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इन्दौर दौरे के बहाने

28 मई 2022

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13 अभी पिछले सप्ताह मेरा इन्दौर का दो-दिवसीय दौरा हुआ। वहां राजभाषा संगोष्ठी थी। कहने को तो यह मेरा तीसरा दौरा था, लेकिन इन्दौर को थोड़ा ध्यान देकर पहली बार देखा। लगभग बीस लाख की जनसंख्या के साथ इन्दौर मध्य प्रदेश का सबसे बड़ा और देश का पंद्रहवां सबसे बड़ा नगर है। एक आम अर्थशास्त्रीय धारणा है कि जिस राज्य में जितने बड़े-बड़े नगर होते हैं वह राज्य उतना ही समृद्ध होता है। असल में नगर आस-पास के लोगों को रोजगार उपलब्ध कराते हैं जिससे लोगों की संपन्नता बढ़ती है। फैलते हुए नगर तो रोजगार के लिए वरदान होते हैं, क्योंकि उनमें रोजगार उपलब्ध कराने की उत्तरोत्तर बढ़ती हुई क्षमता होती है। इस दृष्टि से यदि हम देखें तो यह अत्यंत चिंताजनक बात है कि इतने बड़े हिन्दी क्षेत्र में दिल्ली को छोड़कर एक भी महानगर नहीं है। अब इसे विडंबना ही कहिए कि देश के सबसे बड़े पंद्रह नगरों में हिन्दी क्षेत्र में केवल पांच नगर हैं — दिल्ली, जयपुर, लखनऊ, कानपुर और इन्दौर ।  जबकि हम जानते हैं कि जनसंख्या के हिसाब से सर्वाधिक बड़े नगर हिन्दी क्षेत्र में ही होने चाहिए थे। इससे हमें पता चलता है कि हिन्दी क्षेत्र इतना पिछड़ा क्यों है ! इस संदर्भ में यदि इन्दौर की विवेचना करें तो हम गौरव का अनुभव करते हैं। इन्दौर हिन्दी क्षेत्र का सिरमौर है। आज इन्दौर एक विशाल नगर है और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में तो इसका डंका चहुंओर बज रहा है। यहां देश के अति प्रतिष्ठित संस्थान — आइआइएम और आइआइटी दोनों एक साथ स्थापित हैं। हिन्दी क्षेत्र की आम परंपरा को तोड़ते हुए यह नगर देश का सर्वाधिक स्वच्छ नगर है और यह सौभाग्य इस नगर को पिछले तीन वर्षों से मिल रहा है। नगर का प्रयास जारी है कि चौथी बार भी उसे यह सुयश प्राप्त हो। इसके लिए नगर भर में ‘इन्दौर लगाएगा चौका’ का नारा लिखा देखा जा सकता है। नगर के सुंदरीकरण में स्थानीय प्रशासन लगा हुआ है। आमतौर पर सड़कें साफ-सुथरी और चौड़ी हैं। यत्र-तत्र कूड़ा-कचरा नहीं दिखता है।

कभी यह नगर मध्य प्रदेश का वित्तीय, व्यापारिक और औद्योगिक केंद्र हुआ करता था। लेकिन कालांतर में इसके सेवा-उद्योग में भी अभूतपूर्व प्रगति हुई। सेवा क्षेत्र में उच्च शिक्षा, पर्यटन, आइटी आदि प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में भी इन्दौर ने विशेष यश अर्जित किया है। अब आशा की जा सकती है कि आने वाले समय में इन्दौर का और विस्तार होगा।

परंतु यह विडंबना ही है कि जहां मध्य प्रदेश के अन्य नगर जो कहीं अधिक प्राचीन हैं पीछे रह गए, वहीं इन्दौर सबसे आगे निकल गया। उज्जैन तथा विदिशा तो मध्य प्रदेश क्या सारे देश के प्राचीनतम नगरों में स्थान पाते हैं। यहां तक कि भोपाल, मांडू, खजुराहो, जबलपुर, ग्वालियर, ओरछा जैसे नगर भी इन्दौर से बहुत पुराने हैं। अंग्रेजों द्वारा बसाए गए मुंबई, चेन्नई और कोलकाता से भी नया है इन्दौर। इसलिए इन्दौर का इतिहास बिल्कुल पुराना नहीं है। यह अपेक्षाकृत नया शहर है। अपने दो-दिवसीय प्रवास में मैंने अनेक लोगों से जानने का प्रयास किया कि क्या यहां कोई प्राचीन मंदिर हैं ? लेकिन मुझे एक भी ऐसा मंदिर या भवन नहीं मिला जिससे इसकी प्राचीनता सिद्ध हो। अधिकतर पुराने भवन और मंदिर अठारहवीं या उन्नीसवीं शताब्दी से पहले के नहीं हैं।

कहते हैं कि सन 1715 ई में स्थानीय जमींदारों ने इन्दौर को नर्मदा नदी घाटी मार्ग पर एक व्यापार केन्द्र के रूप में बसाया था। आगे यह भी कहा जाता है कि 1731 ई में उज्जैन पर विजय पाने की राह में राजा इन्द्र  सिंह ने ‘काह्न’ या ‘कान’ नदी के निकट एक शिविर लगाया और वहीं इन्द्रेश्वर मंदिर का निर्माण प्रारंभ किया। साथ ही इन्द्रपुर की स्थापना की। बाद में मराठा शासनकाल में पेशवा बाजीराव प्रथम ने इसे मराठा सूबेदार ‘मल्हारराव होल्कर’ को दे दिया। तब से इसका नाम ‘इन्दूर’ पड़ा। अंग्रेजों के राज में यह नाम अपने वर्तमान रूप इन्दौर में स्थिर हो गया था। संभवतः अंग्रेजों को ‘इन्दूर’ बोलने में कठिनाई होती होगी, इसलिए अपनी सुविधानुसार इन्दौर बना दिया होगा। दूसरी ओर यह भी कहा जाता है कि पहले इन्दौर का नाम ‘इन्दूर’ था। लेकिन 1741 ई. में बने इंद्रेश्वर मंदिर के कारण यहां का नाम इन्दौर पड़ा। जो भी हो, जैसे लखनऊ में ‘लखन’ है, जो लक्ष्मण का परिवर्तित रूप है वैसे ही इन्दौर में ‘इन्द’ है, जो इन्द्र या इन्दु का ही परिवर्तित रूप है। इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि केंद्रीय संग्रहालय, इन्दौर में संरक्षित महाराणा अरिसिंह के दान-पत्र में अहिल्याबाई होल्कर का नाम ‘अहेल्या बाई हुलकर’ लिखा है। संभव है कि ‘होल्कर’ पहले ‘हुलकर’ रहा हो और अंग्रेजों ने अपनी सुविधानुसार इसे होल्कर कहा हो। अहिल्या को अहेल्या लिखने को लेकर कोई समस्या नहीं है, क्योंकि अहिल्या बहुत पुराना शब्द है और इसका अपभ्रंश रूप अहेल्या बन गया। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि अंग्रेजों ने इन्दूर को इन्दौर कर दिया हो।

इस प्रकार यह कम विस्मयकारी बात नहीं है कि केवल तीन सौ वर्षों में ही इन्दौर का ऐसा अभूतपूर्व विकास और विस्तार हुआ। ऐसा सौभाग्य कम ही नगरों को प्राप्त होता है। इन्दौर का वर्तमान स्वरूप इसलिए और भी चौंकाने वाला है क्योंकि यह अपने प्रदेश की राजधानी नहीं है। पड़ोस के बिहार राज्य को ही लीजिए, जिसकी राजधानी — पटना अतिप्राचीन नगर है। परंतु ढाई हजार वर्षों से भी अधिक के लिखित इतिहास और अतीत में ‘पाटलिपुत्र’ के रूप में विख्यात यह नगर आज इन्दौर से छोटा है।

अठारहवीं सदी के मध्य में मल्हारराव होल्कर ने पेशवा बाजीराव प्रथम की ओर से अनेक लड़ाइयां जीती थीं। मालवा पर पूर्ण नियंत्रण करने के पश्चात 18 मई 1724 को इन्दौर को मराठा साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया था। सन 1733 में पेशवा बाजीराव प्रथम ने इन्दौर को मल्हारराव होल्कर को पुरस्कार के रूप में दिया था। मल्हारराव होल्कर ने मालवा के दक्षिण-पश्चिम भाग पर आधिपत्य कर होल्कर राजवंश की नींव रखी और इन्दौर को अपनी राजधानी बनाया। मल्हारराव की मृत्यु के पश्चात दो अयोग्य शासक गद्दी पर बैठे, किन्तु तीसरी शासिका अहिल्याबाई होल्कर (1756-1795 ई.) ने शासन कार्य बड़ी सफलता के साथ निष्पादित किया। जनवरी 1818 में इन्दौर ब्रिटिश शासन के अधीन हो गया।

वास्तव में इन्दौर अहिल्याबाई होल्कर का ऋणी है। इन्दौर के चप्पे-चप्पे पर उनकी छाप है। वहां के लोग भी अनेक प्रकार से रानी अहिल्याबाई के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करते नहीं थकते हैं। इस अर्थ में अहिल्याबाई हमारे देश में विशिष्ट स्थान रखती हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि देश की चारों दिशाओं में उनके कीर्तिध्वज आज भी फहरा रहे हैं। धर्मपरायण अहिल्याबाई ने उत्तर में केदारनाथ से लेकर, दक्षिण में रामेश्वरम तक और पूर्व में जगन्नाथपुरी से लेकर पश्चिम में द्वारका तक, मंदिर, धर्मशालाएं और घाट निर्मित कराए। घाटों की सूची तो इतनी लंबी है कि सबका उल्लेख कठिन है। फिर भी जो प्रमुख हैं, वे हैं — वाराणसी, अयोध्या, प्रयाग, मथुरा, हर की पौड़ी-हरिद्वार, महेश्वर आदि के घाट। अहिल्याबाई ने अनेक भवन भी बनवाए। कुल-मिलाकर होल्कर वंश ने इतने भवन बनवाए हैं कि देखते-देखते पर्यटक आत्म-विभोर हुए बिना नहीं रह पाते।

परंतु ऐसी महत्वपूर्ण उपलब्धियां भी अहिल्याबाई के महान व्यक्तित्व की तुलना में नगण्य हैं। उन पर अवश्य ही ईश्वर की असीम कृपा रही होगी अन्यथा जैसी विपरीत परिस्थितियों का सामना उन्हें करना पड़ा उनसे वह उबर नहीं पातीं। अहिल्याबाई पर एक के बाद एक वज्राघात हुए। अहिल्याबाई का जन्म औरंगाबाद के अहमदनगर जिले में 1725 ई में हुआ। पर बाल्यावस्था में ही ( मात्र आठ वर्ष की आयु में ) उनका विवाह मालवा के सूबेदार मल्हारराव होल्कर के पुत्र खण्डेराव के साथ हुआ। विवाह के लगभग बीस वर्षों के बाद भरतपुर के पास कुम्भेर  ( राजस्थान ) के किले की घेराबंदी के समय तोप का गोला चलने से उनके पति खण्डेराव की मृत्यु हो गई। कहते हैं कि पति के साथ अहिल्याबाई सती होना चाहती थीं। परंतु अपने ससुर मल्हारराव होल्कर द्वारा मनाए जाने के बाद उन्होंने अपना निर्णय बदल दिया। उस समय अहिल्याबाई की आयु केवल उन्तीस वर्ष थी। इसके बाद सात वर्ष ही बीते थे कि उनकी सास स्वर्ग सिधार गईं। उसके पांच वर्ष बीतने के बाद उनके ससुर मल्हारराव होल्कर भी स्वर्गवासी हो गए। परंतु सबसे हृदयविदारक घटना तो एक वर्ष बाद ही तब घटी जब अहिल्याबाई के पुत्र मालेराव को काल ने उनसे छीन लिया। इस प्रकार बयालीस वर्ष की आयु में एक ओर लगभग सभी परिजन काल कवलित हो गए, तो दूसरी ओर प्रारब्ध ने उनके हाथों में राज्य की संपूर्ण बागडोर थमा दी। तब से लेकर सत्तर वर्ष की आयु तक उन्होंने अत्यंत कुशलता से राज-काज चलाया। वैसे मल्हारराव ने जो पत्र अहिल्याबाई को लिखे हैं, उनसे स्पष्ट होता है कि मल्हारराव ने पहले ही राज-काज की बागडोर, अनेक मामलों में, अहिल्याबाई को सौंप दी थी। देवी सरस्वती का उन पर कुछ ऐसा वरदान था कि अपनी विलक्षण बुद्धिमता से अहिल्याबाई ने न केवल अपने राज्य की सीमाओं को शत्रुओं के आक्रमणों से सुरक्षित रखा, बल्कि अपनी प्रजा की सुख-शांति के लिए निरंतर प्रयास भी किए। उस समय के हिसाब से अहिल्याबाई दीर्घजीवी थीं और लगभग चार दशकों तक उन्होंने इतने कीर्तिमान स्थापित किए कि वह अमर हो गईं।

एक साधारण सी आठ वर्षीय बालिका विवाह करके अपने पति के घर आती है और बीस वर्ष के बाद अपने पति की मृत्यु का समाचार पाती है। इसके उपरांत उस महिला के सास-ससुर भी साथ छोड़ जाते हैं और अंततः उसका पुत्र परलोक चला जाता है। कैसी होगी ऐसी महिला की मानसिक स्थिति !  कैसे किया होगा अपने मन पर नियंत्रण ! कैसे जिया होगा पर्वत-सा वैधव्य जीवन ! कैसे दी होगी अपने यौवन की आहुति। निश्चित रूप से अहिल्याबाई मनीषा रही होंगी। साधिका रही होंगी। साध्वी रही होंगी। कर्मवीर रही होंगी। भारत में क्या अन्यत्र भी मध्यकाल में ऐसी महिला शासिकाओं के उदाहरण विरले ही मिलते हैं। इस देश की संस्कृति में जो भी सर्वोत्कृष्ट है वह सब देवी अहिल्याबाई के चरित्र में मुखर हुआ है। यह अकारण नहीं है कि सुप्रसिद्ध मराठी कवि मोरोपरान्त ने अहिल्याबाई के विषय में कहा था, ‘हे देवी- अहिल्याबाई ! धर्म तथा न्याय में आस्था रखने वाली नारियों में, कलियुग में आप सर्वोपरि हैं।’

अहिल्याबाई अपने अंतिम क्षणों तक प्रशासन के छोटे से छोटे कार्य के प्रति पूरी सजगता से समर्पित रहीं।सत्य की पूजा-अर्चना में भी वह आकंठ डूबी रहीं। उनका जीवनी लेखक मुकुंद वामनराव बर्वे ने ठीक ही लिखा है कि अहिल्याबाई शब्द के सही अर्थों में, नि:संदेह एक राज-योगिनी थीं, इसीलिए अंत समय तक उनके मस्तिष्क ने कार्य करना बंद नहीं किया। उनका ऐसा जीवन था जो नियमित और पवित्र ढंग से जिया गया।

अहिल्याबाई के शासनकाल में इन्दौर राज्य ने जो विकास किया उसे स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा। दया, सहिष्णुता और उदारता उनके प्रशासन की विशेषता थी। लोक-कल्याण के कार्यों से उन्हें अतीव सुख मिलता था। न्याय, सरलता और द्रुतगति से किया जाता था। प्रशासन के कार्य निपटाने के लिए वह प्रतिदिन दरबार में बैठती थीं। अहिल्याबाई के समय में पड़ोसी राज्यों से संबंध इतने अच्छे थे कि उनके जीवन काल में, एक बार को छोड़कर, कभी भी आक्रमण नहीं हुए। उनकी न्यायप्रियता को लेकर जॉन मेलकम ने एक बड़ी रोचक जानकारी दी है। वह लिखता है कि एक बार तुकोजी होल्कर, सेनापति ने इन्दौर के एक अमीर सेठ देवीचंद की सम्पत्ति में हिस्सा बांटना चाहा। देवीचंद के कोई संतान नहीं थी। देवीचंद की पत्नी भागी-भागी अहिल्याबाई की शरण में महेश्वर ( राजधानी ) पहुंची। देवी अहिल्याबाई ने विधवा को पति की सम्पत्ति का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया और तुकोजी को आदेश दिया कि इन्दौर से अपनी सेना हटा लें और नगर से अन्यायपूर्ण वसूली न की जाए।

यह प्रकरण इसलिए महत्वपूर्ण है कि ‘अठारहवीं शताब्दी के भारत में परिवार की व्यवस्था पितृसत्तात्मक थी। अर्थात परिवार में वरिष्ठ पुरुष सदस्य का बोलबाला होता था और सम्पत्ति का दाय भाग केवल पुरुषों को ही मिलता था।’ तथापि अहिल्याबाई ने इस व्यवस्था को तोड़ते हुए क्रांतिकारी निर्णय सुनाया। वैसे जिस प्रकार से मल्हारराव होल्कर ने अपना राज-काज अहिल्याबाई को सौंपा था, वह भी कम क्रांतिकारी नहीं था। यदि हम महिला उत्थान की दृष्टि से देखें तो अहिल्याबाई का संपूर्ण जीवन अपने-आप में विलक्षण है। यह बात दूसरी है कि हमारा ध्यान हमारे इतिहास के ऐसे जाजल्वमान पहलुओं की ओर कम ही जाता है।

अठारहवीं शताब्दी के सामाजिक जीवन के संबंध में इतिहास में उल्लिखित है कि ‘अठारहवीं सदी के भारत में जाति एक बड़ी विभाजक शक्ति और विघटन का एक बड़ा तत्त्व थी। उसने बहुधा एक ही गांव या इलाके में रहने वाले हिंदुओं को अनेक अत्यंत छोटे समूहों में बांट रखा था। बेशक उच्च ओहदे या सत्ता प्राप्त कर किसी भी व्यक्ति के लिए ऊंचा सामाजिक दर्जा हासिल कर लेना संभव था। उदाहरण के लिए, अठारहवीं सदी में होल्कर परिवार ने ऐसा ही किया।’ इससे स्पष्ट होता है कि होल्कर वंश ने कैसी सामाजिक गतिशीलता प्राप्त की थी !

मध्य प्रदेश की ही बात करें तो यह कितना बड़ा संयोग है कि उसी प्रदेश में सोलहवीं शताब्दी में एक ऐसी वीरांगना प्रकट हुई जिसने अपने पड़ोसी राजा बाजबहादुर को तो पराजित किया ही, उस समय के सबसे बलशाली सम्राट अकबर की सेना को भी लोहे के चने चबाने पर विवश किया। जीत अंततः अकबर की सेना की हुई। परंतु स्वयं के बंदी बनाए जाने की आशंका से युद्धभूमि पर ही कटार से अपने प्राणों का अंत कर दिया। यह वीरांगना थी रानी दुर्गावती।

रानी दुर्गावती का जन्म 1524 ई में महोबा में हुआ था। दुर्गावती के पिता महोबा के राजा कीर्तिसिंह चंदेल थे। दुर्गावती सुंदर, सुशील, विनम्र, योग्य एवं साहसी लड़की थी। दुर्गावती के मायके और ससुराल पक्ष की जाति भिन्न थी। लेकिन फिर भी दुर्गावती की प्रसिद्धि से प्रभावित होकर गोंडवाना राज्य के राजा संग्रामशाह मडावी ने अपने पुत्र दलपतशाह मडावी से विवाह करके उसे पुत्रवधू बनाया था। दुर्भाग्यवश विवाह के चार वर्ष के उपरांत ही राजा दलपतशाह का निधन हो गया। उस समय दुर्गावती की गोद में तीन वर्षीय वीरनारायण था। दुर्गावती के ऊपर तो मानो दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ा। परंतु दुर्गावती से बड़े धैर्य और साहस के साथ इस दुख का सामना किया।

अब रानी को स्वयं ही गढ़मंडल का शासन संभालना पड़ा। उन्होंने अनेक मठ, कुएं, बावड़ियां तथा धर्मशालाएं बनवाईं। वर्तमान जबलपुर उनके राज्य का केंद्र था। उन्होंने अपनी दासी के नाम पर चेरीताल, अपने नाम पर रानीताल तथा अपने विश्वस्थ दीवान आधारसिंह के नाम पर आधारताल बनवाया। वह सदैव प्रजा के दुख-सुख का ध्यान रखती थीं। चतुर और बुद्धिमान मंत्री आधारसिंह की सलाह और सहायता से दुर्गावती ने अपने राज्य की सीमा बढ़ा ली। राज्य के साथ-साथ उन्होंने सुसज्जित स्थायी सेना भी बनाई और अपनी वीरता, उदारता, चतुराई से राजनैतिक एकता स्थापित की। गोंडवाना राज्य शक्तिशाली और संपन्न राज्यों में गिना जाने लगा। इससे दुर्गावती की ख्याति फैल गई।

रानी दुर्गावती के इस सुखी और संपन्न राज्य पर मालवा के मुसलमान शासक बाजबहादुर ने कई बार हमला किया। पर वह हर बार पराजित हुआ। दूसरी ओर मुगल शासक अकबर गोंडवाना राज्य जीतकर रानी को अपने हरम में डालना चाहता था। उसने विवाद प्रारंभ करने हेतु रानी के प्रिय सफेद हाथी ( समरन ) और उनके विश्वस्थ दीवान आधारसिंह को भेंट के रूप में अपने पास भेजने को कहा। परंतु रानी ने यह मांग ठुकरा दी। इसके प्रतिक्रियास्वरूप अकबर ने आसफ खां नामक सरदार को गोंडवाना के गढ़मंडल पर चढ़ाई करने का आदेश दिया। रानी दुर्गावती ने युद्ध में बाजबहादुर को पराजित करके पहले ही भारतवर्ष में ख्याति प्राप्त कर ली थी। इस प्रकार पहली बार तो आसफ खां पराजित हो गया। परंतु दूसरी बार उसने दोगुनी सेना और तैयारी के साथ हमला बोल दिया। दुर्गावती के पास उस समय बहुत कम सैनिक थे। फिर भी उन्होंने जबलपुर के पास ‘नरई नाले’ के किनारे मोर्चा लगाया तथा स्वयं पुरुष वेश में युद्ध का नेतृत्व किया। इस युद्ध में तीन हजार मुगल सैनिक मारे गए। लेकिन रानी की भी अपार क्षति हुई।

अगले ही दिन मुगल सेना ने फिर हमला बोल दिया। आज रानी का पक्ष दुर्बल था। अतः रानी ने अपने पुत्र वीरनारायण को सुरक्षित स्थान पर भेज दिया। युद्ध में एक तीर उनकी भुजा में लगा। रानी ने उसे निकाल फेंका। दूसरे तीर ने उनकी आंख को बेध दिया। रानी ने इसे भी निकाल दिया। लेकिन तीर की नोक आंख में ही रह गई। तभी तीसरा तीर आकर उनकी गर्दन में धंस गया। अपना अंत समय निकट जानकर रानी ने मंत्री आधारसिंह से आग्रह किया कि वह अपनी तलवार से रानी की गर्दन काट दे। पर वह इसके लिए तैयार नहीं हुआ। अतः रानी स्वयं ही अपने सीने में कटार भोंककर आत्म बलिदान के पथ पर बढ़ गईं। इस प्रकार महारानी दुर्गावती ने, सेनापति आसफ खां से लड़कर अपने प्राण त्यागने से पहले, पंद्रह वर्षों तक सफलतापूर्वक शासन किया।

यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे उस स्थान को देखने का अवसर मिला है जहां महारानी दुर्गावती ने अंतिम सांस ली। आज वहां उनकी एक विशाल प्रतिमा स्थापित है। उनकी प्रतिमा को देखकर हर भारतीय का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है। जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष संघर्ष का ही होता है — विजय-पराजय का नहीं। गाथा संघर्ष की ही गायी जाती है। रानी दुर्गावती ने जिस अदम्य साहस, शौर्य, पराक्रम और वीरता का परिचय दिया है वह अतुलनीय है। हमारे देश की नारियों ने अपने स्त्रीत्व, आत्म-सम्मान और मातृभूमि की रक्षा के लिए कैसे-कैसे बलिदान दिए हैं, दुर्भाग्य से हमें ही उनका ठीक-ठीक भान नहीं है।

केवल दो सौ वर्षों के कालखंड में एक ही प्रदेश में दो विलक्षण नारियों का अभ्युदय हमारे इतिहास की एक महान घटना है। नारी शक्ति का ऐसा अनुपम उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है ! इन दोनों शासिकाओं से मिलती-जुलती कहानी रजिया सुल्तान की भी है, जिसे तेरहवीं शताब्दी में इल्तुतमिश ने प्रतिभा के आधार पर अपने पुत्रों से श्रेष्ठ मानकर अपना उत्तराधिकारी चुना था। परंतु जहां अहिल्याबाई और रानी दुर्गावती शासन करने में सफल रहीं वहीं रजिया को महिला होने के कारण इतनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा कि तीन वर्ष की अल्पावधि में ही हत्या करके उसकी जीवनलीला समाप्त कर दी गई। कोई आश्चर्य नहीं कि भारत ही क्या सारी इस्लामी दुनिया में महिला शासिकाएं उभर ही नहीं पाईं। रजिया पुरुष वेश में राज-काज चला रही थी। यदि रजिया सफल होती तो संभव था कि बुर्के के चलन पर लगाम लगती। मुस्लिम महिलाएं स्वतंत्र रूप से काम कर पातीं और उनके व्यक्तित्व का स्वाभाविक विकास होता। वैसे इल्तुतमिश द्वारा रजिया का चयन अपने-आप में एक युगांतरकारी घटना थी। लेकिन इल्तुतमिश के ही राज-दरबारियों ने इसे असफल कर दिया।

इंदौर में अपने प्रवास का लाभ उठाते हुए मैंने राजवाड़ा महल, लालबाग महल, सर्राफा बाजार, छप्पन, छत्रियां, वैष्णो देवी मंदिर, खजराना का गणेश मंदिर, बड़ा गणपति आदि देखे। राजवाड़ा महल और लालबाग महल दोनों होल्करों के महल हैं। राजवाड़ा महल पहले बना है और लालबाग बाद में। राजवाड़ा महल की स्थापत्य कला लगभग भारतीय है, जबकि लालबाग महल की लगभग विदेशी। फिर भी दोनों देखने योग्य हैं। परंतु छत्रियों की स्थापत्यकला अनुपम तथा नयनाभिराम है। इनको देखते ही बनता है। ऐसा लगता है कि ओरछा की परंपरा को आगे बढ़ाया गया है। देश कितना कला-संपन्न है, इसका अभिमान होता है इन क्षत्रियों को देखकर।

हम राजभाषा की जिस संगोष्ठी में हिस्सा लेने गए थे, उसमें हमें बताया गया कि इन्दौर खवैयों और गवैयों का शहर है। खाने को लेकर तो रात को ही हमें पता चल गया जब हम सर्राफा बाजार गए। यहां रात के समय सर्राफा बाजार बंद हो जाता है और बाजार की उन्हीं गलियों में नाना प्रकार के व्यंजनों की दुकानें सज जाती हैं, जो लगभग रातभर चलती हैं। यहां रात में उत्सव-सा वातावरण रहता है। देश की समृद्ध व्यंजन संस्कृति के दर्शन संभवतः यहीं हो सकते हैं। शायद ही कोई व्यंजन हो जो यहां न मिलता हो ! पुराने से पुराने और नए से नए व्यंजन आपको मिल जाएंगे। यहां समस्या चयन की है। क्या खाएं और क्या छोड़ें ? इसके विषय में कहा जाता है कि यह देश का सबसे अनोखा बाजार है। पर यह इन्दौर का एकमात्र खाने-पीने का बाजार नहीं है। इसके अतिरिक्त यहां एक छप्पन भी है। कहते हैं कभी यहां खाने-पीने की छप्पन दुकाने खुली थीं। पर बाद में संख्या और भी बढ़ गई। लेकिन छप्पन नाम रूढ़ हो गया। छप्पन की दुकानें अपेक्षाकृत अधिक आधुनिक हैं। सर्राफा बाजार और छप्पन के व्यंजनों पर मराठी और गुजराती प्रभाव बड़ी आसानी से देखा जा सकता है।

गायन के क्षेत्र में भी इन्दौर ने अच्छा-खासा नाम कमाया है। इन्दौर उस्ताद आमिर खान द्वारा स्थापित संगीत के इन्दौर घराने के लिए भी प्रसिद्ध है।

नगर को सजाने-सवांरने की दृष्टि से कई आधुनिक उद्यान या पार्क भी विकसित किए गए हैं। यहां दो सुंदर झीलें हैं। एक का नाम सिरपुर है और दूसरी अटल बिहारी वाजपेयी क्षेत्रीय उद्यान के पास है। इन झीलों के कारण इन्दौर नगरी और भी सुंदर बन गई है।

इन्दौर की ओर पर्यटकों के झुकाव का एक प्रधान कारण यहां की समशीतोष्ण जलवायु है। न तो यहां कड़कड़ाती ठंड पड़ती है, न ही असह्य गर्मी और न ही अतिवृष्टि के कारण बाढ़ की विभीषिका से ही दो-चार होना पड़ता है।

इन्दौर हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए भी प्रसिद्ध है। श्री मध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति इन्दौर, हिन्दी के प्रचार, प्रसार और विकास के लिए कार्यरत देश की सबसे पुरानी संस्थाओं में से एक है। इसकी स्थापना 1910 में हुई। 1915 से समिति द्वारा देशी रियासतों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार का काम आरम्भ हुआ। इस समिति से महात्मा गांधी भी जुड़े रहे। सन 1918 में महात्मा गांधी ने समिति के इन्दौर परिसर से ही पहली बार हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का आह्वान किया था। यहां हुए साहित्य सम्मेलन के दौरान ही महात्मा गांधी ने अहिन्दी भाषी प्रदेशों में हिन्दी के प्रचार के लिए अपने पुत्र देवदत्त गांधी सहित पांच लोगों को ‘हिन्दी दूत’ बनाकर तत्कालीन मद्रास प्रांत में भेजा था। इसी अधिवेशन में मद्रास प्रांत में “हिन्दी प्रचार सभा” की स्थापना का संकल्प लेकर इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु धन संग्रह किया गया था।  इस तरह देश के अहिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी के प्रचार के पहले प्रयास में श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति की भूमिका अत्यन्त प्रभावशाली रही है।

सन 1935 में इन्दौर में आयोजित हिन्दी साहित्य सम्मेलन में भाग लेने के लिए महात्मा गांधी दूसरी बार इन्दौर पधारे। इस बार के अधिवेशन की अध्यक्षता भी उन्होंने ही की। कहते हैं कि समिति द्वारा प्रकाशित मासिक पत्रिका “वीणा” देश की एकमात्र पत्रिका है जो सन 1927 से निरन्तर प्रकाशित हो रही है। समिति की स्थापना एक पुस्तकालय के रूप में हुई थी। अभी भी समिति का पुस्तकालय मध्यप्रदेश के सबसे समृद्ध पुस्तकालयों में से एक है। इस समिति और इस पत्रिका का हिन्दी के प्रचार-प्रसार में कैसा अन्यतम योगदान रहा है इस संबंध में विख्यात कवियित्री महादेवी वर्मा के इन शब्दों को देखिए — “हिन्दी भाषा और साहित्य का इतिहास ‘समिति’ और ‘वीणा’ के जिक्र के बिना सदैव अपूर्ण रहेगा”।

इसे मेरा भी सौभाग्य ही कहिए कि सन 2002 में मुझे इस समिति द्वारा आयोजित सम्मेलन में भाग लेने का अवसर मिला। तब सम्मेलन के आयोजन में इन्दौर की तत्कालीन सांसद श्रीमती सुमित्रा महाजन की सर्वप्रमुख भूमिका थी। मेरे आश्चर्य का तब ठिकाना ही नहीं रहा जब मुझे पता चला कि शहर में हिन्दी यात्रा निकाली जा रही है। इसमें मेरे जैसे सारे के सारे आगंतुक शामिल हुए। सैकड़ों की संख्या में लोग तरह-तरह के नारे लगाते हुए सड़क पर चलने लगे। क्या अद्भुत दृश्य था ! भाषा के लिए इतना समर्पण मैंने इससे पहले कभी नहीं देखा था। इस तीन दिवसीय सम्मेलन में हिन्दी भाषा और साहित्य से जुड़े सभी मूर्धन्य व्यक्तियों को बुलाया गया था।

इस बार जब हमने विभागीय राजभाषा संगोष्ठी की तो हमने हिन्दी के एक विद्वान डॉ शिव चौरसिया को आमंत्रित किया। डॉ चौरसिया उज्जैन के किसी महाविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक होते थे। अब वह सेवानिवृत्त हो चुके हैं। उनका व्याख्यान सुनने लायक था। उन्होंने अपने संभाषण में चंदवरदाई से लेकर महादेवी तक के सभी प्रमुख कवियों की कुछ पंक्तियां सुनायीं। हम सभी भाव-विभोर होकर उन्हें सुनते रहे। पर मैं यही सोचता रहा कि काश ! आज की पीढ़ी को सिर्फ दर्जन भर कवियों की चंद पंक्तियां भी यदि कंठस्थ हो जाएं तो संभवतः हमारे समाज की संस्कृति ही बदल जाएगी। वहीं मुझे महसूस हुआ कि आज की पीढ़ी किस हद तक अपनी अनमोल साहित्यिक धरोहर से दूर हो गई है।

डॉ चौरसिया ने एक ऐसी बात की जो मेरे मस्तिष्क में जाकर बैठ गई। उन्होंने कहा कि आजकल जिस तरह के दुष्कर्मों की बात चल रही है उसके लिए मैं पारिवारिक और सामाजिक संबंधों के लिए अंग्रेजी के अधिकाधिक प्रयोग को भी उत्तरदायी मानता हूं। हमारे समाज में सभी रिश्तों के नाम हैं। इस प्रकार आमतौर पर हम स्त्री को तीन नामों से संबोधित करते हैं — मां, बहन और बेटी। वैसे व्यापक समाज में चाची, ताई और काकी जैसे शब्दों से भी महिलाओं को संबोधित करते हैं। परंतु अंग्रेजी ने सारे संबंधों को अंकल और आंटी में सिमटा दिया। चूंकि संबंध पारिवारिक बन नहीं पाते इसलिए अब मन में वैसे पारिवारिक भाव भी नहीं आते। यह अपने-आप में बहुत बड़ी बात है। काश ! हमारा समाज इस पर ध्यान देता।

डॉ चौरसिया अस्सी वर्ष की आयु पार कर चुके हैं। फिर भी वह पूरी तरह सक्रिय हैं। वह हमारी संगोष्ठी में भाग लेने के लिए उज्जैन से पधारे। उनका कद छह फुट से कम न होगा। वैसे तो उनके चहरे का रंग गहरा सांवला है और सिर पर सन जैसे सफेद लेकिन घने बाल हैं। फिर भी उनका चेहरा आकर्षित करता है। इस आयु में भी उनके चेहरे पर झुर्री लगभग नहीं के बराबर है। मैंने उनसे उनके स्वस्थ जीवन के विषय में जानने की कोशिश की। उन्होंने बताया कि छल-कपट से दूर रहना और जैसी भी परिस्थिति हो उसे वैसे ही स्वीकार कर लेना उनकी दृष्टि में स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक है।

इन्दौर के राजवाड़ा इलाके में घूमते हुए मेरा ध्यान ऐसी महिलाओं की ओर गया जिनके बुर्के आम बुर्कों से अलग दिखे। बुर्का आमतौर पर काले रंग का और आपादमस्तक होता है। यानी सिर से पांव तक एक ही कपड़ा होता है। परंतु इन्दौर में मैंने कुछ महिलाओं को जैसे बुर्के पहने देखा उनका रंग काला नहीं था और बुर्के दो हिस्सों में बंटे थे। ऊपर का हिस्सा छोटी फ़्रॉक जैसा और कमर से नीचे का हिस्सा घाघरे जैसा। मेरे पूछने पर पता चला कि ये महिलाएं बोहरा समुदाय की हैं, जो हल्के रंग के बुर्के-नुमा वस्त्र पहनती हैं। बोहरा समुदाय इस्लाम को मानता है और वैसे तो इस समुदाय के लोगों में सुन्नी और शिया दोनों होते हैं, पर जो दाऊदी बोहरा हैं वे शिया संप्रदाय के जुड़े माने जाते हैं। बोहरा अधिकतर पश्चिमी भारत में ही हैं। ये मुख्यतः व्यापार से जुड़े होते हैं और इसलिए संपन्न हैं और अपेक्षाकृत शिक्षित भी। शेष मुसलमानों से ये अलग ही रहते हैं। इनकी जीवन पद्धति हिंदू समाज के वणिक वर्ग से मिलती-जुलती है। सामान्यतः ये शांतिप्रिय होते हैं। इस प्रकार वृहद मुस्लिम समाज से भिन्न बोहरा अपने-आप को विशिष्ट मानते हैं।

परंतु बोहरा समुदाय पर महिला खतना के चलन का एक बदनुमा दाग लगा हुआ है। वैसे इन दिनों खतना को लेकर यह समुदाय दो हिस्सों में बंट गया है। जहां एक हिस्सा इसे मानवता के विरुद्ध और मानवाधिकारों का उल्लंघन मानता है, तो दूसरा इसे अपने मजहब और परंपरा का अभिन्न हिस्सा मानकर इसे जारी रखना चाहता है। अभी हाल ही में इस संप्रदाय की एक जागरुक और उदारवादी सोचवाली महिला ने प्रधानमंत्री से लिखकर आग्रह किया है कि इस कुप्रथा पर प्रतिबंध लगाया जाए। सूचना क्रांति के इस युग में इस विषय पर पर्याप्त जानकारी उपलब्ध है और एक प्रकार से यह संप्रदाय बचाव में दिखता है, क्योंकि इस कुप्रथा का विरोध मुखर होने लगा है। इसी क्रम में 2012 में एक अत्यंत संवेदनशील फिल्म बनाई गई जिसका उल्लेख यहां प्रासंगिक लगता है। प्रिया गोस्वामी निर्देशित इस फिल्म का नाम है — A Pinch of Skin  यानी ‘चुटकी भर चमड़ी’। इस फिल्म में विस्तार से खतना के विषय में बात की गई है और जिन महिलाओं को इस प्रक्रिया से गुजरना पड़ा है उनसे बातचीत की गई है।

खतना कुप्रथा के तहत सात वर्षीय लड़कियों के जननांग का अग्रभाग काटा जाता है। उद्देश्य यह बताया जाता है कि इससे सेक्स को लेकर जो नैसर्गिक अर्ज, इच्छा या कामना है वह घट जाती है जिससे महिला का संबंध सिर्फ अपने पति से ही बना रहता है। साथ ही, इससे विवाह-पूर्व शारीरिक संबंध की भी संभावना कम हो जाती है। अन्यथा बोहरा समाज की मान्यता है कि बिना खतना कराए महिलाएं अपनी इच्छा या कामना के वशीभूत दूसरे पुरुषों की ओर आकृष्ट हो सकती हैं। बोहरा समाज की सबसे घृणित धारणा तो यह है कि स्त्री जननांग के अग्रभाग को ‘हराम ही बोटी’ कहा जाता है। इसलिए नाम के लिए थोड़ा नहीं बल्कि पूरा अग्रभाग काटा जाना अनिवार्य माना जाता है। अब बताइए ! ईश्वर प्रदत्त शरीर का कोई हिस्सा ‘हराम की बोटी’ कैसे हो सकता है ! यदि यह शरीरांग व्यर्थ होता या हानिकारक होता तो ईश्वर इसे बनाता ही नहीं। पर घोर आश्चर्य की बात तो यह है कि दिन-रात कुरान की दुहाई देने वाला समाज कुरान में इसकी व्यवस्था न होने पर भी इसे मानता है। इस प्रथा के विषय में कहा जाता है कि यह पुराने युगों में कबिलाई जमातों में प्रचलित था। इस प्रकार इस कुप्रथा का इतिहास इस्लाम-पूर्व का है। जब इस्लाम अपने से पहले के समय को ‘जाहिलों का दौर’ कह कर गर्व महसूस करता है, तो इस कुप्रथा को तो अपनाना ही नहीं जाना चाहिए था। परंतु महिलाओं को नियंत्रित करने के लिए बुर्के से लेकर तीन तलाक, बहु-पत्नी प्रथा, खतना तक की कुप्रथाएं धड़ल्ले से चलती रही हैं। इस्लाम जितना ध्यान महिलाओं के तन और मन को नियंत्रित करने में लगाता है उतना संभवतः कोई और धर्म, संप्रदाय या पंथ नहीं लगाता। बुर्का तो मुस्लिम महिलाओं की प्रगति में सबसे बड़ी बाधक है। इसे पाकिस्तानी मूल के कनाडा निवासी प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय पत्रकार तारिक फतेह ‘चलता-फिरता काला तंबू’ या ‘बोरा/बोरी’ कहते हैं। महिलाओं के शरीर का अंग-अंग ढका हो इसके लिए प्रयुक्त होने वाले वस्त्रों के अनेक नाम हैं — बुर्का, हिजाब, नकाब और अबाया। सर के बाल तो अनिवार्य रूप से ढके होने चाहिएं क्योंकि माना यह जाता है कि सर के बाल पुरुषों को सबसे अधिक आकर्षित करते हैं। इस तरह अपनी इच्छा को रोकना और पुरुष भी आकर्षित न हों दोनों ही प्रकार के दायित्व महिलाओं के कंधों पर ही हैं। फिर भी यह सच है कि अन्य कुप्रथाओं की तुलना में महिलाओं का खतना मुसलमानों के एक छोटे से वर्ग में ही प्रचलित है और इसलिए संभव है कि आने वाले समय में इसका चलन बंद हो जाए।

इन्दौर में मुझे बहाई समुदाय द्वारा चलाए जा रहे एक संस्थान के विषय में पता चला। बहाई लोगों का संबंध भी इस्लाम से रहा है। परंतु अब ये लोग अपने को एक स्वतंत्र मजहब के रूप में मानते हैं। उन्नीस सौ सत्तर के दशक के अंत में जब नोबेल पुरस्कार विजेता नायपॉल ईरान की यात्रा पर थे तब उन्हें एक बहाई मिला जिसका कहना था कि ‘मुसलमान विचित्र लोग होते हैं। मुसलमानों की मानसिकता बहुत रूढ़िवादी होती है। ये लोग अल्पसंख्यकों के लिए बुरे होते हैं। हमलोग अंतरराष्ट्रीय हैं। अमेरिका में हमारा एक मंदिर है।’ बहाइयों की मान्यता है कि उन्नीसवीं शताब्दी में बारहवें इमाम का उप-इमाम आया और चला गया और इस बारे में सिर्फ बहाइयों को ही पता चला। कहते हैं, उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में बहाइयों ने ईरान के राजा के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, जो असफल रहा। बीसवीं शताब्दी में हुई इस्लामी क्रांति के बाद बहाइयों को निशाना बनाया गया, उत्पीड़ित किया गया और अनेक की हत्या कर दी गई। बहाइयों द्वारा किसी इमाम को मान्यता देना इस्लामी ईशनिंदा कानून के तहत घोर अपराध माना गया। फरदुन वहमान अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि पिछली दो शताब्दियों से बहाई समुदाय, जो कि ईरान का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय है, उन्हें ईरान की तमाम समस्याओं के लिए जिम्मेदार मानकर बलि का बकरा बना दिया गया और ईरान का शत्रु घोषित कर दिया गया है। इन्हें विदेशी एजेंट तक कहा गया। 1979 के इस्लामी क्रांति के बाद से इनका वहां के विश्वविद्यालयों में प्रवेश वर्जित है। दो सौ से अधिक बहाइयों को फांसी दे दी गई है और सैकड़ों बहाइयों को जेलों में डाल दिया गया है।

अतः इनके पास देश छोड़ने के अतिरिक्त कोई और विकल्प नहीं बचा। आज ये लोग अनेक देशों में थोड़ी-बहुत संख्या में हैं। भारत में भी इनकी उपस्थिति है। दिल्ली का ‘लोटस टेम्पुल’ बहाइयों द्वारा ही निर्मित है। इसी तरह इंडिया गेट के पास ही इनका एक ऑफ़िस भी है। इन्दौर में ग्रामीण महिलाओं के लिए बहाइयों द्वारा स्थापित एक व्यवसायिक ( वोकेशनल ) संस्थान है। इस प्रकार बहाई सामाजिक प्रगति के लिए अनेक कार्य करते हैं। बहाइयों के बारे में विचार करते हुए हमें अनायास पारसियों को याद करना पड़ता है, जिन्हें भी इसी तरह ईरान छोड़कर भारत आना पड़ा।

इन्दौर में हमें बताया गया कि 2011 में निर्मित मां वैष्णो देवी मंदिर की प्रतिकृति एक प्रमुख दर्शनीय स्थल है और इसलिए हम वहां भी गए। मैंने मूल वैष्णो देवी मंदिर नहीं देखा है। लेकिन जो लोग गए हुए हैं और उनसे जो सुना है उससे मुझे लगा कि ठीक उसी तरह का मंदिर इन्दौर में बनाया गया है। परंतु तब मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब पता चला कि इस मंदिर का निर्माण एक सिख महिला द्वारा किया गया है — जिनका नाम लिखा है — ममतामयी मां सुरेंदर कौर ग्रोवर। कहते हैं मां वैष्णो देवी ने श्रीमती सुरिन्दर कौर ग्रोवर के स्वप्न में दर्शन देकर यह वचन दिया कि इन्दौर में मेरा भव्य मंदिर बनेगा जिसका निर्माण तेरे द्वारा होगा। ऐसा सौभाग्यशाली स्वप्न पाकर श्रीमती सुरिन्दर कौर ग्रोवर जी धन्य हुईं। केवल सात महीनो में निर्मित प्राकृतिक वातावरण एवं उन्हीं गुफाओं के बीच मां वैष्णो देवी के दर्शन का लाभ आज श्रद्धालू उठा रहे हैं। इस मंदिर की निर्मात्री श्रीमती सुरिन्दर कौर ग्रोवर के विषय में जानकर अत्यंत सुखद अनुभूति हुई। इससे मेरे मन में प्रश्न उठा आखिर क्यों सिख एक अलग धर्म बनाने को लेकर इतने दुराग्रही रहे, जबकि सिखों का सारा प्रयास हिन्दू धर्म की रक्षा करना था। सिखों का सर्वाधिक पवित्र और प्रसिद्ध धर्मस्थल अमृतसर में है, जिसका मूल नाम ‘स्वर्ण मंदिर’ है। इसे ही ‘हरिमंदिर साहिब’ और ‘दरबार साहिब’ भी कहा जाता है। यहां ध्यातव्य है कि इन तीनों नामों में ‘गुरुद्वारा’ शब्द कहीं नहीं है। पर कालांतर में सिखों के धर्मस्थलों के लिए ‘गुरुद्वारा’ शब्द का इतना व्यापक प्रयोग किया गया कि यही शब्द रूढ़ हो गया। मेरी समझ से इसे हिंदू धर्म से अलग एक पहचान के रूप में देखा गया। इसी प्रकार गुरुमुखी लिपि के प्रति भी सिखों का दुराग्रह बढ़ा। जबकि सच्चाई है कि देवनागरी लिपि से भी सिख परिचित हैं और मेरा अनुभव है कि गुरुग्रंथ साहिब में संकलित पदों को देवनागरी लिपि में पढ़ना कहीं अधिक सुगम है।

एक स्वतंत्र धर्म के रूप में सिख धर्म अत्यंत नया है और इसकी स्वतंत्र पहचान के लिए अंग्रेज भी बहुत हद तक जिम्मेदार हैं। अंग्रेज भारतीय समाज में जितने विभाजन संभव थे, किए। राजनैतिक रूप से सिखों को यह पहचान लाभदायक लगी। फिर भी सारे विश्व में अपनी अलग पहचान के लिए सिखों को रात-दिन मेहनत करनी पड़ रही है, क्योंकि लोग समझ नहीं पा रहे कि ये लोग कौन हैं। इसी उलझन में अमरीका, कनाडा, ब्रिटेन आदि देशों में इन्हें एक प्रकार का मुसलमान समझा जाता है और आए दिन इन पर हमले होते रहते हैं। इस संदर्भ में अंग्रेजी के विनोदप्रिय प्रसिद्ध पत्रकार स्वर्गीय खुशवंत सिंह का संस्मरण उल्लेखनीय है। एक बार खुशवंत सिंह हवाई जहाज से कहीं जा रहे थे। उनकी बगल की सीट पर एक विदेशी महिला बैठी थी। महिला ने इनका परिचय पूछा। इनका उत्तर था, ‘I am a Sikh.’ पर महिला ने अंग्रेजी का sick ( बीमार ) समझकर उनसे सहानुभूति जताने लगी। खुशवंत सिंह ने लिखा है कि कई बार उनके ‘सिख’ कहने पर भी वह महिला नहीं समझ पाई। इसमें उस महिला का कोई दोष नहीं था। दरअसल पूरे विश्व की जनसंख्या की तुलना में सिख की जनसंख्या नगण्य है और ऐसा कोई तरीका नहीं है कि सारे विश्व को इस बारे में जानकारी उपलब्ध करायी जा सके। कोई आश्चर्य नहीं कि यह विश्व का एक मात्र धर्म है जिसकी पहचान पगड़ी है। पर विचार योग्य प्रश्न यह है कि कब तक सिख अपने धर्म को अपने सर पर लेकर चलेंगे ? आरंभ में पगड़ी बांधना मुगल सत्ता के विरोध का प्रतीक था, क्योंकि उस समय आम लोग पगड़ी नहीं बांध सकते थे। साथ ही पगड़ी की अनिवार्यता का एक कारण युद्ध में सिर का बचाव भी था। परंतु अब न तो पगड़ी बांधने से कोई मना करने वाला है और न ही सभी सिखों के लिए अब युद्ध में जाने की विवशता ही है। वैसे भी आधुनिक युग में सिर के बचाव के लिए कहीं अधिक कारगर उपाय उपलब्ध हैं। इसलिए पगड़ी की उपादेयता पर विचार करना चाहिए। इस सबके बावजूद सच यह भी है कि बड़ी संख्या में ऐसे सिख भी हैं जो हिंदू रीति-नीति में विश्वास करते हैं और हिंदुओं के साथ मिल-जुलकर रहते हैं। साथ ही, कुछ सिख ऐसे भी हैं जो पगड़ी नहीं बांधते। संभव है कि आने वाले समय में सिखों को पगड़ी की व्यर्थता समझ में आए। ऐसे ही संभव है कि सिखों का हिंदू धर्म से फिर से गहरा लगाव भी कायम हो। जहां तक हिंदुओं की बात है तो मैं अनेक ऐसे पंजाबी हिंदुओं से परिचित हूं, जो समान रूप से मंदिर और गुरुद्वारे में जाते हैं और कभी-कभी तो गुरुद्वारे में अपने संस्कार भी कराते हैं।

इन्दौर दौरे का अंत हमने अटल बिहारी वाजपेयी क्षेत्रीय उद्यान जाकर किया। 2011 में निर्मित यह उद्यान काफी बड़ा है और वहां के लोगों के लिए घूमने-फिरने का एक महत्वपूर्ण स्थान है। इसमें घूम-फिरकर मैं अपने एक स्थानीय अधिकारी के साथ खाने-पीने की एक दुकान में गया। हमने दुकानदार से चाय बनाने के लिए कहा। जो व्यक्ति चाय बनाने लगा उसका उपनाम शर्मा था। मैंने यूं ही उससे पूछ लिया — ‘आप कितने सालों से यह दुकान चला रहे हैं ?’ उसने उत्तर दिया — ‘वैसे तो मैं पिछले आठ-दस साल से इन्दौर में दुकान चला रहा हूं। पर उससे पहले मैं बीस सालों तक रियाद, जद्दा, मस्कट, कुवैत, कतर, दुबई आदि शहरों में काम कर चुका हूं।’ रियाद, जद्दा जैसे सऊदी अरब के शहरों के नाम सुनकर मैं विशेष रूप से जानने को उत्सुक हुआ कि उसे मक्का-मदीना के विषय में कुछ पता है या नहीं। मैंने पूछा कि क्या आपको पता है कि कोई गैर-मुस्लिम मक्का और मदीना में प्रवेश नहीं कर सकता ? इस पर शर्मा का उत्तर था — ‘बिल्कुल जानता हूं। इन शहरों में प्रवेश के लिए पहले ही हर आदमी की जांच होती है और यह पता किया जाता है कि वह आदमी मुसलमान है या नहीं। अगर वह आदमी मुसलमान नहीं है तो उसे बाहर से ही वापस कर दिया जाता है। पर धोखे से या झांसा देकर अगर कोई अंदर चला जाए और पुलिस को पता चल जाए तो साहब फिर वह आदमी कभी वापस नहीं आता। उसके साथ क्या होता है यह भी कोई नहीं जानता।’ मैंने प्रतिक्रियास्वरूप टिप्पणी की कि कितनी अजीब-सी बात है कि हमारे यहां तो मथुरा, काशी और अयोध्या जैसे तीर्थ स्थानों में भी मस्जिदें हैं लेकिन मुसलमान पवित्र माने जाने वाले अपने शहरों में किसी और को प्रवेश भी नहीं करने देते।

इस पर शर्मा काफी देर तक बोलता रहा। उसने कहा, ‘साहब, हिन्दू बहुत बर्दाश्त करते हैं। सब जगह बर्दाश्त करते हैं। यहीं इंदौर में मैं जानता हूं कि कई स्थानों पर सड़कों को चौड़ा करने के लिए मंदिरों को तो हटाया गया, लेकिन मस्जिदें ज्यों की त्यों बनी रहीं। यहां तक कि गुरुद्वारे को भी कोई हाथ नहीं लगाता। मुझे समझ में नहीं आता कि कोई बोलता कोई नहीं। पता नहीं मुझे भी बोलना चाहिए कि नहीं।’ आगे अपनी बात को जारी रखते हुए उसने कहा — ‘आप जाइए और बड़ा गणपति के चौराहे को देखिए वहां मस्जिद और गुरुद्वारा वैसे ही हैं, पर मंदिर परिसर को छोटा किया गया है। साहब, मैं कम से कम पंद्रह ऐसे स्थानों को जानता हूं जहां ऐसा ही हुआ है।’ इस बात पर मुझे अचानक एबी ( आगरा-बॉम्बे ) रोड के किनारे की एक मस्जिद और एक मजार याद आए जो बिल्कुल सड़क पर ही हैं। इनसे आने-जाने वालों को परेशानी होती है।

शर्मा की बातें अतिशयोक्तिपूर्ण हो सकती हैं। परंतु यह सच है कि मक्का में प्रवेश से बहुत पहले ही हाइवे पर दो तरह के साइन बोर्ड लगे होते हैं। एक पर लिखा होता है मक्का की ओर — ‘केवल मुस्लिम’ और दूसरी ओर लिखा होता है जद्दा की ओर — ‘सभी गैर-मुस्लिमों के लिए अनिवार्य’। अर्थात मक्का से बहुत पहले ही आप जद्दा का रास्ता पकड़ लें यदि आप गैर-मुस्लिम हैं। इसी प्रकार मदीना में गैर-मुस्लिम प्रवेश तो कर सकते हैं। लेकिन उस नवाबी चौक में नहीं जा सकते जहां अल-नवाबी मस्जिद है। यदि गलती से कोई गैर-मुस्लिम इन प्रतिबंधित स्थानों में चला जाए तो उस पर जुर्माना लग सकता है और उसे देश-निकाला दंड भी मिल सकता है। मक्का और मदीना के नवाबी चौक में गैर-मुस्लिम प्रवेश न कर पाएं इसके लिए मजहबी पुलिस की व्यवस्था की गई है, जो इस बात की जांच करती है कि कौन मुस्लिम है और कौन गैर-मुस्लिम।

इस विवेचना से स्पष्ट है कि इन्दौर एक लघु भारत है, जहां देश के लगभग सभी धर्मों और मजहबों के मानने वाले देखे जा सकते हैं। अपनी इन्हीं विविधताओं और विशेषताओं के कारण इन्दौर में एक महानगर बनने के सारे गुण विद्यमान हैं।

लेखक निवेश एवं लोक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग , वित्त मंत्रालय ,भारत सरकार में संयुक्त सचिव हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं ।

13 जनवरी 2020 


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सूर्यास्त की बेला — मैं नहा धोकर बचे हुए पानी से गमलों के पौधों की सिंचाई में लग गया। देखा एक पौधा सिकुड़कर छोटा हो गया है और मुरझा गया है। मन में ग्लानि हुई कि यह मेरे ध्यान न देने का फल है। पानी ही

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गौरी

28 मई 2022
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चैत्र मास समाप्ति की ओर है। यद्यपि दोपहर के बाद तो अब सूर्यदेव अपना प्रचंड रूप दिखाने लगे हैं, परंतु प्रातः बेला अभी भी शीतल है। बालसूर्य की नयनाभिराम बेला। टहलने के लिए उपयुक्त समय। इसलिए इसी बेला मे

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‘ लक्ष्मण टीला ‘ या ‘ टीले की मस्जिद ‘

28 मई 2022
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लक्ष्मण टीला ‘ या ‘ टीले की मस्जिद ‘ लखनऊ की प्राचीन गाथा कहने का एक लघु किंतु क्रांतिकारी प्रयास डॉ शैलेन्द्र कुमार स्वतंत्रता पूर्व विदेशी इतिहासकारों और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे इतिहासकार

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बांग्लादेश : आहत लोकतंत्र

28 मई 2022
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हाल ही में संपन्न हुए बांग्लादेश के चुनाव पर हमारे देश के हिंदी और अंग्रेजी समाचार पत्रों में जितने भी लेख छपे उनमें से अधिकतर में यह भाव मुखर था कि शेख हसीना की जीत भारत के लिए बहुत लाभकारी है। इस प्

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अनावश्यक अजान और पांच बार नमाज की अनिवार्यता के परिणाम।

28 मई 2022
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अनावश्यक अजान और पांच बार नमाज की अनिवार्यता के परिणाम। इन दिनों वाराणसी में गंगा नदी में नौका विहार करते हुए एक विदेशी पर्यटक का वीडियो सोशल मीडिया में काफी वायरल ( प्रचलित ) हुआ है। वीडियो में यह व

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शेख अहमद सरहिन्दी : भारत में अलगाववादी विचारधारा का जन्मदाता

28 मई 2022
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शेख अहमद सरहिन्दी : भारत में अलगाववादी विचारधारा का जन्मदाता डॉ शैलेन्द्र कुमार सारांश इस लेख का सर्वप्रधान उद्देश्य यह दर्शाना है कि भारत में अलगाववादी विचारधारा का जन्मदाता शेख अहमद सरहिंदी था। इ

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गो रक्षण, जिन्ना और अम्बेडकर

28 मई 2022
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शेख मुजिबुर रहमान, जो जामिया मिलिया इस्लामिया में पढ़ाते हैं, का पिछले 25 जून को ‘द हिंदू’ दैनिक में गो रक्षण के नाम पर घटित हिंसक घटनाओं को लेकर एक अतार्किक और अत्यंत आपत्तिजनक लेख प्रकाशित हुआ। इस स

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मस्जिद की अनिवार्यता

28 मई 2022
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फैजुर रहमान का 7 अगस्त के ‘द हिंदू’ दैनिक में ‘मस्जिद की अनिवार्यता’ विषय पर एक लेख प्रकाशित हुआ। रहमान एक इस्लामी मंच के महासचिव हैं जिसका उद्देश्य है संयत विचार को बढ़ाना या बढ़ावा देना। इस लेख का म

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अनन्य हिंदी प्रेमी अटल बिहारी वाजपेयी

28 मई 2022
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अटल बिहारी वाजपेयी भारत के राजनैतिक क्षितिज में पिछले कई दशकों से सर्वाधिक चमकता हुआ सितारा थे। अपनी मिलनसार प्रवृत्ति, विलक्षण वाकपटुता, मनमोहक वक्तृत्वकला और असाधारण प्रतिउत्पन्नमति के कारण सारे देश

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स्वच्छ भारत की ओर निर्णायक कदम

28 मई 2022
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हमारे देश में गाँव कविता के विषय के रूप में कवियों को आकर्षित करता रहा है। मैथिलीशरण गुप्त की ये पंक्तियाँ तो जगप्रसिद्ध रही हैं – “अहा ! ग्राम जीवन भी क्या है। क्यों न इसे सबका जी चाहे।“ इसी तरह सुमि

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शैक्षणिक संस्थानों का देश के विकास में योगदान

28 मई 2022
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आधी सदी पहले ही अर्थशास्त्रियों ने किसी भी देश के आर्थिक विकास में शिक्षा के महत्व को समझ लिया था। बाद में यह विचार फैलने लगा कि शिक्षा किसी भी व्यक्ति को स्थायी रूप से परिवर्तित कर देती है और उसे मान

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पाकिस्तान में जनसंख्या विस्फोट के निहितार्थ

28 मई 2022
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पिछले दिनों करीब दो दशक बाद पाकिस्तान की छठवीं जनगणना सम्पन्न हुई। इसके अनुसार आज पाकिस्तान की जनसंख्या 20 करोड़ 78 लाख है। 1998 में की गई पिछली जनगणना में पाकिस्तान की जनसंख्या लगभग 13 करोड़ थी और उस

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हवाई यात्रा के लिए बिहार देश का छाया प्रदेश

28 मई 2022
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किसी भी देश के विकास में यातायात और उसमें भी वायु यातायात का योगदान अन्यतम है। भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण ने एक अध्ययन के हवाले से बताया है कि किस तरह वायु सेवा से तेजी से आर्थिक विकास सम्भव होता है।

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हिंदी साहित्याकाश में सूर्य की तरह चमकने वाले ‘दिनकर’

28 मई 2022
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हिंदी साहित्याकाश में सूर्य की तरह चमकने वाले सचमुच में दिनकर ही थे। रामधारी सिंह दिनकर में साहित्य सर्जन के गुण नैसर्गिक रूप से विद्यमान थे। इसलिए आश्चर्य नहीं कि केवल पंद्रह वर्ष की आयु में ही उनका

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क्यों बार बार संकट आता है मालदीव पर?

28 मई 2022
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पिछले कुछ दिनों से मालदीव के संकट में आ जाने के कारण वहाँ का राजनीतिक घटना क्रम बहुत तेजी से बदल रहा है। हुआ यह कि वहाँ के राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन ने मालदीव के सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश

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क्यों नहीं मिल रहा रोजगार युवाओं को?

28 मई 2022
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उन्नीस सौ नब्बे के दशक में आरंभ हुए आर्थिक उदारीकरण के परिणामस्वरूप माना जाता है कि भारत की आर्थिक वृद्धि दर में अभूतपूर्व तेजी आई। जबकि आजादी के बाद से 1980 तक भारत की आर्थिक वृद्धि दर औसतन सिर्फ 3.5

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नेताजी का अमूल्य योगदान इतिहासकारों का मोहताज नहीं

28 मई 2022
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नेताजी सुभाषचन्द्र बोस महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू की तरह हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के पहली पंक्ति के नेता थे। पर अपने आप को भारत माता पर उत्सर्ग करने की आतुरता में उनकी तुलना शहीद भगत सिंह जैसे वीरों

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क्यों बार बार संकट आता है मालदीव पर ?

28 मई 2022
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पिछले कुछ दिनों से मालदीव में राजनीतिक घटना क्रम बहुत तेजी से बदल रहा है। हुआ यह कि वहाँ के राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन ने मालदीव के सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश तथा एक न्यायाधीश को गिरफ़्तार

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भारत-अफ्रीका के गहराते संबंध और इनके निहितार्थ

28 मई 2022
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भारत-अफ्रीका फोरम शिखर सम्मलेन के तीसरे संस्करण का आयोजन 26 से 29 अक्टूबर 2015 तक नई दिल्ली में होने जा रहा है। सभी 54 अफ़्रीकी देशों को निमंत्रण देकर भारत सरकार ने अफ्रीका से अपने संबंधों को आगे ले जा

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1857 की क्रांति की 160वीं जयंती

28 मई 2022
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आज ही के दिन ठीक एक सौ साठ साल पहले यानी 10 मई 1857 को जिस ऐतिहासिक क्रांति का सूत्रपात मेरठ से हुआ वह कई अर्थों में विलक्षण थी । क्रांति का क्षेत्र व्यापक था और इसका प्रभाव लम्बे समय तक महसूस किया गय

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