जहिलिया ’ के सिद्धांत को समझना आवश्यक है। ड्यूहर्स्ट लिखते हैं कि ‘ दौरे जहिलिया ’ की निम्नलिखित मुख्य विशेषताएं हैं :

इस्लाम-पूर्व अरब में कई ऐसी प्रथाएं प्रचलित थीं जिन्हें इस्लाम में अनैतिक माना गया, जैसे मूर्ति पूजा, जिसे एक शिर्क माना गया अर्थात सबसे बड़ा हराम।

पुरुषों द्वारा अनगिनत विवाह, जिन्हें इस्लाम ने चार तक सीमित कर दिया।

कन्या शिशुहत्या, जिसे इस्लाम के समानता और उम्मा के सिद्धांत के विरुद्ध माना गया। 

मद्यपान, जिसे इस्लाम में हराम माना गया। 

सूदखोरी को इस्लाम के विरुद्ध माना गया और कहा गया कि कोई सूद नहीं लेगा, जिससे धनवान अधिक धनवान तथा निर्धन अधिक निर्धन बनते हैं।  सूदखोरी को जकात तथा उम्मा के सिद्धांत के विरुद्ध भी माना गया। 

विवाहेतर संबंध को इस्लाम के विरुद्ध माना गया। 

अब देखिए कि इस तथाकथित इस्लाम-पूर्व ‘ दौरे जहिलिया ’ में वास्तव में क्या होता था :

वर्ष के बारह महीनों में से चार महीनों को शांतिकाल माना जाता था जब कोई युद्ध नहीं हो सकता था।

इस युग में लोग दानी होते थे। अरब न केवल हृदय से आगंतुकों का स्वागत-सत्कार करते थे, बल्कि दानशीलता को अपने पौरुष का अभिन्न अंग मानते थे।

वे मानते थे कि अपने देश को छोड़ना मनुष्य के लिए सबसे बुरी बात है। 

इन विशेषताओं से स्पष्ट है कि इस्लाम के कारण अरब समाज की कितनी अवनति हुई है ! पहले अरब लोग हमारी तरह मूर्तिपूजक और बहुदेववादी थे और इसलिए वे उदार थे, उनमें कट्टरता नहीं थी। एक अल्ला के मानने के कारण इस्लाम में कट्टरता आई, क्योंकि इस्लाम की दृष्टि में अन्य देवता और धर्म निकृष्ट माने गए, जिससे वैमनस्य पैदा हुआ और आज तक है। पहले पुरुष द्वारा अनगिनत विवाह करने की प्रथा सर्वत्र थी, जो कालांतर में समाप्त हो गई। परंतु इस्लाम ने चार विवाहों को कानूनी दर्जा देकर तो मुसलमानों का सत्यनाश ही कर दिया। इसी कारण मुसलमानों में तीन तलाक, हलाला जैसी घृणित प्रथाएं हैं। अतः चार विवाह वाली प्रथा भी अवनति का कारण बनी। शिशु कन्या की हत्या भी अनेक समुदायों में प्रचलित थी, जिसमें समय के साथ कमी आई। और अरब में भी इसमें कमी आती। पर दूसरी ओर अधिकतर अधिकार छीन लेने से मुस्लिम महिलाओं के साथ जिस प्रकार का अन्याय हुआ और आज भी हो रहा है वैसा दूसरे संप्रदायों में नहीं हुआ है। मद्यपान को हराम तो माना गया, पर जहां भी अवसर मिलता है मुसलमान मदिरापान के लिए सबसे आगे हो जाते हैं। हमारे देश में शायद ही कोई मुसलमान शासक रहा हो, जिसने मदिरापान नहीं किया हो। इसलिए इसका कभी भी ठीक से पालन नहीं हुआ। इसके बाद जहां तक सूद की बात है तो यह कठोर सच है कि सारे संसार की अर्थव्यवस्था का आधार ही सूद या ब्याज है। बिना ब्याज के बैंकिंग व्यवस्था की कल्पना ही नहीं की जा सकती। इसी प्रकार संसारभर में जितने भी बड़े-बड़े काम होते हैं, वे सब-के-सब ऋण लेकर ही किए जाते हैं। अतः यदि यह व्यवस्था न हो तो एक दिन में ही सारी अर्थव्यवस्था भरभराकर गिर जाएगी।  कोई आश्चर्य नहीं कि मुस्लिम-बहुल देश आज भी इतने पिछड़े हैं। फिर प्रश्न यह भी उठता है कि यदि ब्याज समाप्त कर दिया तो इसका विकल्प क्या है ? इस प्रकार बिना किसी विकल्प के इस्लाम ने एक व्यवस्था को समाप्त कर दिया। आज जो इस्लामी बैंक बनाए गए हैं, वे कहीं भी सफल नहीं हैं। सूद को हराम मनाने के कारण ही मुसलमान स्टॉक मार्केट में पैसा लगाने से बचते हैं। इस तरह इस्लाम ने सबसे बड़ा नुकसान तो अपनी अर्थव्यवस्था का किया है और इसका दुष्परिणाम भोग रहे हैं। 

अंतिम बात यह कि विवाहेतर संबंध को भी हराम माना गया। वैसे तो अनेक संप्रदायों में विवाहेतर संबंध वर्जित रहे हैं, पर क्या किसी मजहब को इतना दुराग्रही होना चाहिए कि यदि किसी ने ऐसा किया तो उसकी हत्या कर देनी चाहिए ? इस प्रकार इस्लाम ने अपनी कट्टरता के कारण विवाहेतर संबंध को हराम मान कर कोई बड़ा काम नहीं किया है। फिर भी जो सबसे बड़ी बात इसमें नहीं लिखी है वह है हिंसा की प्रधानता। इस्लाम और हिंसा साथ-साथ रहे हैं। वास्तव में इस्लाम में हिंसा की इतनी प्रधानता रही है कि ये दोनों एक-दूसरे का पर्याय ही बन गए और आज भी इस स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया है।

अतः यदि हिंसा की दृष्टि से देखें तो हमें लगेगा कि इस्लाम-पूर्व अरब लोग सभ्यता के ऊंचे पायदान पर थे। उन्होंने चार महीनों तक युद्ध न करने का नियम बनाया था। उस युग की दृष्टि से यह कितनी बड़ी बात थी ! साथ ही अरब लोग उदार थे और आगंतुकों का दिल खोल कर स्वागत-सत्कार करते थे। वास्तव में मक्का के मंदिर में 360 देवी-देवता थे और अनेक प्रकार के लोग वहां जाकर पूजा-अर्चना करते थे। पर इस्लाम के आते ही न केवल सभी मूर्तियों को तोड़ दिया गया, बल्कि गैर-मुसलमानों का प्रवेश ही वर्जित कर दिया गया। आज तो स्थिति यह है कि कोई भी गैर-मुसलमान काबा ( पुराना मंदिर ) की तो बात ही छोड़िए मक्का शहर में भी प्रवेश नहीं कर सकता। इससे समझा जा सकता है कि इस्लाम किस सीमा तक अनुदार या कट्टर है। इस्लाम-पूर्व अरब लोग अपनी दानशीलता के लिए भी प्रसिद्ध थे। मुसलमान तो गैर-मुसलमानों को भटकी हुई आत्मा मानते हैं, इसलिए ऐसे लोगों को जकात देने की बात ही नहीं है। मुसलमानों का दान मुसलमानों तक ही सीमित है। अंतिम बात यह कि इस्लाम-पूर्व अरब के लोग अपनी जन्मभूमि को बहुत प्यार करते थे। इसीलिए अपने देश को छोड़ने को बहुत बुरा मानते थे। दूसरी ओर, मुसलमान अपने देशों को छोड़कर ही दूसरे देशों में राज करने के लिए चल पड़ते थे। इस कारण से भी वे युद्धरत रहे और हिंसक हुए। 

उपरोक्त विवेचना से स्पष्ट है कि ‘ दौरे जहिलिया ’ तब नहीं था जब इस्लाम नहीं आया था, वह तो वास्तव में तब आया जब इस्लाम आ गया और आज तक कायम है। अतः हसनैन साहब के चुप रह जाने से मुझे बहुत निराशा हुई। मैं चाहता था कि एक विद्वान होने के नाते वह सच बोलेंगे। खैर, हम आगे बढ़े। अब हम नमाज की बात करने लगे। हसनैन साहब ने नमाज को लेकर बड़ा ही रोचक अनुभव सुनाया। उन्होंने बताया कि एक दिन वह विश्वविद्यालय से घर लौटे तो देखा कि उनकी मां नमाज समाप्त करके अपनी नमाज वाली चटाई लपेट रही हैं। तब उनकी मां की अवस्था साठ से ऊपर की थी।  हसनैन साहब ने अपनी मां से पूछा कि, “ यह जो आप नमाज पढ़ती हैं, उसका मतलब जानती हैं ?” मां ने बड़ी सहजता से उत्तर दिया कि, “ नहीं, बेटा। मैं मतलब नहीं जानती। बचपन से आदत है। बस यूं ही पढ़ लेती हूं।”  हसनैन साहब का तो सर चकरा गया। उन्हें लगा कि मेरी मां की इतनी अवस्था हो गई है फिर भी उन्हें नहीं पता कि उन आयतों का क्या अर्थ है ! मैं सोचने लगा कि इसका प्रधान कारण तो अरबी भाषा है। कुरान के लिए यही व्यवस्था की गई है कि आपको अरबी में ही इसे पढ़ना है। इसका परिणाम यह है कि बहुत थोड़े लोग ही कुरान का अर्थ समझ पाते हैं। कुरान का अर्थ समझाने के लिए बड़ी संख्या में मुल्ला-मौलवी उपलब्ध रहते हैं और जो अर्थ का अनर्थ करते रहते हैं। शायद ही किसी और संप्रदाय में भाषा को लेकर ऐसी अंधभक्ति होगी। मुसलमानों की विडंबना यह है कि अरब में ही उनके पाक स्थान हैं। वहां की भाषा ही इस्लाम की भाषा है और वहीं की संस्कृति मुसलमानों की संस्कृति है। अतः उन्हीं की तरह का पहनावा, उन्हीं की तरह का खान-पान आदि की नकल की जाती है। नायपॉल इसे अरबी उपनिवेशवाद कहते हैं। सारी दुनिया के मुसलमान अरब के आगे अपना मत्था टेकने में ही अपना बड़प्पन मानते हैं। इसे ही कहते हैं वर्णनातीत बेचारगी और बेबसी !

उन दिनों दिल्ली के निकट गुरुग्राम में आए-दिन नमाज पढ़ने को लेकर विवाद होता रहता था। मुसलमान कहीं भी खुले में, जैसे पार्क या सड़क किनारे नमाज पढ़ने के लिए इकट्ठा हो जाया करते थे। इससे लोग नाराज थे और झड़पें भी होती थीं। मैंने इस विषय को हसनैन साहब के समक्ष उठाया। हसनैन साहब ने बताया कि, “ असल में मुसलमानों की आबादी बढ़ी है। लेकिन उस अनुपात में मस्जिदों की संख्या नहीं बढ़ी है। नई मस्जिदों को बनने नहीं दिया जा रहा। दरअसल इसके लिए पुलिस अनुमति नहीं देती है।” मैं इस बात से अनभिज्ञ था, इसलिए यह मेरे लिए नई जानकारी थी। वास्तव में मस्जिद के निर्माण के लिए प्रशासन को बहुत सोच-समझ कर अनुमति देनी होती है। नमाज की प्रकृति ऐसी है कि सबको एक साथ मिलकर नमाज पढ़नी होती है। इस्लाम में मान्यता है कि जमात में नमाज पढ़ने का सवाब या पुण्य अधिक है। इसलिए स्वाभाविक है कि बहुत अधिक स्थान की आवश्यकता पड़ती है। नमाजी मस्जिद के बाहर सड़क पर भी नमाज पढ़ने लगते हैं, जिससे सड़क पर चलने वालों और वाहन चलाने वालों को काफी कठिनाई होती है। यदि इसी तरह मुसलमानों की आबादी बढ़ती रही और एक साथ नमाज पढ़ने की प्रवृत्ति में परिवर्तन नहीं आया, तो मस्जिदें सदा कम पड़ती रहेंगी। वैसे यह कहा जाता है कि नमाज के समय में थोड़ा-बहुत फेर-बदल संभव है और बारी-बारी से भी नमाज पढ़ी जा सकती है। अतः यदि नमाज के वर्तमान स्वरूप में परिवर्तन नहीं हुआ तो आने वाले समय में वाद-विवाद तो बढ़ेंगे ही, संभव है दंगे-फसाद भी हों। 

परंतु समस्या यह है कि नमाज होती है दिखावे के लिए। इस तरह की उठक-बैठक व्यायाम तो हो सकती है, उपासना नहीं। साथ ही नमाज विभेदकारी भी है, क्योंकि महिलाओं को मस्जिद में नमाज पढ़ने की अनुमति नहीं है। और यदि कहीं अनुमति मिलती भी है, तो महिलाएं सबसे अलग और पर्दे के पीछे रह कर ही नमाज पढ़ती हैं। मस्जिद में महिलाओं को नमाज की अनुमति नहीं होने से यही लगता है कि यह एक फौजी ड्रिल की तरह है, जिसमें सामान्यत: केवल पुरुष होते हैं। वास्तव में नमाज को मुसलमानों की पहचान से जोड़ दिया गया है। अन्यथा यह कहीं से भी पूजा नहीं है। नमाज से जुड़ी एक दूसरी चीज है अजान, जो नमाज की ही तरह दिन भर में पांच बार दी जाती है। लाउडस्पीकरों के प्रयोग के कारण अजान की आवाज इतनी ऊंची होती है कि जहां तक यह आवाज पहुंचती है वहां तक रह रहे लोगों को कष्ट होता है, विशेषत: सुबह की नमाज से तो नींद में खलल पड़ती है। ऐसा लगता है कि इस्लाम में अजान का चलन शुरू करते समय यह सोचा ही नहीं गया कि दुनिया में मुसलमानों को छोड़कर अन्य संप्रदायों के लोग भी होंगे। किसी समाज में यदि विभिन्न समुदायों के लोग रह रहे हों तो ऐसे में नमाज के लिए मस्जिद तक बुलाने की बात केवल मुसलमानों तक नहीं पहुंचती, बल्कि सब तक पहुंचती है। वैसे भी यह विचित्र बात है कि नमाज के लिए लोगों को बुलाया जाए ! आज के युग में जब सबके पास घड़ी है तो सबको नमाज का समय पता है। फिर भी उन्हें बार-बार याद दिलाना यही बताता है कि नमाजियों को इस बात की कोई चिंता नहीं है। यह नमाज का ही अपमान है। किसी भी दूसरे संप्रदाय में ऐसी व्यवस्था नहीं है। यह अपने-आप में अन्य संप्रदायों के लोगों के प्रति घोर अन्याय है और यह कहीं से भी कोई धार्मिक काम नहीं हो सकता। जब भी नमाज का चलन शुरू हुआ होगा तब लाउडस्पीकर नहीं रहा होगा। और अब चूंकि लाउडस्पीकर लगाए जाते हैं, इसलिए आवाज बहुत दूर तक जाती है और इस प्रकार पहले की तुलना में कई गुना अधिक लोगों को तकलीफ होती है। इस तरह इस विषय पर विचार करने से लगता है कि नमाज और अजान का चलन शुरू करने से पहले दूसरे संप्रदायों के लोगों की भावना का कोई खयाल नहीं रखा गया था। इसलिए मुसलमानों को चाहिए कि वे अपनी उपासना पद्धति बदलें।

अब मैंने शिया-सुन्नी विवाद को लेकर प्रश्न किया। इस पर हसनैन साहब बिल्कुल राजनीतिज्ञ की तरह बोलने लगे। कहा कि, “ देखिए ! शिया-सुन्नी विवाद तो सदा से रहा है। लेकिन इतना स्पष्ट है कि शियाओं ने भाजपा को वोट नहीं दिया है, जैसा कि प्रचारित किया जा रहा है। चुनाव के समय शिया-सुन्नी पूरी तरह एक हो गए थे।” मैंने प्रतिक्रियास्वरूप कहा कि, “ यदि ऐसा है तो यह बहुत अच्छा है, क्योंकि मैं तो यही सुनता आया हूं कि शिया और सुन्नी के बीच जन्मजात दुश्मनी होती है। यहां लखनऊ में भी शिया-सुन्नी दंगे होते हैं। जबकि हिंदू-मुसलमान दंगे नहीं होते।” इस पर भी उनकी प्रतिक्रिया राजनीतिक ही थी। उनका कहना था कि शिया-सुन्नी अब इस बात को मानने लगे हैं कि भाजपा के विरुद्ध इकट्ठा रहना है।

अब मैंने इस्लाम और लोकतंत्र के बीच के संबंध पर प्रश्न किया। मैंने पूछा कि क्या कारण है कि पूरी दुनिया में 56 मुस्लिम-बहुल देश हैं, पर एक भी ठीक से लोकतांत्रिक नहीं है ? हसनैन साहब ने थोड़ी देर तक चुप रहने के बाद यही कहा कि यह बहुत असुविधाजनक प्रश्न है। इसके बाद हसनैन साहब देवबंद पहुंच गए। उन्होंने बताया कि कैसे देवबंद ने अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष किया था। प्रकारांतर से हसनैन साहब देवबंद वालों को देश भक्त बताना चाह रहे थे। मैंने प्रतिक्रियास्वरूप कहा कि यह बात सही है कि देवबंद वालों ने आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया था। परंतु देवबंद कहीं से भी प्रगतिशील नहीं है। महिलाओं के प्रति देवबंद की दृष्टि बिल्कुल पुरातनपंथी और दकियानूसी है । देवबंद में जो संस्थान है उसका नाम है — दारुल उलूम देवबंद। यह पूरी तरह अरबी-फारसी संस्थान है। यह संस्थान शरिया का अनुसरण करता है। इसमें फतवा विभाग है, जो बात-बात पर फतवा जारी करता रहता है और अधिकतर फतवे मुस्लिम समाज को गर्त में ले जाने वाले होते हैं। इसमें महिलाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। मेरी इन बातों के बाद हसनैन साहब एक बार फिर चुप रह गए। 

हसनैन साहब ने अब लखनऊ पर बात करनी शुरू की।  उनका मानना था कि पुराना लखनऊ अब धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है, क्योंकि बड़ी तेजी से बाहर से आकर बसने वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है। जिन शियाओं ने इसकी संस्कृति को अधिकतम सीमा तक प्रभावित किया था अब उनका अनुपात बहुत घट गया है। इसी प्रकार बाजार, भवन-निर्माण आदि में भी उल्लेखनीय परिवर्तन आया है। किसी स्थान का नाम बदलने के बारे में बात करते हुए हसनैन साहब उत्त्तेजित हो गए। वह बोलने लगे कि भाजपा की सरकार को मुस्लिम साउंडिंग वर्ड्स ( मुसलमानी शब्द ) से परेशानी है और वह हर ऐसे शब्द को हटाना चाहती है। अब तक चूंकि अनेक बार हसनैन साहब मेरे प्रश्नों पर या तो चुप रह चुके थे या असुविधाजनक प्रश्न कह कर रुक गए थे, इसलिए मुझे लगा कि अब और कुछ कहना अनुचित होगा। इसलिए मैं कुछ बोला नहीं। पर मेरे मन में यह प्रश्न खड़ा हुआ कि आखिर कौन से शब्द मुसलमानी माने जाएंगे ? क्या अरबी या फारसी होते ही वे शब्द मुसलमानी हो जाते हैं ? सच तो यह है कि अरब में जो ईसाई या अन्य संप्रदाय के लोग होंगे अरबी तो उनकी भी भाषा होगी। इसी प्रकार फारसी बोलने वाले गैर-मुसलमान भी तो होंगे। वास्तव में जिन्हें हम पारसी कहते हैं उनकी भी मूल भाषा फारसी ही है। इसीलिए जमशेद, दादा भाई नौरोजी, फीरोज शाह मेहता, आदिल आदि नाम हमारे देश के प्रसिद्ध पारसियों के हैं। फिर अरबी-फारसी के शब्द मुसलमानी शब्द कैसे हो गए ! 

हसनैन साहब का व्यक्तित्व ऐसा बन गया है कि लोग उन्हें उदार व्यक्ति समझते हैं और इसलिए तथाकथित दक्षिणपंथी लोग उनसे मिलना चाहते हैं। ऐसे टीवी और समाचार पत्र वाले भी उनसे संपर्क करते हैं। परंतु मुझे लगा कि हसनैन साहब थोड़े भयभीत-से हैं। वह नहीं चाहते कि उनके इस उदार व्यक्तित्व का अधिक प्रचार हो, जिससे उन्हें अपने समाज में विरोध का सामना करना पड़े। इस प्रकार हसनैन साहब दोनों तरफ प्रिय दिखना चाहते हैं। लेकिन वास्तव में वह किसी का भला नहीं कर रहे। उन्हें तो किसी भी तरफ की चिंता किए बिना सत्य का मार्ग पकड़ना चाहिए। पर दुखद बात यह है कि हसनैन साहब में सत्य को स्वीकार करने का साहस नहीं है।  सत्य साहस मांगता है और हसनैन साहब में उसी का अभाव है। 

हसनैन साहब के साथ बस उनकी पत्नी रहती हैं।  जब हमारी बात चल ही रही थी तभी उनकी पत्नी घर से कहीं बाहर जाने के लिए निकलीं। वह जींस पैंट और कोट पहने हुई थीं — पूरा आधुनिक परिधान। उस समय हमारी बातचीत में उर्दू आ गई थी, इसलिए उनकी पत्नी ने हमारी बात सुन ली और यह बोलती हुई बाहर निकलीं कि, “ अरे ! यहां तो लोग उर्दू का एक भी शब्द ठीक से नहीं बोल पाते हैं।” मैं सोचने लगा कि यह कैसी बात है ! उर्दू ठीक से बोलने के लिए तो आवश्यक है कि लोग इसे पढ़ें। पर आज न तो उर्दू पढ़ाई जाती है और न ही पढ़ने की किसी को जरूरत पड़ती है, इसलिए लोग तो इसी तरह बोलेंगे। वैसे भी उर्दू फारसी भाषा का भारतीय संस्करण है, जिसे अंग्रेजों ने महत्व प्रदान किया और कुछ मुसलमानों ने इसे मुसलमानों की पहचान से जोड़ दिया। यह कभी भी एक स्वतंत्र भाषा नहीं थी और न रहेगी। जब अंग्रेज गए तो उर्दू भी लगभग चली गई। तभी तो उर्दू के ही प्रसिद्ध शायर निदा फाजली को कहना पड़ा :

“सब मेरे चाहने वाले हैं मेरा कोई नहीं,

मैं भी इस देश में उर्दू की तरह रहता हूं।”

इस तरह मुझे लगा कि हसनैन साहब और उनकी पत्नी बाहर से चाहे जितने भी आधुनिक क्यों न दिखें, हैं वे बिल्कुल दकियानूसी मुसलमान ही। वास्तव में ऐसे लोग आधुनिकता ओढ़ते हैं। हसनैन साहब ने एक भी ऐसी बात नहीं कही जिससे लगे कि वह इस्लाम में सुधार होते हुए देखना चाहते हैं। हसनैन साहब सफलता के सारे सोपान पार कर चुके हैं, फिर भी अपने समाज के लिए कुछ भी ठोस नहीं करना चाहते। संभव है हसनैन साहब जैसों की सफलता का एक कारण उनके समाज का पिछड़ापन भी हो। ऐसे लोग मुसलमान होने का यथासंभव लाभ तो उठा सकते हैं, पर मुसलमानों से जुड़ने से कतराते हैं। इसलिए मुसलमानों का दुर्भाग्य यह है कि उन्हें उनके अपनों ने ही प्रकाश नहीं दिखाया। 

हसनैन साहब अपनी बातचीत में जरूरत से कहीं ज्यादा अंग्रेजी बोलते रहे। या तो उन्हें हिन्दी बोलने का अभ्यास नहीं है ( लखनऊ में रहते हुए भी ! ) या वह जानबूझकर अंग्रेजी बोलकर जताना चाह रहे थे वह अंग्रेजीदां हैं। मुसलमान विद्वान अंग्रेजी बोल सकते हैं और नहीं तो उर्दू बोल सकते हैं, परंतु हिन्दी बोलने से बचते हैं। हमारी बातचीत समाप्त हो जाने पर हसनैन साहब हमें अपना स्टडी रूम दिखाने ले गए।  स्टडी रूम उनके ड्रॉइंग रूम से ही जुड़ा हुआ है। स्टडी रूम में सभी दीवारों से सटी पारदर्शी दरवाजे वाली अलमारियों में बिल्कुल करीने से पुस्तकें रखी हुई थीं। सर्वाधिक पुस्तकें अंग्रेजी में थीं। उसके बाद हिन्दी में और सबसे कम उर्दू में। उनकी हिन्दी में अनूदित पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं और मुझे लगा कि हिंदी के बड़े बाजार के कारण उनकी हिन्दी पुस्तकें अधिक बिक रही होंगी। इस तरह वह हिन्दी से पैसे तो कमा सकते हैं, लेकिन हिन्दी को न तो स्वेच्छा से अपना सकते हैं और न ही उसे अपनी पहचान से जोड़ सकते हैं। 

शारिब रूदौलवी 

शारिब साहब से मुलाकात के लिए काफी पहले ही समय तय हो गया था। फिर भी उनके विषय में अधिक जानकारी नहीं थी। इस्लाम पर सभी मुस्लिम विद्वान आसानी से खुलकर बोलेंगे इसकी संभावना कम रहती है।  इसलिए मैं किसी भी मुसलमान विद्वान से मिलना श्रेयस्कर समझता हूं। अतः यह मुलाकात तय हुई। लखनऊ के एक घनी आबादी वाले मुहल्ले — फैजुल्लागंज में एक विद्यालय है। उसी विद्यालय में हमें शारिब साहब से मिलना था। मैं लखनऊ एयरपोर्ट से सीधे पास के ही कृषि अनुसंधान अतिथिगृह गया। वहां नाश्ता करके उस विद्यालय की ओर प्रस्थान किया। मेरे साथ लखनऊ की ही मेरी अधिकारी मित्र थीं। विद्यालय अंदर गली में है और गली संकरी है। विद्यालय ढूंढने में थोड़ा समय लगा। जब हमारा वाहन विद्यालय परिसर में प्रविष्ट हुआ तब हमने अपने सामने एक लंबे कद का बूढ़ा व्यक्ति देखा। मुझे समझते देर नहीं लगी कि यही शारिब साहब होंगे। इस प्रकार वाहन से निकलते ही हमारा परिचय हुआ।  

असल में बात यह है कि यह विद्यालय शारिब साहब का ही है। शारिब साहब और उनकी पत्नी दोनों जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और दिल्ली विश्वविद्यालय में क्रमशः प्रॉफेसर रहे थे। दोनों के एक ही संतान — बेटी थी। बेटी जब बीए में थी तभी किसी रोग के कारण अल्पायु में ही उसकी मृत्यु हो गई। इस पुत्री शोक ने शारिब साहब और उनकी पत्नी को तोड़ कर रख दिया। दोनों दुखी और अंतर्मुखी हो गए। फिर भी जीवन को तो चलाना ही था, इसलिए दोनों ने अपनी-अपनी नौकरी पूरी की। पर उसके बाद वे दिल्ली में नहीं रुके। आमतौर पर लोग दिल्ली नहीं छोड़ते,11 लेकिन शारिब दम्पति ने दिल्ली को छोड़कर लखनऊ को अपनाया। अब पहाड़ जैसा सेवानिवृत्त जीवन कैसे बिताया जाए यही प्रश्न उनके सामने मुंह बाएं खड़ा था। दोनों ने निर्णय लिया कि शेष जीवन समाज सेवा को समर्पित किया जाए। इस प्रकार करीब 20 वर्ष पूर्व दोनों ने मिलकर अपनी एक मात्र दिवंगत पुत्री — शोया फातिमा के नाम पर एक विद्यालय की स्थापना की और इस विद्यालय को चलाने में जी-जान से जुट गए।

कुछ वर्षों तक तो सब कुछ ठीक-ठाक चला, पर काल ने शारिब साहब के साथ एक बार फिर खेल खेला और इस बार उनकी पत्नी उनसे विदा हो गईं। पहले से ही टूटे शारिब साहब अब तो पूरी तरह टूट गए। उम्र के थपेड़ों ने वैसे ही शरीर को कमजोर बना दिया था। फिर भी अपनी संतान की तरह पाले-पोसे विद्यालय को देखकर शारिब साहब ने यथाशक्ति स्वयं को संभाला। अब सुबह से देर शाम तक विद्यालय के प्रधान की कुर्सी पर बैठना उनका एक मात्र काम हो गया। विद्यालय से घर जाते समय रात हो जाती है और सुबह होते ही वह विद्यालय में दाखिल हो जाते हैं। इस प्रकार पत्नी और पुत्री के बिना घर सिर्फ और सिर्फ सोने की जगह है। अन्यथा कर्मक्षेत्र और भाव क्षेत्र दोनों विद्यालय ही है।

हमें शारिब साहब ने अपने विद्यालय के कार्यालय में ही बिठाया। एक साधारण-सी कुर्सी और उसके आगे एक मेज। मेज के आगे छोटा सोफा सेट और एक दीवार से सटाकर तीन अन्य कुर्सियां। कमरे में एक अलमारी भी संभवतः विद्यालय के कागजों को रखने के लिए। अलमारी से सटा एक शौचालय। शारिब साहब की कुर्सी के ठीक पीछे वाली दीवार पर उनकी स्वर्गीय सुपुत्री, शोया फातिमा की तस्वीर टंगी है। पुत्री अतीव सुंदरी। बिल्कुल गोरी और बड़ी-बड़ी बोलती आंखों वाली। सुघढ़ भौंहें और पतले-पतले गुलाबी होंठ। लड़की साड़ी में। देखते-देखते मैं सोचने लगा कि काल क्या इतना क्रूर हो सकता है !  जिस अप्रफुल्लित को अभी ऋतुओं की अनुभूति भी नहीं हुई थी, उसका अस्तित्व उसके जीवन की पहली ही आंधी ने मिटा दिया। 

शारिब साहब लखनऊ के पास के ही एक गांव — रूदौली से हैं। रूदौली के विषय में उन्होंने अपनी एक पुस्तक “ असरारुल हक मजाज ” में विस्तार से लिखा है। रूदौली अवध का सबसे बड़ा और प्रसिद्ध कस्बा रहा है जहां अनेक प्रसिद्ध हस्तियां हुईं। यह सांस्कृतिक और साहित्यिक दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण रहा है। रूदौली भव्य अवध के केंद्र लखनऊ से 90 किलोमीटर पूर्व में और फैजाबाद से 38 किलोमीटर पश्चिम में स्थित है। कहते हैं कि यह आर्यों के राज्य — कोसल का हिस्सा था, जिसकी राजधानी अयोध्या थी। इसी अयोध्या शब्द का बिगड़ा रूप अवध है। जहां आज रूदौली है, कहते हैं उस क्षेत्र को 1224 में राजा रुद्रमल ने बसाया था। शारिब साहब के अनुसार, रूदौली की एक विशेषता यह थी कि यह सूफियों का केंद्र था। संयोगवश इसी रूदौली में उर्दू के शायर मजाज का जन्म हुआ, जिनकी जीवनी शारिब साहब ने साहित्य अकादमी की पुस्तक शृंखला  ‘ भारतीय साहित्य के निर्माता ’ के अंतर्गत लिखी। यह पुस्तक उन्होंने स्वयं मुझे उपहारस्वरूप दी। मूल रूप से यह पुस्तक उर्दू में लिखी गई, जिसका हिन्दी में अनुवाद शाइस्ता फाखरी ने किया। इस पुस्तक की जिल्द के पृष्ठ भाग पर लिखा है कि, “ प्रॉ. शारिब रूदौलवी का शुमार उर्दू के सम्मानित आलोचकों में होता है। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय नई दिल्ली में अध्यापन के कार्य अंजाम दिए और बहैसियत प्रॉफेसर रिटायर हुए। उनकी अब तक 13 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। अपने साहित्यिक कार्यों के लिए उन्हें विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं द्वारा विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है।”

स्वतंत्रता पूर्व का शारिब साहब का जन्म है। तब उनके गांव में विद्यालयों का सख्त अभाव था। बड़ी मुश्किल से कई विद्यालयों को मिलाकर उनकी मैट्रिक तक की शिक्षा पूरी हुई। कानपुर के एक विद्यालय में अपनी पढ़ाई के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा कि वहां उर्दू की पढ़ाई नहीं होती थी,  जबकि शारिब साहब की इच्छा उर्दू पढ़ने की थी। इसलिए उन्होंने प्रधानाचार्य से बात की। प्रधानाचार्य ने उनके लिए एक उर्दू शिक्षक का प्रबंध किया और इस प्रकार उनके उर्दू पढ़ने की व्यवस्था की गई। शारिब साहब उर्दू साहित्य में आगे बढ़ने लगे। आरंभ में शायरी के साथ ही गद्य भी लिखा। धीरे-धीरे उर्दू साहित्य में शारिब साहब का नाम होने लगा। दूसरी ओर, उन्होंने बीए, एमए और पीएचडी तक की शिक्षा पूरी की। शिक्षा-संपन्न होने के बाद शारिब साहब बतौर लेक्चरर जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में नियुक्त हुए। यहां न केवल उन्होंने पढ़ाया, बल्कि बहुत लिखा भी। साथ ही रेडियो पर भी नियमित रूप से बोलने लगे। कालांतर में शारिब साहब उर्दू साहित्य के जानेमाने आलोचक के रूप में स्थापित हो गए। उनकी आलोचना का सिक्का जम गया। दीर्घ जीवन तथा तज्जनित अनुभव के साथ ही विद्याव्यसनी होने के कारण शारिब साहब उर्दू साहित्य का चलता-फिरता ज्ञानकोश हैं। शारिब साहब छह फीट लंबे हैं और बिल्कुल दुबले-पतले। खूब ढंग से पहनते-ओढ़ते हैं। मैं जब मिला तब वह गहरे नीले रंग का सूट पहने हुए थे। लंबाई और अवस्था के कारण उन्हें चलने में कठिनाई होती है। बिना छड़ी वह चल नहीं पाते हैं। मुझे बताया, “ घुटनों की तकलीफ तो है ही कमर की तकलीफ भी है। इसीलिए मेरा कहीं भी आना-जाना नहीं हो पाता। कभी किसी कारण से लखनऊ से बाहर जाना होता है तो किसी को साथ लेकर जाना पड़ता है।”

हसनैन साहब के विपरीत शारिब साहब ने हमारा अत्यंत गर्मजोशी से स्वागत-सत्कार किया। अंकुरित चना और मूंग के साथ प्याज, धनिया, हरी मिर्च आदि अच्छे से काटकर अलग-अलग कटोरियों में सजा हुआ था। साथ में तरह-तरह के गरमा-गरम पकौड़े और चाय-पानी। थोड़ी देर तक बात करने के बाद मुझे इस बात का गहरा आभास हुआ कि शारिब साहब जैसे विद्वान को अब समाज महत्व नहीं देता है। समाज से अपेक्षित महत्व व सम्मान न मिलने की पीड़ा उनके व्यक्तित्व में बड़ी आसानी से देखी जा सकती है। वैसे भी दुनिया तेज गति से चलती रहती है और जो भी उसे सामने न दिखे उसे वह श्रम करके देखना नहीं जानती। 

बातचीत शुरू करने से पहले ही मेरा ध्यान उनके नाम पर गया और उत्सुकतावश मैंने ‘ शारिब ’ शब्द का अर्थ पूछा। उन्होंने बताया कि यह शब्द शराब से बना है, जिसका अर्थ होता है पीने वाला। पर मुझे लगता है कि इसका भावार्थ होता होगा मतवाला या मदमस्त, अन्यथा केवल पीने वाला अर्थ बहुत नहीं जंचता। जो भी हो, परंतु साहित्यकार डॉ. सुरेन्द्र वर्मा अपने लघु लेख “ शब्द सन्धान : मय मद्य मधु मदिरा ” में लिखते हैं कि शराब शब्द दो पदों से मिलकर बना है, वे हैं — शर और आब। ‘ शर ’ या ‘ शर्र ’ एक अरबी शब्द है, जिसका अर्थ है उपद्रव या फसाद और ‘ आब ’ पानी को कहते हैं। अतः शराब वह पानी है जिसे पीकर लोग झगड़े-फसाद पर उतर आते हैं। शरारती, शरीर आदि भी इसी शर से बने हैं। इस प्रकार देखा जाए तो शारिब का अर्थ हुआ शराबी। परंतु अपना नाम शराबी न रखकर उसके एक पर्याय को उन्होंने अपनाया और इसका एक मात्र कारण था भाषायी अबोधगम्यता।  

आरंभिक परिचयात्मक वार्तालाप के बाद मैंने शारिब साहब से पूछा कि आपके लंबे अध्ययन के आधार पर मैं आपसे जानना चाहता हूं कि हमारे देश के मुसलमान इतने पिछड़े हुए क्यों हैं ? शारिब साहब ने आराम से उत्तर देना शुरू किया। उन्हीं के शब्दों में, “ सबसे पहले तो यह हुआ कि पाकिस्तान बन गया जिसके फलस्वरूप यहां का समृद्ध और शिक्षित तबका पाकिस्तान चला गया। इस कारण से नेतृत्वहीनता भी पैदा हुई। फिर आजादी के तुरंत बाद जमींदारी चली गई और चूंकि बड़ी संख्या में मुसलमान जमींदार थे, इसलिए उनका तो जीवन कठिन हुआ ही, जो मुसलमान उन पर आश्रित थे वे भी प्रभावित हुए। फिर उर्दू भाषा को मुसलमानों से जोड़ दिया गया और उसका महत्व घट गया। उर्दू एकाएक समाप्त कर दी गई। मदरसों, उर्दू वाले विद्यालयों आदि पर इसका गहरा असर पड़ा। मुसलमानों के संस्थान और बाजार कमजोर पड़ गए। दंगे-फसाद का भी असर पड़ा। इस प्रकार जो उर्दू में प्रवीण थे उनके सामने अचानक रोजगार का भारी संकट खड़ा हो गया। पाकिस्तान के उर्दू अपनाने से भारत की उर्दू को नुकसान हुआ। इस प्रकार भारत के मुसलमानों के पिछड़ेपन के लिए विभाजन को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।” 

मैंने प्रतिप्रश्न किया कि, “ यदि यहां से समृद्ध-शिक्षित मुसलमान पाकिस्तान चले गए, तो पाकिस्तान की तो खूब प्रगति होनी चाहिए थी। लेकिन हम जानते हैं कि पाकिस्तान की स्थिति तो बद से बदतर ही होती गई। मेरे इस प्रतिप्रश्न का कोई सीधा उत्तर शारिब साहब के पास नहीं था। उन्हें समझ में नहीं आया कि क्या उत्तर दिया जाए। इसी प्रकार जहां तक जमींदारी की बात है तो वह हिंदुओं की  भी गई फिर उन पर क्यों वैसा असर नहीं हुआ ? उर्दू यदि हटा दी गई तो हिन्दी सीखना कौन-सा बड़ा काम था ? पर शारिब साहब प्रतिक्रियाविहीन रहे। 

अब मैंने प्रश्न किया कि, “ आप उर्दू के प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं,  आपकी दृष्टि में आज उर्दू साहित्य की क्या स्थिति है ?” शारिब साहब ने बताया कि, “ उर्दू में काफी साहित्य लिखा जा रहा है और देश के कोने-कोने में लिखा जा रहा है। मेरे पास आलोचना के लिए रचनाएं आती रहती हैं।”  अब मैंने प्रश्न किया कि, “ जितना मैं जानता हूं उर्दू पढ़ने वाले तो निरंतर घट रहे हैं, ऐसे में आपको ऊर्दू का क्या भविष्य दिखता है ?” उन्होंने उत्तर दिया कि, “ यह बात सच है कि उर्दू पढ़ने वालों की संख्या घट रही है।” उन्होंने अपने विद्यालय का उदाहरण दिया जहां उर्दू पढ़ाने की व्यवस्था तो है, लेकिन पढ़ने वाले बहुत थोड़े ही छात्र हैं। फिर मैंने पाकिस्तान में उर्दू की स्थिति को लेकर प्रश्न किया। शारिब साहब ने विस्तार से बताया कि, “ आरंभ में तो वहां अच्छा-खासा उर्दू साहित्य लिखा जाता था। लेकिन बाद में वहां की भाषाओं ने जोर पकड़ा और उर्दू कमजोर पड़ने लगी।”  उन्होंने बार-बार फैज का नाम लिया और कहा कि, “ फैज उर्दू के मशहूर शायर थे, लेकिन पंजाबी भाषा के आंदोलन के अगुआ बन गए। और जब इतना बड़ा शायर उर्दू छोड़कर दूसरी भाषा की ओर झुक जाएगा तो उर्दू का क्या होगा !”  मैंने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि, “ मगर आपको यह तो मानना पड़ेगा कि पाकिस्तान का सीधा रिश्ता उर्दू से नहीं है। उर्दू तो हमारे यहां की भाषा है। पाकिस्तान के जो राज्य हैं उनकी अपनी-अपनी भाषा है — पंजाबी, सिंधी, बलूची और पश्तो। इसलिए क्या आपको नहीं लगता कि उर्दू उन पर एक थोपी हुई भाषा है ?” इस प्रश्न का भी कोई सीधा उत्तर मुझे शारिब साहब से नहीं मिला। 

अब मेरा अगला प्रश्न कुरान को लेकर था। मैंने पूछा कि, “ कुरान इतने बेतरतीब तरीके से क्यों लिखा गया है ? कुरान को पढ़कर न आदि समझ में आता है और न अंत । बीच में भी कहीं समन्वय नहीं है। फिर एक ही बात बार-बार दोहराई गई है। कहीं-कहीं तो एक-एक वाक्य को दर्जनों बार दोहराया गया है। आखिर ऐसा क्यों है ? क्या किसी विद्वान ने इसे व्यवस्थित करने की कोशिश नहीं की ?” मुझसे शत-प्रतिशत सहमत होते हुए शारिब साहब ने कहा, “ आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं। लेकिन मैं तो इतना ही बता सकता हूं कि कुरान ऐसा क्यों है ? असल में जैसे-जैसे कुरान की आयतें उतरीं, वैसे-वैसे ही उन्हें रख दिया गया। चूंकि ये शब्द अल्ला के हैं और अनेक अवसरों पर कहे गए हैं, इसलिए ज्यों-का-त्यों रख देने से बेतरतीबी दिखती है।” अब आगे प्रश्न पूछने का मेरा साहस जवाब दे गया कि इतना बड़ा स्थापित साहित्यकार भी यही मानता है कि कुरान के वचन अक्षरश: अल्ला के हैं। पर सच तो यह है कि जिसे हम अल्ला की किताब मानते हैं, उसको वर्तमान रूप में आने में दो सौ साल से अधिक का समय लगा।12  इस बीच इसमें पर्याप्त फेर-बदल भी किया गया। कुरान का एक बड़ा हिस्सा बाइबिल पर आधारित है और सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें कुछ भी नया नहीं है। एक प्रकार से कुरान उस समय के अनेक पंथों की बातों की खिचड़ी मात्र है। इतना ही नहीं अल्ला की तो बात दूर, कुरान किसी विद्वान की रचना भी नहीं लगता। इसका भाव ऐसा है जैसे बच्चों से बातें की जा रही हों। और यह धार्मिक पुस्तक तो किसी भी दृष्टि से नहीं है। मुझे शारिब साहब के उत्तर से दुख हुआ। मुझे समझ में नहीं आया कि विद्वान होकर भी वह सच नहीं बोल सकते। वह कैसे आलोचक हैं कि एक पुस्तक के रूप में कुरान को नहीं देख सकते। फिर उनमें और एक अनपढ़ मुसलमान में क्या अंतर है, जो मुल्ला-मौलवी के हर कथन को अल्ला का कथन मान लेता है। उनकी यह बात भी सही नहीं है कि जैसे-जैसे आयतें उतरीं वैसे-वैसे ही उन्हें रख दिया गया। सच यह है कि कुरान में अध्यायों का क्रम ऐसा है कि बड़े से आरंभ होकर अध्याय छोटे होते चले जाते हैं। यह क्रम मनुष्यों का बनाया हुआ है। पर आश्चर्य है कि इस क्रम के पीछे विषय नहीं, बल्कि अध्याय का आकार है। यह अजीबोगरीब बात है। 

अब मैंने मुसलमानों के नामों के विषय में प्रश्न पूछा। मैंने कहा कि मैं मानता हूं कि किसी भी व्यक्ति का नाम उसकी अपनी भाषा का ही शब्द होता है। जापानी अपने नाम के लिए जापानी शब्द ही चुनता है, वैसे ही रूसी, स्पैनिश, जर्मन आदि भी अपनी-अपनी भाषा के शब्द चुनते हैं। यहां तक कि इस्लामी दुनिया में भी कुछ सीमा तक ऐसा देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए, तुर्की के लोग तुर्की भाषा के नाम रखते हैं और ईरान के लोग फारसी के। पर दक्षिण एशिया में ऐसा क्या है कि एकाध अपवादों को छोड़कर लगभग शत-प्रतिशत मुसलमान अपने नामों के लिए अरबी भाषा के शब्द चुनते हैं ? आखिर क्यों वे भारतीय भाषाओं में अपने नाम नहीं रख सकते ? शारिब साहब ने इस बार त्वरित उत्तर दिया कि, “ दक्षिण एशिया में मुसलमान विजेता होकर आए और विजेता अपनी ही भाषा का नाम रखते हैं।” मैं उनका उत्तर सुनकर स्तब्ध रह गया। मैं सोचने लगा कि क्या सभी मुसलमान जो आज हमारे बीच हैं उनके पुरखे जीत कर आए थे ? मैं जानता हूं कि आज जितने मुसलमान यहां हैं उनमें एक प्रतिशत भी विजेता पुरखे वाले नहीं हैं। तो क्या विजेता लोगों से खुद को जोड़ कर सभी विजेता हो जाते हैं। फिर एक और प्रश्न मेरे मन में आया कि ईरान भी तो विजित देश है फिर क्यों वह अपने नामों के लिए फारसी का प्रयोग करता है ?  पर मैंने इन बातों को आगे बढ़ाना उचित नहीं समझा।

इसके बाद शारिब साहब से देर तक बातें होती रहीं, लेकिन मेरे प्रश्नों से हटकर। उन्होंने विस्तार से बताया कि कैसे वह रेडियो पर काफी लोकप्रिय थे और नियमों की अनदेखी करके भी उन्हें बार-बार बुलाया जाता था। आज के राजनीतिक वातावरण के बारे में भी उन्होंने बात की। उनके अनुसार अभी का समय मुसलमानों के अनुकूल नहीं है। मुसलमानों में भय व्याप्त है। उन्हें लगता है कि वे सुरक्षित नहीं हैं। कैसे वह इस नतीजे पर पहुंचे इस बारे में उन्होंने कुछ भी खुल कर नहीं कहा। अपने विद्यालय के बारे में भी बताया कि किसी विशेष कार्यक्रम के अवसर पर पिछले वर्ष माननीय राज्यपाल विद्यालय आए थे। उनके कार्यालय को देख कर मुझे लगा कि छात्रों से बहुत कम फीस ली जाती होगी, क्योंकि सब कुछ अतिसामान्य स्तर का था। फिर भी इतना तो मानना पड़ेगा कि अपने विद्यालय के द्वारा वह सामान्य या निर्धन छात्रों को शिक्षित करने का बहुत महान काम कर रहे हैं। 

इस सब के बावजूद मेरा मन तो शारिब साहब के अजीबोगरीब उत्तरों पर अटक गया। मैं सोचने लगा कि कोई विद्वान कैसे इतना ऊटपटांग उत्तर दे सकता है। और यदि एक विद्वान का ऐसा विचार है तो इस्लाम का क्या भविष्य है ? उनकी ही पुस्तक को पढ़ने से यह बात कुछ-कुछ समझ में आने लगी कि शारिब साहब की चिंतन-शैली ऐसी क्यों है। शायर मजाज के विषय में बताते हुए शारिब साहब लिखते हैं कि, “ सर सैयद के बाद यह समय अलीगढ़ यूनिवर्सिटी का दूसरा स्वर्णकाल था। जब मजाज, अख़्तर हुसैन रायपुरी, जांनिसार अख़्तर, सिब्ते हसन, हायतुल्ला अंसारी, जजबी, सादत हसन मंटो, अस्मत चुगताई, अली सरदार जाफरी जैसे जहीन नौजवान वहां जमा थे, जिनके नामों के बगैर उर्दू अदब की तारीख मुक्कमल नहीं हो सकती। सिर्फ यही नौजवान नहीं, बल्कि अलीगढ़ खुले विचार वाले लोगों का एक नया ऑक्सफ़ोर्ड बन गया था।” ( पृष्ठ 30-31 ) 

आगे फिर मजाज के विषय में शारिब साहब लिखते हैं, पर अब स्थान अलीगढ़ न होकर लखनऊ है,  “ अब वह ग्रुप तो नहीं था लेकिन उस ग्रुप के कुछ लोग बाकी थे, एहतेशाम हुसैन, आले अहमद सूरूर, हसन शहीर, मंजर सलीम, रजिया सज्जाद जहीर और कुछ नए चेहरे रतन सिंह, आबिद सुहेल, शारिब रूदौलवी, आगा सुहेल, इकबाल मजीद, हसन आबिद, आरिफ नकवी उनमें शामिल हो गए थे।” ( पृष्ठ 58 ) 

एक बार फिर लखनऊ में रह रहे मजाज के विषय में बताते हुए शारिब साहब लिखते हैं, “ दोपहर बाद फोटो ग्रुप हुआ जिसमें मजाज, बन्ने भाई, डॉक्टर अब्दुल अलीम, सरदार जाफरी, मोहम्मद मेहदी, न्याज हैदर, बाकर मेहदी, अस्मत चुगताई, प्रॉ एहतेशाम हुसैन के अलावा सारी यूनिवर्सिटी से आए हुए डेलिगेट्स और शहर के खास लोग शामिल थे।” ( पृष्ठ 61-62 )

उपरोक्त उद्धरणों को ध्यान से देखने से पता चलता है कि इतने सारे नामों में एक ही नाम किसी गैर-मुसलमान का है। शारिब साहब की पुस्तक में मूल पाठ 117 पृष्ठों तक ही है, क्योंकि उसके बाद मजाज की गजलें हैं। इस प्रकार 117 पृष्ठों की पुस्तक में पृष्ठ 58 पर पहली बार किसी गैर-मुसलमान का नाम आता है। लगता है जैसे यह पुस्तक किसी भारतीय की न होकर किसी ईरानी की हो। आगे भी पुस्तक में एकाध नाम ही गैर-मुसलमान के हैं। शारिब साहब का जहां जन्म हुआ वह कस्बा भी पूरी तरह मुसलमानों का कस्बा था। वह पढ़ते भी रहे उर्दू ही जिसमें गैर-मुसलमान न्यूनतम ही होते हैं और अंततः जीवनपर्यन्त पढ़ाया भी उर्दू साहित्य ही। इसलिए इस देश की विविधता और वैविध्यपूर्ण बौद्धिक परंपरा से दूर ही रहे। अन्यथा वह सर सैयद के समय को स्वर्ण काल और अलीगढ़ को ऑक्सफ़ोर्ड नहीं कहते। सर सैयद के समय से लेकर आज तक अलीगढ़ तो मुसलमानों का ही गढ़ है और जब तक किसी विश्वविद्यालय में विभिन्न समुदायों के छात्र और शिक्षक नहीं होते तब तक ऑक्सफ़ोर्ड तो बहुत दूर की कौड़ी है, भारत के ही किसी भी अच्छे विश्वविद्यालय से उसकी तुलना नहीं की जा सकती। अतः शारिब साहब का दुर्भाग्य यह रहा कि वह इस देश में रह कर भी इस देश की समृद्ध बौद्धिक परंपरा से नहीं जुड़ पाए और उन्होंने अपनी संकुचित दुनिया में ही जीवन बिता दिया — ” जीवन वृथा गंवायो “। हिन्दी साहित्य का अध्ययन नहीं किया और एक बनावटी भाषा — उर्दू में ही उलझे रह गए। यह प्रधान कारण है कि उन्होंने कठिन प्रश्नों पर विचार ही नहीं किया। एक सपने जैसी दुनिया, जिसमें सभी मुसलमान विजेता होते हैं और अल्ला जमीन पर कुरान को उतार देता है, उसी में जीते रहे। 

मध्यकाल के संदर्भ में राष्ट्रकवि दिनकर ने बड़ी ही सटीक टिप्पणी की है,  “ मुस्लिम पंडित और विद्वान फारसी भाषा में सीमित हो गए और, गूलर के कीड़ों के समान, उन्होंने इस्लाम को ही अपना ब्रह्मांड मान लिया।”  कालांतर में बस इतना ही अंतर आया कि फारसी का स्थान उर्दू ने ले लिया।

टी.एच.के. गौरी 

गौरी साहब 1976 में भारत सरकार की कस्टम व एक्साइज राजस्व सेवा से जुड़े और लगभग साढ़े तीन दशकों की सेवा के बाद 2010 में सेवानिवृत्त हुए। इनका पूरा नाम टी.एच.के. गौरी है, जिसे अंग्रेजी में इस प्रकार लिखा जाता है — T.H.K. Ghauri. इनका विस्तृत नाम पता नहीं चला, पर अनुमान से इनके नाम में दिए गए ‘ के ‘ अक्षर से खान बनता होगा। उनके ‘ गौरी ’ उपनाम का तात्पर्य भी समझना कठिन है, क्योंकि हम मुहम्मद गोरी को तो जानते हैं, पर गौरी शब्द से अपरिचित हैं। हो सकता है कि वही गोरी हो जिसे गौरी लिखा जाता हो। अंग्रेजी में लिखे होने के कारण स्पष्ट रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता। वैसे हमारे देश के मुसलमानों में हमलावरों के नामों को अपनाने की परंपरा है। इसलिए मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि इनका उपनाम गोरी ही हो। शर्मिला टैगोर और नवाब पटौदी के बेटे  — सैफ अली खान और बहू — करीना कपूर के बच्चे का नाम यदि तैमूर जैसा आततायी हो सकता है, तो अकबर, जहांगीर, शाहजहां और औरंगजेब जैसे अत्याचारी नाम तो यत्र-तत्र मिल ही जाते हैं। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि जब शर्मिला टैगोर और करीना कपूर जैसी प्रसिद्ध अभिनेत्रियां इतना भी साहस या बल नहीं जुटा सकीं कि अपने बच्चों के भारतीय नाम रख सकें, तब आम महिलाओं की तो बात करना ही व्यर्थ होगा। वैसे इतना अवश्य है कि अपने बच्चों का मुसलमानी नाम रखते ही इन अभिनेत्रियों को सेक्यूलर होने का बहुमूल्य प्रमाणपत्र अवश्य मिल जाता है। 

गौरी साहब का घर लखनऊ के हजरतगंज में है। चारदीवारी से चाक-चौबंद छोटा-सा परिसर है — ताया अपार्टमेंट्स, जिसमें आठ-दस फ्लैट ही होंगे। इसलिए फ्लैट का क्षेत्रफल बहुत बड़ा है। किसी फ्लैट का क्षेत्रफल इतना बड़ा हो सकता है मैंने कभी सोचा नहीं था। फ्लैट के अंदर जो बैठक है वह भी बहुत बड़ा है। कम-से-कम चार-पांच सोफा सेट तो बड़ी आसानी से रखे जा सकते हैं। अभी हम बैठे ही थे कि यह महाशय तेजी से चलते हुए आए और हमारे सामने बैठ गए। इससे पहले घंटी बजाने पर दरवाजा भी इन्होंने ही खोला था। कुर्ता-पायजामा और ऊपर एक मोटी शाल। सामान्य कद। रंग गोरा। शरीर न दुबला न पतला। बिल्कुल ठीक-ठाक। चाल-ढाल में फुर्ती। यदि किसी को बताया न जाए तो इनके हाव-भाव से कोई नहीं कह सकता कि इनकी उम्र सत्तर होगी। 

हमने यूं ही बातचीत शुरू की। आप कहां से हैं ? कब सिविल सेवा में आए ? आदि-आदि। उन्होंने बताया कि वह लखनऊ के पास ही के हैं, मगर किसी गांव के। मैट्रिक तक की पढ़ाई गांव में ही हुई और उसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय चले गए। उनको तब बताया गया कि सिविल सेवा में मुस्लिमों की भर्ती बड़ी मुश्किल से ही होती है। मगर उनके ऊपर इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा और उनका सिविल सेवा में चयन भी हुआ। अपने सेवाकाल में उन्हें देश के अनेक स्थानों पर काम करने का अवसर मिला और उन्होंने सेवा में अपनी अच्छी पहचान भी बनाई।

उन्होंने बताया कि, “ मुझे गीत सुनने का शौक है ” और इसी क्रम में यह भी बताया कि वह गजल सम्राट जगजीत सिंह के अनन्य प्रशंसक रहे हैं। इतने बड़े प्रशंसक कि धीरे-धीरे उनसे गौरी साहब की प्रगाढ़ मित्रता हो गई। और मित्रता भी ऐसी कि गौरी साहब ने जहां चाहा जगजीत सिंह को बुला लिया और वह भी बिना किसी पारितोषिक के। जगजीत सिंह के भजन भी उन्हें बहुत भाते हैं। उन्होंने बताया कि, “ मैं भगवान राम, कृष्ण आदि के भजन तल्लीनतापूर्वक सुनता हूं।” उन्हें सुदर्शन फाकिर की लिखी और जगजीत सिंह की गाई राम धुन ‘ हे राम ! हे राम !  तू ही बिगाड़े तू ही संवारे, इस जग के सारे काम ….’ भी बहुत पसंद है।  सुदर्शन फाकिर आधुनिक युग के मुसलमानों में एक रत्न थे। उन्हें भारतीय संस्कृति से इतना लगाव था कि अपना नाम भी भारतीय ही रख लिया। पंजाब के होने के कारण उनकी परेशानी यह थी कि वह हिन्दी में उतने सिद्धहस्त नहीं थे, जितने कि उर्दू में। अन्यथा उनका भावक्षेत्र पूर्णत: भारतीय था। इस अर्थ में वह एक दुर्लभ प्राणी थे।  

मैंने पूछा कि आप सिविल सेवा में रहे और इतने लंबे समय तक रहे तब आपको क्या कभी महसूस नहीं हुआ कि सिविल सेवा में मुस्लिमों की उपस्थिति नगण्य क्यों है ? उन्होंने बताया कि, “ सबसे पहले तो यह गहरे पैठी हुई धारणा है कि मुस्लिमों का चयन मुश्किल से होता है।”  दूसरे शब्दों में, उनका तात्पर्य था कि मुस्लिमों के साथ भेदभाव होता है। पर आश्चर्य की बात तो यह है कि जब इन महाशय ने अपने चयन द्वारा इसे मिथ्या साबित कर दिया था, तो फिर अब भी क्यों ऐसी बात की जा रही है। खैर, उन्होंने अपनी योजना के विषय में विस्तार से बताया। आजकल वह मुसलमान छात्रों को सिविल सेवा में जाने के लिए तैयार कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि वह अच्छे और प्रतिभाशाली बच्चों का चयन करते हैं और उन्हें कोचिंग की सुविधा प्रदान करते हैं। इसके लिए वह धन से भी सहायता करते हैं। इस दिशा में उनके हिसाब से प्रगति भी हुई है, क्योंकि साल-दर-साल चयनित मुस्लिम प्रत्याशियों की संख्या बढ़ी है। उन्होंने यह भी कहा कि, “ मैं अपने छात्रों से कहता हूं कि लिखित परीक्षा में इतने अधिक अंक ले आओ कि यदि तुम्हारे साथ साक्षात्कार में भेदभाव भी हो और इस कारण से तुम्हें नाम मात्र को भी अंक मिले तब भी तुम्हारा चयन सुनिश्चित हो।” इस प्रकार भेदभाव की भावना गौरी साहब के मन-मस्तिष्क से हटने का नाम नहीं ले रही। 

जैसी फुर्ती गौरी साहब की चाल-ढाल में है वैसी ही बात करने के तरीके में भी। गौरी साहब बड़ी तेजी से बातें करते हैं और कई बार बिना आगा-पाछा सोचे। मेरा अगला प्रश्न था कि संभव है आपके प्रयास से कुछ अधिक मुस्लिम सिविल सेवा में आ जाएंगे, लेकिन बड़ी संख्या में जो मुस्लिम बच्चे हैं क्या उनके भविष्य के विषय में भी आपने सोचा है ? क्योंकि जब तक बड़ी संख्या में मुस्लिम बच्चों का भविष्य नहीं संवरेगा तब तक मुस्लिम समाज नहीं बदलेगा। उन्होंने विस्तार से बोलना शुरू किया। पहले तो उन्होंने बताया कि मुस्लिम लड़के आज कहां नहीं हैं ? प्राइवेट में भी देखिए आपको मिल जाएंगे। मेरे टोकने पर कि लेकिन इनकी संख्या मुस्लिमों की बड़ी आबादी में सब्जी में नमक के बराबर होगी, उनकी त्वरित प्रतिक्रिया थी कि, “ देखिए ! जनाब, मैं पंचर लगाने वालों पर अपना पैसा नहीं लगा सकता।” 

इस बीच गौरी साहब का कोई भतीजा आ गया। वह किसी राजनीतिक पार्टी से जुड़ा है। इसलिए भतीजे की ओर मुखातिब होकर गौरी साहब राजनीतिक बातें करने लगे। नागरिकता कानून के विरुद्ध आंदोलन चल रहा था। इस विषय को लेकर गौरी साहब और उनके भतीजे दोनों ने मिलकर योगी सरकार को जितना संभव था, उतना कोसा।  अपनी रौ में गौरी साहब मुझे बार-बार बताते रहे कि वैसे तो शियाओं में से अधिकतर ने भाजपा का साथ दिया था, लेकिन अब क्या शिया और क्या सुन्नी सभी एक साथ हैं और नागरिकता कानून का पुरजोर विरोध कर रहे हैं। गौरी साहब ने एक कथा भी सुनाई, जिसका सार यह था कि होशियार लोग कैसे मुसलमानों को बांट-बांटकर मार देते हैं। मैंने अवसर पाते ही टिप्पणी की कि इसी शहर के जाने-माने विद्वान हसनैन साहब तो मानते हैं कि शियाओं ने कभी भी भाजपा का साथ नहीं दिया है और यह भी कि यह भाजपा वालों का अपप्रचार मात्र है। उन्होंने तुरंत यह कहते हुए हसनैन साहब को खारिज किया कि, “ उन्हें ठीक से मालूम नहीं है।” अब स्वाभाविक रूप से बात केंद्र सरकार की ओर बढ़ चली, क्योंकि नागरिकता कानून केंद्र सरकार की ओर से ही तो आया था। 

गौरी साहब ने कहा, “ देखिए ! जम्मू-कश्मीर से हमारा कोई लेना-देना नहीं है, इसलिए धारा 370 पर हम चुप रहे। लेकिन नागरिकता कानून को लेकर हम चुप नहीं रहेंगे। इसके विरुद्ध जो भी हो सकेगा, हम करेंगे। देखिए ! सारे देश में विरोध हो रहा है। अब हम लड़ने के मूड में हैं।”

यह वक्तव्य ध्यान देने योग्य है। पहली बात तो यह कि जम्मू-कश्मीर से हमारा कोई लेना-देना नहीं है। फिर भी यह कहना कि धारा 370 पर हम चुप रहे।  ये दोनों वाक्य विरोधाभासी हैं। सच यह है कि उनको इस बात का मलाल है कि वह इस पर चुप रहे। फिर नागरिकता कानून में ऐसा क्या है कि उन्हें या सभी मुसलमानों को इसका विरोध करना चाहिए। क्या इसका यह अर्थ नहीं कि उन्हें पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के मुसलमानों की चिंता है ? 

अब हमारे सामने चाय आ गई और कुछ बिस्कुट भी। चाय के साथ चीनी के विकल्प पर बात होने लगी। उन्होंने फरमाया, “ वैसे तो जनाब मैं सऊदी अरब का घोर विरोधी हूं, लेकिन वहां से चीनी का जो विकल्प आया है वह बहुत अच्छा है।”  उनकी बात पर मैं सऊदी अरब को लेकर उनके विचार जानने को उत्सुक हो उठा। मेरे पूछने पर गौरी साहब ने बताया कि, “ सऊदी अरब अनेक गलत काम करता है। यमन पर हमला करके हजारों लोगों को मार चुका है। अभी हाल में अंतरराष्ट्रीय पत्रकार खशोगी की हत्या की है और खशोगी के हत्यारों को दंड देने के नाम पर पांच निर्दोष लोगों को मार दिया है।”

अब मैंने उनसे पूछा कि सारे विश्व में जितने भी मुस्लिम-बहुल देश हैं, उनमें लोकतंत्र क्यों नहीं है ? आप इस विषय में क्या सोचते हैं ? उन्होंने त्वरित उत्तर दिया कि, “ नहीं, ऐसी बात नहीं है। इंडोनेशिया और मलेशिया में तो लोकतंत्र है।” मेरे तर्क करने पर कि वहां भी लंबे समय के बाद अभी हाल ही में लोकतांत्रिक प्रयोग आरंभ हुए हैं और वह भी बहुत सीमित रूप में ….. । मेरी बात अभी पूरी भी नहीं हो पाई थी कि वह थोड़े उखड़-से गए और कहा कि, “ जो भी हो, मुझे दूसरे देशों से कोई मतलब नहीं है। मैं तो यहां हूं और यहीं की बात करूंगा।” बाद में पता चला कि उनके दो बच्चे हैं और दोनों ही खाड़ी के देशों में काम कर रहे हैं। अब देखिए कि उन्हें दूसरे देशों से मतलब नहीं है, परंतु पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के मुसलमानों की चिंता अवश्य है। यह कैसा दोहरा चरित्र है ! इसका अर्थ है कि ऐसे लोग सिर्फ अपना अधिकार जानते हैं, कर्तव्य नहीं। और यदि कर्तव्य की याद दिलाइए, तो भड़क जाएंगे। 

अब हमारी बातचीत इस्लाम पर आकर टिक गई। मैंने पूछा कि इस्लाम में सुधार के विषय में आप क्या सोचते हैं ? उनका कहना था कि, “ देखिए ! यह जो नमाज का चलन है मैं उसका समर्थक नहीं हूं। क्या होगा मस्जिद में नमाज पढ़कर ? वैसे भी शिया, सुन्नी आदि की अलग-अलग मस्जिदें हैं और नमाज पढ़ने के अलग-अलग तरीके। गौरी साहब ने एक किस्सा भी सुनाया कि अभी हाल में मेरा एक जानने वाला लड़का जींस पहने ही लखनऊ की एक मस्जिद में नमाज पढ़ने चला गया। मस्जिद के इमाम ने उसे रोका और कहा कि, ‘ आप जींस में नमाज नहीं पढ़ सकते।’ साथ ही यह भी पूछा कि, ‘ आप शिया हैं या सुन्नी ?’ वह लड़का इतना सुनने के बाद यह कहते हुए मस्जिद से बाहर निकला कि, ‘ मुझे नमाज नहीं पढ़नी।’ 

एक बार फिर बात केंद्र सरकार की ओर मुड़ गई। उन्होंने कहा कि, “ देखिए कितनी बड़ी बेबकूफी की बात है कि सरकार ने दमन और दीव को अलग-अलग कर दिया है। इससे क्या होगा ? कैसे प्रशासन चलेगा ? सरकार कोई भी निर्णय सोच-समझकर नहीं लेती। अरे ! दमन को तो गुजरात में ही मिला देते। प्रशासन आसान हो जाता।” इसी तरह रेलवे की पांच सेवाओं को मिला देने के सरकार के निर्णय पर भी गौरी साहब बरसे। सरकार को कुछ नहीं पता। इंजीनियर जो काम करेगा, वह ट्रैफिक वाला कैसे करेगा ? यह निर्णय रेलवे को बर्बाद कर देगा। फिर गौरी साहब का गुस्सा फूटा जीएसटी पर। गौरी साहब इसी विभाग में काम कर चुके हैं। सरकार जीएसटी को लेकर एक के बाद एक गलत निर्णय ले रही है। और किसको फायदा हुआ है जीएसटी से ?

इस प्रकार गौरी साहब भारत सरकार और उत्तर प्रदेश सरकार दोनों के घोर विरोधी हैं। उन्हें सिर्फ इसी बात से मतलब है कि किस प्रकार मुसलमानों को वह सब कुछ मिलना चाहिए जो उसका अधिकार है। पर जहां तक दायित्व की बात है तो मुसलमानों का कोई दायित्व नहीं है।

लेखक निवेश एवं लोक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग , वित्त मंत्रालय ,भारत सरकार में संयुक्त सचिव हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं ।

3 मई 2021  


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1 अगस्त 2018 के जनसत्ता में आलोक मेहता का लेख ‘विश्वास का पुल’ पढ़ा। इसमें सर सैयद अहमद खां के जिस वक्तव्य को उद्धृत किया गया है उससे उनके व्यक्तित्व का सिर्फ एक पक्ष उजागर होता है, जबकि उनके व्यक्तित

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संकट में आधुनिक चिकित्सा प्रणाली

28 मई 2022
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संभवतः जब से मनुष्य इस धरा पर आया है तब से वह किसी न किसी तरह अपने स्वास्थ्य की देखभाल कर रहा है। इसलिए प्राचीन काल से ही अनेक देशों में स्वास्थ्य के क्षेत्र में नाना प्रकार की खोजें हुईं। भारत में तो

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एमएफएन का दर्जा और पाकिस्तान

28 मई 2022
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पिछले दिनों उड़ी में अठारह भारतीय जवानों की आतंकवादियों द्वारा हत्या के बाद देश में पाकिस्तान के खिलाफ आक्रोश चरम सीमा पर पहुँच गया। कहा यह भी जाने लगा कि यह आक्रोश 1965 के युद्ध जैसा था। फिर भारत की ओ

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जेवर से उत्तर प्रदेश का भाग्योदय

28 मई 2022
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भारत सरकार ने जेवर में अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे की स्थापना की घोषणा करके न केवल बरसों पुरानी माँग को ही पूरा किया है बल्कि इससे उत्तर प्रदेश के आर्थिक विकास को अभूतपूर्व गति देने का भी काम किया है। वै

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इस्लामी लकीर के फकीर

28 मई 2022
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अभी पिछले दिनों पटना में एक मुस्लिम मंत्री ने जय श्रीराम का नारा लगाया। जिसके बाद एक मुफ्ती ने उन्हें काफिर करार दिया। मजबूरन उन्हें माफी माँगनी पड़ी, जिससे उनके पाप का प्रायश्चित हो गया और पुनर्मूषिको

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विश्व व्यापार संगठन का नैरोबी मंत्रिसम्मेलन और भारत की भूमिका

28 मई 2022
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विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) का दसवां मंत्रिसम्मेलन अफ़्रीकी देश केन्या की राजधानी नैरोबी में चार की जगह पांच दिनों (15-19 दिसंबर) में संपन्न हुआ। अफ़्रीकी महादेश में होनेवाला यह पहला मंत्रिसम्मेलन

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जाति बंधन नहीं l

28 मई 2022
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अमरीका के प्रतिष्ठित हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर स्टीवन पिंकर, जो हाल ही में भारत की यात्रा पर थे, की स्थापना है कि ‘हमें ऐसा लग सकता है कि विश्व में गिरावट आ रही है। परंतु यह हमारी समझ की समस्

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दर्शनीय दुमका

28 मई 2022
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”दर्शनीय दुमका ”आलेख के लिए सर्वप्रथम मैं अपने मित्र साकेश जी के प्रति आभार व्यक्त करना चाहूंगा, जिन्होंने दुमका और उसके आसपास के दर्शनीय स्थलों, जैसे बासुकिनाथ धाम, मसानजोर बांध और रामगढ़ स्थित छिन्न

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ईद, बकरीद और मुहर्रम

28 मई 2022
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इस्लाम के तीन प्रमुख त्यौहार हैं — ईद, बकरीद और मुहर्रम । जहां ईद का संबंध इस्लाम के जन्मदाता मुहम्मद पैगंबर और कुरान से है, वहीं बकरीद का यहूदियों, ईसाइयों और मुसलमानों  — तीनों के पहले पैगंबर यानी इ

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मास्साहब

28 मई 2022
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हमारे कस्बानुमा बड़े गांव — बथनाहा के पूर्वोत्तर में एक छोटा सा गांव है — बंगराहा । पता नहीं यह नाम कब रखा गया और इसका क्या अर्थ हो सकता है ? संभव है बंग से बंगाल शब्द का कोई लेना-देना हो । वैसे भी सद

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राजा राममोहन राय -एक रहस्यमय व्यक्तित्व

28 मई 2022
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राजा राममोहन राय, इस नाम से देश के सभी साक्षर और शिक्षित अवश्य परिचित होंगे, क्योंकि उनके विषय में इतिहास की विद्यालयी पुस्तकों में थोड़ा-बहुत उल्लेख अनिवार्यत: मिलता है। उन्हें भारतीय नवजागरण का अग्र

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वो महिला

28 मई 2022
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प्रातः बेला मैं तैयार होकर गुवाहाटी से शिवसागर, असम की पुरानी राजधानी, की यात्रा के लिए गाड़ी में बैठा। हमारा ड्राइवर असम का ही था। उसकी कद-काठी अच्छी थी। नाम था खगेश्वर बोरा। वह सहज रूप से हिन्दी बोल

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जम्मू-कश्मीर को उर्दू नहीं हिन्दी, कश्मीरी और डोगरी चाहिए

28 मई 2022
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यदि हम भारत के भाषायी परिदृश्य पर ध्यान दें तो हमें पता चलेगा कि जम्मू-कश्मीर जैसी अतिशोचनीय स्थिति किसी और राज्य की नहीं है। यहां एक ऐसी भाषा राजभाषा बनकर राज कर रही है जिसकी उपस्थिति उस राज्य में नग

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अटेंडेंट

28 मई 2022
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सूर्यास्त की बेला — मैं नहा धोकर बचे हुए पानी से गमलों के पौधों की सिंचाई में लग गया। देखा एक पौधा सिकुड़कर छोटा हो गया है और मुरझा गया है। मन में ग्लानि हुई कि यह मेरे ध्यान न देने का फल है। पानी ही

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गौरी

28 मई 2022
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चैत्र मास समाप्ति की ओर है। यद्यपि दोपहर के बाद तो अब सूर्यदेव अपना प्रचंड रूप दिखाने लगे हैं, परंतु प्रातः बेला अभी भी शीतल है। बालसूर्य की नयनाभिराम बेला। टहलने के लिए उपयुक्त समय। इसलिए इसी बेला मे

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‘ लक्ष्मण टीला ‘ या ‘ टीले की मस्जिद ‘

28 मई 2022
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लक्ष्मण टीला ‘ या ‘ टीले की मस्जिद ‘ लखनऊ की प्राचीन गाथा कहने का एक लघु किंतु क्रांतिकारी प्रयास डॉ शैलेन्द्र कुमार स्वतंत्रता पूर्व विदेशी इतिहासकारों और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे इतिहासकार

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बांग्लादेश : आहत लोकतंत्र

28 मई 2022
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हाल ही में संपन्न हुए बांग्लादेश के चुनाव पर हमारे देश के हिंदी और अंग्रेजी समाचार पत्रों में जितने भी लेख छपे उनमें से अधिकतर में यह भाव मुखर था कि शेख हसीना की जीत भारत के लिए बहुत लाभकारी है। इस प्

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अनावश्यक अजान और पांच बार नमाज की अनिवार्यता के परिणाम।

28 मई 2022
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अनावश्यक अजान और पांच बार नमाज की अनिवार्यता के परिणाम। इन दिनों वाराणसी में गंगा नदी में नौका विहार करते हुए एक विदेशी पर्यटक का वीडियो सोशल मीडिया में काफी वायरल ( प्रचलित ) हुआ है। वीडियो में यह व

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शेख अहमद सरहिन्दी : भारत में अलगाववादी विचारधारा का जन्मदाता

28 मई 2022
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शेख अहमद सरहिन्दी : भारत में अलगाववादी विचारधारा का जन्मदाता डॉ शैलेन्द्र कुमार सारांश इस लेख का सर्वप्रधान उद्देश्य यह दर्शाना है कि भारत में अलगाववादी विचारधारा का जन्मदाता शेख अहमद सरहिंदी था। इ

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गो रक्षण, जिन्ना और अम्बेडकर

28 मई 2022
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शेख मुजिबुर रहमान, जो जामिया मिलिया इस्लामिया में पढ़ाते हैं, का पिछले 25 जून को ‘द हिंदू’ दैनिक में गो रक्षण के नाम पर घटित हिंसक घटनाओं को लेकर एक अतार्किक और अत्यंत आपत्तिजनक लेख प्रकाशित हुआ। इस स

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मस्जिद की अनिवार्यता

28 मई 2022
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फैजुर रहमान का 7 अगस्त के ‘द हिंदू’ दैनिक में ‘मस्जिद की अनिवार्यता’ विषय पर एक लेख प्रकाशित हुआ। रहमान एक इस्लामी मंच के महासचिव हैं जिसका उद्देश्य है संयत विचार को बढ़ाना या बढ़ावा देना। इस लेख का म

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अनन्य हिंदी प्रेमी अटल बिहारी वाजपेयी

28 मई 2022
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अटल बिहारी वाजपेयी भारत के राजनैतिक क्षितिज में पिछले कई दशकों से सर्वाधिक चमकता हुआ सितारा थे। अपनी मिलनसार प्रवृत्ति, विलक्षण वाकपटुता, मनमोहक वक्तृत्वकला और असाधारण प्रतिउत्पन्नमति के कारण सारे देश

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स्वच्छ भारत की ओर निर्णायक कदम

28 मई 2022
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हमारे देश में गाँव कविता के विषय के रूप में कवियों को आकर्षित करता रहा है। मैथिलीशरण गुप्त की ये पंक्तियाँ तो जगप्रसिद्ध रही हैं – “अहा ! ग्राम जीवन भी क्या है। क्यों न इसे सबका जी चाहे।“ इसी तरह सुमि

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शैक्षणिक संस्थानों का देश के विकास में योगदान

28 मई 2022
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आधी सदी पहले ही अर्थशास्त्रियों ने किसी भी देश के आर्थिक विकास में शिक्षा के महत्व को समझ लिया था। बाद में यह विचार फैलने लगा कि शिक्षा किसी भी व्यक्ति को स्थायी रूप से परिवर्तित कर देती है और उसे मान

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पाकिस्तान में जनसंख्या विस्फोट के निहितार्थ

28 मई 2022
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पिछले दिनों करीब दो दशक बाद पाकिस्तान की छठवीं जनगणना सम्पन्न हुई। इसके अनुसार आज पाकिस्तान की जनसंख्या 20 करोड़ 78 लाख है। 1998 में की गई पिछली जनगणना में पाकिस्तान की जनसंख्या लगभग 13 करोड़ थी और उस

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हवाई यात्रा के लिए बिहार देश का छाया प्रदेश

28 मई 2022
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किसी भी देश के विकास में यातायात और उसमें भी वायु यातायात का योगदान अन्यतम है। भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण ने एक अध्ययन के हवाले से बताया है कि किस तरह वायु सेवा से तेजी से आर्थिक विकास सम्भव होता है।

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हिंदी साहित्याकाश में सूर्य की तरह चमकने वाले ‘दिनकर’

28 मई 2022
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हिंदी साहित्याकाश में सूर्य की तरह चमकने वाले सचमुच में दिनकर ही थे। रामधारी सिंह दिनकर में साहित्य सर्जन के गुण नैसर्गिक रूप से विद्यमान थे। इसलिए आश्चर्य नहीं कि केवल पंद्रह वर्ष की आयु में ही उनका

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क्यों बार बार संकट आता है मालदीव पर?

28 मई 2022
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पिछले कुछ दिनों से मालदीव के संकट में आ जाने के कारण वहाँ का राजनीतिक घटना क्रम बहुत तेजी से बदल रहा है। हुआ यह कि वहाँ के राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन ने मालदीव के सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश

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क्यों नहीं मिल रहा रोजगार युवाओं को?

28 मई 2022
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उन्नीस सौ नब्बे के दशक में आरंभ हुए आर्थिक उदारीकरण के परिणामस्वरूप माना जाता है कि भारत की आर्थिक वृद्धि दर में अभूतपूर्व तेजी आई। जबकि आजादी के बाद से 1980 तक भारत की आर्थिक वृद्धि दर औसतन सिर्फ 3.5

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नेताजी का अमूल्य योगदान इतिहासकारों का मोहताज नहीं

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नेताजी सुभाषचन्द्र बोस महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू की तरह हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के पहली पंक्ति के नेता थे। पर अपने आप को भारत माता पर उत्सर्ग करने की आतुरता में उनकी तुलना शहीद भगत सिंह जैसे वीरों

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क्यों बार बार संकट आता है मालदीव पर ?

28 मई 2022
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पिछले कुछ दिनों से मालदीव में राजनीतिक घटना क्रम बहुत तेजी से बदल रहा है। हुआ यह कि वहाँ के राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन ने मालदीव के सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश तथा एक न्यायाधीश को गिरफ़्तार

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भारत-अफ्रीका के गहराते संबंध और इनके निहितार्थ

28 मई 2022
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भारत-अफ्रीका फोरम शिखर सम्मलेन के तीसरे संस्करण का आयोजन 26 से 29 अक्टूबर 2015 तक नई दिल्ली में होने जा रहा है। सभी 54 अफ़्रीकी देशों को निमंत्रण देकर भारत सरकार ने अफ्रीका से अपने संबंधों को आगे ले जा

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1857 की क्रांति की 160वीं जयंती

28 मई 2022
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आज ही के दिन ठीक एक सौ साठ साल पहले यानी 10 मई 1857 को जिस ऐतिहासिक क्रांति का सूत्रपात मेरठ से हुआ वह कई अर्थों में विलक्षण थी । क्रांति का क्षेत्र व्यापक था और इसका प्रभाव लम्बे समय तक महसूस किया गय

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