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जम्मू-कश्मीर को उर्दू नहीं हिन्दी, कश्मीरी और डोगरी चाहिए

28 मई 2022

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यदि हम भारत के भाषायी परिदृश्य पर ध्यान दें तो हमें पता चलेगा कि जम्मू-कश्मीर जैसी अतिशोचनीय स्थिति किसी और राज्य की नहीं है। यहां एक ऐसी भाषा राजभाषा बनकर राज कर रही है जिसकी उपस्थिति उस राज्य में नगण्य है। संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित बाईस भाषाओं में से जो भाषाएँ जम्मू-कश्मीर में प्रयुक्त होती हैं, वे हैं — कश्मीरी, हिन्दी, डोगरी, पंजाबी, मराठी, नेपाली, उर्दू, बांग्ला, गुजराती, तमिल, तेलुगू आदि। इन भाषाओं के अतिरिक्त कुछ बोलियाँ भी हैं जो प्रमुखता से बोली जाती हैं, उदाहरणस्वरूप, तिब्बती, लद्दाखी, बालटी आदि। बोलने वालों की संख्या की दृष्टि से कश्मीरी सर्वाधिक लगभग 53 प्रतिशत अर्थात आधे से अधिक लोगों द्वारा बोले जाने के कारण प्रथम स्थान पर है। आश्चर्यजनक रूप से  लगभग 21 प्रतिशत बोलने वालों के साथ हिन्दी दूसरे स्थान पर है और उससे थोड़ा ही पीछे डोगरी है जिसके बोलनेवालों का प्रतिशत 20 है। इन तीन भाषाओं के बोलने वालों का राज्य के सभी भाषा-भाषियों में कुल हिस्सा है 94 प्रतिशत। इन तीन भाषाओं के बाद एक ही भाषा है जिसके बोलनेवालों का प्रतिशत एक से अधिक है और वह है पंजाबी जिसे 1.75 प्रतिशत लोग बोलते हैं। इन चार भाषाओं के बाद क्रमशः जो भाषाएँ राज्य में प्रयुक्त होती हैं, वे हैं — मराठी, नेपाली, उर्दू, बांग्ला, गुजराती, तमिल तथा तेलुगू। 

वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार जम्मू-कश्मीर की जनसंख्या 1,25,41,302 है। इस जनसंख्या का 97.27 प्रतिशत अर्थात 1,21,99,484 लोग अनुसूचित भाषाओं का प्रयोग करते हैं और शेष 2.73 प्रतिशत अर्थात 3,41,818 लोग अन्य भाषाओं का प्रयोग करते हैं। जनगणना में प्रत्येक राज्य में संविधान की अनुसूची में सम्मिलित सभी 22 भाषाओं को प्रति दस हजार व्यक्तियों में आवंटित किया गया है। उदाहरण के लिए राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी बोलने वालों की संख्या प्रति दस हजार व्यक्तियों में 4363 है, अर्थात लगभग 44 प्रतिशत। इसी तरह जब हम एकीकृत जम्मू-कश्मीर राज्य को लेते हैं तो, जो चित्र निर्मित होता है, वह इस प्रकार है —


जम्मू-कश्मीर में विभिन्न भाषाएँ बोलने वालों की संख्या

भाषा  प्रतिदसहजार पूरेराज्यमें

कश्मीरी 5327 66,80,837

हिन्दी 2083 26,12,631

डोगरी 2004 25,13,712

पंजाबी 175        2,19,193

मराठी 18        23,006

नेपाली 18        22,138

  उर्दू        16        19,956

बांग्ला 16        19,830

गुजराती 15       19,261

तमिल 12       14,728

तेलुगू 11       13,970

कुलयोग ( अन्य अनुसूचित भाषाओं के बोलनेवालों को जोड़कर ) 9,727 1,21,99,484

संविधान की अनुसूची से बाहर की भाषाएँ बोलने वाले 273 3,41,818

उपरोक्त आँकड़ों से स्पष्ट है कि प्रमुखतः चार ही अनुसूचित भाषाएँ हैं — कश्मीरी, हिन्दी, डोगरी और पंजाबी, जिनके बोलने वालों की संख्या एक लाख या उससे अधिक है अन्यथा शेष अनुसूचित भाषाओं के बोलने वालों की संख्या केवल हजारों में ही है। इन भाषाओं में सबसे विडंबनापूर्ण स्थिति उर्दू की है, जिसके बोलने वालों की संख्या केवल 19,956 है और जो उसी राज्य में मराठी तथा नेपाली बोलने वालों से भी कम है और बांग्ला तथा गुजराती के बोलने वालों के समकक्ष है। जम्मू-कश्मीर राज्य के प्रति दस हजार व्यक्तियों में उर्दू बोलने वालों की संख्या मात्र सोलह है। अर्थात प्रति एक हजार व्यक्तियों में उर्दू बोलने वालों की संख्या बनती है केवल डेढ़। पर इस राज्य की विडंबना देखिए कि यही डेढ़ लोग शेष नौ सौ साढ़े अनठानवे लोगों पर राज करते हैं। क्या ऐसी स्थिति किसी और राज्य की हो सकती थी ?  उदाहरण के लिए केरल को ही लें। केरल में हिन्दी बोलने वालों की संख्या वहां के प्रति दस हजार व्यक्तियों में केवल सोलह है। इस प्रकार जैसी स्थिति उर्दू की जम्मू-कश्मीर में है ठीक वैसी ही स्थिति हिन्दी की केरल में है। परंतु केरल का कोई भी व्यक्ति यह सोच भी नहीं सकता कि वहां की राजभाषा हिन्दी हो। इसलिए किसी भी लोकतांत्रिक राज्य में ऐसी स्थिति अकल्पनीय ही होगी। परंतु जम्मू-कश्मीर में यह एक यथार्थ है। इसलिए हमारे लिए यह सोचना भी कठिन है कि कैसे जम्मू-कश्मीर के लोगों ने इतने लंबे समय तक उर्दू को बर्दाश्त किया होगा।  

परंतु प्रसन्नता की बात है कि डॉ नीरजारुण, जो इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिक स्टडीज, गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदाबाद की निदेशक हैं,  ने इस विषय को ताहिर गोरा से टैग टीवी पर 31 अक्टूबर 2019 को अपने साक्षात्कार में उठाया। फिर भी इसे हमारे देश की बौद्धिक त्रासदी ही कहा जाएगा कि जहां बड़ी संख्या में ऐसे बुद्धिजीवी हैं जो कश्मीर विशेषज्ञ होने का दावा तो करते हैं, परंतु ऐसे मौलिक विषय नहीं उठाते, जिनसे जनता सर्वाधिक प्रभावित होती है। इसलिए डॉ नीरजारुण ने इस विषय को उठाकर एक महती कार्य किया है। वह कहती हैं कि कितने आश्चर्य की बात है कि जिस कश्मीरी भाषा के बोलनेवाले एकीकृत जम्मू-कश्मीर राज्य की जनसंख्या में आधे से अधिक हैं, उस भाषा की वहां के विद्यालयों में पढ़ाई नहीं होती। एक भी पाठ्य पुस्तक कश्मीरी में नहीं है। अभी दो-तीन साल पहले कश्मीर विश्वविद्यालय में एक कश्मीरी विभाग की स्थापना हुई है। लेकिन यहाँ भी कश्मीरी की पढ़ाई न होकर केवल शोधकार्य ही होता है। डोगरी तो इससे भी अधिक उपेक्षित भाषा है। डॉ नीरजारुण आगे कहती हैं कि उर्दू वहां के लिए एक ऐसी भाषा है जिसे वहां के आम लोग न बोलते हैं, न सुनते हैं, न पढ़ते हैं और न लिखते हैं। फिर भी जमीन के कागजात उर्दू में ही होते हैं, जिन पर बिना जाने-समझे किसानों से हस्ताक्षर करा लिए जाते हैं। उर्दू समझने के लिए विद्यालय या महाविद्यालय की शरण में जाना पड़ता है। ऐसी स्थिति को देखते हुए सहज ही कल्पना की जा सकती है कि वहां के लोग किस सीमा तक सरकारी अफसर या सरकारी तंत्र से कट गए होंगे ! इससे भी बड़ा संकट तो यह है कि लद्दाख, जिसकी लद्दाखी, तिब्बती, बालटी आदि भाषाएँ हैं, पर भी उर्दू थोप दी गई। उर्दू की उपस्थिति के कारण वहां की भाषा पनप नहीं सकी। आमतौर पर लद्दाख के लोग हिन्दी बोलते हैं और उसे अपनाना भी चाहते हैं, परंतु ऐसी व्यवस्था विकसित ही नहीं की गई कि ढंग से हिन्दी पढ़ाई जा सके।

डॉ नीरजारुण का अनुमान है कि सबसे अधिक उर्दू जानने वाले केवल कश्मीर विश्वविद्यालय में हैं। इसके बाद राजनीति, प्रशासन और पत्रकारिता में। ये वही लोग हैं जिनके हाथों में सत्ता की चाभी रही है और जिनकी उपस्थिति में आतंकवाद सातवें आसमान तक पहुँचा। इसलिए अपनी स्थानीय भाषाओं की उपेक्षा करके सरकार का जनता से कट जाना भी आतंकवाद को बढ़ावा देने का एक कारण हो सकता है। इसी प्रकार डॉ नीरजारुण का मानना है कि आम जनता जिस भ्रष्टाचार से सदा दो-चार होती रही है उसकी जड़ में भी उर्दू ही है क्योंकि वहां के आम लोग उसे लिख-पढ़ नहीं सकते। इतने के बावजूद कश्मीर की जनता प्रशंसनीय है क्योंकि उन्होंने उर्दू को कभी स्वीकार नहीं किया। जब भी जनगणना में उनसे मातृभाषा के बारे में पूछा गया उन्होंने कश्मीरी, हिन्दी, डोगरी, लद्दाखी, तिब्बती, बालटी आदि को ही चुना। परंतु इसे वहां की जनता का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि शासक वर्ग ने कभी भी जनगणना के इन आकड़ों को देखने का कष्ट नहीं किया। असल में शासक वर्ग इसे देखता ही क्यों जब उसकी दाल-रोटी उर्दू की आड़ में चल रही थी। एक ही संभावना थी और वह यह कि जनता इसके लिए या तो आंदोलन चलाती या ऐसे लोगों को चुनती जो उनकी इस माँग को विधान सभा में उठाते। पर जहां नेतृत्व के अभाव में आंदोलन नहीं चल सकता था वहीं उनको अपने प्रतिनिधि चुनने का भी अधिकार नहीं था। वहां के अधिकतर चुनावों में जनता की भागीदारी न्यूनतम ही रही है। जनता की भागीदारी बढ़ने से वर्तमान नेतृत्व को अपदस्थ होने का खतरा था इसलिए वह यथास्थिति को बनाए रखने में ही अपनी भलाई समझता था। कुल-मिलाकर वहां की जनता के पास उर्दू से छुटकारा पाने का कोई रास्ता नहीं था।     

पर हमारा मूलभूत प्रश्न है कि लगभग बीस हजार लोगों की भाषा सवा करोड़ लोगों पर क्यों थोपी गई ? इसके लिए हमें इतिहास में जाना होगा। असल में तेरहवीं तथा चौदहवीं शताब्दियों में मुस्लिम आक्रमणकारियों का जम्मू-कश्मीर राज्य में प्रवेश हुआ, जिसके बाद से वहां के स्थानीय हिंदुओं तथा बौद्धों पर घोर आत्याचार हुए। असंख्य मंदिर तोड़ डाले गए जिनका अब ठीक-ठीक हिसाब करना भी कठिन है। कैप्टन आर विक्रम सिंह कहते हैं कि कश्मीर में सुल्तान सिकंदर ने 1393 से 1413 तक इतने कत्ल किए कि घाटी मुसलमान बनकर लगभग हिंदूविहीन हो गई ( दैनिक जागरण, 24 अगस्त 2019 )। इसके बावजूद एक बुद्धिजीवी संजय नाहर लिखते हैं कि कश्मीरी जैन-उल-आबेदीन के शासनकाल को बड़े प्यार से कश्मीर का स्वर्णकाल मान कर याद करते हैं। क्योंकि इसने अपने पिता सुल्तान सिकंदर के उत्पीड़न के कारण जो कश्मीरी पंडित राज्य छोड़ कर भाग गए थे उन्हें वापस बुलाकर न्याय किया (Peace with a Past, The Indian Express, 26 August 2019)। अब प्रश्न किया जा सकता है कि जब इतनी बड़ी संख्या में लोगों की हत्या की गई जिस कारण से शेष लोग इस्लाम अपनाने को मजबूर किए गए, तब सिर्फ उतने ही बचे रह गए होंगे जो वहां से भागने में सफल हुए होंगे। इसलिए स्पष्ट है कि यह संख्या नगण्य ही रही होगी। इतने से क्या न्याय हुआ होगा ! फिर भी यह नगण्य संख्या भी हाल तक वहां के कट्टरपंथी लोगों को खटकती रही जिससे अंततः 1980 तथा 1990 के दशकों में पूरी तरह मुक्ति पा ली गई।  

मध्यकाल का यही वह समय था जब जम्मू-कश्मीर राज्य पर राजभाषा के रूप में फारसी को थोप दिया गया। यह स्थिति देश के शेष हिस्सों की तरह ही थी। सारे देश में इस्लामी शासकों ने फारसी को ही अपनाया था। यहां तक कि सुदूर कर्नाटक के जिस हिस्से पर टीपू सुल्तान का राज था वहां भी फारसी थोपी गई। भाषा की दृष्टि से इतने समृद्ध देश पर फारसी थोपने का प्रमुख उद्देश्य यहां की संस्कृति को नष्ट करना था। कालांतर में जब महाराजा रणजीत सिंह ने पठानों को भगाकर जम्मू-कश्मीर पर अपना राज स्थापित किया और जिस पर प्रत्यक्ष रूप से डोगरा राजवंश ने राज किया तब भी फारसी राजभाषा बनी रही। तब असल में पूरे पंजाब की अपनी भाषा और लिपि अत्यल्प ही प्रयुक्त होती थी। वस्तुतः फारसी के राजकीय प्रभाव के कारण पंजाब की अपनी भाषा पनप ही नहीं सकी। फारसी के अत्यधिक प्रभाव के कारण ही पंजाब में उर्दू का बोलबाला रहा। यह हालत बीसवीं शताब्दी के आरंभ तक बनी रही। तब का पंजाब एक बहुत बड़े क्षेत्र में फैला था जिसमें आज के पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के अलावा भारत के हिस्से का पंजाब, हिमाचल प्रदेश और हरियाणा शामिल थे। स्वतंत्रता आंदोलन के समय यहां के लोग उर्दू, हिंदी और पंजाबी — तीनों भाषाएँ अपना रहे थे। 

इसलिए आश्चर्य नहीं कि महाराजा रणजीत सिंह ने भी अपने राजकाज की भाषा फारसी ही बनाए रखी। अंततोगत्वा जब फारसी का प्रभाव क्षीण होने लगा तब कहते हैं कि 1889 में डोगरा शासकों ने उर्दू को सरकारी भाषा घोषित किया। यही स्थिति 1947 और उसके बाद भी बनी रही। परंतु 1962 के बाद से जब अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारी सारे देश से यहां आने लगे तब से उर्दू का प्रभाव थोड़ा कम हुआ क्योंकि ये अधिकारी अपना अधिकांश काम अंग्रेजी में करने लगे। 

राजतंत्र में तो ऐसी स्थिति स्वीकार्य थी कि कोई भी भाषा प्रजा पर थोप दी जाए। क्योंकि राजतंत्र में जनता की इच्छा और आकांक्षा का कोई विशेष महत्व नहीं होता है। परंतु लोकतंत्र में तो वही चलता है जिसे अधिकांश जनता चाहती है। इसलिए 1947 में ही कश्मीरी या हिन्दी को राजभाषा के रूप में अपना लिया जाना चाहिए था। पर इसे वहां की जनता का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि वैसा नहीं हुआ और बीस हजार लोगों की भाषा का अनैतिक और आलोकतांत्रिक शासन चलता रहा। एक ऐसी भाषा जिससे उस राज्य का कोई लेना-देना न हो और जिससे केवल शासक वर्ग, सरकारी अधिकारी-कर्मचारी, समाचार पत्रों से संबंधित कुछ पत्रकार और उच्च शिक्षा से संबंधित अध्यापक ही परिचित हों उससे राज्य की जनता का कहां से भला हो सकता है ? 

इस प्रकार लोकतंत्र के बावजूद जम्मू-कश्मीर देश का एक ऐसा राज्य बना रहा जहां वहां की सरकारी भाषा से जनता का कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं रहा। ऐसे में क्या यह अकारण था कि वहां के नौजवान आतंकवाद की ओर आकृष्ट हुए। उर्दू से सबसे अधिक लाभ पाकिस्तान और उसके इशारों पर चलने वाले उग्रवादियों और आतंकवादियों ने उठाया। चूँकि पाकिस्तान की राजभाषा भी उर्दू है, इसलिए जम्मू-कश्मीर के उर्दू लिखने-पढ़ने वालों से पाकिस्तानियों द्वारा संपर्क साधना सदा आसान बना रहा। यदि वहां की राजभाषा कश्मीरी या हिन्दी होती तो पाकिस्तानियों को इन भाषाओं को समझने के लिए अतिरिक्त श्रम करना पड़ता। वैसे राजभाषा को लेकर पाकिस्तान की स्थिति भी कश्मीर जैसी ही है। पाकिस्तान के चारों राज्य — पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान और खैबर-पख्तूनख्वा — की अपनी-अपनी भाषाएँ हैं और जिनका उर्दू से दूर-दूर तक कोई नाता-रिश्ता नहीं है। फिर भी इस्लाम से जोड़कर उर्दू को सारे देश पर थोप दिया गया है। परंतु यह वहां के लोगों का दुर्भाग्य है कि वे उर्दू के विरोध में आवाज नहीं उठाते। पूर्वी पाकिस्तान के लोगों का पश्चिमी पाकिस्तान से जो संघर्ष आरंभ हुआ उसका प्रमुख कारण बांग्ला के स्थान पर उर्दू का बलात प्रयोग था। अंततः बांग्लाभाषियों ने भीषण संघर्ष के बाद एक स्वतंत्र देश — बांग्लादेश स्थापित किया। क्या पाकिस्तान में कभी ऐसा होगा कि वहां के लोग अपनी-अपनी भाषा के लिए संघर्ष करेंगे ?  

जम्मू-कश्मीर की भाषायी स्थिति को देखकर तो यही लगता है कि उर्दू थोपे जाने के कारण उस राज्य के लोगों की जितनी हानि हुई है वह आतंकवाद से भी कहीं अधिक होगी। क्योंकि आतंकवाद से तो तभी हानि होती है जब आतंकी हमले होते हैं और वह भी उस स्थान विशेष पर जहां हमले होते हैं। परंतु उर्दू से तो प्रत्येक व्यक्ति चौबीसों घंटे और सर्वत्र प्रभावित होता है। उर्दू से दूसरा बड़ा नुकसान यह हुआ है कि वहां के लोग देवनागरी लिपि सीख नहीं पाते हैं और उर्दू लिखी जाने वाली फारसी लिपि सीख कर ही अपने लिपि ज्ञान की इतिश्री कर लेते हैं जिससे जब वे अपने राज्य से बाहर जाते हैं तो उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। 

कुल-मिलाकर एकीकृत जम्मू-कश्मीर राज्य का जो चित्र उभरता है वह चित्र है किसी भाषा विहीन समाज का। जो भाषाएँ वहां के लोगों की मातृभाषाएँ हैं उनमें सरकारी कामकाज नहीं होता और जिसे राजभाषा बनाया गया है उससे वहां के लोगों का कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए बिना एक पल गवाँए हिन्दी को प्रथम तथा कश्मीरी को द्वितीय राजभाषा का दर्जा दिया जाना चाहिए। हां, इतना जरूर है कि इस बदलाव में समय लगेगा क्योंकि अब तक के अधिकतर सरकारी दस्तावेज उर्दू में ही हैं। इस संदर्भ में नवीन नवाज लिखते हैं कि “एकीकृत जम्मू-कश्मीर की सरकारी भाषा उर्दू थी। सभी सरकारी कामकाज भी उर्दू में ही होता आया है। पुलिस, अदालतों और विधानसभा का भी सारा रिकॉर्ड उर्दू में होता है। ये सभी दस्तावेज अंग्रेजी में भी जारी किए जाते हैं। राजस्व विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी रमन कुमार शर्मा का कहना है कि सबसे ज्यादा दिक्कत राजस्व विभाग में ही होगी। नायाब तहसीलदार और पटवारी तक ही करीब दस हजार अधिकारी हैं। ये सभी उर्दू में ही काम करते हैं” (‘जम्मू-कश्मीर की राजभाषा हिन्दी या उर्दू पर फँसा पेंच’, दैनिक जागरण, 2 नवंबर 2019)। इसी तरह कश्मीर के वरिष्ठ साहित्यकार हसरत गड्डा का कहना है कि उर्दू पूरे जम्मू-कश्मीर की तहजीब में रची बसी हुई है। उर्दू भाषा को नहीं बदला जाना चाहिए। इससे कइयों की जज्बातों पर चोट होगी। पूरे निजाम पर असर होगा। अगर उर्दू के साथ किसी तरह की छेड़खानी होती है तो यहां सियासत खूब होगी। और जहां तक राजनीतिक दलों की बात है तो कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार आसिफ कुरैशी का कहना है कि मेरे खयाल से जम्मू-कश्मीर में भाषा बड़ा सियासी मुद्दा बनेगी। जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम के लागू होने के बाद नेशनल कॉन्फ़्रेन्स, पीडीपी, पीपुल्स कॉन्फ़्रेन्स जैसे दलों के लिए यह बड़ा मुद्दा हो सकती है। इसके बावजूद जम्मू विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग की प्रोफेसर नीलाम सर्राफ का मानना है कि हिन्दी को जम्मू-कश्मीर की राजभाषा बनाना और इसे पूरी तरह कार्यान्वित कराना कोई मुश्किल नहीं है। सिर्फ प्रशासन को अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय देना है। इससे  जम्मू-कश्मीर पूरी तरह भारतीय मुख्यधारा में शामिल होगा। जम्मू-कश्मीर में अधिकांश लोग हिन्दी जानते हैं। इसी तरह पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक की सलाहकार परिषद में सलाहकार रहे फारुक अहमद खान का मत है कि इस विषय में पुनर्गठन अधिनियम पूरी तरह स्पष्ट है। हिन्दी राष्ट्रीय भाषा है, इसलिए यह केंद्र शासित जम्मू-कश्मीर की राजभाषा हो सकती है। उर्दू को भी उसका हक मिलेगा। अंग्रेजी का पहले जैसा इस्तेमाल होगा (‘जम्मू-कश्मीर की राजभाषा हिन्दी या उर्दू पर फँसा पेंच’, दैनिक जागरण, 2 नवंबर 2019)।

आज समय ने कैसी करवट ली है कि जिस उर्दू के राजभाषा संबंधी विषय के बारे में कश्मीर के बाहर लोग जानते भी नहीं थे उस पर कश्मीर में खुलकर चर्चा हो रही है। इस सबके पीछे का कारण है अनुच्छेद 370 के द्वारा जम्मू-कश्मीर को दिए गए विशेषाधिकारों का हटाया जाना। अब चूँकि केंद्रीय सरकार के सारे कानून जम्मू-कश्मीर पर भी वैसे ही लागू होंगे जैसे अन्य राज्यों पर, इसलिए केंद्र सरकार का त्रिभाषा सूत्र भी लागू होगा और इसके अंतर्गत अनिवार्यत: एक भाषा हिन्दी होगी। इस प्रकार अब राज्य के सभी विद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जाएगी, जिससे उर्दू का महत्व घटने लगेगा। इससे कश्मीरी भाषा को भी बल मिलेगा। आवश्यकता इस बात की है कि कश्मीरी भी देवनागरी लिपि में ही लिखी और पढ़ी जाए। उर्दू के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि इसके लिए प्रयुक्त फारसी लिपि भारतीय शब्दों को ठीक-ठीक लिखने में असमर्थ है।फारसी लिपि में बहुत सारे भारतीय शब्द अनुमान और संदर्भ से ही समझे जाते हैं। सरदार भगतसिंह, जिन्होंने पंजाब की भाषा और लिपि समस्या पर काफी गहन चिंतन-मनन किया था, ने पंजाब में प्रचलित तत्कालीन तीनों भाषाओं — हिन्दी, उर्दू और पंजाबी के लिए देवनागरी लिपि ही अपनाने की बात की थी। साथ ही फारसी लिपि की अपूर्णता के संबंध में उन्होंने लिखा — “जब साधारण आर्य और स्वराज्य आदि शब्दों को ‘आर्या’ और ‘स्वराजियों’ लिखा और पढ़ा जाता है, तो गूढ़ तत्वज्ञान संबंधी विषयों की चर्चा ही क्या ? अभी उस दिन श्री लाला हरदयाल जी एम. ए. की एक उर्दू पुस्तक ‘कौमें किस तरह जिंदा रह सकती हैं’ का अनुवाद करते हुए सरकारी अनुवादक ने ‘ऋषि नचिकेता’ को उर्दू में लिखा होने के कारण ‘नीची कुतिया’ समझकर ‘ए बिच ऑफ लो ओरिजिन’ अनुवाद किया” ( ‘युगद्रष्टा भगतसिंह और उनके मृत्युंजय पुरखे’, वीरेंद्र सिंधु, राजपाल, 2017, पृष्ठ – 306)। अतः इस अपूर्ण लिपि से जितनी जल्दी मुक्ति मिले उतना ही अच्छा। 

जहाँ तक लद्दाख का प्रश्न है तो अब यह एक पृथक केंद्र शासित प्रदेश बन गया है जिसके फलस्वरूप यह अपने-आप उर्दू से मुक्त हो गया है। इसे हिन्दी और उसके साथ-साथ लद्दाखी-तिब्बती को अपनाना चाहिए। परंतु लद्दाखी-तिब्बती को भी यदि देवनागरी लिपि में लिखा जाए तो बहुत ही अच्छा होगा। लद्दाखी-तिब्बती की लिपियाँ देवनागरी के समीप हैं और थोड़े अभ्यास से दोनों भाषाओं को अच्छी तरह देवनागरी में लिखा जा सकता है। लद्दाखी-तिब्बती लिपियों को टाइप करने में भी कठिनाई होती है। इसके लिए वहां के भाषा विज्ञानियों को मिल-बैठकर लद्दाखी-तिब्बती भाषाओं के मानकीकरण पर विचार करना चाहिए। 

उपरोक्त विमर्श से स्पष्ट है कि जम्मू-कश्मीर में उर्दू को अब और ढोने का कोई औचित्य नहीं है। इसलिए शीघ्रातिशीघ्र हिन्दी और कश्मीरी को राजभाषा घोषित किया जाना चाहिए।  जब एक बार विद्यालयों में छात्र हिन्दी और कश्मीरी पढ़ने लगेंगे तो पाँच-सात वर्षों में ही बड़ी संख्या में ऐसे लोग तैयार हो जाएँगे जो इन भाषाओं में सहजता से काम कर पाएँगे। वैसे भी बात केवल लिप्यंतरण की है। यदि वहां के अधिक से अधिक लोग देवनागरी लिपि से परिचित हो जाएँगे तो सबकुछ आसन हो जाएगा। इसके बाद एकाएक वे भारत की मुख्यधारा से जुड़ जाएँगे, जिससे रोजगार, व्यापार, पर्यटन आदि में जो लाभ होगा वह देवनागरी लिपि सीखने में लगनेवाले श्रम की तुलना में कई गुना अधिक होगा। कुल मिलाकर जम्मू-कश्मीर का सर्वांगीण तभी संभव हो पाएगा जब राज्य अपने लोगों की भाषाएँ अपनाएगा।

लेखक निवेश एवं लोक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग , वित्त मंत्रालय ,भारत सरकार में संयुक्त सचिव हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं । 

 5 नवंबर 2019 

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भारत सरकार ने जेवर में अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे की स्थापना की घोषणा करके न केवल बरसों पुरानी माँग को ही पूरा किया है बल्कि इससे उत्तर प्रदेश के आर्थिक विकास को अभूतपूर्व गति देने का भी काम किया है। वै

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इस्लामी लकीर के फकीर

28 मई 2022
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अभी पिछले दिनों पटना में एक मुस्लिम मंत्री ने जय श्रीराम का नारा लगाया। जिसके बाद एक मुफ्ती ने उन्हें काफिर करार दिया। मजबूरन उन्हें माफी माँगनी पड़ी, जिससे उनके पाप का प्रायश्चित हो गया और पुनर्मूषिको

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विश्व व्यापार संगठन का नैरोबी मंत्रिसम्मेलन और भारत की भूमिका

28 मई 2022
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विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) का दसवां मंत्रिसम्मेलन अफ़्रीकी देश केन्या की राजधानी नैरोबी में चार की जगह पांच दिनों (15-19 दिसंबर) में संपन्न हुआ। अफ़्रीकी महादेश में होनेवाला यह पहला मंत्रिसम्मेलन

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जाति बंधन नहीं l

28 मई 2022
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अमरीका के प्रतिष्ठित हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर स्टीवन पिंकर, जो हाल ही में भारत की यात्रा पर थे, की स्थापना है कि ‘हमें ऐसा लग सकता है कि विश्व में गिरावट आ रही है। परंतु यह हमारी समझ की समस्

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दर्शनीय दुमका

28 मई 2022
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”दर्शनीय दुमका ”आलेख के लिए सर्वप्रथम मैं अपने मित्र साकेश जी के प्रति आभार व्यक्त करना चाहूंगा, जिन्होंने दुमका और उसके आसपास के दर्शनीय स्थलों, जैसे बासुकिनाथ धाम, मसानजोर बांध और रामगढ़ स्थित छिन्न

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ईद, बकरीद और मुहर्रम

28 मई 2022
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इस्लाम के तीन प्रमुख त्यौहार हैं — ईद, बकरीद और मुहर्रम । जहां ईद का संबंध इस्लाम के जन्मदाता मुहम्मद पैगंबर और कुरान से है, वहीं बकरीद का यहूदियों, ईसाइयों और मुसलमानों  — तीनों के पहले पैगंबर यानी इ

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मास्साहब

28 मई 2022
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हमारे कस्बानुमा बड़े गांव — बथनाहा के पूर्वोत्तर में एक छोटा सा गांव है — बंगराहा । पता नहीं यह नाम कब रखा गया और इसका क्या अर्थ हो सकता है ? संभव है बंग से बंगाल शब्द का कोई लेना-देना हो । वैसे भी सद

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राजा राममोहन राय -एक रहस्यमय व्यक्तित्व

28 मई 2022
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राजा राममोहन राय, इस नाम से देश के सभी साक्षर और शिक्षित अवश्य परिचित होंगे, क्योंकि उनके विषय में इतिहास की विद्यालयी पुस्तकों में थोड़ा-बहुत उल्लेख अनिवार्यत: मिलता है। उन्हें भारतीय नवजागरण का अग्र

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वो महिला

28 मई 2022
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प्रातः बेला मैं तैयार होकर गुवाहाटी से शिवसागर, असम की पुरानी राजधानी, की यात्रा के लिए गाड़ी में बैठा। हमारा ड्राइवर असम का ही था। उसकी कद-काठी अच्छी थी। नाम था खगेश्वर बोरा। वह सहज रूप से हिन्दी बोल

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जम्मू-कश्मीर को उर्दू नहीं हिन्दी, कश्मीरी और डोगरी चाहिए

28 मई 2022
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यदि हम भारत के भाषायी परिदृश्य पर ध्यान दें तो हमें पता चलेगा कि जम्मू-कश्मीर जैसी अतिशोचनीय स्थिति किसी और राज्य की नहीं है। यहां एक ऐसी भाषा राजभाषा बनकर राज कर रही है जिसकी उपस्थिति उस राज्य में नग

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अटेंडेंट

28 मई 2022
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सूर्यास्त की बेला — मैं नहा धोकर बचे हुए पानी से गमलों के पौधों की सिंचाई में लग गया। देखा एक पौधा सिकुड़कर छोटा हो गया है और मुरझा गया है। मन में ग्लानि हुई कि यह मेरे ध्यान न देने का फल है। पानी ही

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गौरी

28 मई 2022
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चैत्र मास समाप्ति की ओर है। यद्यपि दोपहर के बाद तो अब सूर्यदेव अपना प्रचंड रूप दिखाने लगे हैं, परंतु प्रातः बेला अभी भी शीतल है। बालसूर्य की नयनाभिराम बेला। टहलने के लिए उपयुक्त समय। इसलिए इसी बेला मे

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‘ लक्ष्मण टीला ‘ या ‘ टीले की मस्जिद ‘

28 मई 2022
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लक्ष्मण टीला ‘ या ‘ टीले की मस्जिद ‘ लखनऊ की प्राचीन गाथा कहने का एक लघु किंतु क्रांतिकारी प्रयास डॉ शैलेन्द्र कुमार स्वतंत्रता पूर्व विदेशी इतिहासकारों और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे इतिहासकार

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बांग्लादेश : आहत लोकतंत्र

28 मई 2022
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हाल ही में संपन्न हुए बांग्लादेश के चुनाव पर हमारे देश के हिंदी और अंग्रेजी समाचार पत्रों में जितने भी लेख छपे उनमें से अधिकतर में यह भाव मुखर था कि शेख हसीना की जीत भारत के लिए बहुत लाभकारी है। इस प्

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अनावश्यक अजान और पांच बार नमाज की अनिवार्यता के परिणाम।

28 मई 2022
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अनावश्यक अजान और पांच बार नमाज की अनिवार्यता के परिणाम। इन दिनों वाराणसी में गंगा नदी में नौका विहार करते हुए एक विदेशी पर्यटक का वीडियो सोशल मीडिया में काफी वायरल ( प्रचलित ) हुआ है। वीडियो में यह व

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शेख अहमद सरहिन्दी : भारत में अलगाववादी विचारधारा का जन्मदाता

28 मई 2022
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शेख अहमद सरहिन्दी : भारत में अलगाववादी विचारधारा का जन्मदाता डॉ शैलेन्द्र कुमार सारांश इस लेख का सर्वप्रधान उद्देश्य यह दर्शाना है कि भारत में अलगाववादी विचारधारा का जन्मदाता शेख अहमद सरहिंदी था। इ

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गो रक्षण, जिन्ना और अम्बेडकर

28 मई 2022
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शेख मुजिबुर रहमान, जो जामिया मिलिया इस्लामिया में पढ़ाते हैं, का पिछले 25 जून को ‘द हिंदू’ दैनिक में गो रक्षण के नाम पर घटित हिंसक घटनाओं को लेकर एक अतार्किक और अत्यंत आपत्तिजनक लेख प्रकाशित हुआ। इस स

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मस्जिद की अनिवार्यता

28 मई 2022
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फैजुर रहमान का 7 अगस्त के ‘द हिंदू’ दैनिक में ‘मस्जिद की अनिवार्यता’ विषय पर एक लेख प्रकाशित हुआ। रहमान एक इस्लामी मंच के महासचिव हैं जिसका उद्देश्य है संयत विचार को बढ़ाना या बढ़ावा देना। इस लेख का म

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अनन्य हिंदी प्रेमी अटल बिहारी वाजपेयी

28 मई 2022
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अटल बिहारी वाजपेयी भारत के राजनैतिक क्षितिज में पिछले कई दशकों से सर्वाधिक चमकता हुआ सितारा थे। अपनी मिलनसार प्रवृत्ति, विलक्षण वाकपटुता, मनमोहक वक्तृत्वकला और असाधारण प्रतिउत्पन्नमति के कारण सारे देश

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स्वच्छ भारत की ओर निर्णायक कदम

28 मई 2022
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हमारे देश में गाँव कविता के विषय के रूप में कवियों को आकर्षित करता रहा है। मैथिलीशरण गुप्त की ये पंक्तियाँ तो जगप्रसिद्ध रही हैं – “अहा ! ग्राम जीवन भी क्या है। क्यों न इसे सबका जी चाहे।“ इसी तरह सुमि

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शैक्षणिक संस्थानों का देश के विकास में योगदान

28 मई 2022
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आधी सदी पहले ही अर्थशास्त्रियों ने किसी भी देश के आर्थिक विकास में शिक्षा के महत्व को समझ लिया था। बाद में यह विचार फैलने लगा कि शिक्षा किसी भी व्यक्ति को स्थायी रूप से परिवर्तित कर देती है और उसे मान

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पाकिस्तान में जनसंख्या विस्फोट के निहितार्थ

28 मई 2022
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पिछले दिनों करीब दो दशक बाद पाकिस्तान की छठवीं जनगणना सम्पन्न हुई। इसके अनुसार आज पाकिस्तान की जनसंख्या 20 करोड़ 78 लाख है। 1998 में की गई पिछली जनगणना में पाकिस्तान की जनसंख्या लगभग 13 करोड़ थी और उस

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हवाई यात्रा के लिए बिहार देश का छाया प्रदेश

28 मई 2022
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किसी भी देश के विकास में यातायात और उसमें भी वायु यातायात का योगदान अन्यतम है। भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण ने एक अध्ययन के हवाले से बताया है कि किस तरह वायु सेवा से तेजी से आर्थिक विकास सम्भव होता है।

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हिंदी साहित्याकाश में सूर्य की तरह चमकने वाले ‘दिनकर’

28 मई 2022
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हिंदी साहित्याकाश में सूर्य की तरह चमकने वाले सचमुच में दिनकर ही थे। रामधारी सिंह दिनकर में साहित्य सर्जन के गुण नैसर्गिक रूप से विद्यमान थे। इसलिए आश्चर्य नहीं कि केवल पंद्रह वर्ष की आयु में ही उनका

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क्यों बार बार संकट आता है मालदीव पर?

28 मई 2022
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पिछले कुछ दिनों से मालदीव के संकट में आ जाने के कारण वहाँ का राजनीतिक घटना क्रम बहुत तेजी से बदल रहा है। हुआ यह कि वहाँ के राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन ने मालदीव के सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश

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क्यों नहीं मिल रहा रोजगार युवाओं को?

28 मई 2022
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उन्नीस सौ नब्बे के दशक में आरंभ हुए आर्थिक उदारीकरण के परिणामस्वरूप माना जाता है कि भारत की आर्थिक वृद्धि दर में अभूतपूर्व तेजी आई। जबकि आजादी के बाद से 1980 तक भारत की आर्थिक वृद्धि दर औसतन सिर्फ 3.5

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नेताजी का अमूल्य योगदान इतिहासकारों का मोहताज नहीं

28 मई 2022
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नेताजी सुभाषचन्द्र बोस महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू की तरह हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के पहली पंक्ति के नेता थे। पर अपने आप को भारत माता पर उत्सर्ग करने की आतुरता में उनकी तुलना शहीद भगत सिंह जैसे वीरों

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क्यों बार बार संकट आता है मालदीव पर ?

28 मई 2022
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पिछले कुछ दिनों से मालदीव में राजनीतिक घटना क्रम बहुत तेजी से बदल रहा है। हुआ यह कि वहाँ के राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन ने मालदीव के सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश तथा एक न्यायाधीश को गिरफ़्तार

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भारत-अफ्रीका के गहराते संबंध और इनके निहितार्थ

28 मई 2022
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भारत-अफ्रीका फोरम शिखर सम्मलेन के तीसरे संस्करण का आयोजन 26 से 29 अक्टूबर 2015 तक नई दिल्ली में होने जा रहा है। सभी 54 अफ़्रीकी देशों को निमंत्रण देकर भारत सरकार ने अफ्रीका से अपने संबंधों को आगे ले जा

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1857 की क्रांति की 160वीं जयंती

28 मई 2022
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आज ही के दिन ठीक एक सौ साठ साल पहले यानी 10 मई 1857 को जिस ऐतिहासिक क्रांति का सूत्रपात मेरठ से हुआ वह कई अर्थों में विलक्षण थी । क्रांति का क्षेत्र व्यापक था और इसका प्रभाव लम्बे समय तक महसूस किया गय

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