अभी पिछले दिनों पटना में एक मुस्लिम मंत्री ने जय श्रीराम का नारा लगाया। जिसके बाद एक मुफ्ती ने उन्हें काफिर करार दिया। मजबूरन उन्हें माफी माँगनी पड़ी, जिससे उनके पाप का प्रायश्चित हो गया और पुनर्मूषिको भवः की तर्ज पर मंत्री महोदय फिर से मुसलमान बन गए। लेकिन एक काम बाकी रह गया। अभी उनका दोबारा निकाह बाकी है। इस्लाम में निकाह के लिए पुरुष और स्त्री दोनों का मुसलमान होना आवश्यक है। मंत्री चूंकि अपना धर्म खो चुके थे, इसलिए उनका फिर से मुसलमान बनने पर दोबारा निकाह करना जरूरी समझा गया।
प्रश्न उठता है कि क्या इस्लाम इतना कमजोर है जो सिर्फ किसी के जय श्रीराम बोलने मात्र से खत्म हो जाता है ? क्या यह वैसा ही नहीं है जब छुआ-छूत के जमाने में एक हिन्दू किसी अस्पृश्य के द्वारा छू जाने या छाया मात्र से ही अपना धर्म गवाँ बैठता था ? या फिर विदेश यात्रा के लिए समुद्र में अपना पैर रखते ही धर्म भ्रष्ट कर लेता था।
मुफ्ती ने टीवी पर कहा कि इस्लाम के अनुसार क्योंकि “ला इलाहा इल लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलल्लाह!” अर्थात अल्लाह के सिवा कोई ईश्वर नहीं और मुहम्मद आखिरी रसूल (पैगम्बर) हैं। इसलिए राम और रहीम एक साथ नहीं रह सकते। यही वह सूत्र है जिसे अक्षरशः मानने से मुल्ला-मौलवी लकीर के फकीर बनते गए हैं । इसका मतलब यह है कि जो अल्लाह को मानते हुए भी यदि किसी और ईश्वर को माने तो वह काफिर है। इस प्रकार अमीर खुसरो से लेकर कबीर, जायसी, रसखान, रहीम, कुतुबन, नजीर जैसे सभी महान कवि काफिर हैं क्योंकि उन्होंने अल्लाह के अलावा दूसरे ईश्वर का गुणगान किया है। इतना ही नहीं, इसी सोच ने सूफी मत को भी गैर-इस्लामी करार दिया है। कोई आश्चर्य नहीं कि अभी हाल ही में पाकिस्तान के सबसे बड़े सूफी गायक की हत्या कर दी गयी। सूफी मत इस्लाम की संकुचित व्याख्या नहीं करता बल्कि यह कहता है कि अल्लाह के अलावा भी ईश्वर हैं और यह भी कि दूसरे धर्मों से सीख कर इस्लाम उदार और प्रगतिशील बन सकता है।
लकीर के फकीर का दूसरा उदाहरण देखिए। कुरान के अनुसार कुफ्र का सबसे बुरा रूप शिर्क (बहुदेववाद) और शिर्क का सबसे बुरा रूप मूर्तिपूजा है। इस हिसाब से इंडोनेशिया के मुसलमानों को मुसलमान नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि जकार्ता के एक चौराहे पर कृष्ण और अर्जुन की बहुत बड़ी मूर्ति अवस्थित है जिसे वे सम्मान और श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं।
यदि राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में कहें तो, “कट्टरता मुसलमानों के आचार में नहीं, उनके धार्मिक विश्वास में होती है। शताब्दियों से मुसलमान अपने धर्मगुरुओं से यह सुनता आया है कि जो देश इस्लामी कानूनों के अनुसार नहीं चलता हो, उसे दारुल-हरब (शत्रुओं का देश) समझो और ऐसे देश में प्रच्छन्न विद्रोही बनकर निवास करो” (‘संस्कृति के चार अध्याय’)। इस सन्दर्भ में तारिक रमजान, इस्लाम के बहुत बड़े विचारक, का मानना है कि उनके लिए तो यूरोप दारुल इस्लाम (मुसलमानों का देश) है जहाँ वह आजाद और सुरक्षित हैं। इसलिए वह मानते हैं कि दारुल इस्लाम और दारुल हरब को बहुमत और अल्पमत के बजाय आजादी और सुरक्षा जैसे नजरिए से देखना चाहिए। परन्तु दुर्भाग्य है कि ऐसे विचारकों को कितने लोग सुनते हैं ! विडंबना तो यह है कि रमजान अपने देश – मिस्र में रह भी नहीं सकते।
दुर्भाग्य है कि इस्लाम ने कवि-कोविद और सूफियों के बजाय मुल्ला-मौलवियों को अधिक महत्त्व दिया है। विडम्बना देखिए कि इस्लाम में मुल्ला-मौलवियों के लिए कोई जगह नहीं है। यहाँ खुदा और व्यक्ति के बीच कोई नहीं है। अन्य धर्मों में जहाँ पादरियों, पुजारियों जैसे मध्यस्थों की आवश्यकता रही है वहाँ इस्लाम इससे मुक्त रहा है। इस रूप में इस्लाम अत्यंत सरल धर्म रहा है। इस्लाम अन्य धर्मों की तुलना में कहीं अधिक सांसारिक और इहलौकिक रहा है। इसमें शादी करने, बच्चे पैदा करने और घर बसाने पर जोर दिया गया है। इसीलिए इस्लाम में ब्रह्मचर्य, संन्यास आदि का कोई विशेष स्थान नहीं है। इसी तरह विधवा-विवाह की व्यवस्था इस धर्म में आरम्भ से ही रही है।
परन्तु इस्लाम का राजसत्ता से जुड़ जाने और अन्य धर्मेतर क्षेत्रों में प्रवेश ने इसे न्यायशास्त्र, दण्डशास्त्र आदि गढ़ने को प्रेरित किया। इस प्रकार इस्लाम व्यक्तिगत आस्था का धर्म मात्र न रहकर सम्पूर्ण जीवन जीने का विधान बन गया। सातवीं से सत्रहवीं शताब्दी तक जब इस्लाम दुनिया की सबसे बड़ी ताकत था तब तक तो सब कुछ ठीक-ठाक था। पर जब अठारहवीं शताब्दी से यह पिछड़ना शुरू हुआ तब से पिछड़ता ही चला गया। आज विश्व का हर चौथा व्यक्ति मुसलमान है। जबकि एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2060 तक हर तीसरा व्यक्ति मुसलमान होगा। परन्तु इस्लाम का सबसे दुखद पहलू यह है कि यह अन्य सभी धर्मों से बहुत पिछड़ा हुआ है।
प्रश्न उठता है कि आखिर मुसलमान इतने पिछड़े क्यों हैं ? आमतौर से इसका सबसे आसान उत्तर यह दिया जाता है कि मुसलमानों में शिक्षा का अभाव है और ये आर्थिक रूप से कमजोर हैं। पर ये रोग नहीं, रोग के लक्षण हैं। कारण तो कुछ और ही हैं। सर्वप्रधान कारण तो यह है कि इस्लाम अपने को न केवल विश्व का श्रेष्ठ बल्कि सर्वश्रेष्ठ धर्म मानता है। इसकी यह धारणा इसे दूसरे की बात को सुनने और मानने से रोकती है। यह अकारण नहीं है कि मुस्लिम-बहुल देश अमूमन लोकतांत्रिक नहीं होते। लोकतंत्र के लिए सेक्यूलर या धर्मनिरपेक्ष होना अपरिहार्य है। पर इसमें इस्लाम आड़े आता है। कुल-मिलाकर इस्लाम अपना बहुमूल्य समय और ऊर्जा इस्लामी विषयों पर ही व्यय करता है। इसीलिए यह सदा आधुनिकता, धर्म-निरपेक्षता और लोकतंत्र से संघर्ष करता हुआ दिखता है।
वैसे तो इस्लाम शब्द का मूल अर्थ शांति है। लेकिन मुल्ला-मौलवियों ने इसे अर्थहीन बना दिया है। शांति के लिए यह अत्यावश्यक है कि दूसरे धर्मों को भी सम्मान की दृष्टि से देखा जाए। महात्मा गाँधी ने हिन्दू-मुस्लिम एकता के निमित्त जितने महती प्रयास किए वे विश्व इतिहास में बेमिसाल हैं। फिर भी यह क्रूर सत्य है कि गाँधी जितना इस मोर्चे पर विफल हुए उतना किसी और पर नहीं। अपने भजन ‘ईश्वर अल्ला तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान’ से गाँधी दोनों धर्मों को पास लाना चाह रहे थे। लेकिन भजन में अल्ला और ईश्वर को साथ रखना कभी भी मुल्ला-मौलवियों को रास नहीं आया। क्योंकि अल्ला के साथ ईश्वर उच्चरित करने से उनका धर्म चला जाता। जबकि कबीर ने तो बड़े साफ लहजे में कहा है कि राम और रहीम को एक न मानना बिल्कुल मूर्खता की बात है।
इसलिए जब गाँधी और कबीर जैसे महान व्यक्ति असफल हो गए तो वे कौन से क्रांतिकारी व्यक्ति होंगे जो सफल होंगे! दरअसल इस्लाम की त्रासदी यही नहीं है कि इसके सुधार, बदलाव या इसे समकालीन और आधुनिक युग के अनुरूप बनाने के किए कोई मार्टिन लूथर या विवेकानन्द पैदा नहीं हुआ; बल्कि यह कि निकट भविष्य में भी ऐसा कोई सुधारक पैदा होगा इसकी सूरत नजर नहीं आती। जबकि युग इतना आगे बढ़ गया है कि कुछ लोग धर्म से धर्मोत्तर युग में प्रवेश करने लगे हैं।
लेखक निवेश एवं लोक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग , वित्त मंत्रालय ,भारत सरकार में संयुक्त सचिव हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं ।
4 सितम्बर 2018