लक्ष्मण टीला ‘ या ‘ टीले की मस्जिद ‘ लखनऊ की प्राचीन गाथा कहने का एक लघु किंतु क्रांतिकारी प्रयास
डॉ शैलेन्द्र कुमार
स्वतंत्रता पूर्व विदेशी इतिहासकारों और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे इतिहासकारों और बौद्धिकों के एक सर्वाधिक प्रभावशाली वर्ग ने हमारे देश की प्राचीनता, प्राचीन उपलब्धियों और यहां तक कि प्राचीन सभ्यता के विध्वंस के इतिहास की सुनियोजित रूप से उपेक्षा की है। इतिहासलेखन की पद्धतियों से लेकर तथ्यों और सामग्रियों के चयन तक में इसे देखा जा सकता है। इस काम में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण से लेकर इतिहासलेखन से जुड़ी तमाम संस्थाएं और अनेक स्वतंत्र रूप से इतिहास लिखने वाले तक शामिल रहे हैं। इस संदर्भ में लखनऊ की प्राचीनता को लेकर अधिकतर इतिहासकारों और बौद्धिकों का जैसा व्यवहार रहा है वह अत्यंत पीड़ादायक होने के साथ-साथ इतिहास के साथ खिलवाड़ जैसा है।
योगेश प्रवीन, जिन्होंने सोलह पुस्तकें सिर्फ लखनऊ पर लिखी हैं और जिन्हें हम बड़ी आसानी से लखनऊ का विशेषज्ञ मान सकते हैं, अपनी पुस्तक ‘ताजदारे अवध’ (2015) में लिखते हैं : “हमारी आजादी के पहले लखनऊ का जितना भी इतिहास लिखा गया चाहे वह मुस्लिम हुकूमत की तवारीखी किताबें हों या ब्रिटिश शासन काल के ( लखनऊ ) गजेटियर हों, हर एक में लखनऊ के जिक्र से पहले दावे के साथ इस बात को दोहराया गया है कि भगवान रामचंद्रजी महाराज के छोटे भाई लक्ष्मणजी ने इस नगर को बसाया था। लेकिन जब हम स्वतंत्र हो गए तो हमारे विश्वासों में कुछ बल आ गया और हमने लखनऊ के इतिहास पर भ्रम की लकीरें खींचनी शुरू कर दीं और उसे कुछ इस तरह लिखने लगे, “ऐसा कहा जाता है कि इस शहर को लक्ष्मणजी ने बसाया था।””
इसलिए आश्चर्य नहीं कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की आर एस फोनिया लिखित पुस्तक में भी लखनऊ के इतिहास के बारे में कुछ इस तरह लिखा गया है, “स्थानीय किंवदंतियों के अनुसार, यह विश्वास किया जाता है कि लखनऊ पर भगवान राम के अनुज लक्ष्मण का शासन था।” यहां ध्यातव्य है कि फोनिया यह नहीं कहते कि लखनऊ को लक्ष्मण ने बसाया था बल्कि यह कि लक्ष्मण ने उस पर शासन किया था। इसके आगे फोनिया लिखते हैं कि “मुगल शासन की स्थापना के पहले लखनऊ का इतिहास नाम मात्र का ही है।”
परंतु फोनिया ने ही आगे यह भी लिखा है कि “लखनऊ क्षेत्र में हुए उत्खनन से ईसा पूर्व पहली सहस्राब्दी से लेकर आरंभिक ऐतिहासिक, गुप्त काल, मध्य काल और आधुनिक काल तक यहां पर मानव बस्तियों की निरंतरता का पता चलता है” ( पृष्ठ 5 )। ये कैसे विरोधाभासी वक्तव्य हैं जहां एक ओर तो कहा जाता है कि मुगल पूर्व लखनऊ का इतिहास नगण्य है, पर दूसरी ओर यह कि यहां का इतिहास दो हजार साल पुराना है। फोनिया इतना भी नहीं बताते कि मध्य काल से पूर्व के लगभग बाईस सौ वर्षों में एक भी स्मारक ऐसा नहीं जिसका उल्लेख किया जाए ! स्पष्ट है लेखक की रुचि लखनऊ की प्राचीनता में नहीं बल्कि इसके मध्यकालीन इतिहास में ही है।
तर्क किया जा सकता है कि बिना पुरातात्विक साक्ष्य के हम कैसे कह सकते हैं कि लखनऊ को भगवान राम के अनुज लक्ष्मण ने ही बसाया था। पर ऐसी स्थिति में इतना तो कहा ही जा सकता है कि मुस्लिम और अंग्रेजी शासन के दस्तावेज के अनुसार ‘इस नगर को लक्ष्मण ने बसाया था।’ लेकिन हमने ऐसा भी नहीं किया। इसके अतिरिक्त पुरातात्विक साक्ष्य स्पष्ट करते हैं कि यह नगर ईसा पूर्व कम-से-कम एक हजार वर्षों से अस्तित्व में था।
प्रवीन अपनी पुस्तक ‘ताजदारे अवध’ के माध्यम से हमें बताते हैं कि लखनऊ का जन्म जिस ‘लखनावती’ से हुआ उस लखनावती का नाम प्राचीन काल में ‘लक्ष्मणपुरी’ था। लेखक, पुरातत्त्वविद और इतिहासवेत्ता इकरामुद्दीन किदवई ने अपनी पुस्तक ‘लखनऊ पास्ट एण्ड प्रेजेंट’ में लिखा है कि “लक्ष्मण के पुराने नगर जिसे लक्ष्मणपुर, लखनपुर या लखनावती कहते हैं जिसका प्रचलित अपभ्रंश लखनऊ है, का मूल स्थान लक्ष्मण टीला है।” प्रवीन लिखते हैं कि लक्ष्मण टीले को ही लक्ष्मण दुर्ग का खंडहर बताया जाता है। लक्ष्मण टीले में परत-दर-परत ईसा पूर्व के हजारों वर्ष तक का इतिहास छुपा पड़ा है जिसे टीले से प्राप्त खिलौनों, फलक, मृदभांडों तथा अन्य सामग्रियों से प्रमाणित भी किया जा चुका है। लक्ष्मण टीले की ही विशाल परिधि के कुछ हिस्से पर शेखों का किला मच्छी भवन बना, नवाबी में बड़ा इमामबाड़ा बना और ब्रिटिश काल में मेडिकल कालेज की बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी की गईं।
लक्ष्मण टीला प्राचीन समय में ही तीर्थस्थान बन चुका था। इस टीले के शिखर पर एक शेष कूप तथा मंदिर था। इस शेष कूप के लिए प्रसिद्ध है कि यहां दूर-दूर से तीर्थ यात्री आते थे और पत्र-पुष्प तथा नैवेद्य इसी कूप में चढ़ाते थे। उनका विश्वास था कि इस पाताल-तोड़ कुएं में चढ़ाया गया पत्र-पुष्प धरणीधर भगवान शेष को प्राप्त होता है। त्रेता युग में रामानुज लक्ष्मण शेषावतार थे। इसीलिए उनकी नगरी में उनके यथार्थ अस्तित्व का इस प्रकार पूजन-अर्जन होना स्वाभाविक भी था।
लखनावती के लक्ष्मण टीला मंदिर की सिद्धि-प्रसिद्धि दूर-दूर तक थी और इसी मंदिर तथा गोमती तट के कारण यह स्थान ‘छोटी काशी’ के नाम से विख्यात हुआ। यह स्थल हिंदुओं का शाश्वत श्रद्धा-केंद्र था। यह बात केवल ऐतिहासिक पुस्तकों से ही प्रमाणित नहीं होती, इस बात से भी सिद्ध होती है कि मुगल शासक औरंगजेब ने शेष तीर्थ को नष्ट करके ही उसके स्थान पर आलमगीरी मस्जिद बनवाई। अपने लखनऊ भ्रमण के दौरान उसने लक्ष्मण तीर्थ की यह महिमा देखी तब ही उसने अवध के तत्कालीन सूबेदार सुल्तान अलीशाह कुलीखान को मंदिर ध्वस्त करने का आदेश दिया था। ऐसा ही उसने मथुरा की कृष्ण जन्मभूमि के साथ किया था और वाराणसी के विश्वनाथ मंदिर के साथ भी किया। इस तथ्य का प्रत्यक्ष प्रमाण कटरा केशव की तथा ज्ञानवापी की आलमगीरी मस्जिदें हैं। इस तरह ये तीनों मस्जिदें मिलकर यह साबित करती हैं कि उस युग में लखनावती का महत्व तीर्थ के रूप में मथुरा, काशी से कम न था और गोमती के तट पर बसी लखनावती ‘छोटी काशी’ के नाम से जानी जाती थी।
सन 1831 के लखनऊ गजेटियर के अनुसार लखनऊ जनपद के बहुत से कस्बे और गांव पौराणिक काल से संबद्ध हैं। इतना ही नहीं, लखनऊ जनपद से कुषाण युग तथा गुप्त काल की तमाम विष्णु-मूर्तियाँ, शिवलिंग तथा देवी विग्रह समय-समय पर प्राप्त होते रहे हैं। इस संदर्भ में हुलासखेड़ा से प्राप्त कार्तिकेय की स्वर्णमूर्ति, सरोजनी नगर उत्खनन से प्राप्त नृत्य गणपति मूर्ति और बेरोली से निकली आवक्ष नारी प्रतिमा उल्लेखनीय हैं।
लखनऊ और इसके आस-पास के क्षेत्र देवी मदिरों के लिए भी प्रसिद्ध रहे हैं जहां देवी मंदिरों की भरमार है। चौक का बड़ी काली मंदिर किसी समय बौद्ध मठ के रूप में था। जब शंकराचार्य दिग्विजय के लिए निकले तो इस स्थान पर उन्होंने विष्णु तथा शिव विग्रहों की स्थापना की और यह लक्ष्मी-नारायण मंदिर कहा जाने लगा। इसी तरह शीतला देवी का मंदिर भी जानकीनंदन राजकुमार लव द्वारा प्रतिष्ठित बताया जाता है और इस मंदिर में शुंग कालीन प्रतिमाएँ भी मिली हैं। लखनऊ के कुछ शिव मंदिर इतने प्राचीन और प्रामाणिक हैं कि उनकी ख्याति दूर-दूर तक है। यहां का कोणेश्वर महादेव मंदिर रामायण कालीन बताया जाता है। पुराने लखनऊ में स्थित इस मंदिर का नाम ही अनोखा है। कोणेश्वर रावण के इष्ट शंकर का नाम था। लखनऊ के मनकामेश्वर, बुद्धेश्वर तथा सिद्धेश्वर महादेव और कालकूटेश्वर महादेव मंदिर भी बड़े पुराने, जनपूजित तथा मनोवांछनापूरक हैं। वैसे तो हनुमान की उपासना सारे देश में होती है। लेकिन जैसी हनुमान उपासना लक्ष्मण के नगर में लोकप्रिय है, राम की राजधानी अयोध्या में भी नहीं। लखनऊ में महावीर मंदिर बहुत बड़ी संख्या में हैं और इनमें से कुछ बहुत प्राचीन हैं।
सनातन मंदिरों के अतिरिक्त लखनऊ जैन-बौद्ध तीर्थ भी माना जाता है। पुराने लखनऊ से प्राप्त जैन प्रतिमाएँ बारहवीं शताब्दी से भी पहले की प्रमाणित हो चुकी हैं। नगर में पंद्रह श्वेतांबर जैन मंदिर हैं। यवनकाल में ध्वस्त किए गए कुछ मंदिरों की जैन प्रतिमाओं को पुनः नए मंदिरों में स्थापित किया गया है।
लखनऊ जनपद में मोहनलालगंज के निकट उल्हासखेड़ा नामक गांव में जो उत्खनन कार्य हुआ है उसने तो लखनऊ की प्राचीनता को पूर्णत: सिद्ध कर दिया है। इस क्षेत्र में खुदाई से पुराने भवनों के अवशेष, बर्तनों के टुकड़े, मृण्मूर्तियों तथा अन्य सामग्रियाँ उपलब्ध हुई हैं जिससे यहां के ईसा पूर्व इतिहास पर प्रकाश पड़ता है।
प्रवीन मानते हैं कि इतिहास की परतें एक दूसरे पर कुछ इस तरह चढ़ती जाती हैं कि हर अगला दौर पिछले दौर पर कुछ न कुछ पर्दा डालता चलता है। लखनऊ के इतिहास के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। लखनऊ के इतिहास के नाम पर नवाबी चांद-तारे कुछ ऐसे जगमगा उठते हैं कि बस उसके पीछे के युग को आंख उठाकर देख पाना मुश्किल हो जाता है।
दिल्ली में गुलाम वंश की स्थापना काल से मुगलों की दिल्ली उजड़ने तक लखनऊ, शेखों का लखनऊ रहा। इन छह सदियों में अवध की धरती पर आफतों की वो आंधियाँ आईं कि हजारों बरस पहले वाली सभ्यता पर झाड़ू फिर गई। शेखों के समय में मूर्ति तोड़ने वालों ने बड़ी बेदर्दी से लखनावती की हिंदू सभ्यता को ध्वस्त किया। परिणामस्वरूप हुआ यह कि वो चकनाचूर सभ्यता या तो समकालीन मुस्लिम इमारतों में बंट गई या फिर लक्ष्मण टीला, क़िला मुहम्मदी नगर और दादुपुर की टेकरी में समाधिस्थ होकर रह गई और यही कारण है कि लखनऊ तथा उसके आस-पास के मंदिरों में खंडित मूर्तियों के ढेर लगे हुए हैं।
दिल्ली सल्तनत के खिलजी, तुगलक, लोदी और फिर आलमगीरी शासन काल में मूर्ति तोड़ने वालों की इच्छा अच्छी तरह पूरी की गई और देश के दूसरे महत्वपूर्ण स्थानों की तरह लखनऊ जनपद के हिंदू मंदिरों की ईंट से ईंट बजाई जाती रही। लखनऊ अंचल में उनई की कात्यायिनी (नौवीं सदी), अरम्बा के विष्णु (मौर्यकाल), अमानीगंज के बाराह (मौर्यकाल), दिलवंशी का शिवलिंग (दसवीं सदी), और डिगोई की गोमती प्रतिमा (बारहवीं सदी) तो व्यथा कथा के सिर्फ कुछ प्रमाणित एवं उल्लेखनीय उदाहरण भर हैं। वैसे पूरे जिले में क्षत-विक्षत देव विग्रहों की भरमार है।
प्रवीन के अनुसार, अब प्रश्न यह था कि कालिंजर और मिर्जापुरी के वो गुप्तकालीन प्रस्तर स्तम्भ, देवालयों के नागर कला मंडित द्वार देहरीतोरण-धानुष तथा मंदिरों के जगमोहन क्या किए जाते ? पत्थरों के ये जो कुछ हिंदू स्थापत्य था वो अपनी रचना प्रणाली के कारण इस्लाम में हराम (अग्राह्य) जरूर था लेकिन शेखजादों के धनाभाव और जल्दबाजी ने कुछ और ही करवाया। असल में पत्थर की हिंदू कमानों को छोड़ सकना शेखजादों के बस के बाहर की बात थी। इसलिए उन सभी गुप्तकालीन हिंदू तोरणों और आस-पास की गढ़ियाँ तोड़कर फकीरों के मकबरे खड़े किए गए और फिर उन पर तत्कालीन दिल्ली चलन के गुंबदों की टोपियाँ रख दी गईं। इसके बाद भी कुछ माल-मसाला बच गया तो सूबेदारों, रिसालदारों और अहलकारों ने अपने वास्ते पेशगी मकबरे बनवा लिए। इसलिए इस तरह की खिचड़ी इमारतें पूरे लखनऊ जनपद में जहां तहां नजर आती हैं।
लखनऊ की ये खास तर्ज वाली इमारतें जिस दौर का प्रतिनिधित्व करती हैं उस दौर की कथा शुरू होती है जब कुख्यात बुतशिकन (मूर्ति तोड़ने वाला) महमूद गजनवी का भतीजा, हरात का रहने वाला सैयद सालार मसूद गाजी अपने सिपाहियों के साथ पश्चिम की तरफ से भागता हुआ लखनऊ आया। यहां पांव धरते ही उसे पहला युद्ध कसमंडी (मलिहाबाद) के राजपासी राजा कंस के साथ करना पड़ा। इस भीषण युद्ध में उसके दो बेटे मारे गए। इन दोनों के साथ जो सिपाही इस जिहाद में मारे गए वे सब ‘गंजशहीदा’ मलिहाबाद में दफन हैं। इसी तरह उन जिहादियों को एक कठिन युद्ध लखनऊ में लखनाकोट के नीचे करना पड़ा। यहाँ के युद्ध में मारे गए मसूद गाजी के साथी लखनऊ के सोबतिया बाग में सो रहे हैं। जहां नौ-नौ गज की कब्रें आज भी मिलती हैं। ये कब्रें किसी नौ गज के इंसान की न होकर बड़ी तादाद में मारे गए सिपाहियों की सामूहिक समाधियाँ हैं।
इन मुस्लिम आक्रांताओं के प्रयासों का नतीजा यह हुआ कि पश्चिम की तरफ से एक रास्ता खुल गया और फिर बिजनौर तथा रामनगर के शेख पठान लखनऊ जनपद में मलिहाबाद और शहर की हरी नीम के पेड़ों के नीचे ‘निमहरे’ में आबाद होने लगे। इस अतिक्रमण का सबसे पहला निशाना लखनावती के ‘शेषतीर्थ’ को बनाया गया। इस समय दिल्ली पर तुगलक़ों का शासन था। अगर अयोध्या की रामजन्म भूमि पर कलंदशाह ने डेरा डाल दिया था तो यहां शेखों के सरगना मुहम्मदशाह ने लक्ष्मण टीले पर बिस्तर बिछा दिया। अपने जीवन काल में वह शेष कूप तीर्थ को तो नष्ट नहीं कर सका। लेकिन उसकी मृत्यु के बाद उसे उसी टीले पर दफन कर दिया गया तो यहां के शेखजादे उसे ‘लक्ष्मण टीला’ न कहकर ‘मुहम्मदशाह का टीला’ कहने लगे। टीले पर बोया गया बीज चार सौ बरस बाद फला-फूला जब औरंगजेब लखनऊ आया और उसने अपने सूबेदार सुल्तान अलीशाह कुलीखान के द्वारा गोमती तट की छोटी काशी के उस सुप्रसिद्ध मंदिर को तोड़कर आलमगीरी मस्जिद बनवा दी। लक्ष्मण टीले पर खड़ी इस औरंगजेबी मस्जिद के सर पर आज भी राजपूती छतरियों के ताज रखे हैं और मस्जिद के गोशों में मंदिर के स्थापत्य की झलक विद्यमान है। नूरबाड़ी स्थित इसी सूबेदार सुल्तान अलीशाह कुलीखान के मकबरे में शेषतीर्थ मंदिर की एक देहरी चौखट आज भी देखी जा सकती है और यही उस तीर्थ मंदिर का एकमात्र स्मृति चिह्न है।
शेरशाह के राज्यकाल में शेख पठानों के गढ़ मलिहाबाद में ‘छतरी बारहखंभा’ और ‘शाही मस्जिद’ का निर्माण हुआ। ये कुल इमारतें मसूद गाजी द्वारा ध्वस्त राजपासी राजा मल्ली पासी की ‘गढ़ी मल्ली’ के भग्नावशेषों पर बनवाई गईं। इनके साथ की बावली उस गढ़ी की प्राचीन बावली है जिस पर नया घाट बंधवा कर उसे नई रूपरेखा दी गई। घाट के ये पत्थर भी मंदिर की दीवारों के अंश हैं। ‘छतरी बारहखंभा’ जिसमें गिनती के बारह प्रस्तर स्तंभ लगे हैं, सबके सब खंभे राजपासी राजा कंस की गढ़ी कसमंडी (कंसमंडप) के मंदिर से लाए गए हैं। इन स्तंभों पर गुप्त कालीन मंदिरों के विशिष्ट बेल-बूटों के डिजाइन आज भी देखे जा सकते हैं।
सिकंदर लोदी के जमाने में काकोरी में काजी-बहारी-अब्बासी यहां आकर बसे और यहां पर खूब सांप्रदायिक दंगे हुए। इस बीच पुराने मंदिरों और गढ़ियों को बराबर तोड़ा जाता रहा। किसी तरह इस स्थिति को शेरशाह ने संभाला। उसके समय में कुछ फकीरों ने रहना शुरू किया। उनमें सबसे पहले सलीमशाह यहां आया और उसके बाद कारी सैफ़ुद्दीन के साहबजादे मख़्दूम निज़ामुद्दीन अपने कबीले के साथ यहां आकर रहने लगे। ये मुस्लिम फक़ीर यहां की निर्धन जनता को इस्लाम की दीक्षा देने के उद्देश्य से भेजे गए।
काकोरी की कुछ इमारतों में 16वीं सदी के पूर्वार्ध में बना ‘झंझरी रोजा’ सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण है। दिल्ली सल्तनत की छत्रछाया में मिले-जुले देहलवी स्थापत्य से बना यह मकबरा देखने योग्य है। सारी इमारत लाल चौड़ी ईंटों से बनी है जो कई ढंग तथा विभिन्न आकारों की है। ये कुल ईंटें रोहितास के क़िले से उतारी गई थीं। इस मकबरे का दरवाजा तो बड़ा ही अजीब है। देवी मंदिर का ये बादानी पत्थर का प्रवेश द्वार सुंदर कटावदार तोरण से सुसज्जित है और उसे ज्यों-का-त्यों दीवार में पहना दिया गया है। मकबरे में जहां-तहां देवालय-स्तंभ लगे हैं। उनमें एक में गजमुख तथा कमल का फूल बड़ी खूबसूरती से बना हुआ है। मकबरे की सीढ़ियों पर भी मंदिरों के प्रस्तर खंड लगे हुए हैं। इस्लामी नियमों के विपरीत ये हिंदू आकृतियाँ इस मकबरे की निर्माण कथा विस्तार से सुनाती हैं।
जहांगीर के शासन काल में ही लखनऊ के मनसबदार शेख अब्दुर्रहीम की मृत्यु हुई। उसका मकबरा और उसके पिता रहमत उल्ला शाह का मकबरा ‘नादान महल’ के नाम से प्रसिद्ध है। रहमत उल्ला शाह का मकबरा तुगलक स्थापत्य पर बना है। इस मकबरे में लगे हुए कंक्रीट ब्लॉक प्राचीन सभ्यता के प्रमाण हैं। ये कंक्रीट ब्लॉक लखनऊ के निकट नगराम (नागर ग्राम) के भारशिवों के किले से उतार कर लाए गए थे। इस रोजे के प्रवेश में दोनों तरफ हिंदू मंदिरों के प्रस्तर-खंड लगे हैं, जिन पर बने हुए सुंदर बेल-बूटे ध्यान देने योग्य हैं।
शेख अब्दुर्रहीम और उसकी बीवी का मकबरा और उसके साथ की कब्रगाह लाल बलुए पत्थर के एक गुप्तकालीन धरमध्वजी के मंदिर को दो भागों में बाँटकर बनवाई गई है। मंदिर के बारह पहल वाले सुंदर नागर-कला उत्कीर्ण खंभों में से 20 मकबरे के बरामदे में चारों तरफ चुने हुए हैं और 12 भीतरी दीवार में लगा दिए गए हैं। सोलह खंभों वाला मंदिर का ख़ूबसूरत जगमोहन कुछ दूर हटाकर खड़ा किया गया है जिसमें उनके परिवार वालों का तकिया है। जहांगीरी गुंबद और सीकरी शैली वाली इन इमारतों में बने हुए गजमुख, कमलपुष्प, नागफन, घंटियाँ आदि अनेक हिंदू शिल्प आज भी अपनी वास्तविकता सुना रहे हैं।
ईसा पूर्व की दस शताब्दियों से दसवीं शताब्दी ईसवी तक लखनऊ ने लक्ष्मणपुरी और लखनावती नाम से हिंदू साम्राज्य के बहुत से रंग देखे। इस जनपद का चप्पा-चप्पा उन मृदभांडों, मृण्मूर्तियों और अलग-अलग सभ्यताओं की उन ईंटों तथा ठीकरों से पटा पड़ा है जो इस स्थान से अपना सीधा संबंध जोड़ते हैं। मौर्य तथा गुप्त काल की तमाम आकर्षक मूर्तियाँ या खंडित देव विग्रह सारे जिले में बिखरे हुए मिलते हैं जो या तो अब उत्तर मध्य कालीन मंदिरों में प्रतिष्ठित हैं या फिर राज्य संग्रहालयों की शोभा बढ़ा रहे हैं।
इस बीस सदी के लंबे दौर में लक्ष्मणपुरी पर सूर्यवंशी, चंद्रवंशी तथा नागवंशी राजाओं का राज्य रहा। उसके बाद लखनावती पर भारशिवों, गुर्जरों तथा प्रतिहारों का अधिकार रहा। इस काल तक लखनऊ को छोटी काशी की तरह पवित्र माना जाता रहा और तब तक लक्ष्मण टीले के आस-पास ब्राह्मण, ठाकुर, कायस्थ और पासियों की बस्तियाँ आबाद थीं। तेरहवीं सदी तक लखनावती को लखनऊ बनाया जा चुका था।
प्राचीन काल से वर्तमान काल तक का अवध का राजनीतिक इतिहास अत्यंत विस्तृत तथा उतार-चढ़ाव की अनेक घटनाओं से परिपूर्ण है। रामायण के अनुसार भगवान श्री रामचंद्र जी के पिता महाराज दशरथ कोशल नामक एक राज्य के राजा थे और अयोध्या उनकी राजधानी थी। ऐतिहासिक काल में कोशल काफी बड़ा राज्य था। छठी शताब्दी ईसा पूर्व के आस-पास उत्तरी भारत जिन सोलह महाजनपदों में विभाजित था, उनमें एक कोशल की राजधानी श्रावस्ती थी। छठी शताब्दी ईसा पूर्व में ही कोशल का पहला ऐतिहासिक राजा प्रसेनजित हुआ था जो मगध के राजा बिंबिसार तथा बाद में उसके उत्तराधिकारी पुत्र राजा अजातशत्रु इन दोनों मगध नरेशों का समसामयिक और प्रतिद्वंद्वी था। कोशल और मगध में शक्ति प्राप्त करने के लिए प्रतिद्वंद्विता चल रही थी। अंत में मगध सम्राट अजातशत्रु ने कोशल को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया। बाद में मगध पर जब नंद और मौर्य वंशों ने शासन किया तो उसमें सम्मिलित कोशल भी उनके अधीन हो गया। प्रवीन कहते हैं कि यह निश्चित रूप से ज्ञात नहीं कि कब सारा कोशल राज्य ‘अयोध्या’ के नाम से विख्यात हो गया। उसका आधुनिक ‘अवध’ नाम ‘अयोध्या’ का ही एक परिवर्तित रूप है।
मगध साम्राज्य के पतन के बाद सन 300 ईसवी में गुप्त साम्राज्य की स्थापना हुई और अयोध्या उसके अंतर्गत हो गया। पाँचवीं शताब्दी में अयोध्या संभवतः गुप्त राजाओं की दूसरी राजधानी थी। सन 606 से 647 तक कन्नौज और थानेश्वर पर शासन करने वाला पुष्यभूति वंश का प्रसिद्ध सम्राट हर्षवर्धन हुआ जिसने अयोध्या पर भी शासन किया। नौंवीं शताब्दी में अयोध्या गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य का भाग रहा। ग्यारहवीं शताब्दी के अंतिम दशक से बारहवीं शताब्दी के अंतिम दशक तक लगभग एक सदी के उस काल में अयोध्या पर गाहड़वाल वंश का शासन रहा।
1206 से 1526 ई तक उत्तरी भारत में दिल्ली सल्तनत का काल था। उस अवधि में अयोध्या दिल्ली सल्तनत के अधीन था। अकबर ने अपने विशाल साम्राज्य के राज्य-संचालन तथा एक समान शासन व्यवस्था के लिए 1580 में अपने साम्राज्य को बारह सूबों में विभाजित किया जिनमें से एक सूबा अवध भी था जिसकी राजधानी लखनऊ बनाई गई। सन 1722 तक अवध मुगलों के अधीन रहा। उसके बाद सादत खां को अवध का सूबेदार बनाया गया। परंतु मुगल शासकों की बढ़ती हुई दुर्बलता के कारण अवध में अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित करके सादत खां ने एक ऐसे राजवंश की नींव रखी जिसे हम ‘नवाबी शासन’ के नाम से जानते हैं। यह शासन 1857 ई तक चला।
1722 ई में लखनऊ पर सुन्नी शेखज़ादों का अधिकार था। कहा जाता है कि उनके पूर्वज अवध के सर्वप्रथम मुसलमान विजेता थे। परंतु सदियों के प्रभुत्व के बाद वे निर्धन, निर्बल तथा महत्वहीन हो गए थे। उन्हीं में से एक बिजनौर निवासी शेख अब्दुर्रहीम था जो अकबर की सरकार में नियुक्त हो गया था। उसकी सेवाओं से प्रसन्न होकर अकबर ने उसे लखनऊ तथा उसके आस-पास के ग्रामीण क्षेत्र जागीर के रूप में प्रदान कर दिया। यहां पर अब्दुर्रहीम ने अपनी पाँच पत्नियों के रहने के लिए पाँच महल बनाए जो ‘पंचमहल’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसी के पास लक्ष्मण टीले के निकट एक ऊंचे टीले पर उसने अपने रहने के लिए एक छोटा और मजबूत क़िला बनवाया जिसका नाम उसके निर्माणकर्ता शिल्पी लखना नामक अहीर के नाम पर ‘क़िला लखना’ रखा गया। उस समय से अब्दुर्रहीम के वंशजों, जो शेखजादे कहलाते थे, ने लखनऊ तथा उसके निकटवर्ती क्षेत्रों पर अपना अधिकार बनाए रखा था। शेखज़ादों का क़िला लखना ही बाद में ‘मच्छी भवन’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसमें कुल 26 मेहराबें थीं और हर मेहराब पर दो-दो मछलियाँ बनी हुई थीं।
अब तक हमने लखनऊ के इतिहास पर एक सरसरी निगाह डाली है। अब हम देखेंगे कि इतने विस्तृत और घटनापूर्ण इतिहास को लेकर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण क्या कहता है। आरएस फोनिया द्वारा लिखित और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा अंग्रेजी में 2013 में प्रकाशित पुस्तक मोन्यूमेंट्स ऑफ लखनऊ (लखनऊ के स्मारक), जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है लखनऊ के स्मारकों को समर्पित है। परंतु दुर्भाग्य यह है कि इस पुस्तक में प्राचीन काल के स्मारकों का उल्लेख तक नहीं है।
फोनिया लिखते हैं कि लखनऊ को लेकर सबसे पहला ऐतिहासिक विवरण इब्न बतूता के सफरनामा (1338-1341), गुलबदन के हुमायूँनामा और अबुल फजल के आइने अकबरी में मिलता है। पर फोनिया कोई और पुस्तक नहीं देखना चाहते जिससे लखनऊ की प्राचीनता का पता चलता। जबकि सही मायने में ये तीनों पुस्तकें भी इतिहास नहीं हैं। फिर रामायण का सहारा क्यों न लिया जाए ? फोनिया हमें स्पष्ट रूप से बताते हैं कि लखनऊ की आरंभिक बस्तियाँ लक्ष्मण टीले या मच्छी भवन के आस-पास तक ही सीमित थीं। फोनिया यह तो स्वीकार करते हैं कि लक्ष्मण टीला एक प्राचीन टीला है, पर इसके आगे कुछ भी नहीं कहते। इसके आगे वह यह भी लिखते हैं कि ‘टीले की मस्जिद’ नाम की मस्जिद औरंगजेब के शासन काल में बनवाई गई। पर यह नहीं लिखते कि मस्जिद मंदिर तोड़कर बनवाई गई।
पुस्तक की प्रस्तावना में फोनिया लिखते हैं कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अंतर्गत लखनऊ मंडल में 364 स्मारक/स्थल हैं। इसके अलावा पूरे लखनऊ शहर में पुरातात्विक और ऐतिहासिक महत्व के असंख्य स्मारक और भग्नावशेष हैं। परंतु फोनिया इन पुरातात्विक और ऐतिहासिक महत्व के असंख्य स्मारकों और भग्नावशेषों के बारे में कुछ और बताने का कष्ट नहीं उठाते।
लखनऊ को लेकर सबसे बड़ी बात यह है कि यह शहर अचानक तो नहीं उभर गया होगा जिस पर सबसे पहले इब्न बतूता की दृष्टि पड़ी होगी। वैसे जब अकबर ने अवध सूबे की राजधानी के लिए लखनऊ को चुना होगा तो स्पष्ट है कि यहां कुछ न कुछ ऐसा रहा होगा जिसे राजधानी के योग्य कहा जा सके। अन्यथा इतने बड़े राज्य की राजधानी निर्वात में नहीं खड़ी की जा सकती थी। इसलिए यह कहना कि मुगल पूर्व लखनऊ का इतिहास नगण्य था अपनी अज्ञानता का परिचय देने के बराबर है।
अध्याय ‘बस्तियाँ और पुल’ में फोनिया दो बार लक्ष्मण टीले का उल्लेख करते हैं। एक बार यह बताने के लिए कि आरंभिक बस्तियाँ लक्ष्मण टीले या मच्छी भवन के आस-पास में बसीं और दूसरी बार यह बताने के लिए कि शहर में कैसे कैसे महत्वपूर्ण स्मारक/स्थल हैं। इसी क्रम में फोनिया लिखते हैं कि ‘एक प्राचीन टीला, जिसे लक्ष्मण टीले के नाम से जाना जाता है, हुसैनाबाद के पूर्व में और गोमती के दाहिने तट पर है।’ परंतु यहां भी फोनिया यह नहीं बताते कि यह प्राचीन टीला है क्या और इसका क्या ऐतिहासिक महत्व है। इसी अध्याय में फोनिया लिखते हैं कि आसफुद्दौला के शासन काल में उसके प्रधानमंत्री – टिकैत राय ने बेहटा नदी पर एक पुल बनवाया (पृष्ठ 18-19)। यह पुल लखनऊ से 19 किलोमीटर की दूरी पर हरदोई मार्ग पर निर्मित है। इस पुल से सटा भगवान शिव का एक मंदिर है। पुल और इस मंदिर के स्थापत्य में बहुत समानताएँ हैं। पुल का आधार अष्टभुजाकार है। इसके लंबे धारीदार शिखर के ऊपर कमल की पंखुड़ियों की आकृति का एक कलश स्थापित है। इसी तरह इसका द्वार भी अत्यंत सुंदर है। पर घोर आश्चर्य की बात है कि फोनिया इस मंदिर के विषय में कुछ भी नहीं बताते कि इसे किसने बनवाया, कब बनवाया आदि। वैसे अनुमान किया जा सकता है कि इस मंदिर को टिकैत राय ने ही बनवाया होगा।
‘नादान महल’ (पृष्ठ 47) के विषय में लिखते हुए फोनिया बताते हैं कि इस भवन के छ्ज्जों को सहारा देने के लिए जो दीवारगीरें बनाई गई हैं उन पर पशुओं की आकृतियाँ भी हैं। इसका अष्टभुजाकार गुंबद एक चौकोर आधार से उठता है जिसको कि भित्ती स्तंभ से सुसज्जित किया गया है और गुंबद के ऊपर उल्टा कमल बनाया गया है। इसी तरह ‘सोलहखंभा’ भी है जिसकी स्थापत्य शैली नादान महल से काफी मिलती-जुलती है। इसके स्तंभों और दीवारगीरों की बनावट नादान महल के स्तंभ और दीवारगीरों से मेल खाती है। इसके कोने की दीवारगीरों की तो ऐसी नक्काशी की गई है कि देखने से गजमुख की आकृति लगती है।
‘टीले की मस्जिद’ के विषय में फोनिया लिखते हैं कि टीले पर स्थित होने के कारण यह मस्जिद भव्य दिखती है। इसके ऊपर जो बीच वाला गुंबद है वह किनारे वाले गुंबदों से कहीं अधिक बड़ा और ऊँचा है और इसके ऊपर उल्टा कमल बनाया गया है।
इस प्रकार चाहे वह ‘नादान महल’ हो या ‘सोलहखंभा’ या ‘टीले की मस्जिद’ सबमें हिंदू आकृतियाँ हैं और जो इस्लाम में स्वीकार्य नहीं हैं।ऐसा कहने के स्थान पर फोनिया चुप रह जाना पसंद करते हैं। फोनिया की पुस्तक को पढ़कर कोई सामान्य पाठक यही समझेगा कि इन सभी इमारतों से हिंदू सभ्यता का कोई लेना देना नहीं है, जबकि ये इमारतें हिंदू सभ्यता के विध्वंस की अत्यंत दारुण गाथा सुनाती हैं। बस आवश्यकता इस बात की है कोई जन-साधारण को इससे अवगत कराए। फोनिया की पुस्तक को पढ़कर जन-साधारण को यह संदेश भी जाता है कि सचमुच मुगलों से पहले लखनऊ नगर नाम मात्र को ही अस्तित्व में रहा होगा और आज जो इमारतें दिख रही हैं, वे सब की सब, मुगल और बाद में नवाबी और अंग्रेजी दौर की ही हैं।
नवाबी पूर्व छह सदियों का इतिहास लखनऊ और उसके आस-पास के क्षेत्र में मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा हिंदू सभ्यता को ध्वस्त करने का इतिहास है जिसको इतिहास से हटाना इतिहास के साथ बहुत बड़ा धोखा है। उन मुस्लिम आक्रांताओं के विपरीत नवाबी युग के आरंभ से ही हिंदू-मुस्लिम एकता पर बल दिया गया। इस युग में एक दूसरे की संस्कृति इस सीमा तक घुल-मिल गई कि उसे ही लखनवी तहजीव (संस्कृति) नाम दिया गया। लखनऊ संभवतः देश का एकमात्र बड़ा शहर है जहां पिछले सौ वर्षों से भी अधिक समय से हिंदू-मुस्लिम दंगे नहीं हुए हैं। जबकि उसी लखनऊ में शिया-सुन्नी के बीच दंगों का लंबा इतिहास है। हिंदुओं से इस तरह का अपनापन इस कारण पनपा कि यहां इस्लाम की शिया शाखा का आधिपत्य था। इसके अतिरिक्त शिया के अनेक धार्मिक रीति-रिवाज हिंदू धर्म से मिलते-जुलते हैं। इसलिए नवाबी सरकार सहित आम लोग हिंदू और इस्लाम दोनों के उत्सवों में खुलकर भाग लेने लगे। प्रवीन लिखते हैं कि वाजिद अली शाह के समय में जितनी मस्जिदें बनीं उतने ही मंदिर बने। तब ही तो उसकी महफिल में जब अंग्रेजों की साजिश के तहत अयोध्या की एक मस्जिद का विवाद खड़ा हुआ तो बड़ी सादगी से वाजिद अली ने सिर्फ इतना ही कहा था —
“हम इश्क के बंदे हैं, मजहब से नहीं वाकिफ।
गर काबा हुआ तो क्या, बुतखाना हुआ तो क्या।।
दुर्भाग्य यह है कि फोनिया इतना भी खुलकर नहीं लिखते। बस इतना ही लिखते हैं कि, “सशक्त शिया संस्कृति के उभरने के कारण लखनऊ में बड़ी संख्या में भवन बनाए गए। यहां की शिया संस्कृति निरंतर ईरान और इराक के संपर्क में रही। ईरानी शहरों से बड़ी संख्या में लोगों के आने से लखनऊ एक महान बौद्धिक केंद्र में परिवर्तित हो गया।”
फोनिया ने पुस्तक के अंत में संरक्षित स्मारकों और स्थलों की सूची दी है जिसमें निम्नलिखित हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं : हुलासखेड़ा टीला, दादुपुर टीला, नटवा डीह, चतुर्भुज बाबा देवस्थान, मंडक महारानी देवस्थान, देवरा ठाकुर मंदिर स्थान और जानकी चरण बाबा (ढोपी महारानी देवस्थान)।
आश्चर्य की बात तो यह है कि कुल मिलाकर ऐतिहासिक महत्व के 97 स्मारकों और स्थलों के नाम दिए गए हैं, परंतु इनमें लक्ष्मण टीले का नाम ही नहीं है। ऊपर दिए गए स्थलों में से हुलासखेड़ा और दादुपुर टीले का उल्लेख प्रवीन ने भी किया है। परंतु फोनिया ने किसी भी स्थल के बारे में पूरी पुस्तक में कुछ भी नहीं लिखा है। प्राचीन को विस्मृत करने का यह रोग कितना भयानक है कि गलती से भी कहीं किसी प्राचीन स्मारक का उल्लेख नहीं किया गया है।
अब तक के विमर्श से स्पष्ट है कि सिर्फ तीन सौ वर्ष पूर्व तक लक्ष्मण टीला का शेषतीर्थ हिंदुओं के श्रद्धा-स्थल की तरह पूजनीय था और यह नगर का हृदय-स्थल भी था। इसे लक्ष्मण दुर्ग भी कहा जाता है। इसलिए छह सौ वर्षों तक सभी की दृष्टि इसी पर लगी हुई थी। उसके इस महत्व को देखकर ही औरंगजेब ने इस मंदिर को नष्ट किया और उस पर मस्जिद खड़ी की। जैसा प्रयास अहिल्याबाई होल्कर और महाराजा रणजीत सिंह ने विश्वनाथ मंदिर के पुनरूत्थान के लिए किया संभवतः वैसा प्रयास न होने के कारण लोगों की स्मृतियों पर समय की धूल पड़ती गई और अंततः यह महान मंदिर विस्मृत कर दिया गया।
इतिहास के संदर्भ में शब्दों का महत्व कहीं अधिक मुखर हो उठता है। यदि हम लखनऊ के पहले तीन अक्षरों पर ध्यान दें तो हमें दिखेगा कि यह ‘लखन’ शब्द लक्ष्मण का अपभ्रंश या बिगड़ा हुआ रूप है। लखन आज भी लक्ष्मण के लिए बहु-प्रचलित पर्याय-सा है। इसलिए लखनऊ का संबंध सीधे-सीधे लक्ष्मण से बनता है। ‘अवध’ अयोध्या का परिवर्तित रूप है। इस तरह आज अवध में अयोध्या समाहित है। इसी तरह मच्छी भवन में ‘भवन’ संस्कृत का शब्द है। मुसलमान आम तौर पर अपने भवनों का नाम ‘महल’ रखते हैं जो अरबी का शब्द है। इसी महल से मुहल्ला बना है। अतः हमें यह मानने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि मच्छी भवन शेखों से पहले भी अस्तित्व में रहा होगा। इसी तरह फोनिया की पुस्तक में लखनऊ का पुराना नाम ‘लक्ष्मणपुर’ लिखा है। जबकि सच यह है कि ‘पुर’ एक फारसी शब्द है, जिसका अर्थ होता है बेटा। उदाहरण के लिए, जौनपुर – जौना का बेटा, बख्तियारपुर- बख्तियार का बेटा, शाहजहाँपुर – शाहजहाँ का बेटा आदि। हमारे देश में नगर के लिए जो शब्द प्रचलित रहा है वह है ‘पुरी’। उदाहरण के लिए, अलकापुरी, द्वारकापुरी, जगन्नाथपुरी, शिवपुरी आदि। ‘पुर’ और ‘पुरी’ के बीच ऊपरी तौर जो ध्वनयात्मक साम्य है उसके कारण इस सूक्ष्म भेद को जन-साधारण नहीं समझ पाते।
पुरातत्व विभाग की पुस्तकें इतिहासलेखन का मुख्य आधार होती हैं और फिर इनमें दी गई स्थापनाएँ पाठ्य-पुस्तकों में स्थान पाती हैं। इसलिए ऐसी पुस्तकों के दोषों का परिणाम भी व्यापक होता है। फिर ऐसा भी होता है कि ऐसी पुस्तकों पर से लोगों का विश्वास उठने लगता है। ऐसी स्थिति किसी भी समाज के लिए शुभ संकेत नहीं होता है। इतिहास निष्पक्ष होना चाहिए चाहे वह कितना ही सुंदर या कुरूप क्यों न हो ! इतिहास का आधार सत्य होता है। परंतु कठिनाई यह है कि सत्य साहस माँगता है।
अंततः जहां तक लक्ष्मण टीले का प्रश्न है तो आज लखनऊ में इस टीले को दोनों नामों से – ‘लक्ष्मण टीला’ और ‘टीले की मस्जिद’ – जाना जाता है। अब आवश्यक है कि इस टीले पर पुरातत्व विभाग टीले का इतिहास लिखे। यहां लिखा जाना चाहिए कि यह टीला कितना प्राचीन है और यहां से ऐतिहासिक महत्व की कैसी-कैसी वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं और यह भी कि यहां के सुप्रसिद्ध मंदिर को औरंगजेब ने ध्वस्त करके उसी स्थान पर मस्जिद खड़ी की। इसी प्रकार उत्खनन से प्राप्त हजारों साल पुरानी मूर्तियों के विषय में भी जानकारी दी जा सकती है। साथ ही नाम के रूप में वैसे तो ‘लक्ष्मण टीला’ को और प्रसिद्धि मिलनी चाहिए पर टीले की मस्जिद के लिए भी ‘लक्ष्मण टीले की मस्जिद’ नाम देना चाहिए। लक्ष्मण टीला तीन हजार वर्ष के इतिहास का प्रतीक है, इसलिए इसका जितना प्रचार हो सके किया जाना चाहिए। इतिहास में स्मारक जितने पुराने होते हैं उनका महत्व उतना अधिक होता है क्योंकि उससे सभ्यता की पुरातनता का आभास होता है। अभी तक लखनऊ को वह सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ है कि वह हाल की इमारतों के पीछे के सुदीर्घ इतिहास को देख सके।
लेखक निवेश एवं लोक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग , वित्त मंत्रालय ,भारत सरकार में संयुक्त सचिव हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं ।
15 फरवरी 2019