सूर्यास्त की बेला — मैं नहा धोकर बचे हुए पानी से गमलों के पौधों की सिंचाई में लग गया। देखा एक पौधा सिकुड़कर छोटा हो गया है और मुरझा गया है। मन में ग्लानि हुई कि यह मेरे ध्यान न देने का फल है। पानी ही तो इन पौधों का भोजन है और उसी से ये पौधे वंचित रह गए। तभी मेरी दृष्टि बगल के फ्लैट के एक फ्लोर नीचे की बालकनी पर गई। लगभग सोलह बाइ चौदह की अपेक्षाकृत बड़ी बालकनी जिसका एक-तिहाई हिस्सा बड़े और छोटे गमलों से पटा हुआ है। जहां बड़े गमलों में बड़े-बड़े घने पत्तेदार पौधे हैं वहीं छोटे गमलों में नन्हे-नन्हे रंग-बिरंगे फूलों से लदे पौधे। बीच में एक तुलसी का पौधा भी। ईश्वर की लीला देखिए कि अभी दो घंटे पहले ही इन पौधों के पालनहार इस नश्वर संसार को छोड़कर परमात्मा में विलीन हुए हैं। मैंने कुछ देर तक पौधों को निहारा कि क्या इन्हें इस बात का कुछ भान है कि इसके माता-पिता स्वरूप इनके लालन-पालन करने वाले सदा के लिए इन्हें छोड़कर जा चुके हैं। आखिर ये पौधे भी तो जीव ही हैं। भले ही ये अपने भावों को अभिव्यक्त न कर पाते हों, परंतु इन्हें बोध तो होता ही होगा कि हमारा मित्र, सखा, स्वामी, जो भी कहें, अब नहीं है। मुझे लगा जैसे पौधे दुखी होकर कुछ झुक-से गए हों।
यही वह स्थान है जहां प्रतिदिन सुबह-सुबह भल्ला साहब घंटों बैठा करते थे। वहीं बैठकर वह अखबार पढ़ते, चाय पीते और नाश्ता करते। इसके लिए उनकी बालकनी में समुचित व्यवस्था थी। कुर्सी और टेबुल के साथ-साथ साइड टेबुल भी होता था जिससे उन्हें पर्याप्त जगह मिल जाती थी। जितनी देर भल्ला साहब बालकनी में बैठते उतनी देर उनके बगल में उनका अटेंडेंट खड़ा रहता। भल्ला साहब की सेवा में लगा वह अटेंडेंट, भल्ला साहब के लिए जब कोई वस्तु लानी हो तभी अंदर जाता, अन्यथा उनके पास ही खड़ा रहता। जब कभी मुझे यह दृश्य देखने को मिलता तब मैं निर्निमेष भल्ला साहब को देखता। तीन तरफ से पौधों से घिरी अपनी लघु वाटिका में बैठे हुए भल्ला साहब जब दिख जाते तो मुझे बड़ा आत्मीय सुख मिलता। इस अवस्था में भी भल्ला साहब को इतना सुख प्राप्त है ! मैं सोचता वृद्धावस्था को भी सुखपूर्वक जीया जा सकता है। मेरा आत्मविश्वास बढ़ जाता।
अभी चार बजे की बात है। मैं अपने घर में एक आगंतुक से बात कर रहा था कि सामने वाली पड़ोसन ने दरवाजे की घंटी बजाई। जब मैंने दरवाजा खोला तो पड़ोसन का ध्यान आगंतुक पर पड़ गया, इसलिए उन्होंने कहा कि ‘आप बाहर आइए एक बात बतानी है।’ थोड़ा सशंकित-सा मैं उनके पास गया। उन्होंने कहा कि ‘अभी-अभी पता चला है कि भल्ला साहब नहीं रहे। उन्हें शाम छह बजे श्मशान ले जाया जाएगा।’ मेरे मुंह से इतना ही निकला, ‘अरे, भल्ला साहब नहीं रहे ! मैं अभी उनके घर जाता हूं। हम लोगों को तो श्मशान जाना होगा।’ मैं वापस लौटा और आगंतुक को दुखद समाचार बताकर कहा कि ‘मुझे अभी श्मशान जाना होगा, इसलिए आपसे किसी और दिन बात होगी।’ मेरी बात सुनते ही आगंतुक चले गए।
मैंने श्मशान के अनुकूल सादे रंग का कुर्ता-पैजामा पहना और थोड़ी ही देर में भल्ला साहब के घर के सामने खड़ा हो गया। घर का दरवाजा आधा खुला था। देखा कि कई जूते-सैंडिल बाहर ही उतारे गए हैं। मन भारी हो गया। घर के अंदर की ओर धीरे-से कदम बढ़ाया। सामने ही भल्ला साहब का पार्थिव शरीर फर्श पर रखा था। बांस की फरकी पर रखे शव को सफेद कपड़े से ढक कर रस्सी से बांध दिया गया था। मन हुआ कि अंतिम बार भल्ला साहब का चेहरा देखता। परंतु शरीर का कोई भी अंग कपड़े से बाहर नहीं था। मुझे मूर्तिवत खड़ा देख कर भल्ला साहब के एक पोते ने आवाज दी कि ‘अंकल, अंदर कमरे में चले जाइए पापा वहीं हैं।’ संज्ञाविहीन-सा मैं अंदर चला गया। वहां कमरे में एक बिस्तर के अतिरिक्त पांच कुर्सियां थीं। संयोगवश एक ही कुर्सी खाली थी। मैं उस पर बैठ गया। कमरे का माहौल अत्यंत सामान्य, जैसे कुछ विशेष न हुआ हो ! कुछ पल के बाद भल्ला साहब के बेटे दिनेश भल्ला की दृष्टि मुझ पर पड़ी, जो तब तक मोबाइल में अपने एक कुलीग की सहायता से कुछ ढूंढ रहे थे। मेरी ओर देख कर दिनेश ने कहा कि ‘पापा की फोटो निकाल रहा था।’ और मुझसे पूछा, ‘आज आप घर पर कैसे हैं ?’ मैंने धीमी आवाज में उत्तर दिया, ‘आज शनिवार है और शनिवार को ऑफिस बंद रहता है।’ प्रतिक्रियास्वरूप दिनेश ने कहा, ‘देखिए ! मुझे तो यह भी याद नहीं कि आज शनिवार है।’ अपने कुलीगों की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘हम लोग तो एक कॉन्फ़्रेन्स में थे। वहीं पापा के बारे में पता चला।’ फिर दिनेश ने अपने कुलीगों से मेरा परिचय कराया, ‘ये भी जेएस ( ज्वाइंट सेक्रेटरी ) लेवल में हैं।’ दिनेश के कुलीगों ने लगभग समवेत स्वर में पूछा, ‘आप कहां पोस्टेड हैं ?’ मैंने अन्यमनस्क-सा उत्तर दिया। इसके बाद विषय बदला और दिनेश अपने कुलीगों के साथ भल्ला साहब के मृत्यु प्रमाण पत्र और बैंक खाते के बारे में बातचीत करने लगे।
कुछ देर में दिनेश की पत्नी का कमरे में पदार्पण हुआ। वह घुटने से थोड़ी ही नीची तक की पैंट और ऊपर शर्ट पहनी हुई थीं। पत्नी ने दिनेश के निकट आकर कहा कि, ‘थोड़ी ही देर में हमें श्मशान जाना होगा, इसलिए तुम लोग कुछ खा लो।’ दिनेश के पूछने पर कि क्या है खाने को, पत्नी ने उत्तर दिया, ‘बाहर से बहुत कुछ तो मंगाया नहीं जा सकता, बस बर्गर मंगाया है।’ दिनेश ने अपने कुलीगों की ओर देखते हुए टिप्पणी की — ‘बर्गर और वह भी वेजिटेरियन, अभी तो यही मिल सकता है, यार !’ अगले ही पल बर्गर आ गया और सभी खाने लगे। कमरे के आगे ही दिनेश की पत्नी और और दोनों बेटे — प्रशांत और सुशांत भी बर्गर खाने लगे।
पार्थिव शरीर के सामने ही सबको खाते हुए देखकर मेरा चित्त विचलित हो गया। मन में अजीब-अजीब से भाव उपजने लगे, जैसे मैं अपने देश में न होकर सात समंदर पार किसी दूसरे देश में पहुंच गया हूं, जहां की संस्कृति हमारी संस्कृति से बहुत भिन्न हो, लगा जैसे इस घर में किसी की मृत्यु नहीं हुई है, मानव सभ्यता किस ऊंचाई पर पहुंच गई है आदि-आदि। घर के वातावरण से मुझे विरक्ति होने लगी। मुझे अपना गांव याद आया जहां शव को घेरे लोग तब तक बैठे रहते हैं जब तक कि उसे श्मशान के लिए न ले जाया जाए। हमारे यहां यह अकल्पनीय है कि शव के पास कोई कुर्सी पर बैठ जाए ! खाने की बात तो कोई सोच ही नहीं सकता ! जब तक दाह-संस्कार न हो जाए और श्मशान गए लोग नहा-धोकर वापस न आ जाएं, तब तक कोई अन्न को मुंह नहीं लगा सकता। शव के पास सारे के सारे परिजन या तो रो रहे होते हैं, या उनकी आंखें नम होती हैं। कइयों का तो गला दो-तीन दिनों तक रुंधा रहता है। जिस घर में मृत्यु होती है, उसका पता दूर से ही चल जाता है। सौ-पचास लोगों का शवयात्रा में शामिल होना मामूली-सी बात है। यह ठीक है कि भल्ला साहब अपना पूरा जीवन जी कर गए हैं। फिर भी घर में किसी के गुजर जाने पर दुख तो होता ही है। जो व्यक्ति बुरा करता है उसके लिए तो हमारे देश में कहावत है कि तुमने ऐसे कुकृत्य किए हैं कि जब मरोगे तो कोई चार आंसू भी नहीं बहाएगा। इसका सीधा-सा अर्थ यही है कि अपने प्रियजनों की मृत्यु के बाद तो रोया ही जाता है। हमारे देश के ही कुछ हिस्सों में तो भाड़े पर रुदाली रखने की भी परंपरा है। पर यहां सब कुछ कितना अलग है। इसलिए मुझे इस घर का वातावरण बिल्कुल अप्रत्याशित और अस्वाभाविक लगा।
अब कुलीगों ने गूगल मैप देखना शुरू किया। किसी ने कहा 40 मिनट लगेंगे। किसी ने कहा बहुत ट्रैफिक है, इसलिए जल्दी करो। अचानक मेरी ओर देखकर दिनेश ने कहा कि ‘आपको प्रेयर मीटिंग ( प्रार्थना सभा ) में बुलाएंगे। हम लोग अब निकलते हैं।’ मैं दिनेश की बात सुनकर हतप्रभ हो गया, जैसे मुझे काठ मार गया हो ! मुझे समझ में नहीं आया कि मैं क्या कहूं ! मुझे उस आगंतुक को कही अपनी ही बात याद आई कि ‘मुझे श्मशान जाना होगा।’ आखिर इतने निकट के पड़ोसी थे भल्ला साहब। मैं अपराध-बोध से ग्रस्त भल्ला साहब के पार्थिव शरीर के पास गया और उनके चरणों को अंतिम बार प्रणाम करके घर के बाहर खड़ा हो गया ताकि कम से कम उनकी शवयात्रा के दर्शन कर लूं। शव बाहर निकाला गया। मेरा चिर-संचित संस्कार फिर जाग गया। मैंने बांस की फरकी को हाथ लगाया और सबको संबोधित करते हुए कहा कि ‘सभी हाथ लगाइए।’ पर मेरी आवाज लौटकर मेरे ही पास आ गई। किसी और ने हाथ नहीं लगाया। भल्ला साहब के दोनों पोते, एक अटेंडेंट और दिनेश के एक कुलीग मिलकर कंधों के सहारे शव ले जा रहे थे। दिनेश शव से दूर ही रहे। बीस ही कदम पर शव-वाहन खड़ा था, उसमें शव को रख दिया गया। मेरे साथ एक-दो और पड़ोसी आ गए थे। पर हमें अंदर से लगा कि हमें यहां वाहन के चलने तक भी नहीं रुकना चाहिए। अतः हम सब घर की ओर लौटने लगे। जीवनभर का मलाल लिए कि मैं भल्ला साहब की अंतिम यात्रा में भाग नहीं ले सका भारी मन और मंथर-गति से अपने घर की ओर कदम बढ़ाने लगा। घर आकर घंटो बेचैन रहा। समझ में नहीं आ रहा था कि सभ्यता की इस नवीनतम ऊंचाई को लेकर रोऊं या गाऊं ! बड़ा ही डरावना लगा सारा प्रकरण !
भल्ला साहब से मेरा परिचय ठीक सोलह साल पहले हुआ जब हमने इस कॉलोनी में अपना घर खरीदा। भल्ला साहब का फ्लैट हमारे सामने वाले फ्लैट के ठीक नीचे था। इसलिए उनके और हमारे फ्लैट के बीच मुश्किल से चंद फीट की ही दूरी थी। इस प्रकार वह हमारे निकटतम पड़ोसियों में थे। आरंभ में अक्सर हमारी भेंट नीचे पानी की टंकी के पास होती थी जहां हम यह देखने जाया करते थे कि मोटर ठीक से चल रही है और टंकी में पानी आ रहा है। तब भल्ला साहब की उम्र थी अस्सी वर्ष। धीरे-धीरे हमारा सामीप्य बढ़ने लगा। समय-समय पर मैं उनके घर जाता और वह भी हमारे घर आते। एक समय ऐसा आ गया कि मैं उनका सबसे करीबी पड़ोसी बन गया। वह हर काम मुझसे पूछ कर ही करते। जितने तरह के बिल होते उनके भुगतान को लेकर वह मुझसे बात करते। अगर घर में कामवाली नहीं है तो मुझसे कहते। कई बार तो जो भी कामवाली हमारे घर में काम करती, उसे ही वह भी रखने पर जोर देते।
तीन कमरों के बड़े से फ्लैट में भल्ला साहब के अलावा सिर्फ उनकी पत्नी रहती थीं। भल्ला साहब नाटे कद के व्यक्ति थे। उनका रंग गोरा था। लेकिन उनके सारे बदन पर सफेद दाग थे। सर से लेकर पांव तक दाग ही दाग थे, जिससे उनका पूरा शरीर बदरंग हो गया था। यहां तक कि उनके होंठों पर भी सफेद दाग थे। सर पर सिर्फ सफेद बाल। लेकिन बालों का घनत्व बहुत कम। सर पर जहां भी खाली जगह थी वहां भी सफेद दाग थे। उनके शरीर की दूसरी विशेषता यह थी कि उनकी कमर एकदम झुकी हुई थी। उनको चलता देखकर आश्चर्य होता था कि वह चल कैसे पाते हैं ! आमतौर पर वह रोज एक बार घर से निकलते। हाथ में छोटी-सी छड़ी लेकर वह पार्क की सैर करते और लौटते हुए दूध-सब्जी जैसी दिन-प्रतिदिन की चीजें खरीदते। भल्ला साहब के शरीर की तीसरी विशेषता यह थी कि उनको बहुत कम सुनाई देता था और उनके दोनों कानों में हियरिंग मशीन लगी रहती थी। इस मशीन के बावजूद वह जोर से बोलने पर ही सुन पाते थे।
भल्ला साहब की अवस्था को देखकर मेरे मन में बार-बार एक बात आती कि क्यों इनके साथ इनका बेटा नहीं रहता। आखिर इनका बेटा दिल्ली में ही है और सरकारी फ्लैट में अपने परिवार के साथ रहता है, तो फिर अपने माता-पिता के साथ क्यों नहीं रह सकता ? यही बात हमारे दूसरे पड़ोसियों के मन में भी आती। लेकिन इस बारे में कोई पूछता नहीं था। मेरी जब भी उनसे भेंट होती मैं उनके बेटे के बारे में पूछ लेता। फिर तो भल्ला साहब देर तक उत्तर देते। वह गर्व से तन जाते। बताते कि मेरे बेटा अब अमुक ऑफिस में पोस्टेड है, मामूली काम नहीं करता मेरा बेटा, स्पेशल असाइनमेंट मिला है उसे, उसका हाल ही में प्रोमोशन हुआ है, वह बहुत बड़ा अफसर बन गया है आदि-आदि। इसके बाद भल्ला साहब अपने पोतों की बातें करने लगते। परंतु भूल कर भी वह इस बारे में कुछ नहीं कहते कि क्यों उनका बेटा उनके साथ नहीं रहता।
भल्ला साहब का पूरा नाम था — धनपतलाल भल्ला। माता-पिता ने सोच-समझकर नाम रखा होगा ताकि बेटे को धन का अभाव न हो। हुआ भी ऐसा ही। भल्ला साहब ने बहुत धन अर्जित किया। आरंभ में अवश्य उनका जीवन संघर्षमय था। पर बाद में उनके पास सदा इतना धन रहता था कि वह अच्छा जीवन जी सकते थे। भल्ला साहब छियानवे वर्ष का बहुत लंबा जीवन जीकर इस संसार से विदा हुए। उनका जन्म आज के पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में हुआ था। जब वह कालेज में पढ़ रहे थे तभी उनके परिवार को देश-विभाजन के कारण भारत आना पड़ा। भारत में उनका परिवार दिल्ली के किसी मुहल्ले में बस गया। भल्ला साहब ने अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी की और भारत सरकार में अधिकारी बन गए। विभाजन के दंश को झेलने के कारण वह मितव्ययी हो गए। पैसे का महत्व वह जानते थे। पैसे बचाने के चलते ही भल्ला साहब ने बहुत देर से विवाह किया।
भल्ला साहब का विवाह सुमित्रा नाम की एक सुंदर लड़की से हुआ। जिस आयु में मैंने सुमित्रा जी को देखा तब वह नाती-पोते वाली हो चुकी थीं। पर उनके व्यक्तित्व में एक नैसर्गिक आकर्षण था। बिल्कुल गोरी और छरहरी सुमित्रा जी को देखकर कोई भी उन्हें अपनी मां-समान मानकर गर्व करता। सुमित्रा जी शालीनता, सौम्यता और ममता की प्रतिमूर्ति थीं। सुमित्रा जी बहुत कम बोलती थीं। पर जितनी देर सामने रहतीं, उतनी देर तक उनके चेहरे पर एक मुस्कान बिखरी रहती। उनको देखना इतना सुखकर था कि बार-बार देखने को जी करता। अपने नाम के अनुकूल सुमित्रा जी की अनेक सखी-सहेलियां थीं। वह उन्हीं में मगन रहतीं। कभी किटी पार्टी, तो कभी भगवदभजन, तो कभी गीता पाठ सुमित्रा जी इन्हीं सामाजिक-धार्मिक गतिविधियों में व्यस्त रहतीं।
जवान भल्ला साहब के सामने दो ही महती उद्देश्य थे — एक घर खरीदना और बच्चों को अच्छी शिक्षा देना। पैसे बचा-बचाकर उन्होंने बच्चों को महंगे प्राइवेट स्कूल में पढ़ाया। बच्चों ने भी अपनी उपलब्धियों से भल्ला साहब का सर ऊंचा कर दिया। बेटे दिनेश ने भारत सरकार में बड़ा पद हासिल किया। बहुत सुंदर नाक-नक्श वाली लड़की से दिनेश का विवाह हुआ। सामान्य लंबाई वाली बहू का रंग तो हल्का-सा दबा था, पर चेहरे पर जो पानी था, उससे वह किसी को भी आकर्षित कर सकती थी। भरा-पूरा बदन लेकिन मोटापा नामभर को नहीं। आंखें बहुत बड़ी नहीं पर अत्यंत चंचल। बहू अपने पहनावे और हाव-भाव में अतिआधुनिक थी। अंग्रेजियत उसके व्यक्तित्व में कूट-कूटकर भरी हुई थी। बहू को देखकर ऐसा लगता कि उसके माता-पिता उसे सिर्फ आधुनिक ही बनाना चाहते थे। उम्र को कैसे पछाड़ा जाए यह बहू अच्छे से जानती थी। दो जवान बेटों की मां होने के बावजूद आज भी दिनेश की पत्नी अपनी वास्तविक उम्र से बहुत कम की लगती हैं। दिनेश की पत्नी प्राइवेट कंपनी में अच्छे पद पर काम करने लगीं। इस प्रकार पति-पत्नी दोनों अपनी नौकरी और अपने बच्चों के लालन-पालन में लग गए।
भल्ला साहब की बेटी दिव्या ने भी शिक्षा पूरी करके अच्छी नौकरी पा ली। कालांतर में भल्ला साहब ने बेटी का विवाह एक सुयोग्य लड़के से कर दिया। थोड़े ही समय बाद बेटी और दामाद दोनों को विदेश में नौकरी मिल गई और वे दोनों सदा के लिए विदेशी हो गए। साल, दो साल में बेटी भल्ला साहब से मिलने आ जाया करती या भल्ला साहब अपनी पत्नी के साथ विदेश चले जाते थे।
इस प्रकार भल्ला साहब के तीनों परिवार तीन अलग-अलग स्थानों में रहने लगे। बेटी तो निस्सन्देह विदेश में थी, इसलिए उसका साथ होना असंभव था। लेकिन घोर आश्चर्य की बात तो यह थी कि एक ही शहर में रहकर बाप और बेटा अलग-अलग रह रहे थे। दोनों के घरों के बीच की दूरी थी मात्र छह किलोमीटर। दो घरों में दो अलग-अलग व्यवस्था करने से पैसे भी अधिक खर्च होते होंगे। इसलिए अलग-अलग रहने वाली बात किसी के गले नहीं उतरती थी। खैर, ऐसे ही सब कुछ चलता रहा।
अभी हमें इस कॉलोनी में आए दो वर्ष ही हुए होंगे कि दिवाली की एक रात पड़ोसी से मिलने की औपचारिकता में हम भल्ला साहब के घर गए। हमारे सामने ही भल्ला साहब अपनी पत्नी के साथ बैठे थे। कुछ देर तक बातचीत हुई। वातावरण में उत्स था। हम लोग प्रसन्न थे। पति-पत्नी के बीच न जाने कैसे बातचीत होती थी क्योंकि भल्ला साहब बड़ी मुश्किल से सुन पाते थे। फिर भी पति-पत्नी का संबंध — एक-दूसरे की बात, आंखों के संकेतों और हाव-भाव से, समझ में आ जाती थी। सुदीर्घ सानिध्य पति-पत्नी को इस योग्य बना ही देता है कि भाषा की अधिक आवश्यकता नहीं रह जाती है। इस प्रकार जवान बेटे से दूर एक वृद्ध दंपत्ति एक-दूसरे के सहारे अपना जीवन जी रहा था। परंतु किसे पता था कि दिवाली की यह रात सुमित्रा जी के जीवन की अंतिम रात होगी ! काल की ऐसी कुकृपा हुई कि आधी रात के बाद हृदय-गति रुकने से सुमित्रा जी अपना शरीर इसी धरा पर छोड़कर दूसरी दुनिया में चली गईं। एक झटके में ही भल्ला साहब का जैसे सारा जहां ही लुट गया।
दूसरे दिन की शाम जब सुमित्रा जी का दाह-संस्कार हो चुका था तब सभी पड़ोसीगण अपनी संवेदना व्यक्त करने उनके घर गए। सब यही सोच रहे थे कि जब तक सुमित्रा जी थीं तब तक तो फिर भी भल्ला साहब के लिए ठीक था, परंतु अब जब वह नहीं रहीं तो भल्ला साहब को अकेला छोड़ना उचित नहीं होगा। सबका ध्यान दिनेश की ओर था जो सामने ही बैठे थे। बात चलने लगी कि बिना सुमित्रा जी के भल्ला साहब का जीवन कैसे चलेगा ? परंतु इस पर दिनेश की ओर से किसी भी तरह की प्रतिक्रिया न पाकर सभी हतोत्साहित हो गए। सबके मन में यही भाव उपजा कि कैसा कठ-कलेजा है भल्ला साहब का बेटा। तभी एक मुखर पड़ोसन ने बोल ही दिया, ‘देखिए ! जब तक आंटी थीं तब तक तो किसी तरह अंकल का काम चल जाता था। पर अब जब आंटी नहीं हैं, तो आपके लिए यही मुनासिब होगा कि या तो आप अंकल के साथ रहिए या अंकल को अपने साथ रखिए। अब इनको किसी भी हाल में अकेला नहीं छोड़ा जा सकता।’ दिनेश ने ध्यान से बात सुन तो ली, लेकिन किसी तरह का उत्तर नहीं दिया। सभी पड़ोसीगण फिर भी आश्वस्त-से हो गए कि अब बेटा भल्ला साहब के साथ ही रहेगा।
दाह-संस्कार के तीन दिन बाद सुमित्रा जी को श्रद्धांजलि देने के लिए प्रार्थना सभा का आयोजन किया गया। इसमें भल्ला साहब और उनके बेटे दिनेश के परिजन और परिचित शामिल हुए। साथ ही शामिल हुए पड़ोसीगण। इस प्रार्थना सभा के कारण अब तक सगे-संबंधियों से भल्ला साहब का घर भरा हुआ था। पर इसके बाद चौथे ही दिन एक-एक करके सभी विदा हो गए। और अंततः चौथे दिन ही विदा हुआ दिनेश सहित दिनेश का परिवार। अब घर में सिर्फ भल्ला साहब ही रह गए। किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे अकेले रह पाएंगे बयासी साल के भल्ला साहब !
फिर भी भल्ला साहब अकेले ही रहने लगे। उन्होंने दो कामवालियों को रखा — एक से बर्तन-बासन कराते तो दूसरी से भोजन बनवाते। शनिवार-रविवार को उनका छोटा पोता – सुशांत उनके साथ रहता। बड़ा पोता – प्रशांत स्कूल की पढ़ाई पूरी करके किसी प्रोफेशनल कोर्स के लिए दूसरे शहर चला गया था। इसलिए प्रशांत तो तभी अपने दादाजी से मिलने आता जब उसे गर्मियों और सर्दियों की छुट्टी मिलती। बीच-बीच में सुविधानुसार दिनेश भी अपने पिता से मिलने आते। इस प्रकार भल्ला साहब का विधुर जीवन चलने लगा। धीरे-धीरे भल्ला साहब का शरीर कमजोर पड़ने लगा और एक दिन ऐसा आया कि उनका घर से बाहर जाना बंद हो गया। जब तक भल्ला साहब घर से बाहर जाने के लायक थे तब तक उनका समय बड़ी आसानी से कट जाता था। लेकिन अब तो पहाड़ जैसे दिन काटे नहीं कटते थे। फिर भी भल्ला साहब अपना हृदय कठोर करके अपना जीवन बिताने लगे। भल्ला साहब बहुत मिलनसार नहीं थे, इसलिए उनका संपर्क बहुत कम लोगों से होता था। मैंने पार्क में भी उन्हें अकेले ही सैर करते देखा था। इसका एक कारण तो यह था कि वह आसानी से सुन नहीं पाते थे, इसलिए संभवतः लोग उनसे बात करने में कतराते थे। दूसरा कारण यह था कि वह बहुत कम व्यक्तिगत बातें करते थे। इसलिए बात करने के विषय इतने सीमित हो जाते कि उनसे कोई बात क्या करता। तीसरा कारण यह था कि बड़ी कठिनाई से ही वह किसी पर भरोसा करते थे। भरे-पूरे परिवार के होते हुए भी भल्ला साहब के अकेलेपन की हालत पर मुझे सुप्रसिद्ध शायर निदा फाजली का एक लोकप्रिय शेर याद आया जिसे ऐसी ही किसी विडंबनापूर्ण स्थिति के लिए लिखा गया होगा :
“हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी
फिर भी तंहाइयों का शिकार आदमी।”
इस प्रकार अपने फ्लैटकी छोटी-सी दुनिया में भल्ला साहब सीमित होकर रह गए। समय बिताने के लिए वह पूरा अखबार चाट जाते और बाकी समय टीवी को समर्पित कर देते। सुबह का ही समय होता जब वह बाकी दुनिया को अपनी बालकनी से देख पाते थे अन्यथा वह अपने घर में बंदी जीवन बिताते। अब वह घर से बाहर तभी निकलते जब उन्हें डॉक्टर से मिलना होता। धीरे-धीरे उनके घुटनों की तकलीफ बढ़ने लगी, जिसके लिए अक्सर उन्हें घुटनों पर पट्टी बांधनी होती थी। उनके कमजोर होते शरीर को अब सहारा चाहिए था। इसलिए भल्ला साहब ने दो अटेंडेंट रख लिए। दोनों अटेंडेंट किसी प्रोफेशनल एजेंसी से लिए गए थे। एक अटेंडेंट सुबह आता और शाम तक रहता तो दूसरा शाम को आकर कल सुबह तभी जाता जब पहला आ जाता। इस प्रकार दो पार्ट-टाइम काम वालियों के अलावा उनके यहां दो अटेंडेंट भी आ गए। अटेंडेंट के लगातार साथ रहने से भल्ला साहब का जीवन पटरी पर लौट आया। पत्नी के जाने के बाद पहली बार अटेंडेंट की उपस्थिति से उनको किसी मनुष्य का साथ मिला। इस तरह अब हर समय एक व्यक्ति उनके साथ रहता था। अटेंडेंट से वह काम भी कराते और बात भी करते रहते। अटेंडेंट भी समय के साथ उनसे बात करना सीख गए। अटेंडेंट न केवल उनके हाथ-पैर, बल्कि उनके सखा, साथी और उनके जीवन का आधार भी बन गए।
एक दिन किसी त्योहार के अवसर पर मैं भल्ला साहब से मिलने गया। घर में उनके साथ उनका अटेंडेंट भी था। मैंने पूछा, ‘आप कैसे हैं ?’ उन्होंने उत्तर दिया, ‘देखिए ! मैं इतनी पेंशन कमाता हूं कि अपने पर खूब खर्च करता हूं और अब तो दो अटेंडेंट भी रख लिए हैं। फिर भी मेरे पैसे बच जाते हैं। इस तरह मजे में जिंदगी बीत रही है।’ मैंने उन्हें बताया कि ‘हमारी कॉलोनी में सबसे अधिक उम्र वाले सीनियर सिटिजन को सम्मानित किया जा रहा है उसमें आप क्यों नहीं जाते ?’ उन्होंने उत्तर दिया कि, ‘मेरी वहां जाने की हालत नहीं है। लेकिन मुझे पता है कि इस कॉलोनी में आज कोई भी मुझसे अधिक उम्र का नहीं है।’ भल्ला साहब को अपने दीर्घजीवी होने पर बड़ा गर्व था। भल्ला साहब इस बात से बहुत खुश थे कि वह पंचानवे पार हो चुके हैं क्योंकि पंचानवे पार करने के कारण उनकी पेंशन की राशि में लगभग बीस हजार रुपए की बढ़ोतरी हो गई थी। पर सच तो यह है कि उनके दीर्घजीवी होने का एक परिणाम यह हुआ कि उनका कोई समकालीन नहीं बचा जिससे वह खुलकर बात करते। भल्ला साहब के लिए यह एक बड़ा संकट था। समकालीन के अतिरिक्त दूर-दूर तक उनका अपना कहने लायक भी कोई नहीं था जिससे वह अपना दुख-सुख बांटते। मैंने अलग से अटेंडेंट से पूछा, ‘तुम इनसे बात कैसे करते हो, ये तो बहुत ऊंचा सुनते हैं ?’ अटेंडेंट ने उत्तर दिया, ‘मेरे चेहरे के हाव-भाव और होठों के हिलने से साहब बहुत कुछ समझ जाते हैं।’ मेरे लिए यह बात बहुत आश्वस्तकारी थी कि भल्ला साहब और उनके अटेंडेंट के बीच एक जीवंत संबंध बन गया है।
एक बार की बात है कि मैं अपने सामने वाले पड़ोसी से बात कर रहा था। विषय था दिल्ली का विधानसभा चुनाव। राजनीतिक बातों से जो रस मिलता है वह तो दुर्लभ पदार्थ है, इसलिए हमारे ऊपर वाले पड़ोसी भी आ गए। अब तो खूब गरमा-गरम बातें होने लगीं। जैसा कि आमतौर पर होता है तर्क-वितर्क करते-करते हमारी आवाज ऊंची होने लगी। न जाने कैसे भल्ला साहब को इसकी भनक लग गई। वह धीरे-धीरे सीढ़ी चढ़कर हमारे पास आ गए और संभवतः पहली और आखिरी बार गर्मजोशी से हमारी सामूहिक बहस में शामिल हो गए। हमारी बातें उन्हें ठीक से समझ में नहीं आती थीं लेकिन उन्हें विषय पता था। इसलिए जिस राजनीतिक दल को वह पसंद करते थे उसके पक्ष में तर्कों की झड़ी लगा दी। नियमित रूप से अखबार पढ़ने और टीवी देखने से उनके तूणीर में तर्कों के अनगिनत बाण थे। हम सभी आश्चर्यचकित होकर अपलक भल्ला साहब को देखते रहे। उनका यह रूप हम सब के लिए नया था। आज वह खुल गए थे। लगता था जैसे बरसों से बंद पड़ा सोता फूट पड़ा हो। हम सभी यह जानकर अचम्भित थे कि भल्ला साहब अपने परिवेश और व्यापक विश्व से किस कद्र जुड़े हुए हैं ! फिर क्या बात है कि वह अपने परिवार से अलग रहते हैं। उनकी पत्नी को गुजरे भी कई साल हो गए, लेकिन कभी किसी ने उनके मुंह से पत्नी के विषय में कुछ भी नहीं सुना। उनमें भावना क्यों नहीं है ? उन्हें किसी ने खुलकर हंसते भी नहीं देखा। क्यों उन्हें अपने बेटे के साथ रहने का मन नहीं करता ?
भल्ला साहब ने देश का विभाजन देखा था। विभाजन की विभीषिका उनके मन-मस्तिष्क में बैठ-सी गई थी। विभाजन किसी युद्ध के समान था जब कौन जीएगा और कौन मरेगा इसका किसी को पता नहीं होता है। सबके सामने एक ही चीज होती है और वह है घोर अनिश्चितता अर्थात अगले पल का पता नहीं। इससे व्यक्ति आत्मकेंद्रित हो जाता है। ऐसी परिस्थिति में स्वयं की रक्षा करना ही सर्वोपरि लक्ष्य हो जाता है। जब जान बच जाती है तब अपने सदियों के बसे-बसाए परिवेश से उखाड़े जाने का भाव मन में घर कर जाता है। जब पता चलता है कि फिर से उस परिवेश से जुड़ नहीं सकते तो जड़-कटे होने का अहसास होता है। जिस व्यक्ति के जीवन के अनुभव इतने कड़वे हों, उसकी भावना यदि सूख जाए तो इसमें आश्चर्य क्या ! संभवतः इसी कारण से भल्ला साहब ने अपना मन मार लिया था। उनके लिए उनका शरीर ही सब कुछ था और उस शरीर को चलाने के लिए जो चीज चाहिए थी वह था पैसा।
भल्ला साहब ने पैसे बचा-बचाकर सेवानिवृत्त होने के बाद हमारी कॉलोनी में फ्लैट खरीदा। वह पाई-पाई का हिसाब रखते थे। जब उनके लिए खाना बनता था तो वह चाहते कि उतना ही खाना बने जितना कि वह खा सकें। खाना बेकार बर्बाद न हो। परंतु आधा-दर्जन घरों में खाना बनाने वाली को इतना अवकाश कहां होता कि वह हिसाब लगा कर खाना बनाए। वह तो त्वरित गति से जितना जो हाथ में आ जाए उसका प्रयोग कर लेती। भल्ला साहब बहुत नाराज होते। जब खाना बनाने वाली आती तो वह नापकर चावल, आटा और सब्जी निकालते। इतनी देर तक खाना बनाने वाली खड़ी रहती। जिसका परिणाम यह होता कि उनके यहां कोई खाना बनाने वाली महीने से ज्यादा नहीं टिकती।
ऐसी ही एक और घटना याद आती है। अभी-अभी हम इस कॉलोनी में आए थे। हमारी बिल्डिंग जिसमें आठ फ्लैट थे उसके आगे की जमीन खाली थी, जो आखों को खटकती थी। हम दो-चार पड़ोसी मिलकर इस नतीजे पर पहुंचे कि इस जमीन में हमें पौधे लगाने चाहिएं। हमने एक माली से पौधे लगवाए। अब एक समस्या सामने आई कि बिना माली रखे इन पौधों की देख-रेख कैसे हो पाएगी ? इसलिए हमने निर्णय किया कि हमें एक माली रख लेना चाहिए। वही समय-समय पर इन पौधों की सिंचाई किया करेगा। तय हुआ कि दो सौ रुपए महीने पर माली काम करेगा। आठ फ्लैट के हिसाब से प्रत्येक फ्लैट को पच्चीस रुपए देने थे। मुझे जिम्मेदारी दी गई कि मैं भल्ला साहब से बात करूं। मैंने उनसे मिलकर आग्रह किया कि ‘आपको हर महीने पच्चीस रुपए देने हैं।’ इस पर उन्होंने तुरंत प्रतिक्रियास्वरूप कहा कि ‘पच्चीस रुपए देने की क्या जरूरत है ? मैं तो ऊपर से ही पाइप से इन पौधों की सिंचाई कर दिया करूंगा।’ फिर उन्होंने यह भी कहा कि ‘मैं आपको भी सलाह दूंगा कि आप माली मत रखिए।’ जब मैंने शेष पड़ोसियों से भल्ला साहब से हुई बातचीत के बारे में बताया तो सभी दंग रह गए। सबने कहा कि यह बुड्ढा पैसे क्या लादकर ले जाएगा !
इसी तरह जब हमारी बिल्डिंग में लिफ्ट लगाने की बात चली तो सबने मुझसे कहा कि आप भल्ला साहब से बात कीजिए। मैं उनसे मिला। इस बार भी उनका रवैया वैसा ही था। उनका फ्लैट फस्ट फ्लोर पर था, इसलिए उन्हें पंद्रह सीढ़ी चढ़ना मुश्किल नहीं लग रहा था। उनके हिसाब से दूसरी-तीसरी मंजिल वालों के लिए लिफ्ट की अधिक जरूरत है उन्हें नहीं। लेकिन जब लिफ्ट लगाने का काम चलने लगा और उनका स्वास्थ्य गिरने लगा तब उन्हें अहसास हुआ कि पंद्रह तो क्या वह दो सीढ़ियां भी नहीं चढ़ पाएंगे। तब जाकर भल्ला साहब राजी हुए और लगभग डेढ़ लाख रुपए का अपना हिस्सा दिया। इस प्रकार अपने शरीर के लिए वह कितना भी धन खर्च कर सकते थे, अन्यथा नहीं।
जब भल्ला साहब बिल्कुल अशक्त हो गए तब हमें बहुत अखरने लगा कि अब तो कम से कम दिनेश को चाहिए कि वह अपने पिता को अपने साथ रखें। लेकिन दिनेश ने ऐसा नहीं किया। समय बीतता गया। एक दिन मुझे पता चला कि भल्ला साहब स्वास्थ्य काफी बिगड़ गया है और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया है। बाद में पता चला कि भल्ला साहब लगभग एक महीना अस्पताल में ही रहे। साथ में बारी-बारी से रहे उनके अटेंडेंट। उधर दिनेश और दिनेश की पत्नी की नौकरी यथावत चलती रही और यथावत ही चलती रही पोतों की पढ़ाई। भल्ला साहब के कारण किसी के जीवन में तनिक भी अवरोध खड़ा नहीं हुआ। महीने भर अस्पताल में रहने के बाद भल्ला साहब के स्वास्थ्य में थोड़ा सुधार हुआ और उन्हें डिस्चार्ज कर दिया गया। दिनेश उन्हें अपने साथ अपने घर ले गए।
बाद में पता चला कि भल्ला साहब दिनेश के घर नहीं रहना चाह रहे हैं इसलिए कल से यहीं आ जाएंगे। मैं सोचने लगा कि इतना अशक्त और रोग-ग्रस्त व्यक्ति कैसे यहां आ सकता है ? और अगर आ भी जाए तो रहेगा कैसे ? ऐसे रोगी को तो मिनट-मिनट दवाएं चाहिएं। नर्स की सेवा चाहिए। डॉक्टर की सलाह चाहिए। फिर भी भल्ला साहब अपने फ्लैट में वापस आ गए। उनके साथ पूर्ववत बारी-बारी से अटेंडेंट रहने लगे।
अभी कुछ ही दिन हुए होंगे कि उनकी हालत फिर खराब हो गई। दिनेश को बताया गया। दिनेश ने फिर उन्हें अस्पताल में भर्ती कर दिया। दिनेश अपने काम में व्यस्त हो गए और अटेंडेंट के सहारे भल्ला साहब अपना इलाज कराने लगे। पर अब दवाओं का असर कम होने लगा। संक्रमण शरीर में फैलने लगा और एक दिन अस्पताल में ही उन्होंने अंतिम सांस ली। अटेंडेंट ने फोन करके दिनेश को भल्ला साहब की मृत्यु का समाचार दिया। दिनेश एक कॉन्फ़्रेन्स में थे। वहीं से वह अस्पताल पहुंचे।
किसी की समझ में नहीं आया कि भल्ला साहब के साथ दिनेश क्यों नहीं रहे जिससे उन्हें परिवार का सुख मिलता। चौदह वर्ष का वैधूर्य और परिवार विहीन जीवन कैसा रहा होगा सोचकर ही मन सहम जाता है। क्या इतने वृद्ध और अशक्त व्यक्ति को अकेला छोड़ा जा सकता है जब उसे किसी के सहारे और सानिध्य की सबसे अधिक आवश्यकता होती है। वैसे यह सही है कि भल्ला साहब अपनी शर्तों पर जीवन जीना चाहते थे। उन्हें अपनी स्वतंत्रता पसंद थी। पर यह तो उनका अधिकार था। असली समस्या यह थी कि दिनेश और उनकी पत्नी भी अपनी स्वतंत्रता से किसी भी तरह का समझौता नहीं करना चाहते थे। बिल्कुल अशक्त और बीमार होने की हालत में वे एक वृद्ध को तो अपने घर में रख सकते थे। लेकिन उन्हें वृद्ध के साथ वृद्ध के घर में रहना स्वीकार्य नहीं था। कहते हैं कि पौधा उखाड़ कर दूसरी जगह लगाया जा सकता है पर यदि वृक्ष उखाड़ कर कहीं और लगाया जाए तो वह मर जाता है। जवानी में भल्ला साहब को एक बार अपने घर से बेघर होना पड़ा था। इसलिए संभवतः अब वह अपना घर छोड़ने को तैयार नहीं थे चाहे उसके लिए कितनी भी बड़ी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। इसलिए उन्होंने अपने परिवार के साथ रहने की तुलना में दो अटेंडेंट के सहारे जीवन जीने को वरीयता दी। इससे न केवल उन्हें अपना घर नहीं छोड़ना पड़ा, बल्कि वह अपनी शर्तों पर जीवन भी जी सके।
आज जब शव-वाहन में भल्ला साहब का पार्थिव शरीर रखा गया और हम अपने घरों को लौटने को हुए तभी एक जवान व्यक्ति, जो सबसे अधिक भाग-दौड़ कर रहा था, की ओर इशारा करते हुए मेरे एक पड़ोसी ने मुझसे पूछा कि ‘यह आदमी दिनेश का भाई है ?’ मैंने उत्तर दिया, ‘दिनेश के कोई भाई नहीं है यह तो भल्ला साहब का अटेंडेंट है।’ मैंने मन ही मन कहा — विधि का विधान तो देखिए कि अब भल्ला साहब के बेटे को तो करोड़ों का फ्लैट और लाखों का बैंक बैलेंस मिल जाएगा पर अटेंडेंट की तो आज से जीविका का एकमात्र साधन —नौकरी ही चली जाएगी। इसलिए कल से दोनों अटेंडेंट भल्ला साहब जैसे किसी और वृद्ध की खोज में निकल जाएंगे। मानव सभ्यता ने कितनी प्रगति कर ली है कि इस अतिआधुनिक युग में अतिसमृद्ध परिवारों के वृद्ध अपने परिजनों के बजाय अटेंडेंट के सहारे ही जीवन जीने को अभिशप्त हैं।
लेखक निवेश एवं लोक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग , वित्त मंत्रालय ,भारत सरकार में संयुक्त सचिव हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं ।
12 अगस्त 2019