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दर्शनीय दुमका

28 मई 2022

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”दर्शनीय दुमका ”आलेख के लिए सर्वप्रथम मैं अपने मित्र साकेश जी के प्रति आभार व्यक्त करना चाहूंगा, जिन्होंने दुमका और उसके आसपास के दर्शनीय स्थलों, जैसे बासुकिनाथ धाम, मसानजोर बांध और रामगढ़ स्थित छिन्नमस्तिका देवी मंदिर आदि के विषय में न केवल विस्तार से बताया, वरन इस बात पर जोर भी दिया कि मैं अवश्य इनस्थलों के दर्शन करूं । 

दुमका की उपायुक्त सुश्री राजेश्वरी के प्रति मैं विशेष रूप से आभार व्यक्त करना चाहूंगा, जिनके उत्साहवर्धक सहयोग के बिना इतने कम समय में मैं इतने अधिक स्थानों का दौरा नहीं कर पाता और न ही झारखंड के बारे में इतना जानने और सीखने का अवसर मिलता ।  

मैं आइएएस प्रशिक्षु दीपक का भी आभारी हूं, जो हर स्थान पर मेरे साथ गए । उनके अति उत्साह के कारण ही हम मां तारादेवी के दर्शन कर सके । 

अंततः मैं राकेश का आभारी हूं, जो संपर्क अधिकारी के रूप में सदा मेरे संपर्क में रहे । उनके जीवंत सानिध्य में मेरा दौरा आद्यांत आनंददायक बना रहा । सुरक्षा अधिकारी — रजक और ड्राइवर — सुनील का भी मैं आभारी हूं, जो पूरे पांच दिन मेरे साथ ही रहे । 

दर्शनीय दुमका

डॉ. शैलेन्द्र कुमार 

22 दिसंबर 2020 की शाम पांच बजे की उड़ान से मुझे रांची पहुंचना था । मैं समय पर दिल्ली एयरपोर्ट पहुंच गया और सारी औपचारिकता पूरी करके एयर इंडिया के विमान में बैठ भी  गया । परंतु लगभग घंटा भर बैठने के बाद यात्रियों को बताया गया कि इस विमान में कोई तकनीकी समस्या आ खड़ी हुई है, इसलिए अब यात्रियों को दूसरे विमान से ले जाया जाएगा । फिर हमें दूसरे विमान में बिठाया गया जिसने थोड़ी देर बाद उड़ान भरी । रांची पहुंचने पर वाहन के साथ दुमका के संपर्क अधिकारी मुझे एयरपोर्ट के बाहर मिले । उनके साथ हम झारखंड सरकार के अतिथिगृह में ठहरे । कल की सुबह वहां से हमें दुमका के लिए प्रस्थान करना था । सामान्यतः रांची से दुमका तक की यात्रा में सात-आठ घंटे लगते हैं । दूरी तीन सौ किलोमीटर से अधिक है और रास्ता भी सर्वत्र अच्छा नहीं है । दुमका की भौगोलिक स्थिति विचित्र है । यह बिहार और बंगाल के बीच का जिला है और रांची के सुदूर पूर्व और उत्तर कोने में है । यही कारण है कि मुझे जहाज से बंगाल के दुर्गापुर या कोलकाता पहुंचने की सलाह दी गई थी, जहां से दुमका पहुंचने में क्रमश: तीन और छह घंटे का समय लगता । किंतु मेरे दुर्भाग्य से इन दोनों में से किसी भी स्थान के लिए मुझे उड़ान की सुविधा नहीं मिली । अतः अंततोगत्वा मुझे रांची ही जाना पड़ा । 

रास्ते में ….

अगले दिन की सुबह हम रांची से निकले तो थोड़ी देर बाद ही सड़क किनारे लगे साइन बोर्ड से पता चला कि हुंडरु का जलप्रपात रास्ते में पड़ता है । मुझे मेरा बचपन याद आ गया जब बिहार के विषय वाली हमारी पाठ्यपुस्तकों में इस जलप्रपात का उल्लेख मिलता था । मैंने संपर्क अधिकारी से कहा कि यदि कष्ट न हो तो मुझे इस जलप्रपात के दर्शन कराइए । वह सहर्ष सहमत हुए और थोड़ी ही देर बाद हम उस जलप्रपात के सामने पहुंच गए । कई स्थानों से पूर्ण वेग से कल-कल, छल-छल बहता पानी या कहें कि विशाल जलराशि देखते ही बनती थी । कुछ लोग उस पानी में नहा रहे थे और अन्य उस दृश्य का आनंद लेकर आत्म-विभोर हो रहे थे । कैसा होता है झरना ! झरना वास्तव में एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया का नाम है । लगता है जैसे पूरी शक्ति लगाकर पानी अपनी सारी बाधाओं को पार करना चाहता है और जितनी ही कठिन बाधा, उतना ही अधिक गर्जन-तर्जन और फिर उससे उछल कर बहता    पानी । न थकान, न विश्राम । केवल आगे बढ़ने की धुन । न जाने कब से यही क्रम चलता आ रहा है । स्वच्छ और चमकता-दमकता सलिल और उसकी छिटकती-उड़ती बूंदें और भाप के सदृश बिखरते जलकण । क्षिप्र वेग से प्रचंड शिलाखंड पर गिरता है झरना और अपने चारों ओर वारिद के समान जलकणों का घेरा बना लेता है । झरना तभी शांत होता है, जब उसे समतल भूमि मिल जाती है, जैसे लक्ष्य मिल गया हो । न जाने क्यों यूं ही मौन मैं इस जलप्रपात को निहारता रहा । मन तृप्त हो गया । 

हमारा वाहन आगे बढ़ा । यात्रा लंबी थी, इसलिए एक स्थान पर रुक कर हमने पकौड़े खाए और चाय पी । जिस दुकान में हम चाय पी रहे थे, उसका नाम ‘ खालसा ’ था । मुझे समझते देर नहीं लगी कि यह किसी नानकपंथी की दुकान है । दुकान के काउंटर पर एक युवक बैठा था, जिसने पगड़ी नहीं पहनी हुई थी । उसके पीछे दीवार पर एक तस्वीर टंगी हुई थी, जिसमें कोई गुरुद्वारा दिख रहा था । साथ ही कुछ हिंदू देवी-देवताओं की भी तस्वीर लटकी हुई थी । पिछले महीने वाहन से दिल्ली से सीतामढ़ी जाते समय मुझे पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक ढाबे की याद ताजा हो गई । जब मैं उस ढाबे पर चाय पीने गया तो काउंटर पर लगभग पचास साल का एक मोटा-सा आदमी बैठा दिखा, जिसके सिर पर कोई पगड़ी नहीं थी और वह जोर-जोर से किसी से फोन पर बात कर रहा था । उसी समय एक युवक, जो संभवतः काउंटर पर बैठे व्यक्ति का बेटा रहा होगा, लगता था कि अभी-अभी नहा कर आया है, एक छोटी-सी थाली में आरती की वस्तुएं लेकर दीवार पर लगी देवी-देवताओं की तस्वीरों की विधिवत आरती उतार रहा था । इतनी सारी तस्वीरों में एक ही तस्वीर का संबंध सिख पंथ से था और शेष का सनातन धर्म से । उसके सिर पर एक भगवा रंग का रुमाल बंधा था । जब उसकी आरती पूरी हुई तब उसने अपने सिर का रुमाल भी उतार दिया । इस प्रकार देखने से यही लगता है कि पंजाब और दिल्ली से सिख जितना दूर जाते हैं, संभवतः पगड़ी का उतना ही कम प्रयोग करते हैं । यह अपने-आप में बहुत अच्छी बात है, क्योंकि अपनी पहचान या पंथ को माथे पर ढोना व्यर्थ का काम है । साथ ही इससे यह भी पता चलता है कि वे सनातन धर्म से किस सीमा तक जुड़े हुए हैं । पर कैसी विडंबना है कि जहां एक ओर सिख सनातन देवी-देवताओं को पूजते हैं और मंदिर भी जाते हैं, वहीं दूसरी ओर उनके गुरुद्वारों में इन देवी-देवताओं के लिए कोई स्थान नहीं होता !  

हमारा वाहन वहां से आगे बढ़ा और मैं सड़क के दोनों ओर के दृश्यों को निहारने लगा । हमारी तरफ से जो एक चीज बहुत भिन्न दिखी वह यह कि हर किसान के घर के आगे पुआल का ढेर था, जो एक अच्छे-खासे ऊंचे मचान पर ढेर की शक्ल में रखा हुआ था । अपनी चार दिनों की यात्रा में कहीं भी मुझे इसका अपवाद नहीं दिखा । जबकि हमारी तरफ पुआल मचान पर नहीं रखा जाता । उसका ढेर यूं ही जमीन पर रखा जाता है, जिसे हम बज्जिका में ‘ पोरा ( पुआल ) का टाल ’ कहते हैं । इसका एक कारण तो यह हो सकता है कि हमारे इधर धान का उत्पादन कहीं अधिक होता है और इसलिए इतनी अधिक मात्रा में पुआल को मचान पर नहीं चढ़ाया जा सकता । दूसरी ओर, झारखंड में मिट्टी लाल और पथरीली होने और भूमि के अ-सम होने के कारण धान का उत्पादन कम होता है । इसलिए थोड़े से पुआल को इस प्रकार रखा जा सकता है । और चूंकि पुआल कम होता है, इसलिए उसे सुरक्षित रखना यहां के किसानों की प्राथमिकता होती है । यही पुआल पशुओं के लिए चारे के रूप में काम आता है । मचान पर रखने से पुआल भूमि की नमी से सुरक्षित रहता है, जबकि हमारी तरह भूमि से सटा पुआल नष्ट हो जाता है ।  मुझे यह भी समझते देर नहीं लगी कि पठारी क्षेत्र होने के कारण यहां जल का अभाव रहता है और सामान्यतः किसान एक ही फसल अर्थात धान पर ही निर्भर रहते हैं । मैंने सर्वत्र देखा कि धान की फसल कट चुकी थी और सारे-के-सारे खेत खाली थे । बाद में मुझे पता चला कि सिंचाई की सुविधा न होने के कारण वहां के किसान एक ही फसल उगा पाते हैं और वह भी अधिक नहीं । इस प्रकार कृषि के क्षेत्र में झारखंड अपेक्षाकृत पिछड़ा राज्य लगा । पठारी क्षेत्र और जल अभाव के कारण भूमि सर्वत्र शस्य-श्यामला नहीं है । पर जहां कहीं भी भूमि शस्य-श्यामला है वह देखने में मनमोहक लगती है । 

रास्ते में रामगढ़, बोकारो, धनबाद और जामताड़ा जिले मिले । जामताड़ा के विषय में मुझे बताया गया कि यह जिला पूरे देश में साइबर ठगी के लिए कुख्यात है । संयोगवश मैं भी एक बार ठगा जा चुका हूं । जब मैंने संचार विभाग से इसकी जांच करवाई तो पता चला कि ठगने वाला व्यक्ति झारखंड का है । अब हमें एक बार और चाय के लिए रुकना पड़ा । इस स्थान का नाम था बांसपहाड़ी । यहां सड़क किनारे एक रेस्तरां था और उसके आगे एक चाय की दुकान । मुझे बताया गया कि इस दुकान की चाय काफी लोकप्रिय है, क्योंकि चाय तंदूर में बनाई जाती है और कुल्हड़ में पिलाई जाती है । जब मुझे चाय मिली तो सचमुच मुझे इसका स्वाद बहुत अच्छा और भिन्न लगा । इस बीच मेरी दृष्टि उस रेस्तरां पर लगे एक बोर्ड पर गई जिस पर ‘ ऊँ सांई फैमली रेस्टूरेंट ’ हिंदी में और उस स्थान का नाम बांसपहाड़ी अंग्रेजी में दिखा —‘BANSPAHARI’। अंग्रेजी के अक्षरों को देर तक देखने के बाद भी मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि इसका सही नाम क्या है । इसलिए मैं रेस्तरां के मालिक से मिला और उससे आग्रह किया कि “ आप बांसपहाड़ी शब्द भी हिंदी में लिखवाएं अन्यथा इसे कोई ठीक से पढ़ और समझ नहीं पाएगा ।” 

बांसपहाड़ी से थोड़ी दूर जाने पर ही हमें सड़क खराब मिलनी शुरू हुई, जो दुमका तक अत्यंत बुरे हाल में थी । इससे पहले भी बोकारो में सड़क खराब मिली थी । जब भी सड़क ठीक नहीं होती तो मेरा मन दुखी हो जाता, क्योंकि समय पर गंतव्य तक पहुंचने की संभावना धूमिल पड़ने लगती और यात्रा का आनंद ही समाप्त हो जाता । खैर, किसी तरह हम छह बजे अपने गंतव्य पर पहुंचे, जहां पहले से ही बैठक की तैयारी की जा चुकी थी और मुझे सीधे बैठक में जाना था । लंबी बैठक के बाद हम वहां के अतिथिगृह में रात बिताने के लिए पहुंचे । 

दुमका — स्थानीय दौरा 

कल होकर सुबह-सुबह टहलने के उद्देश्य से मैं बाहर निकला । मुझे लगा कि दुमका शहर बहुत बड़ा नहीं है । मैंने बस स्टैंड होते हुए आसपास के क्षेत्र का एक चक्कर लगाया । सड़क किनारे दीवारों पर बड़े-बड़े अक्षरों में बाइबिल की आयतें लिखी मिलीं । मुझे पहले से ही पता था कि बड़ी संख्या में यहां के आदिवासियों को ईसाई बनाया गया है और अब भी यह प्रयास जारी है । थोड़ा आगे बढ़ने पर बस स्टैंड के सामने ही सड़क के किनारे एक के बाद एक लगभग आधा दर्जन अतिसाधारण ढाबे दिखे जो सब-के-सब मांसाहार के लिए थे । मैंने अनुमान लगाया कि यहां के अधिकतर लोग मांसाहारी होंगे । बाद में मुझे पता चला कि इस राज्य में मांसाहार का अपेक्षाकृत अधिक प्रयोग होता है । इसका एक कारण तो यह हो सकता है कि बड़ी संख्या में यहां आदिवासी हैं, जो सामान्यतः मांसाहारी होते हैं । फिर मुसलमान और ईसाई हैं, जो स्वभावत: मांसाहारी होते हैं । मुझे बताया गया कि यहां होने वाली शादियों में मांस पर बहुत अधिक धन खर्च किया जाता है । किसी-किसी को तो विवाह के अवसर पर एक-एक क्विंटल तक मांस का प्रबंध करना पड़ता है । स्वास्थ्य और आर्थिक दृष्टि से यह अच्छी बात नहीं है । वैसे मुझे हुंडरु के आसपास ऐसा नारा भी लिखा मिला था कि “ निरोग और स्वस्थ रहने के लिए शाकाहारी बनो ।”

थोड़ी देर बाद मैं फिर से बस स्टैंड की ओर आगे बढ़ा । असल में मुझे फल और अखबार खरीदने थे । सामने ही एक ठेला दिखा जिस पर कुल-मिलाकर तीन ही प्रकार के फल थे— केले, संतरे और अनार । मात्रा के हिसाब से भी ये फल कम थे । फिर भी दो दुकानदार थे । संभवतः दोनों दुकानदार बाप और बेटा रहे हों । मैंने सोचा इतनी छोटी-सी दुकान है और उस पर दो लोग लगे हुए हैं । फिर इनका परिवार भी होगा । इस तरह एक छोटी दुकान पर इतने सारे लोग निर्भर होंगे । संभवतः ऐसी ही स्थिति के लिए एक कहावत है — “ बासी भात में खुदा का साझा ।” मैंने केले और संतरे खरीदे । किंतु इतने में ही मेरा ध्यान उस आवाज की ओर गया, जो उस ठेले पर रखे मोबाइल फोन से आ रही थी । लगता था कि अनेक लोग एक साथ कुछ गा रहे हों । परंतु मुझे भाषा समझ में नहीं आ रही थी । मैंने सोचा क्या पता संथाली भाषा में कोई गीत गाया जा रहा हो । इसलिए उत्सुकतावश मैंने उस दुकानदार से पूछा कि,   “ यह क्या सुन रहे हो ?” पहले तो उसने मेरी बात पर ध्यान नहीं दिया, पर दोबारा पूछने पर उत्तर दिया —“ जैसे आप रमायन सुनते हैं न वैसे ही यह भी है ।” अब तो मेरी उत्सुकता और भी बढ़ गई कि रामायण जैसा कौन-सा धार्मिक ग्रंथ है, जिसको गाया जा रहा है । अब उसने बताया कि यह कुरान का ‘ सूरा-ए-बकरा ’ है । मैंने पूछा कि, “ यह तो अरबी में है । तो क्या तुम्हें अरबी आती है ?” उसने हंसते हुए और मुझे बुद्धू समझते हुए प्रतिप्रश्न किया कि,       “ कैसी बात कर रहे हैं, चाचा ! आप ।”  यहां लोग दूसरों को चाचा ही संबोधित करते हैं । वह अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए बोला, “ मुझे अरबी कैसे नहीं आएगी ! मैंने अरबी सीखी है ।”

मैं सोचने पर विवश हुआ कि यह कैसा आदमी है कि कहता है कि अरबी आती है । मुझे यह बात अविश्वसनीय लगी । फिर भी थोड़ी देर के लिए मान भी लिया जाए कि उसे थोड़ी-बहुत अरबी आती होगी, तो क्या उसे कुरान की आयतों का अर्थ पता होगा ? सूरा का अर्थ अध्याय होता है और ‘ सूरा-ए-बकरा ’ कुरान का दूसरा अध्याय है, जिसमें 287 आयतें हैं और इस प्रकार यह बहुत बड़ा अध्याय है । इस अध्याय में जो लोग ‘ ईमान ’ नहीं लाते अर्थात मुसलमान नहीं बनते उनकी तरह-तरह से निंदा की गई है और उन्हें किस प्रकार नर्क भोगना पड़ेगा इसका विशद वर्णन किया गया है । साथ ही आदम-हव्वा, मूसा, इब्राहीम आदि की कहानी है और रमजान के महीने में रोजा रखने, हज करने जैसी बातें भी हैं । यहां ध्यातव्य है कि आदम-हव्वा, मूसा, इब्राहीम आदि की कहानी बाइबिल में दी गई है और इसका दूसरा कोई ज्ञात स्रोत भी नहीं है । इसलिए ये सारी कहानियां बाइबिल से ली हुई हैं और इसमें इस्लाम का कोई योगदान नहीं है । इसे इस्लाम की प्राचीनता सिद्ध करने और यहूदी तथा ईसाइयत की तरह इस्लाम के महत्व को स्थापित करने के उद्देश्य से दिया गया है । जब हम ध्यान से इस ‘ अल बकर ’ सूरा को देखते हैं तो न तो इसमें मौलिकता दिखती है और न ही कोई धार्मिक दर्शन । इसलिए समझ में नहीं आता कि इसे कोई किसी भी तरह गाए, पर इसे ईश्वर की प्रार्थना नहीं कहा जा सकता । वैसे बकर या बकरा अरबी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है — ‘ गाय ’। और इसी बकर से बकरीद शब्द बनता है, जिसका व्यावहारिक अर्थ होता है गाय की हत्या । लेकिन क्योंकि भारत में अधिकतर गैर-मुसलमान इस शब्द से अपरिचित हैं और गाय के प्रति श्रद्धा का भाव रखते हैं, इसलिए उन्हें ऐसा बताया गया है कि ‘ बकरीद ’ बकरे की हत्या या कुर्बानी वाला त्यौहार है । संयोगवश बकरा शब्द हिंदी में भी प्रचलित रहा है, इसलिए मुसलमानों के लिए ऐसा भ्रम फैलाना आसान रहा है । फिर मैं सोचने लगा कि इस दुकानदार जैसे लोगों को मुल्ला-मौलवी जो कुछ भी समझा देते हैं, उसे ही ये अंतिम सत्य मानकर चलने लगते हैं । स्पष्ट है कि इस दुकानदार को इतनी समझ नहीं होगी कि वह कुरान के गुणदोष की विवेचना करके अपना मंतव्य बना सके । पर इस्लाम का दुर्भाग्य यह है कि बड़े-बड़े विद्वान मुसलमानों का विचार और व्यवहार भी इस साक्षर किंतु अशिक्षित दुकानदार जैसा ही होता है । वे भी कुरान को आसमानी किताब मानकर ही पढ़ते   हैं । कोई आश्चर्य नहीं कि मुसलमानों में अपना विवेक ही नहीं पनपता और संभवतः यही कारण है कि इनमें से अधिकतर लोग छोटे-छोटे कारोबार, जैसे फल बेचना, पंचर लगाना, बकरे या मुर्गे काटना आदि में अपना बहुमूल्य जीवन गंवा देते हैं । इस प्रकार इनके लिए कहा जा सकता है — “ जीवन वृथा गंवायो ।”

दुमका शहर देख कर मुझे लगा कि यह अपेक्षाकृत पुराना शहर है । अंग्रेजों के शासन काल में जब संथाल परगना जिला बनाया गया तभी से दुमका इस जिले का मुख्यालय रहा है । कालांतर में इसी को काट-काटकर पांच और जिले बनाए गए । आज भी दुमका संथाल परगना कमिशनरी का मुख्यालय है और पूरे झारखंड की उपराजधानी भी । इस प्रकार यह बहुत महत्वपूर्ण शहर है । पर इसका पर्याप्त विकास नहीं हुआ है । दुमका के साथ आज एक बड़ी समस्या यह है कि रांची से यहां तक का रास्ता लंबा तथा बहुत अच्छा न होने के कारण लोग यहां आने से कतराते हैं । मुझे एक स्थानीय अधिकारी से जानकारी मिली कि अभी हाल ही में हुए विधान सभा के उपचुनाव में दुमका के लिए एक पर्यवेक्षक की नियुक्ति हुई । परंतु उसने विनती करके अपना नाम वापस ले लिया । इसके बाद दूसरे अधिकारी को पर्यवेक्षक बनाया गया । दूसरे ने भी अपना नाम वापस ले लिया । अब तीसरे अधिकारी को पर्यवेक्षक बनाया गया । पर उसने भी अपना नाम वापस ले लिया । इस प्रकार यह क्रम चलता रहा और कुल मिलाकर सात अधिकारियों ने अपना-अपना नाम वापस ले लिया । अंततः आठवें अधिकारी पर जाकर यह क्रम टूटा । मुझे बताया गया कि रास्ते के अतिरिक्त दुमका की छवि भी कुछ ऐसी है कि लोग यहां आने से बचते हैं । वैसे छवि बदलने में तो समय लगेगा परंतु आवागमन की सुविधा की दृष्टि से अविलंब कुछ किया जाना बहुत आवश्यक प्रतीत होता है ।

अब मैं अतिथिगृह लौट आया और तैयार होकर अलग-अलग स्थानों का दौरा आरंभ किया । मुझे कुछ आंगनवाड़ी केंद्र दिखाए गए, जो निस्संदेह अच्छी हालत में थे और उसके बाद एक ऐसा केंद्र दिखाया गया जिसे संथाली भाषा में ‘ शगुन सुतम ’ कहा जाता है । मुझे बताया गया कि ‘ सुतम ’ शब्द सूत अर्थात धागा का ही संथाली रूप है । इस केंद्र का नाम हिंदी और संथाली दोनों भाषाओं में लिखा था । संथाली भाषा के लिए जिस लिपि का प्रयोग किया गया था, मैं उससे पूरी तरह अपरिचित था । वहां जितने अधिकारी थे वे भी इस लिपि को पढ़ना नहीं जानते थे । इस प्रकार लगा कि इसका बहुत ही सीमित प्रयोग होता है । बाद में भी अपने दौरे के दौरान अन्यत्र इस लिपि और भाषा का प्रयोग होते मैंने नहीं देखा । वैसे संथाली भाषा को भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 सितंबर 2003 को ही शामिल कर लिया गया था और उसके बाद से प्रतिवर्ष 22 सितंबर को संथाली भाषा दिवस भी मनाया जाता है । इस बारे में गणेश मुर्मू बताते हैं कि संथाली भाषा ओलचिकी लिपि में लिखी जाती है, जो देवनागरी से बहुत भिन्न प्रकृति की है । ओलचिकी लिपि को 2008 में विश्व स्तर पर यूनिकोड मानक से जोड़ा गया, जिसके फलस्वरूप अब इसे कम्प्यूटर या मोबाइल पर आसानी से टाइप किया जा सकता है । संथाली साहित्य के विषय में गणेश मुर्मू का मानना है कि यह राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत है । अपनी संस्कृति के प्रति गौरव-बोध वस्तुतः राष्ट्रीय अस्मिता का हिस्सा है और राष्ट्रीय अस्मिता राष्ट्र-बोध का हिस्सा है । प्रगति, विकास, संस्कृति, इतिहास-भूगोल आदि की जड़ भाषा होती है और भाषा को साहित्य ही समृद्ध करता है । इस विषय में मेरा विचार यह है कि यदि संथाली भाषा को लोकप्रिय बनाना है, तो इसे देवनागरी लिपि में भी लिखा जाना चाहिए । इससे न केवल गैर-संथाली भाषी इसे समझ पाएंगे, बल्कि संथाली भाषी भी इसका व्यापक प्रयोग कर पाएंगे । उदाहरण के लिए, असम में प्रचलित आदिवासी बोडो भाषा देवनागरी को अपनाकर लोकप्रिय हो रही है । अन्यथा सर्वव्यापी हिंदी और आभिजात्यों की भाषा अंग्रेजी की उपस्थिति में संथाली भाषा का विकास बहुत कठिन होगा । 

‘ शगुन सुतम ’ केंद्र में दो दर्जन से अधिक लड़कियां सिलाई सीख रही थीं । यह पूरी व्यवस्था सरकार की ओर से की गई है । प्रशिक्षण के दौरान ये लड़कियां सरकारी विद्यालय के बच्चों की ड्रेस सिलती हैं । इससे अवश्य इनमें आत्मनिर्भरता बढ़ेगी, क्योंकि भविष्य में ये स्वयं अर्थोपार्जन कर पाएंगी । इस केंद्र की एक और अच्छी बात यह है कि यहां जितनी लड़कियां प्रशिक्षण प्राप्त कर रही थीं उनमें से एक-दो को छोड़कर शेष सभी पढ़ाई भी कर रही थीं ।  

इसके उपरांत हम दुमका मेडिकल कॉलेज देखने गए । यह कॉलेज पिछले वर्ष ही आनन-फानन में शुरू कर दिया गया था । जबकि अभी न तो इसका भवन बनकर तैयार हुआ था और न ही पढ़ाने के लिए आवश्यक उपकरण ही मंगाए गए थे । सबसे बड़ी बात यह कि अधिकतर शिक्षक और अन्य स्टाफ के पद भी नहीं भरे गए थे । जब मैं वहां पहुंचा तो भवन निर्माण का काम जोर-शोर से चल रहा था और जिसके चलते सर्वत्र धूल-ही-धूल दिखाई दे रही    थी । यहां तक कि भवन के अंदर भी धूल थी । तभी हमारे सामने ही पच्चीस छात्र आए । हमें पता चला कि इनकी मौखिक परीक्षा होने वाली है । शिक्षकों और स्थानाभाव के कारण पच्चीस-पच्चीस के समूह में छात्रों की मौखिक परीक्षा ली जाती है । मैं सोचने लगा कि इन छात्रों के लिए पढ़ाई किसी चुनौती से कम नहीं है । अनेक सुविधाओं को समय पर न जुटा पाने के कारण इस कॉलेज को इस वर्ष छात्र ही नहीं दिए गए हैं । इस प्रकार पहले बैच में सौ छात्र आए पर दूसरे बैच में एक भी छात्र नहीं आया और यदि सब कुछ ठीक रहा, तो अगले वर्ष ही छात्र आ पाएंगे । इसलिए लगता है कि इस कॉलेज को सफल होने में बहुत समय लगेगा, क्योंकि यहां लंबे समय तक शिक्षकों का अभाव बना रहेगा । रांची से इसकी लंबी दूरी और आसपास एयरपोर्ट न होने के कारण कोई भी ऐसी जगह आने से हिचकेगा । इसलिए इस मेडिकल कॉलेज के निर्माण का निर्णय ही दोषपूर्ण कहा जा सकता है । और चूंकि दुमका के निकट देवघर में एम्स बन रहा है, इसलिए इतने पास में किसी दूसरे मेडिकल कॉलेज की आवश्यकता भी नहीं थी । इस प्रकार जनता का बहुत-सारा पैसा इसमें फंस गया है । शिक्षकों से अपनी बातचीत में मैंने आशा प्रकट की कि, “ चाहे जैसे भी पर जब एक बार यह कॉलेज चल निकलेगा तो यहां डॉक्टरों का अभाव नहीं रहेगा ।” प्रतिक्रियास्वरूप शिक्षकों ने कहा कि, “ यहां एक भी डॉक्टर नहीं रुकेगा । सभी बाहर चले जाएंगे ।” हो सकता है उनका अनुमान सही हो । ऐसे में यही लगता है कि इस कॉलेज से जुड़ा जो बड़ा-सा अस्पताल होगा उससे ही स्थायी रूप से स्थानीय लोग लाभान्वित हो पाएंगे । 

अब हम स्मार्ट एग्रो फार्म देखने गए । लगभग 30 एकड़ अ-सम भूमि में अनेक प्रकार की साग-सब्जियां उगायी जा रही थीं । इस आधुनिक खेती की पहली विशेषता यह थी कि इसमें मिश्रित साग-सब्जियां एक साथ उगाई जा रही थीं, जैसे पत्तागोभी के साथ-साथ मिर्च के   पौधे । जहां पत्तागोभी साठ दिनों में तैयार होकर उखाड़ ली जाएगी, वहीं मिर्च के पौधे आगे भी रहेंगे । इस प्रकार एक ही खेत से एक साथ दो प्रकार की सब्जियां उगाई जा रही थीं । दूसरी विशेषता यह कि जिस खेत में एक बार जो सब्जी लगा दी गई, दूसरी बार कोई और सब्जी लगाई जाएगी । इस प्रकार फसलचक्र में सतत बदलाव होता रहता है । इसका लाभ यह बताया गया कि एक प्रकार के पौधों को भूमि से जिस प्रकार के पोषण की आवश्यकता होती है, दूसरे प्रकार के पौधों को उस पोषण की आवश्यकता नहीं होती । इससे अंततः भूमि की उर्वरा शक्ति बनी रहती है । तीसरी विशेषता यह कि इस क्षेत्र में जल का अभाव रहता है, इसलिए 30 एकड़ की भूमि में तीन कुएं खोदे गए हैं । इन कुओं से पंप के द्वारा भूमि की सिंचाई होती है । पंप सौर ऊर्जा से चलता है, इसलिए बिजली पर कोई व्यय नहीं होता । चौथी विशेषता यह कि केंचुए की सहायता से बहुत कम समय में गोबर का उर्वरक तैयार किया जाता है । इसके लिए एक स्थान पर छत जैसा बनाकर नीचे कंक्रीट के कई खाने बनाए गए थे और बारी-बारी से उर्वरक तैयार किया जा रहा था । यह जैव उर्वरक सस्ता होने के साथ-साथ रासायनिक उर्वरक की तुलना में अधिक प्रभावी भी होता है । पांचवीं विशेषता यह कि जैसे जैविक उर्वरक तैयार किया जाता है, उसी प्रकार जैव कीटनाशक भी तैयार किया  जाता है । छठी विशेषता यह कि यहां खेती करने के सस्ते पर अत्यंत उपयोगी उपकरणों का व्यापक उपयोग होता है, जैसे बीज बोने का उपकरण, खेत से घास निकालने वाला उपकरण, खेत में सिंचाई के लिए लकीरें खींचने का उपकरण इत्यादि । इतनी सारी विशेषताओं वाले जैविक उत्पादों से मानव शरीर को कितना उत्कृष्ट पोषण मिलता होगा, इसका अनुमान सहजता से लगाया जा सकता है । यदि देश में सर्वत्र ऐसी खेती होने लगे, तो संभवतः आधे रोग तो वैसे ही समाप्त हो जाएंगे । 

मुझे बताया गया कि पहले जहां एक किसान एक वर्ष में एक एकड़ भूमि से केवल बीस हजार रुपए ही कमा पाता था, वहीं अब वह दो लाख रुपए सालाना तक कमा लेता है । जिस 30 एकड़ की भूमि को मैंने देखा वह 30 किसानों की है और सभी किसान इस उन्नत कृषि से लाभान्वित हो रहे हैं । मुझे यह भी बताया गया कि इन साग-सब्जियों को बेचना किसानों के लिए कोई समस्या नहीं है, क्योंकि खरीदार स्वयं इनके खेतों से साग-सब्जियां खरीद कर ले जाते हैं । वे सब प्रकार की साग-सब्जियां, जैसे फूलगोभी, पत्ता गोभी, मिर्च, पालक, टमाटर, बैंगन, आलू आदि उगाते हैं । खीरा, लौकी, भिंडी आदि भी उगाई जाती हैं पर इनके लिए अभी का समय उपयुक्त नहीं था । अन्यत्र खेतों में आम, अमरूद जैसे फल भी उगाए जाते हैं । साथ ही कुछ तालाब भी खोदे गए थे जिनमें मत्स्यपालन हो रहा था । 

पर ये सारे-के-सारे काम आसान नहीं हैं । किसानों को अनवरत प्रशिक्षण और दिशा-निर्देश की आवश्यकता पड़ती है, जिसके लिए ‘ प्रधान ’ नामक एक स्थानीय गैर-सरकारी संस्था अपनी सेवाएं दे रही है । मैं इसके प्रतिनिधियों से मिला । इनमें पूर्ण प्रशिक्षित लोग हैं । इन्होंने कृषि विज्ञान की शिक्षा प्राप्त की है और प्रबंधन की भी । और जहां तक साधन और सुविधाओं की बात है तो उन्हें सरकार उपलब्ध करा रही है ।  यदि बड़ी संख्या में किसान इन आधुनिक और वैज्ञानिक विधियों को अपना लें तो नि:संदेह वे समृद्ध हो जाएंगे । साथ ही इससे खेती एक कमाऊ व्यवसाय के रूप में अन्य लोगों को भी अपनी ओर आकृष्ट कर  सकेगी । हां, इतना अवश्य है कि अभी ऐसी उन्नत कृषि बहुत ही सीमित क्षेत्र में हो रही है । यदि झारखंड सरकार कृषि के क्षेत्र में तुरंत प्रगति करना चाहती है तो उसे चाहिए कि वह बरसात के पानी को रोके, जिससे किसानों को सालोंभर पानी मिलता रहे । यहां की भौगोलिक स्थिति कुछ ऐसी है कि पानी रुकता नहीं है जिसके फलस्वरूप किसान केवल एक ही फसल उगा पाता है । खेती से अपेक्षित कमाई न होने के कारण गांवों से लोगों का पलायन हो रहा है । इस प्रकार झारखंड का पानी और उसकी जवानी दोनों को रोकना बहुत जरूरी    है । पानी रोकने पर तो युद्धस्तर पर काम होना चाहिए, क्योंकि यह अपेक्षाकृत आसान काम  है । 

मसानजोर बांध व मयूराक्षी रेशम

यहां से हमलोग प्राकृतिक सुषमा का आनंद लेने मसानजोर बांध या डैम देखने गए । यह झारखंड का अतिप्रसिद्ध दर्शनीय पर्यटक स्थल है । यहां पहुंचने से थोड़ा पहले से ही सड़क की दाहिनी ओर झील जैसा दृश्य दिखाई देने लगता है । यहां तीन तरफ ऊंची-ऊंची पहाड़ियां हैं और चौथी तरफ को घेरकर मयूराक्षी नदी के पानी को रोका जाता है । कितना सुंदर नाम है — ‘ मयूराक्षी ’ ! मयूर की आंख के सदृश नदी । नदी का नाम रखने वाले की कल्पनाशीलता, साहित्यिक अभिरुचि और सौंदर्य बोध की प्रशंसा किए बिना मन नहीं मानता । शायद ही कोई और देश हो जहां नदी के नाम इतने अर्थपूर्ण और सुंदर होते होंगे ! ऐसे ही असम में एक नदी का नाम है — ‘ धनश्री ’। मुझे यह जानकर अच्छा लगा कि झारखंड के रेशम के लिए जो ब्रांड बनाया गया है, उसका नाम है ‘ मयूराक्षी सिल्क ’। 

वास्तव में ‘ मयूराक्षी परियोजना ’ नाम से ही 1955 में झारखंड और पश्चिम बंगाल की एक संयुक्त परियोजना आरंभ हुई । इस परियोजना के अन्तर्गत कनाडा की सरकार से मयूराक्षी नदी के ऊपरी भाग में ‘ कनाडा बांध ‘ का निर्माण हुआ और जिसे दुमका जिले के मसानजोर स्थान पर बनाया गया और इस कारण से यह ‘ मसानजोर बांध ’ के नाम से ही प्रसिद्ध हो  गया । इस बांध के माध्यम से दस हजार हेक्टेयर भूमि की सिंचाई होती है और इसके निचले भाग में तिलपारा अवरोधक बांध ( 310 मीटर लंबा ) बनाया गया  है । मसानजोर बांध अत्यंत सुंदर है । तीन ओर से ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों से घिरा यह अतिविशाल क्षेत्र जलराशि से भरा है । दूर-दूर तक आंखों को जल का नीलवर्ण ही दिखाई देता है । बीच में कहीं-कहीं छोटी-छोटी पहाड़ियां भी हैं, जो द्वीप की तरह दिखती हैं । इस झील में दूर-दूर से पक्षी आते हैं । जब मैं वहां था तब मुझे भी पक्षी दिखे । इस झील में मोटरबोट भी चलते हैं । चूंकि यह प्रसिद्ध पर्यटक स्थल है, इसलिए बड़ी संख्या में पर्यटक दिखे । पर अधिकतर बंगाल के । बांध के दूसरी ओर चूंकि पानी कम है, इसलिए यहां बड़ा ही मनोहर उद्यान बनाया गया  है । यहीं पहाड़ी के दो छोरों पर दो अतिथिगृह हैं  — एक बंगाल सरकार का तो दूसरा झारखंड सरकार का । झारखंड सरकार वाला अतिथिगृह ऐतिहासिक बन गया है और इसकी ऐतिहासिकता भी एक कारण है कि बहुत सारे पर्यटक यहां आते हैं । 

बात यह है कि 25 सितंबर 1990 को गुजरात के सोमनाथ मंदिर से अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के संकल्प को लेकर पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने श्रीराम रथयात्रा निकाली थी । रथयात्रा जब बिहार के समस्तीपुर पहुंची तब बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव की सरकार ने लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार करके मसानजोर के अतिथिगृह में नजरबंद कर दिया । उस समय मसानजोर से 20 किलोमीटर के क्षेत्र में सुरक्षा व्यवस्था इतनी सुदृढ़ कर दी गई थी कि कोई समर्थक आडवाणी तक न पहुंच सके । वैसे भी यह स्थान दुमका शहर से दूर है और यहां बहुत विरल आबादी है । फिर भी कहते हैं कि कई समर्थक मयूराक्षी नदी पार करने और झंडे लहराकर आडवाणी का अभिवादन करने में सफल हुए । तब झारखंड नामक राज्य नहीं था, इसलिए यह क्षेत्र भी बिहार का हिस्सा था । जब मैं वहां पहुंचा तो मुझे बताया गया कि इस अतिथिगृह के ऐतिहासिक महत्व को देखते हुए उस कमरे को, जिसमें आडवाणी ठहरे थे, दर्शनीय बनाया जा रहा है । 

हमारा अगला पड़ाव ‘ मयूराक्षी सिल्क ’ था । यहां रेशम के धागे और उस धागे से रेशमी वस्त्र बनाने का काम होता है । हमें दिखाया गया कि किस प्रकार खेतों से कोया या ककून लाए जाते हैं और उनमें से धागे निकाले जाते हैं । इन्हीं धागों से हथकरघे की सहायता से कपड़ा तैयार किया जाता है । सारी प्रक्रिया अत्यंत श्रमसाध्य है । एक मिनट के लिए भी आपका ध्यान धागे पर से नहीं हटना चाहिए अन्यथा कोई-न-कोई त्रुटि हो सकती है । बाद में इन्हीं कपड़ों पर नाना प्रकार के डिजाइन बनाए जाते हैं और उन्हें विभिन्न प्रकार के रंगों से रंगा जाता है । यहां लगभग पचास लोग प्रतिदिन काम करते हैं, जबकि हजारों किसान इसकी खेती से जुड़े हुए हैं । रेशम उद्योग देखने का पहला सौभाग्य मुझे छत्तीसगढ़ में मिला था । वहां एक अनुसंधान केंद्र भी है । वहीं मुझे बताया गया कि रेशम शरीर की त्वचा के लिए सर्वाधिक सुरक्षित और अनुकूल वस्त्र होता है । साथ ही इसे किसी भी मौसम में पहना जा सकता है । चूंकि रेशम जैविक पदार्थ है, इसलिए पर्यावरण के अनुकूल भी है । हां, इतना अवश्य है कि रेशमी वस्त्र महंगा होता है, जो बिल्कुल स्वाभाविक है । फिर भी जो सामर्थ्यवान हैं उन्हें तो अनिवार्यत: रेशमी वस्त्र पहनना चाहिए । यदि हम अपने शरीर, समाज, देश और पर्यावरण के प्रति सजग हैं, तो हमें रेशमी वस्त्र पहनना चाहिए । दुमका के इस मयूराक्षी सिल्क उद्योग के लिए अच्छी बात यह है कि यहां रेशमी वस्त्र की जितनी मांग है, उस अनुपात में उत्पादन नहीं  है । इसका अर्थ यह है कि वस्त्र तैयार होते ही बिक जाता है ।

बाबा बासुकिनाथ धाम 

अगले दिन हमें सबसे पहले बाबा बासुकिनाथ के दर्शन के लिए जाना था । हमने लगभग साढ़े नौ बजे अतिथिगृह से प्रस्थान किया । दुमका से बासुकिनाथ धाम 25 किलोमीटर दूर है । हम आधे घंटे में वहां पहुंच गए । मंदिर में बहुत अधिक भीड़ नहीं थी । मंदिर के प्रांगण में मैंने देखा कि अनेक श्रद्धालु पंडों की सहायता से संकल्प करवा रहे थे और तत्पश्चात बाबा बासुकिनाथ पर जल चढ़ाने जा रहे थे । श्रद्धालुओं की आस्था देखने योग्य थी । पंक्तिबद्ध श्रद्धालु अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे और बारी आने पर बेलपत्र, धथूरे के फूल, दूध, मधु, जल आदि लेकर ज्योतिर्लिंग से थोड़ी दूर तांबे के एक तिरछे पात्र में उड़ेल रहे थे, जहां से ये सारे पदार्थ ज्योतिर्लिंग तक पहुंच रहे थे । कोरोना काल में श्रद्धालु ज्योतिर्लिंग को स्पर्श न करें इस कारण से ऐसी व्यवस्था की गई है । मैंने भी अपनी पूजा-अर्चना संपन्न की । प्रांगण से बाहर निकलते हुए मैंने एक पंडे से पूछा कि यह मंदिर कितना पुराना होगा, तो उसने उत्तर दिया कि, “ मुझे ठीक से तो नहीं पता, किंतु यह हजारों वर्ष पुराना होगा । इस मंदिर पर सब कुछ पाली भाषा में लिखा गया है, जिससे लगता है कि यह अवश्य ही बहुत पुराना होगा ।” बासुकिनाथ का मंदिर देखने में देवघर के बाबा बैद्यनाथ मंदिर के समान ही है । और बैद्यनाथ धाम की तरह ही यहां भी शिवगंगा तालाब है । बस अंतर इतना ही है कि इसका आकार थोड़ा छोटा है । इस प्रकार यह बाबा बैद्यनाथ मंदिर का लघु संस्करण है । इस मंदिर में स्थानीय कला के विभिन्न रूपों को देखा जा सकता है । मंदिर परिसर में विभिन्न देवी-देवताओं के 22 मंदिर हैं ।

नि: संदेह बाबा बासुकिनाथ धाम का बड़ा महात्म्य है । पूरे झारखंड और बिहार में तो यह मंदिर प्रसिद्ध है ही, बंगाल में भी इसकी प्रसिद्धि कम नहीं है । स्थानीय समाचार पत्र ‘ प्रभात  खबर ’ ( 15 जुलाई 2019 ) के अनुसार, बाबा बासुकिनाथ को ‘ फौजदारी बाबा ’ कहा जाता है । मान्यता है कि देवघर के बाबा बैद्यनाथ का दरबार ‘ दीवानी अदालत ’ की तरह है, जहां भक्तों की मुराद पूरी तो होती है, किंतु सुनवाई में ‘ दीवानी  मुकदमों ‘ की तरह देरी होती है, जबकि बाबा बासुकिनाथ के दरबार में ‘ फौजदारी मुकदमों ‘ की तरह जल्द फैसले होते   हैं । अत: शिवभक्तों का विश्वास है कि बाबा बासुकिनाथ के दरबार में मांगी गयी मन्नतें जल्द पूरी हो जाती हैं । इसलिए देवघर के बाबा बैद्यनाथ का जलाभिषेक और पूजन करने के बाद कांवड़िए और अन्य शिवभक्त बासुकिनाथ आकर ही अपनी पूजा को पूर्ण मानते हैं । शीघ्र कृपा पाने की कामना में लाखों कांवड़िए और डाक कांवड़िए भागलपुर से गंगाजल लेकर बौंसी-हंसडीहा के मार्ग से चल कर बासुकिनाथ आते हैं और बाबा फौजदारीनाथ का जलाभिषेक करते हैं । साक्ष्य है कि यह परंपरा कई सौ सालों से चली आ रही है ।

इस मंदिर के महत्व के विषय में समाचार जगत ( 27 जुलाई 2017 ) भी लिखता है कि देवघर की यात्रा बासुकिनाथ के दर्शन के बिना अधूरी रहती है । पत्र आगे बासुकिनाथ के उद्भव की कथा कहता है । दक्षिण निषेध नामक देश में रमणीक मनोहारी दारूक वन में बाबा बासुकिनाथ धाम अवस्थित है, जहां कभी राक्षसों ने मनोहारी नगर बसाया था । इस दारूक वन क्षेत्र और जल मार्ग से गुजरने वाले लोगों को राक्षस बंदी बना लिया करता था । इसमें शिव भक्त सुप्रिय भी शामिल था । सुप्रिय ने राक्षसों के अत्याचार से मुक्ति के लिए भोलेनाथ की अराधना की, जिससे प्रसन्न होकर भगवान शंकर और पार्वती प्रकट हुए और सुप्रिय को राक्षसों का नाश करने के लिए पशुपातस्त्र दिया, जिससे सुप्रिय ने राक्षसों का नाश किया ।सुप्रिय बाबा भोलेनाथ और पार्वती से सर्वजन हिताय यहां निवास करने की मनोकामना लेकर आराधना में लीन हो गए । भोलेनाथ ने सुप्रिय को इसी क्षेत्र में पार्वती के साथ निवास करने का वरदान दिया । बाद में इस दारूक वन में कंदमूल की तलाश में मनुष्य आकर बसने लगे । इनमें बासु या बासुकी नामक एक सदाचारी भी आया । आगे सुनील शर्मा बताते हैं कि एक बार बासुकी कंदमूल की खोज में भूमि खोद रहा था । उसी दौरान बासुकी का औजार भूमि में दबे शिवलिंग से टकरा गया और वहां से दूध की धारा बहने लगी । बासुकी यह देखकर भयभीत हो गया और भागने लगा । उसी समय आकाशवाणी हुई, “ भागो मत, यह मेरा निवास स्थान है । तुम पूजा करो ।” बासुकी के नाम पर इस स्थल का नाम बासुकिनाथ पड़ गया । मान्यता है कि बासुकिनाथ में शिव का नागेश रूप है । यहां पूजा में अन्य सामग्री तो चढ़ाई जाती है, लेकिन दूध से पूजा करने का काफी महत्व है । नागेश रूप के कारण दूध से पूजा करने से भगवान शिव प्रसन्न होते हैं । इस कारण बाबा बासुकिनाथ ज्योर्तिलिंग का प्रादुर्भाव हुआ और आज हजारों की संख्या में भक्त यहां आते हैं ।

हिंदुस्तान ( 11 मार्च 2018 ) इस कथा में एक नया आयाम जोड़ता है ।  इस मंदिर में करपात्री अग्निहोत्री परमहंस स्वामी चिदात्मनजी महाराज ने बाबा बासुकिनाथ के दर्शन करने के उपरांत दावा किया कि बाबा बासुकिनाथ ही असली नागेश ज्योतिर्लिंग हैं । आगम-निगम और पुराणों के आधार पर यह सत्य प्रतीत होता है । समुद्र मंथन में मंदराचल पहाड़ में वासुकि नाग का प्रयोग रस्सी के रूप में किया गया था, जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी भी मंदराचल पर्वत पर मौजूद है । 

भगवद्गीता के दसवें अध्याय में भगवान कृष्ण कहते हैं :

“आयुधानामहं   वज्रं   धेनूनामस्मि   कामधुक्‌ । 

प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः  सर्पाणामस्मि वासुकिः ॥” (28)

अर्थात मैं सर्पों में ‘ वासुकि ’ हूं । इस प्रकार भगवान शिव के साथ-साथ भगवान विष्णु से भी बासुकिनाथ धाम का संबंध बताया जाता है । 

दैनिक जागरण ( 24 सितंबर 2019 ) से हमें पता चलता है कि फौजदारी बाबा के रूप में प्रसिद्ध भोलेनाथ की नगरी में शिव और शक्ति की पूजा का अद्भुत सामंजस्य दिखता है । माता की पूजा को लेकर इस नगरी में गजब का हर्षोल्लास व उमंग दिखती है । समस्त नगरवासी माता के आगमन पर जहां प्रसन्नता से उनका स्वागत करते हैं, वहीं माता के विसर्जन पर बेटी की विदाई-सा गमगीन माहौल बन जाता है । देवनगरी में शिव और शक्ति की पूजा का जैसा  सामंजस्य दिखता है वह अन्यत्र विरले ही देखने को मिलता है । यहां बासुकिनाथ के आसपास माता भगवती के दर्जनों प्राचीन मंदिर हैं । इसका एक कारण यह हो सकता है कि वैसे भी भारत के पूर्वी हिस्से में देवी पूजा का बड़ा महत्व है, पर यह स्थान तो बंगाल से सटा हुआ है । इसलिए यहां देवी पूजा का कहीं अधिक प्रचलन है । 

मलूटी में विश्व धरोहर 

जिस दिन मेरा दुमका दौरे का कार्यक्रम बना उसी दिन से मैं इंटरनेट पर वहां के महत्वपूर्ण स्थल ढूंढने लगा । प्रत्येक साइट पर मुझे दो पर्यटक स्थल मिले  — बासुकिनाथ धाम और मलूटी गांव । बासुकिनाथ का तो वर्णन पहले ही किया जा चुका है, अब मलूटी गांव का वर्णन किया जा रहा है । इस संदर्भ में सर्वप्रथम यह बताना आवश्यक है कि जिन मित्रों ने मुझे दुमका के बारे में बताया उनमें से किसी ने भी मलूटी गांव के बारे में नहीं बताया । यहां तक कि मेरे एक विद्वान मित्र जो धनबाद के रहने वाले हैं उन्हें भी इस गांव के विषय में कोई ज्ञान नहीं था । तात्पर्य यह कि हमारी पूरी शैक्षणिक और सांस्कृतिक व्यवस्था ऐसी बना दी गई है कि हम जिन स्थानों पर गर्व कर सकते हैं उनके विषय में हमें बताया ही नहीं जाता । इससे पता चलता है कि हमारी संपूर्ण व्यवस्था कितनी उदासीन और समाज से किस सीमा तक असंपृक्त है !  जब हम वहां पहुंचे तो हमें सबसे पहले एक चमकता-दमकता सिंहद्वार दिखा, जिसे हाल में ही बनाया गया था । इस द्वार में प्रवेश करते ही दाहिनी ओर एक पुराना मंदिर है और सामने है मौलीक्षा मां का मंदिर, जिसमें लगा कि हर समय अच्छी-खासी भीड़ रहती होगी । दोपहर के समय भी पंक्तिबद्ध श्रद्धालु देवी पूजा के लिए अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे । चमकते हुए लाल रंग की मौलीक्षा मां की मूर्ति है । स्थानीय लोगों में मौलीक्षा मां का बड़ा महात्म्य है । इन्हें माता महाजननी और ‘ बड़ी मां ’ भी कहा जाता है । 

मुझे वहां के एक स्थानीय — समीर कुमार साहा मिले, जिन्होंने एक लघु पुस्तिका “ बंगाल की सीमा पर पुरातत्व के आलोक में मलूटी ” लिखी है । यह पुस्तक मूलतः बांग्ला में लिखी गई और बाद में इसका हिंदी एवं अंग्रेजी में अनुवाद किया गया । पुस्तक की हिंदी अत्यंत दोषपूर्ण है । फिर भी इससे कुछ जानकारी मिलती है । साहा के अनुसार, मौलीक्षा माता के प्रकट होने की कथा कुछ इस प्रकार है :

“ मलूटी के राजपरिवार के निवास स्थान के चयन के लिए काशी स्थित सुमेरु मठ के दंडी स्वामी द्वितीय सर्वानंदतीर्थ महाराज सन 1676 में मलूटी बुलाए गए ।  गुरु महाराज को यह स्थान भा गया और इसके बाद घने वन की सफाई आरंभ हुई । सफाई करते समय लोगों ने एक मंदिर का भग्नावशेष देखा । उस मंदिर के मध्यस्थल में ऊंची वेदी पर विराजमान एक अद्भुत एवं सुंदर देवीमस्तक पाया गया, जो त्रिनयनी, हास्यमयी, अपरूपा और लाल मुखमंडल वाला था । इस देवी को देखकर गुरु महाराज ने राजपरिवार को निर्देश दिया कि ‘ चूंकि इस देवी का मुखमंडल लाल है तथा इसकी दृष्टि पश्चिम दिशा की ओर है और मूर्ति के पीछे कमल के पुष्प अंकित हैं, इसलिए यह देवीमूर्ति प्राचीन बौद्ध संन्यासियों की आराध्य ‘ देवी पांडोरा ’ हैं और इसे ध्यान में रखते हुए मौलिकता के आधार पर देवीमूर्ति की प्रतिष्ठा ‘ मौलिक्षा ’ के रूप में की जाए ।’ गुरु महाराज के निर्देश का पालन करते हुए मौलिक्षा मां ही देवी दुर्गा एवं सिंहवाहिनी मां के रूप में मलूटी राजवंश की प्रतिष्ठित राजकुल देवी हुईं । कालांतर में कहते हैं कि मौलिक्षा नाम का सहज अर्थ भी लोगों में प्रचलित हो गया । ‘ मौली ’ शब्द का अर्थ मस्तक होता है और ‘ ईक्षा ’ का अर्थ होता है दर्शन करने की अभिलाषा । इस प्रकार जिस मस्तक को देखने की अभिलाषा हो, वही  ‘ मौलीक्षा ’ है ।”

चूंकि मौलीक्षा मां का केवल मुखमंडल ही देखा जा सकता है, इसलिए यह नाम अधिक अर्थपूर्ण प्रतीत होता है । मौलीक्षा मां के मंदिर के महत्व के विषय में रश्मि शर्मा बताती हैं कि यह सि‍द्धपीठ है और यह मंदि‍र बंगाल शैली की स्‍थापत्‍यकला का श्रेष्ठ नमूना है ।

मलूटी राजवंश के अन्यतम संन्यासी राजा राखड़चंद्र ने मौलीक्षा मंदिर का निर्माण किया और आगे चलकर विष्णुपुर ( बंगाल ) के शिल्पकारों को लाकर मौलीक्षा मां के मंदिर के सामने दो शिवमंदिर बनवाए । बाद में राजपरिवार चार हिस्सों में विभक्त हो गया । परंतु अब चारों परिवारों में मंदिर निर्माण की होड़ लग गई । इसका परिणाम यह हुआ कि मलूटी एक सुंदर मंदिर ग्राम में रूपांतरित हो गया और देखते-ही-देखते 108 मंदिरों की स्थापना हो गई । इनमें अधिकतर शिवमंदिर हैं । किंतु दुर्गा मंदिर, काली मंदिर, नारायण मंदिर आदि भी हैं । चूंकि दंडी स्वामी शिव की काशी नगरी से आए थे, इसलिए मलूटी ग्राम भी उनसे प्रभावित हुआ और इस प्रकार एक नई काशी की रचना हुई । परंतु उन दिनों मलूटी ग्राम के मंदिरों के विषय में बाहर के लोगों को पता नहीं था, इसलिए इसे ‘ गुप्त काशी मलूटी ’ भी कहा जाता था ।

मंदिर की स्थापत्यकला को लेकर साहा लिखते हैं कि प्राचीन युग की विस्मयकारी सृष्टि टेराकोटा ( पकाई गयी मिट्टी से बनाई गयी कलाकृति ) शिल्प अपने-आप में एक अनूठी शिल्प शैली है और इसी टेराकोटा शिल्प शैली से निर्मित हैं मलूटी के विख्यात मंदिर । कई मंदिर तो काल का ग्रास बन चुके हैं और इस प्रकार 108 में से केवल 72 मंदिर ही अंशत: अपने मूल रूप में विराजमान हैं । मंदिरों के मुख्य भाग की दीवार पर टेराकोटा शैली में राम-रावण युद्ध, महिषासुरमर्दिनी, रामायण-महाभारत की विभिन्न घटनाएं और आंचलिक व सामाजिक जीवन इत्यादि की झांकियां उकेरी गई हैं । दीवारों पर अंकित ये दृश्य रोमांचकारी और विस्मयकारी तो हैं ही साथ ही इन्हें देखकर लगता है कि इनका निर्माण हाल में ही हुआ होगा । वास्तव में दीवारों पर की गई नक्काशी की लालिमा किसी को भी सोचने पर विवश कर देती है कि इन अद्वितीय कीर्तियों का निर्माण हाल की ही बात होगी ।

मलूटी गांव स्थित मंदिरों के विषय में रश्मि शर्मा का कहना है कि ये मंदिर स्थापत्यकला का बेजोड़ नमूना हैं । रश्मि शर्मा आगे लिखती हैं :

“ मंदिरों में टेराकोटा इसकी खूबसूरती में चार चांद लगाता है । मलूटी के मंदि‍रों में कि‍सी एक स्‍थापत्‍य शैली का अनुकरण नहीं कि‍या गया है । पूर्वोतर भारत में प्रचलि‍त लगभग सभी प्रकार की शैलि‍यों के नमूने हमें यहां दि‍खे ।  मलूटी के अधिकांश मंदिरों के सामने के भाग के ऊपरी हिस्से में संस्कृत या प्राकृत भाषा में प्रतिष्ठाता का नाम व स्थापना तिथि अंकित है । इससे पता चलता है कि इन मंदिरों की निर्माण अवधि वर्ष 1720 से 1845 के भीतर रही है । हर जगह करीब 20-20 मंदिरों का समूह है । हर समूह के मंदिरों की अपनी ही शैली और सजावट है । शि‍खर मंदि‍र, समतल छतदार मंदि‍र, रेखा मंदि‍र यानी उड़ीसा शैली और रास मंच या मंच शैली के मंदि‍र । ज्‍यादातर मंदि‍रों में शि‍वलिंग स्‍थापि‍त  थे । मंदि‍र में प्रवेश करने के लि‍ए छोटे-छोटे द्वार बने हुए हैं । सभी मंदि‍रों के सामने के भाग में नक्‍काशी की गई है । वि‍भि‍न्‍न देवी-देवता के चि‍त्र और रामायण के दृश्य बने हुए हैं ।”

आगे के चित्रों में देखा जा सकता है कि किस प्रकार मंदिर के द्वार के ऊपर और स्तंभों पर अनेक धार्मिक घटनाएं एवं सामाजिक जीवन की झलकियां तथा फूल-पत्तियां उकेरी गई हैं । शिल्पकारों ने इतनी बारीकी और खूबसूरती से इन चित्रों को दीवारों पर अंकित किया है कि ये कृतियां अद्वितीय बन गई हैं । 

चित्र 1 : राम-रावण का युद्ध व अन्य घटनाओं का चित्रण 

राम-रावण का युद्ध व अन्य घटनाओं का चित्रण

चित्र 2 : राम-रावण का युद्ध एवं पुष्पचित्रण 

राम-रावण का युद्ध व पुष्पचित्रण

रवि प्रकाश हमें बताते हैं कि इन मंदिरों में 58 शिव मंदिर हैं, जबकि शेष 15 मंदिर दूसरे देवी-देवताओं के हैं । इनमें से सबसे ऊंचा मंदिर 60 फीट और सबसे छोटा 15 फीट का है । इनमें 30 मंदिर टेराकेटा शैली के हैं । बाद के दिनों में ग्रामीणों ने भी आठ नए मंदिर बनवाए । गांव की महिलाएं सुबह-शाम इनमें पूजा करती हैं । इन मंदिरों में कई जगह टूटे लेकिन विशालकाय शिवलिंग हैं । इन खंडित शिवलिंगों की अब पूजा नहीं होती । 108 मंदिरों के अतिरिक्त इस गांव की एक और विशेषता यह है कि यहां 108 तालाब भी बनाए गए । मुझे तो बहुत सारे तालाब नहीं दिखे, किंतु चमकते-दमकते 108 मंदिर और 108 ही पानी से लबालब भरे तालाब वाले गांव के उस अद्भुत व मनोहारी दृश्य की कल्पना मात्र से ही मन रोमांचित हो जाता है । कितना सुंदर लगता होगा तब यह गांव !  

मलूटी के विषय में गरिमा सिंह लिखती हैं कि झारखंड राज्य का यह गांव ऐसा है जहां माला के मोतियों के बराबर 108 मंदिर हैं । भक्तों को रिझाते और पर्यटकों को आकर्षित करते ये मंदिर सदियों से ऐसे ही खड़े हैं । हालांकि समय की मार और देखभाल के अभाव में अब इनकी रंगत कम हो गई है और संख्या भी । इन मंदिरों के कारण ही यह क्षेत्र विश्वभर में प्रसिद्ध है । गरिमा सिंह आगे बताती हैं कि इस गांव का राजा कोई शाही परिवार का मुखिया नहीं बल्कि बसंत नाम का एक किसान था, जिसे बंगाल के तत्कालीन सुल्तान हसन शाह ने यह गांव खुश होकर ईनाम में दिया था । 

चित्र 3 : तत्कालीन जीवन व पुष्पचित्रण 

सामाजिक जीवन व पुष्प चित्रण

गांव का मालिक बनने पर बसंत को राजा बसंत कहा जाने लगा और बाज पकड़ने के कारण इसके नाम में बाज जुड़कर, इसका नाम राजा बाज बसंत पड़ा । दरअसल, एक बार सुल्तान की बेगम का पालतू बाज उड़कर दूर चला गया । इस पर किसान बसंत ने पिंजरे से उड़े बाज को पकड़कर वापस बेगम को लौटा दिया । बसंत की इस बहादुरी से खुश होकर सुल्तान ने उसे मलूटी गांव ईनाम में दिया । बसंत ने इस गांव में कोई महल या हवेली न बनवाकर मंदिरों का निर्माण किया । एक माला में 108 मोती होते  हैं । इन्हीं मोतियों की संख्या के आधार पर बसंत ने गांव में मंदिर बनाए । पर देखरेख और संरक्षण के अभाव में अनेक मंदिर खंडहर हो गए हैं या ढह गए हैं । 

रवि प्रकाश हमें बताते हैं कि 2015 के गणतंत्र दिवस समारोह में झारखंड सरकार ने 108 मंदिरों वाले गांव मलूटी की झांकी प्रस्तुत की थी, जिसे द्वितीय पुरस्कार मिला था और इस बहाने देशभर के लोग मलूटी से भी परिचित हुए थे । उसी साल 2 अक्टूबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दुमका आए तो उन्होंने मलूटी के जीर्णोद्धार की शुरुआत की । तब लगा कि इस सरकारी पहल से मलूटी का कायाकल्प होगा । लेकिन मलूटी के लोग नाराज हैं । उन्हें जीर्णोद्धार के तौर-तरीके पर आपत्ति है । उनका कहना है कि उनके गांव के इतिहास और मंदिरों के वर्तमान स्वरूप से खिलवाड़ किया जा रहा है । एक ग्रामीण ने रवि प्रकाश को बताया कि, “ देखिए, ये लोग जिस तरीके से मंदिरों का जीर्णोद्धार कर रहे हैं, उससे इनका मौलिक स्वरूप ही बदल   जाएगा । कई सौ साल पहले बने इन मंदिरों के निर्माण में सुरखी ( पक्की ईंटों का बारीक बुरादा ) और चूने का उपयोग किया गया था । अब जीर्णोद्धार के नाम पर इन मंदिरों को सीमेंट और ईंटों के टुकड़ों से जोड़ा जा रहा है । इनका रंग भी बदल दिया गया है । अब जब मंदिरों का स्वरूप ही बदल जाएगा तो लोग यहां क्या देखने आएंगे । इसलिए इन मंदिरों का जीर्णोद्धार तत्काल रोका जाना चाहिए ।”

जिस प्रकार से मंदिरों का जीर्णोद्धार हो रहा है उससे रश्मि शर्मा भी असहमत हैं । वह लिखती हैं कि, “ इससे मंदि‍रों का रूप-रंग बि‍ल्‍कुल बदला हुआ लगा । जो पुरानी पहचान है, जो मौलि‍कता है वह खो गई है । टेराकोटा कला का अस्‍ति‍त्‍व मि‍टा हुआ था । बि‍ल्‍कुल नया-सा लगा और आर्कषणहीन । इस तरह मौलि‍कता समाप्‍त कर संरक्षण करने का क्‍या फायदा ? बि‍ल्‍कुल नये मंदि‍रों-सा दि‍ख रहा ।” नीचे के चित्र में देखा जा सकता है कि किस प्रकार मंदिर का जीर्णोद्धार हो रहा है ।

मलूटी के मंदिरों पर लंबे समय से शोध कर रहे 82 वर्षीय गोपालदास मुखर्जी ने रवि प्रकाश को बताया कि वह इन मंदिरों के जीर्णोद्धार के काम में भारतीय पुरातत्व विभाग की भागीदारी चाहते हैं । उनका मानना है कि अगर पुरातत्व विभाग इनका जीर्णोद्धार करे, तो मंदिरों का मूल स्वरूप कायम रह सकेगा । उन्होंने यह भी बताया कि 1979 में उन्होंने भागलपुर के तत्कालीन कमिश्नर से मंदिरों को पुरातत्व विभाग से संरक्षित कराने की मांग की थी । बाद में पुरातत्व विभाग ने यहां काम भी किया । लेकिन अब पुरातत्व विभाग यह काम नहीं कर रहा है ।

चित्र 4 : बाहरी दीवार पर अद्भुत चित्रण सहित संपूर्ण मंदिर

अद्भुत चित्रण सहित ssasansanpsanposanpoosanpoorsanpoornसंपूर्ण मंदिर

मैंने स्वयं जीर्णोद्धार हो रहे एक मंदिर को देखकर यही अनुभव किया कि जिस तरह से यह काम किया जा रहा है उससे अच्छा तो यही होगा कि मंदिरों को यूं ही छोड़ दिया जाए । बाद में एक स्थानीय अधिकारी ने मुझे बताया कि असल में झारखंड सरकार ने इस काम को किसी गैर-सरकारी संस्था को सौंप दिया है, जो बिल्कुल नौसिखिया है । इसने पतली-पतली ईंटों को मंदिर से निकालकर उनके स्थान पर आज की मोटी-मोटी ईंटें लगाई हैं, जिससे मंदिर का स्वरूप और सौंदर्य दोनों समाप्त हो गए हैं । पर इससे भी बड़ी बात यह है कि दर्जन भर मंदिरों की छतों और दीवारों पर बड़े-बड़े पेड़-पौधे उग आए हैं, जिनकी जड़ें इन मंदिरों को अंदर से खोखला कर रही हैं । यदि किसी तरह केवल इन पेड़-पौधों को हटा दिया जाए तो भी मंदिरों की आयु बढ़ जाएगी । आगे के चित्र में मंदिर की छत पर उगे हुए पेड़-पौधे देखे जा सकते हैं ।साथ ही इन मंदिरों की सुरक्षा के लिए चारदीवारी भी खड़ी करनी  होगी । हमें बताया गया कि रात में यहां अंधेरा रहता है । इसलिए पर्याप्त रौशनी की व्यवस्था करना भी आवश्यक है । इसी के साथ सीसीटीवी कैमरों का लगाया जाना भी आवश्यक है । 

चित्र 5 : मंदिर का जीर्णोद्धार 

जीर्णोद्धार कार्य जारी

चित्र 6 : मंदिर पर उगे पेड़-पौधे 

मंदिर पर उग आए पेड़-पौधे

मलूटी गांव के विषय में रवि प्रकाश बताते हैं कि मलहूटी के नाम से जाना जाने वाला गांव अब मलूटी कहा जाता है । शिकारीपाड़ा प्रखंड के इस गांव में 350 घर हैं । यहां करीब 2500 लोग रहते हैं । इनकी भाषा बांग्ला है । रश्मि शर्मा बताती हैं कि यह गांव झारखंड और बंगाल की सीमा पर है और यहां की भाषा बांग्ला मि‍श्रि‍त हिंदी है । हम जब इस गांव में प्रविष्ट हुए तो सर्वत्र बांग्ला भाषा देखकर आश्चर्यचकित रह गए । पल भर के लिए तो मुझे लगा कि कहीं हम बंगाल में तो नहीं आ गए हैं । यहां के लोगों की बातचीत की भाषा भी बांग्ला ही है । वास्तव में, जैसा कि रवि प्रकाश बताते हैं, पहले यह गांव बंगाल के बीरभूम जिले का हिस्सा हुआ करता था । इसलिए अब यहां के अधिकतर लोग कोलकाता या रामपुरहाट जाकर बस गए हैं । गांव में वही लोग हैं जो या तो यहां खेती-मजदूरी करते हैं या फिर नौकरी । अतः काली पूजा जैसे आयोजनों पर ही गांव पूरी तरह से गुलजार होता है । मैंने स्वयं यहां कई बड़े -बड़े दो मंजिला घर देखे जो खंडहर प्रतीत हुए । पूछने पर पता चला कि घर वाले बाहर रहते हैं और केवल काली पूजा के समय ही अपने गांव आते हैं ।

कितने महत्वपूर्ण हैं ये मंदिर ? इसका उत्तर देते हुए रवि प्रकाश बताते हैं कि हेरिटेज ( धरोहर ) पर काम कर रही संस्था ‘ ग्लोबल हेरिटेज फंड ’ ने वर्ष 2010 में मलूटी के मंदिरों को विश्व के 12 सर्वाधिक लुप्तप्राय धरोहरों की सूची में शामिल किया था । इस सूची में भारत से शामिल होने वाली यह इकलौती धरोहर है । अब झारखंड सरकार ने भी मलूटी को यूनेस्को की विश्व धरोहरों की सूची में शामिल कराने का प्रयास शुरू किया है । कोई आश्चर्य नहीं कि रश्मि शर्मा इस मंदिरों वाले गांव को अद्भुत स्‍थान मानती हैं और सुझाव देती हैं कि यदि इसे पर्यटक क्षेत्र के रूप में वि‍कसि‍त किया जाए तो यह झारखंड को अलग पहचान देगा । पर अभी यह गांव ही है । इसलिए यहां रहने की कोई व्‍यवस्‍था नहीं है । यदि किसी को रुकना हो तो आगे तारापीठ में कई होटल हैं या दुमका या रामपुर में ही रुकने की व्यवस्था है ।

यह हमारे देश की कैसी विडंबना है कि ग्लोबल हेरिटेज फंड द्वारा वर्ष 2010 में मलूटी के मंदिरों को विश्व की 12 सर्वाधिक लुप्तप्राय धरोहरों की सूची में शामिल करने के बावजूद भी किसी ने इस गांव की सुध नहीं ली और न इस गांव की प्रसिद्धि में ही कोई बढ़ोतरी हुई । इसके लिए और पांच वर्ष प्रतीक्षा करनी पड़ी जब 2015 के गणतंत्र दिवस समारोह में राज्य सरकार द्वारा दिल्ली में इसकी झांकी प्रस्तुत की गई । रश्मि शर्मा मानती हैं कि झांकी को पुरस्कृत किए जाने के बाद यह गांव पर्यटन मानचित्र पर आया । पर इससे भी बात उतनी नहीं बनी । बात तब बनी जब प्रधानमंत्री ने इस गांव का दौरा किया । मुझे भी इस गांव पर जितना साहित्य मिला है, सब-का-सब 2015 के बाद का ही है । फिर भी लगता है कि इतना सब कुछ भी पर्याप्त नहीं है । वास्तव में इसके लिए राज्य और केंद्र सरकारों द्वारा निरंतर प्रचार करने की आवश्यकता है ।

मलूटी गांव बिल्कुल साधारण गांव है और वहां भी दुमका या झारखंड के अन्य जिलों की तरह कच्ची दीवारों और फूस की छत वाले घर हैं । कहीं-कहीं मिट्टी की दीवारों वाले दो-मंजिला घर भी हैं । गांव के अंदर पतली-पतली गलियां हैं । घर की दीवारों पर गोबर का गोइठा सूखता रहता है । वैसे मिट्टी की दीवारों और फूस की छत वाले घर पर्यावरण और स्वास्थ्य के अनुकूल तो होते हैं, परंतु इनकी मरम्मत और रख-रखाव बहुत कठिन होता है । और आजकल इस काम के लिए कारीगरों और मजदूरों की कमी हो रही है । इसलिए आने वाले समय में ऐसे घरों के निर्माण और मरम्मत का काम कठिनतर होता जाएगा । अतः पक्के घर बनाना ही श्रेयस्कर होगा ।

मलूटी के मंदिरों और मलूटी गांव के बाद इन मंदिरों का निर्माण करने वाले राजाओं का उल्लेख न करना उनके प्रति बहुत बड़ा अन्याय होगा । अब मलूटी के मंदिरों की चर्चा तो होने लगी है, किंतु उन राजाओं की चर्चा नहीं होती जिन्होंने ऐसे अविस्मरणीय और अद्भुत मंदिर बनवाए हैं । वास्तव में इन राजाओं पर गहन शोध होना चाहिए कि ऐसा क्या था उनके व्यक्तित्व में कि वे इतने नि:स्वार्थी, परोपकारी और सामाजिक थे । हमारे शास्त्रों में       “ परोपकार: पुण्याय ” का उल्लेख है । इस प्रकार परोपकार करना ही पुण्य है । उस समय मंदिर संपूर्ण समाज के लिए शिक्षा, संस्कार और धर्म का केंद्र होते थे । अतः उन राजाओं की धार्मिक एवं सामाजिक निष्ठा की जितनी प्रशंसा की जाए कम होगी । सामान्यतया हम यही सुनते और पढ़ते आए हैं कि राज्य प्राप्त करने के लिए राजा रक्त बहाते हैं और राज्य प्राप्ति के उपरांत अपनी दैहिक सुख-सुविधा का सामान इकट्ठा करते हैं । परंतु मलूटी के एक के बाद एक राजा ने न तो अपने लिए महल या हवेली ही बनवाई और न ही वे अन्य सुविधाओं के पीछे भागे । पूरी तरह समाज के लिए जीवन जीने का ऐसा उदाहरण शायद ही कहीं मिलेगा !  मलूटी के राजा राखड़चंद्र के विषय में साहा बताते हैं कि वह बड़े ही धार्मिक, निष्ठावान और भोग-विलासिता से मुक्त एक लोकप्रिय राजा थे । कोई आश्चर्य नहीं कि इन्हें लोग संन्यासी राजा भी कहा करते थे ।

इतने मंदिरों और तालाबों के निर्माण के बारे में जानकर हम बड़ी सहजता से इस परिणाम पर पहुंच सकते हैं कि अतीत में यह गांव समृद्ध रहा होगा । अन्यथा इतने बड़े पैमाने पर निर्माण के लिए धन का संग्रह नहीं हो पाता । साथ ही बड़ी संख्या में उत्कृष्ट कोटि के शिल्पकार और प्रकांड पंडित इस महती कार्य में लगाए गए होंगे, जो उस समय के लिए किसी भी प्रकार से कम चुनौतीपूर्ण कार्य नहीं रहा होगा । इस प्रकार यह कितनी बड़ी विडंबना है कि हम उन महान आत्माओं के विषय में बिल्कुल ही नहीं जानते, जिन्होंने ऐसे अनूठे, ऐतिहासिक और लोकहितकारी कार्य किए हैं ! अतः सरकार तथा स्वतंत्र शोधकर्ताओं का यह पुनीत कर्तव्य है कि वे इन राजाओं के विषय में यथासाध्य सामग्री एकत्रित करके शोध करें और समाज को बताएं । 

इस गांव में ही हमें बताया गया कि यहां से केवल 18 किलोमीटर की दूरी पर काली मां का एक प्रसिद्ध मंदिर अर्थात तारापीठ है, जो बंगाल के बीरभूम जिले के रामपुरहाट प्रमंडल में है और रामपुरहाट शहर के निकट है । इसलिए हमसे कहा गया कि हमें तारापीठ के दर्शन करने चाहिएं । पहली बार तो यह विचार सुनकर अच्छा लगा कि मैं आया तो झारखंड हूं, पर कितना अच्छा होगा कि इधर से बंगाल भी देख सकूंगा । लेकिन दूसरे ही पल मन में यह विचार आया कि क्या पता कितना समय लगे और हमें लौटते-लौटते कहीं बहुत देर न हो जाए । फिर भी स्थानीय अधिकारियों ने जोर दिया कि पास ही है, इसलिए हमें चलना चाहिए । थोड़ी ही देर में हमारी गाड़ी बंगाल में प्रविष्ट हुई और सड़क पर सरपट दौड़ने लगी । अगल-बगल के घरों को देखकर तत्क्षण महसूस हुआ कि बंगाल का यह क्षेत्र झारखंड के दुमका जिले से कहीं अधिक संपन्न है ।  तारापीठ से लगभग दो किलोमीटर पहले से ही ऐसी-ऐसी इमारतें दिखनी शुरू हुईं कि लगा जैसे किसी बड़े शहर की झांकी हो । थोड़ी देर बाद तो ऐसी इमारतों की लंबी और अंतहीन-सी शृंखला आरंभ हुई । वास्तव में तारापीठ इस सीमा तक प्रसिद्ध है कि यहां सैकड़ों की संख्या में बड़े-बड़े आलिशान होटल और लॉज हैं । इसको देखकर किसी बड़े शहर का भ्रम होता है । परंतु यहां तारापीठ के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है । इस तरह केवल तारापीठ की लोकप्रियता या महात्म्य इतना है कि हजारों की संख्या में श्रद्धालु खिंचे चले आते हैं और जिनके कारण यहां इतने सारे होटल और लॉज चलते हैं । बहुत कम ही ऐसे स्थान होंगे जहां एक मंदिर के कारण इतनी बड़ी संख्या में लोग न केवल रोजगार पाते होंगे, वरन शहर में रूपांतरित भी हो जाते होंगे ।

दुमका के मलूटी गांव से तारापीठ की किसी भी प्रकार तुलना नहीं की जा सकती ।  मलूटी गांव अपनी वैश्विक धरोहर के बावजूद एक गांव मात्र है । न तो वहां कोई आधारभूत सुविधा है और न ही कोई उल्लेखनीय चहल-पहल । इस प्रकार एक ओर अति समृद्ध और अति आधुनिक शहर है तो दूसरी ओर अति निर्धन और मध्यकालीन गांव । जबकि सच यह है कि मलूटी गांव के मंदिर न केवल वैश्विक धरोहर हैं, वरन मौलीक्षा मां तारापीठ से श्रेष्ठ मानी जाती हैं । साहा के अनुसार, सदियों पहले वामदेव नामक एक प्रतिष्ठित संत ने मौलीक्षा देवी को ‘ बड़ी मां ’ और तारा देवी को ‘ छोटी मां ’ कहा था । इसलिए आज भी इन दोनों देवियों को क्रमशः बड़ी मां और छोटी मां ही कहा जाता है । स्पष्ट है कि मौलीक्षा मां का कहीं अधिक महात्म्य है । फिर भी इनकी ओर रुख करने वाले लोग अत्यल्प हैं । अतः मलूटी के पिछड़ने का सर्वप्रधान  कारण आधारभूत सुविधाओं का घोर अभाव है । इसके अतिरिक्त एक कारण यह भी है कि शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में बंगाली बहुत आगे हैं और इसलिए वे अपने तीर्थस्थानों की यात्रा करना अपना पुनीत कर्तव्य मानते हैं । जबकि झारखंड के लोगों में वैसी बात नहीं है । 

पर झारखंड में और विशेषकर मलूटी जैसे प्रसिद्ध स्थानों पर आधारभूत सुविधाओं को लेकर स्वाभाविक रूप से दुमका के अधिकारियों से मेरी बातचीत होने लगी । इन अधिकारियों से पता चला कि पूरे झारखंड में छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम और संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम लागू हैं । इन अधिनियमों के कारण किसी आदिवासी की भूमि कोई गैर-आदिवासी नहीं खरीद सकता । अतः इससे विकास कार्यों में व्यवधान पड़ता है, क्योंकि दुकान, होटल, रेस्तरां, मॉल, उद्योग-धंधे, आवास आदि के लिए सहजता से भूमि नहीं मिल पाती है । ऐसी ही बात बासुकिनाथ धाम और बाद में छिन्नमस्तिका देवी मंदिर को लेकर भी हुई । अतः दूसरे आलेख — “ झारखंड के काश्तकारी कानून : विकास अवरोधक व समाज विभाजक ”  में इस विषय पर पर्याप्त विमर्श किया गया है । 

छिन्नमस्तिका देवी मंदिर 

दुमका से रांची लौटते हुए रास्ते में ही रामगढ़ जिले के रजरप्पा स्थान पर देवी छिन्नमस्तिका के दर्शन किए ।  मंदिर अत्यंत रमणीक स्थान पर है । बिल्कुल पास ही नदी बहती है । नदी क्या यह दो नदियों का संगम है । जब हम पहुंचे तो नदी में अच्छा-खासा पानी था । मंदिर के पास नदी की बहती धारा देख कर मन प्रसन्न हो गया । वैसे सामान्यतः मंदिर ऊंचे स्थान पर होता है, पर यहां की स्थिति दूसरी है । आप ऊंचाई से नीचे की ओर सीढ़ियों से उतरते हैं और फिर आप मंदिर तक पहुंचते हैं । ऐसा ही मुझे उज्जैन के महाकाल मंदिर में भी देखने को मिला । वहां शिवलिंग गहराई में है । 

प्रज्ञा पांडेय लिखती हैं कि देवी छिन्नमस्ता दसमहाविद्या में से छठवीं महाविद्या हैं । छिन्नमस्ता देवी को चिंतपूर्णी भी कहा जाता है । अर्थात मां छिन्नमस्ता चिंताओं का हरण करने वाली हैं । उनके इस रूप का उल्लेख शिव पुराण और मार्कण्डेय पुराण में भी देखने को मिलता है । देवी चंडी ने राक्षसों का संहार कर देवताओं को विजय दिलायी । देवी के गले में हड्डियों की माला है और कंधे पर यज्ञोपवीत । शांत भाव से देवी की आराधना करने पर देवी शांत स्वरूप में प्रकट होती हैं । लेकिन उग्र रूप में पूजा करने से उग्र रूप धारण करती हैं । दिशाएं इनके वस्त्र हैं । देवी छिन्नमस्ता की नाभि में योनि चक्र पाया जाता है । छिन्नमस्ता देवी का ‘ वज्र वैरोचनी ‘ नाम जैन, बौद्ध और शाक्तों में समान रूप से प्रचलित है । देवी स्वयं कमल के पुष्प पर विराजमान हैं जो विश्व प्रपंच का द्योतक है । 

प्रज्ञा पांडेय देवी की कथा भी कहती हैं । एक बार देवी अपनी सखियों के साथ स्नान करने गयीं । तालाब में स्नान के बाद उनकी सखियों को भूख लगी । उन्होने देवी से कुछ खिलाने को कहा । सखियों की इस बात पर देवी ने उन्हें प्रतीक्षा करने को कहा । लेकिन सखियों ने उनकी बात नहीं मानी और भोजन के लिए हठ करने लगीं । तब देवी ने अपने शस्त्र से अपनी गर्दन काट कर तीन धाराएं निकालीं । उनमें से दो से सखियों की प्यास बुझायी और तीसरी से उनकी प्यास बुझी । देवी की ये दो सखियां रज और तम गुण की परिचायक हैं । तभी से वह छिन्नमस्ता के नाम से प्रसिद्ध हैं । देवी दुष्टों के लिए संहारक और भक्तों के लिए दयालु हैं । आभा सेन भी कुछ इसी तरह की बात लिखती हैं कि जब देवी ने चंडी का रूप धरकर राक्षसों का संहार किया, दैत्यों को परास्त करके देवों को विजय दिलवाई तो चारों ओर उनका जयघोष होने लगा । परंतु देवी की सहायक योगिनियां ( सखियां ) अजया और विजया की रुधिर पिपासा शांत नहीं हो पाई थी । इस पर उनकी रक्त पिपासा को शांत करने के लिए मां ने अपना मस्तक काटकर अपने रक्त से उनकी प्यास बुझाई । इससे माता को छिन्नमस्तिका नाम से भी पुकारा जाने लगा । माना जाता है कि जहां भी देवी छिन्नमस्तिका का निवास होता है, वहां पर चारों ओर भगवान शिव का स्थान भी होता है । छिन्नमस्ता देवी का मंदिर असम के कामख्या मंदिर के बाद विश्व का दूसरा सबसे बड़ा शक्तिपीठ माना जाता है । रजरप्पा के भैरवी-भेड़ा और दामोदर नदी के संगम पर स्थित यह मंदिर लाखों लोगों की आस्था से जुड़ा हुआ है । यहां केवल मां छिन्नमस्ता का ही मंदिर नहीं है, बल्कि शिव मंदिर, सूर्य मंदिर और बजरंग बली सहित सात और मंदिर हैं ।

मुझे याद है कि बचपन में मैं बसों, ट्रकों और अन्य वाहनों पर ‘ जय छिन्नमस्तिके ’ लिखा देखा करता था । तब झारखंड नहीं बना था और यह क्षेत्र बिहार का ही हिस्सा था, इसलिए संभवतः लोग श्रद्धा और गर्व से ‘ जय छिन्नमस्तिके ’ लिखा करते थे । पर अब नहीं लिखते । कभी-कभी सोचता हूं कि कैसे राजनीतिक विभाजन का प्रभाव संस्कृति पर भी पड़ता है । तब मैं छिन्नमस्तिका देवी से पूरी तरह अपरिचित था ।  अभी पिछले वर्ष की बात है कि श्री श्री रविशंकर जी के एक शिष्य के सत्संग में ज्ञात हुआ कि ‘ छिन्नमस्तिका ’ के पीछे एक गहरा दर्शन छुपा है । दर्शन यह है कि गुणदोष के आधार पर किसी भी व्यक्ति की जो छवि हमारे मन में बनती है उसका आधार उसका मुखमंडल ही होता है। यदि उस व्यक्ति के शरीर से उसका मुखमंडल हटा दिया जाए तो हम उस शरीर को गुणदोष के आधार पर नहीं देख    पाएंगे । इस प्रकार बिना सिर वाला धड़ गुणदोष से परे हो जाता है । ऐसा शरीर अहंकार से भी परे हो जाता है । इसके अतिरिक्त मेरा अनुमान है कि बिना रजो और तमो गुणों का दमन किए शांति नहीं मिल सकती । देवी की सखियां इन्हीं गुणों का प्रतीक थीं । सबसे बड़ी बात तो यह है कि देवी ने अपनी सखियों की रक्त पिपासा शांत करने के लिए स्वयं का उत्सर्ग कर दिया । इस प्रकार वह नहीं चाहती थीं कि ऐसे हिंसक लोग इस धरा पर रहें जो अपनी क्षुधा को शांत करने के लिए दूसरों की हत्या करें । श्री श्री रविशंकर जी के शिष्य को सुनते ही मेरा ध्यान बचपन में उन ट्रकों, बसों और अन्य वाहनों पर लिखे ‘ जय छिन्नमस्तिके ’ की ओर चला गया । जब मेरा दुमका दौरे का कार्यक्रम बना तो मेरे एक मित्र ने मुझे सलाह दी कि, “ आप मां छिन्नमस्तिके के मंदिर को अवश्य देखिए ।” 

इस प्रकार जब मैं इस मंदिर के सिंहद्वार के बाहर खड़ा हुआ तो लगा कि एक बड़ी अभिलाषा पूरी हो रही है । सीढ़ियां उतर कर हम नीचे को ओर बढ़े । एक स्थानीय ने हमसे हाथ-पैर धोने को कहा । हम नदी के पास गए । वहां से हाथ-पैर धोने के बाद हम देवी के मंदिर में प्रविष्ट हुए । चारों ओर फर्श पर पानी था । पता चला कि अभी ही मंदिर को धोया गया है । मुझे लगता है कि हमारे मंदिरों में पानी के अधिकाधिक प्रयोग पर रोक लगानी चाहिए । भगवान शिव के मंदिरों में भी जल चढ़ाने की प्रक्रिया को प्रतीकात्मक बनाया जा सकता है । इससे मंदिर अधिक साफ-सुथरा लगेगा । जब हम मंदिर में खड़े हुए तो दो पुजारी हमें पूजा कराने लग गए । देवी दुर्गा के मंत्रों का उच्चारण होने लगा । तभी मेरी बायीं ओर एक व्यक्ति एक छोटा और काला बकरा लेकर आ गया । बकरा देखते ही मेरा मन खिन्न हो गया । मैं समझ गया कि इसकी बलि चढ़ाई जाएगी और इसलिए बलि से पहले इसकी पूजा की जा रही है । उसके गले में फूलों की माला थी और गर्दन गीली थी । अब भी पुजारियों का मंत्रोच्चार जारी था, पर मेरा ध्यान भटक चुका था । मैं चाहता था कि कितनी जल्दी मैं इस मंदिर से बाहर निकलूं । थोड़ी देर में पूजा समाप्त हुई और मैं तेजी से बाहर निकलने लगा तभी मेरी दृष्टि सामने की दीवार पर पड़ी । उस दीवार में एक द्वार था जिस पर प्लास्टिक का पर्दा लटक रहा था । अचानक वह पर्दा थोड़ा-सा हटा और मैंने देखा कि वही बकरा छिटक कर दूर जाकर धड़ाम से गिरा । अब उसका सिर गायब था । पर उसके धड़ में अभी भी हलचल शेष थी । उसके धड़ से खून बह रहा था और पानी की तेज धार से उस स्थान को साफ किया जा रहा  था ।  अब मेरा मन और भी विचलित हो गया । मन में वितृष्णा का भाव भर गया । मेरे साथ जो लोग थे उनकी भावना को ठेस न लगे इसका ध्यान रखते हुए मैं बाहर की ओर तेजी से कदम बढ़ाने लगा । उनकी इच्छा कुछ अन्य मंदिरों को देखने की थी, परंतु मैंने समयाभाव का हवाला देते हुए मंदिर से बाहर निकलने पर जोर दिया ।

मुझे समझ में नहीं आता कि बलि प्रथा पर हम लगाम क्यों नहीं लगा सकते ? वैसे मैं स्वीकार करता हूं कि पहले की तुलना में इसमें कमी आई है और मैं जहां भी देवी मंदिर में जाता हूं बलि को लेकर पुजारी बचाव में दिखते हैं । यहां भी मैंने देखा कि बलि खुले में न होकर चारों ओर से बंद हॉलनुमा जगह में हो रही थी । फिर भी प्रश्न यह है कि बलि हो ही क्यों ? जिस ईश्वर ने मनुष्य को बनाया है उसी ने उस जीव को भी बनाया है जिसकी बलि दी जाती है । इस तरह मनुष्य और वह जीव एक ही परिवार के सदस्य हैं । फिर कैसे हम अपने परिवार के एक सदस्य की बलि चढ़ा कर ईश्वर को प्रसन्न कर सकते हैं ? वास्तव में प्रसन्न होने के स्थान पर ईश्वर दुखी ही होगा क्योंकि मनुष्य उसकी दूसरी संतान की हत्या करता है । मैं समझता हूं कि इस विषय पर बड़े-बड़े धर्माचार्यों को गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए । कितनी बड़ी विडंबना है कि जिस सनातन धर्म में ब्रह्मा को छोड़कर शेष सभी देवी-देवताओं का वाहन पशु हो और देवों के देव महादेव का तो नाम ही पशुपतिनाथ हो, उसी धर्म का सहारा लेकर पशु-हत्या की जाए । पल भर के लिए यदि हम उस देव सभा की कल्पना करें, जिसमें भगवान शंकर के साथ पार्वती अपने नंदी अर्थात बैल पर विराजमान हों, नीचे उनके दोनों पुत्र — गणेश और कार्तिकेय अपने-अपने वाहन क्रमशः चूहा और मोर पर आसीन हों और भगवान विष्णु, मां शारदा और माता लक्ष्मी क्रमशः अपने-अपने वाहन गरुड़, हंस तथा उलूक या उल्लू पर विराजमान हों और देवी दुर्गा अपने सिंह पर आसीन हों, तो देखिए कि कैसा विलक्षण दृश्य उपस्थित होता है । भगवान शंकर के गले में नाग लिपटा हुआ है । शिव स्तुति — शिवाष्टकम में ‘ तनौ सर्पजालं ’ कहा गया है । इस प्रकार शिव के गले में लिपटा यह सांप कार्तिकेय के वाहन मोर का आहार है और सांप का आहार है गणेश का वाहन चूहा । आगे देखिए कि भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ का भी आहार शिव के गले की शोभा सर्प है । देवी सरस्वती का हंस तो किसी भी मांसाहारी पशु का आहार हो सकता है । देवी लक्ष्मी का वाहन उलूक तो इतना छोटा-सा पक्षी है कि  किसी भी दूसरे पशु के हल्के प्रहार से देवलोक जा सकता है । देवी दुर्गा का सिंह तो इतना हिंस्र पशु है कि भगवान शिव के नंदी सहित सभी पशुओं को मार सकता है । परंतु इन पशुओं को देखिए कि अनादिकाल से बिना एक-दूसरे को कष्ट पहुंचाए ईश्वर के सानिध्य में शांति से जीवन जी रहे हैं । इसका अर्थ यह है कि ईश्वर के सानिध्य में उनकी पाश्विक प्रवृत्ति तिरोहित हो चुकी है । इसलिए जब ईश्वर के संसर्ग में रहकर ये पशु पशुवत व्यवहार नहीं करते, तो हम मनुष्य होकर, जो दिन-रात यह दावा करते नहीं थकते कि हम ईश्वर की कितनी आराधना करते हैं, मनुष्योचित व्यवहार भी नहीं कर पाते ! वैसे भी देखा जाए तो ये पशु हमारे देवी-देवताओं के साथ इस प्रकार जुड़े हैं कि हमारे धर्म में इनको परे हटाकर हम ईश्वर की कल्पना भी नहीं कर सकते । क्या बिना नाग और नंदी के भगवान शिव की कल्पना की जा सकती है । नंदी का तो इतना महात्म्य है कि शिव मंदिर से पहले ही नंदी मंदिर होता है और बिना नंदी को प्रसन्न किए श्रद्धालु शिव को प्रसन्न नहीं कर सकते । कोई आश्चर्य नहीं कि हमारे देश के शिल्पकारों ने नंदी की विलक्षण मूर्तियां बनाई   हैं । उदाहरण के लिए, हम मैसूरु के चामुंडी देवी मंदिर के पहले के नंदी और खजुराहो के महादेव मंदिर के सामने के नंदी को देख सकते हैं । इसी प्रकार हम मां सरस्वती को हंसवाहिनी और देवी दुर्गा को सिंहवाहिनी कहते हैं । तात्पर्य यह कि ईश्वर के साथ-साथ हम इन पशुओं को भी पूजते हैं, क्योंकि ये ईश्वरीय हैं । फिर कैसे हम इनकी हत्या कर सकते हैं और यदि करें तो देवता प्रसन्न कैसे हो सकते हैं ? आदि शंकाराचार्य की शिव स्तुति है — ‘ वेदसार शिवस्तव: ’, जिसके पहले श्लोक में लिखा है : ‘ पशूनां पतिं पापनाशं परेशं ’। इसका अर्थ है कि शिव संपूर्ण प्राणियों के रक्षक हैं और सबका पाप ध्वंस करने वाले हैं । यहां पशु से अभिप्राय सभी प्राणियों या प्राणिमात्र से है । इसी स्तुति में एक और श्लोक इस प्रकार है —  ‘ गौरीपते पशुपते पशुपाशनाशिन् ’। इसका अर्थ है कि हे गौरीपति ! हे पशुपति ! हे पशुबंधमोचन !  यहां ध्यातव्य है कि जिस प्रकार शिव गौरी के रक्षक हैं वैसे ही प्राणिमात्र के भी । आगे जो ‘ पशुबंधमोचन ’ शब्द है वह बहुत अर्थपूर्ण है । पशुबंध का तात्पर्य है पशु को किसी भी प्रकार का कष्ट पहुंचाना और मोचन का अर्थ है उससे त्राण दिलाना । इस तरह जो पशुओं को कष्ट से मुक्त करे वह शिव है । जैसे महावीर हनुमान को संकटमोचन कहा गया है, क्योंकि वह संकट से मुक्ति दिलाते हैं । अब देखिए जहां शिव पशुओं के कष्ट का हरण करते हैं, वहीं हम उन्हीं का भक्त बन कर पशुओं को कष्ट क्या उनके जीवन का ही हरण कर लेते   हैं । यदि इस दृष्टि से देखें तो पुण्य कमाना तो दूर शताब्दियों से हमने न जाने कितना पाप संग्रह किया है कि उसका हिसाब करना भी मनुष्यों के लिए संभव नहीं है ! अतः जितनी जल्दी हमारी अज्ञानता दूर हो उतना ही अच्छा । 

स्पष्ट है कि मनुष्य की मनुष्यता इस बात में निहित है कि वह पशुओं की रक्षा करे और यदि मांसाहार के लिए पशु-हत्या करे भी तो ईश्वर को निमित्त न बनाए । जहां तक मांसाहार का प्रश्न है तो हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि जिस कारण से भारत अपने वैविध्यपूर्ण भोजन या व्यंजनों के लिए सारे संसार में सर्वप्रसिद्ध है उसका आधार शाकाहार ही है । इसमें मांसाहार का कोई योगदान नहीं है । जिस मुर्ग-मुस्सलम, कबाब आदि की चर्चा हम सुनते हैं, वह सब मुसलमानों के आने के बाद ही हमारे देश में प्रचलित हुआ । इसलिए शाकाहार ही हमारी पहचान है । दक्षिण के इडली-डोसा-सांभर से लेकर उत्तर में कश्मीर की कमलककड़ी और पश्चिम में गुजराती शाकाहारी व्यजनों से लेकर बिहार-बंगाल के लिट्टी-चोखा और मिष्ठान्नों तक सब कुछ शाकाहारी ही है । इसलिए आवश्यक है कि हम अपने पारंपरिक भोजन से जुड़े रहें । स्वास्थ्य विज्ञान की दृष्टि से भी मनुष्य का नैसर्गिक भोजन शाकाहार ही  है । 

आज से 2600 वर्ष पूर्व हमारे देश में दो महान क्रांतिकारी मनीषियों का अभ्युदय हुआ — महावीर जैन और महात्मा बुद्ध । इन दोनों का प्रधान संदेश यही था कि जीवमात्र के प्रति दया एवं करुणा का भाव होना चाहिए । इन्हीं के प्रवचनों और प्रयासों का फल है कि यह देश न केवल अहिंसा के पथ पर चला, वरन शाकाहार को वरेण्य माना । फिर आधुनिक काल में श्रद्धेय स्वामी दयानंद सरस्वती का अभ्युदय हुआ, जिनके सदप्रयास से उत्तर भारत के लोग मांसाहार से दूर हुए । आज भी हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में स्वामी जी की वाणी का प्रभाव है । फिर भी आवश्यक है कि हम स्वयं इस बारे में जागरुक हों ताकि शाकाहार का अधिक-से-अधिक प्रयोग हो । यहां इस बात का उल्लेख करना भी प्रासंगिक होगा कि हमारे देश के सभी धर्मों — हिंदू, बौद्ध और जैन में जो सर्वप्रधान तत्व है और जो इन्हें विशेषकर इस्लाम और ईसाइयत जैसे मजहबों से अलग करता है, वह है सभी जीवों में आत्मा या ईश्वर का अंश देखना । संत शिरोमणि बाबा तुलसीदास रामचरितमानस के उत्तरकांड में कहते हैं —

“ ईस्वर अंस जीव अबिनासी । चेतन अमल सहज सुख रासी ।।”

अर्थात जीव ईश्वर का अंश है । [ अतएव ] वह अविनाशी, चेतन, निर्मल और स्वभाव से ही सुख की राशि है । इसलिए जहां गैर-भारतीय मजहबों में मनुष्यों को छोड़कर शेष सभी जीव खाने की चीज हैं, वहीं हमारे यहां सभी जीव स्वयं ईश्वर का रूप हैं । इसीलिए हम जीवों को पूजते हैं । अतः यदि हम इस अंतर को समाप्त कर देंगे, तो हमारे धर्मों की आत्मा ही मर जाएगी । 

छिन्नमस्तिका का मंदिर केवल एक मंदिर नहीं है । इस मंदिर के अतिरिक्त अनेक और मंदिर  हैं और सभी बहुत सुंदर हैं । सभी मंदिरों को चटख रंगों से रंगा गया है । मां छिन्नमस्तिका की मूर्ति छोटी और बिल्कुल काली है । बहुत ध्यान देने पर भी मूर्ति ठीक से नहीं दिख रही   थी । फिर भी इस मंदिर का बड़ा महात्म्य है । बाद में मुझे रामगढ़ जिले में रह चुकीं उपायुक्त — सुश्री राजेश्वरी से पता चला कि वर्ष 2010 में इस मंदिर में स्थापित मूर्ति चोरी हो गई । इस घटना के बाद पहले वाली मूर्ति के स्थान पर वर्तमान छोटी मूर्ति को स्थापित किया गया ।  

यह हमारा अंतिम दर्शनीय स्थल था । इसके बाद हम सीधे रांची एयरपोर्ट पहुंच गए । जहाज में बैठकर मैं अपने इस दौरे के बारे में सोचने लगा । पिछली बार मैं रायपुर से रांची आया था और तब रांची में घूम-घूमकर अनेक स्थानों पर गया भी था । पहाड़ी मंदिर मुझे अच्छा लगा  था । रांची शहर से दूर एक बांध देखने भी गया था । पर सबसे अच्छा लगा था योगदा सत्संग मठ । परमहंस योगानंदजी महाराज को यहीं ज्ञान की प्राप्ति हुई थी और बाद में वह सारे संसार में प्रसिद्ध हुए । इतना सुंदर, शांत और मनोहर आश्रम है परमहंसजी का कि शब्दों में वर्णन करना कठिन है । फिर मेरा ध्यान गया झारखंड की प्राकृतिक सुषमा पर । प्रकृति ने कितना कुछ दिया है झारखंड को ! यदि पर्याप्त आधारभूत सुविधाएं हों और प्रशासन थोड़ा चुस्त-दुरुस्त हो, तो यह राज्य पर्यटन के मामले में बहुत आगे जा सकता है । एक अकेला देवघर ही इस राज्य को मालामाल कर सकता है । देवघर पूर्व की काशी है । इसी तरह मलूटी, बासुकिनाथ और छिन्नमस्तिका का भी प्रचार करके श्र्द्धालुओं को आकृष्ट किया जा सकता है । गिरिडीह में एक बहुत ही सुंदर जलीय सूर्य मंदिर है । इन मंदिरों के अतिरिक्त न जाने कितने ही जलप्रपात और झीलें हैं । मैं तो केवल आशा ही कर सकता हूं कि आने वाले समय में झारखंड का विकास हो और यहां के लोग पर्यटन से भी धन अर्जित करके समृद्ध हों । 

लेखक निवेश एवं लोक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग , वित्त मंत्रालय ,भारत सरकार में संयुक्त सचिव हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं 

19  जनवरी 2021 


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रचनाएँ
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डॉ. कुमार ने 1992 में संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्षा उत्तीर्ण करके और प्रशिक्षण प्राप्त करके भारत सरकार में पदासीन हुए ।
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मित्र संजय नहीं रहे

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एक दिन वसंत वाटिका में सुबह की सैर करके जब मैं घर लौट रहा था तो दाहिने  तलवे में थोड़ा दर्द महसूस हुआ। घर में कुर्सी पर बैठकर जब दाहिने पैर का जूता  उतारकर देखा तो पाया कि जूते की तल्ली का अग्रभाग घिस

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अभी पिछले दिनों पटना में एक मुस्लिम मंत्री ने जय श्रीराम का नारा लगाया। जिसके बाद एक मुफ्ती ने उन्हें काफिर करार दिया। मजबूरन उन्हें माफी माँगनी पड़ी, जिससे उनके पाप का प्रायश्चित हो गया और पुनर्मूषिको

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विश्व व्यापार संगठन का नैरोबी मंत्रिसम्मेलन और भारत की भूमिका

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अमरीका के प्रतिष्ठित हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर स्टीवन पिंकर, जो हाल ही में भारत की यात्रा पर थे, की स्थापना है कि ‘हमें ऐसा लग सकता है कि विश्व में गिरावट आ रही है। परंतु यह हमारी समझ की समस्

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दर्शनीय दुमका

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हमारे कस्बानुमा बड़े गांव — बथनाहा के पूर्वोत्तर में एक छोटा सा गांव है — बंगराहा । पता नहीं यह नाम कब रखा गया और इसका क्या अर्थ हो सकता है ? संभव है बंग से बंगाल शब्द का कोई लेना-देना हो । वैसे भी सद

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राजा राममोहन राय -एक रहस्यमय व्यक्तित्व

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राजा राममोहन राय, इस नाम से देश के सभी साक्षर और शिक्षित अवश्य परिचित होंगे, क्योंकि उनके विषय में इतिहास की विद्यालयी पुस्तकों में थोड़ा-बहुत उल्लेख अनिवार्यत: मिलता है। उन्हें भारतीय नवजागरण का अग्र

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वो महिला

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प्रातः बेला मैं तैयार होकर गुवाहाटी से शिवसागर, असम की पुरानी राजधानी, की यात्रा के लिए गाड़ी में बैठा। हमारा ड्राइवर असम का ही था। उसकी कद-काठी अच्छी थी। नाम था खगेश्वर बोरा। वह सहज रूप से हिन्दी बोल

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जम्मू-कश्मीर को उर्दू नहीं हिन्दी, कश्मीरी और डोगरी चाहिए

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यदि हम भारत के भाषायी परिदृश्य पर ध्यान दें तो हमें पता चलेगा कि जम्मू-कश्मीर जैसी अतिशोचनीय स्थिति किसी और राज्य की नहीं है। यहां एक ऐसी भाषा राजभाषा बनकर राज कर रही है जिसकी उपस्थिति उस राज्य में नग

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अटेंडेंट

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सूर्यास्त की बेला — मैं नहा धोकर बचे हुए पानी से गमलों के पौधों की सिंचाई में लग गया। देखा एक पौधा सिकुड़कर छोटा हो गया है और मुरझा गया है। मन में ग्लानि हुई कि यह मेरे ध्यान न देने का फल है। पानी ही

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गौरी

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चैत्र मास समाप्ति की ओर है। यद्यपि दोपहर के बाद तो अब सूर्यदेव अपना प्रचंड रूप दिखाने लगे हैं, परंतु प्रातः बेला अभी भी शीतल है। बालसूर्य की नयनाभिराम बेला। टहलने के लिए उपयुक्त समय। इसलिए इसी बेला मे

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‘ लक्ष्मण टीला ‘ या ‘ टीले की मस्जिद ‘

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लक्ष्मण टीला ‘ या ‘ टीले की मस्जिद ‘ लखनऊ की प्राचीन गाथा कहने का एक लघु किंतु क्रांतिकारी प्रयास डॉ शैलेन्द्र कुमार स्वतंत्रता पूर्व विदेशी इतिहासकारों और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे इतिहासकार

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बांग्लादेश : आहत लोकतंत्र

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हाल ही में संपन्न हुए बांग्लादेश के चुनाव पर हमारे देश के हिंदी और अंग्रेजी समाचार पत्रों में जितने भी लेख छपे उनमें से अधिकतर में यह भाव मुखर था कि शेख हसीना की जीत भारत के लिए बहुत लाभकारी है। इस प्

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अनावश्यक अजान और पांच बार नमाज की अनिवार्यता के परिणाम।

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अनावश्यक अजान और पांच बार नमाज की अनिवार्यता के परिणाम। इन दिनों वाराणसी में गंगा नदी में नौका विहार करते हुए एक विदेशी पर्यटक का वीडियो सोशल मीडिया में काफी वायरल ( प्रचलित ) हुआ है। वीडियो में यह व

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शेख अहमद सरहिन्दी : भारत में अलगाववादी विचारधारा का जन्मदाता

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शेख अहमद सरहिन्दी : भारत में अलगाववादी विचारधारा का जन्मदाता डॉ शैलेन्द्र कुमार सारांश इस लेख का सर्वप्रधान उद्देश्य यह दर्शाना है कि भारत में अलगाववादी विचारधारा का जन्मदाता शेख अहमद सरहिंदी था। इ

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गो रक्षण, जिन्ना और अम्बेडकर

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शेख मुजिबुर रहमान, जो जामिया मिलिया इस्लामिया में पढ़ाते हैं, का पिछले 25 जून को ‘द हिंदू’ दैनिक में गो रक्षण के नाम पर घटित हिंसक घटनाओं को लेकर एक अतार्किक और अत्यंत आपत्तिजनक लेख प्रकाशित हुआ। इस स

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मस्जिद की अनिवार्यता

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फैजुर रहमान का 7 अगस्त के ‘द हिंदू’ दैनिक में ‘मस्जिद की अनिवार्यता’ विषय पर एक लेख प्रकाशित हुआ। रहमान एक इस्लामी मंच के महासचिव हैं जिसका उद्देश्य है संयत विचार को बढ़ाना या बढ़ावा देना। इस लेख का म

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अनन्य हिंदी प्रेमी अटल बिहारी वाजपेयी

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अटल बिहारी वाजपेयी भारत के राजनैतिक क्षितिज में पिछले कई दशकों से सर्वाधिक चमकता हुआ सितारा थे। अपनी मिलनसार प्रवृत्ति, विलक्षण वाकपटुता, मनमोहक वक्तृत्वकला और असाधारण प्रतिउत्पन्नमति के कारण सारे देश

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स्वच्छ भारत की ओर निर्णायक कदम

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हमारे देश में गाँव कविता के विषय के रूप में कवियों को आकर्षित करता रहा है। मैथिलीशरण गुप्त की ये पंक्तियाँ तो जगप्रसिद्ध रही हैं – “अहा ! ग्राम जीवन भी क्या है। क्यों न इसे सबका जी चाहे।“ इसी तरह सुमि

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शैक्षणिक संस्थानों का देश के विकास में योगदान

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आधी सदी पहले ही अर्थशास्त्रियों ने किसी भी देश के आर्थिक विकास में शिक्षा के महत्व को समझ लिया था। बाद में यह विचार फैलने लगा कि शिक्षा किसी भी व्यक्ति को स्थायी रूप से परिवर्तित कर देती है और उसे मान

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पाकिस्तान में जनसंख्या विस्फोट के निहितार्थ

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पिछले दिनों करीब दो दशक बाद पाकिस्तान की छठवीं जनगणना सम्पन्न हुई। इसके अनुसार आज पाकिस्तान की जनसंख्या 20 करोड़ 78 लाख है। 1998 में की गई पिछली जनगणना में पाकिस्तान की जनसंख्या लगभग 13 करोड़ थी और उस

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हवाई यात्रा के लिए बिहार देश का छाया प्रदेश

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किसी भी देश के विकास में यातायात और उसमें भी वायु यातायात का योगदान अन्यतम है। भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण ने एक अध्ययन के हवाले से बताया है कि किस तरह वायु सेवा से तेजी से आर्थिक विकास सम्भव होता है।

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हिंदी साहित्याकाश में सूर्य की तरह चमकने वाले ‘दिनकर’

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हिंदी साहित्याकाश में सूर्य की तरह चमकने वाले सचमुच में दिनकर ही थे। रामधारी सिंह दिनकर में साहित्य सर्जन के गुण नैसर्गिक रूप से विद्यमान थे। इसलिए आश्चर्य नहीं कि केवल पंद्रह वर्ष की आयु में ही उनका

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क्यों बार बार संकट आता है मालदीव पर?

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पिछले कुछ दिनों से मालदीव के संकट में आ जाने के कारण वहाँ का राजनीतिक घटना क्रम बहुत तेजी से बदल रहा है। हुआ यह कि वहाँ के राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन ने मालदीव के सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश

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क्यों नहीं मिल रहा रोजगार युवाओं को?

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उन्नीस सौ नब्बे के दशक में आरंभ हुए आर्थिक उदारीकरण के परिणामस्वरूप माना जाता है कि भारत की आर्थिक वृद्धि दर में अभूतपूर्व तेजी आई। जबकि आजादी के बाद से 1980 तक भारत की आर्थिक वृद्धि दर औसतन सिर्फ 3.5

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नेताजी का अमूल्य योगदान इतिहासकारों का मोहताज नहीं

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नेताजी सुभाषचन्द्र बोस महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू की तरह हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के पहली पंक्ति के नेता थे। पर अपने आप को भारत माता पर उत्सर्ग करने की आतुरता में उनकी तुलना शहीद भगत सिंह जैसे वीरों

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क्यों बार बार संकट आता है मालदीव पर ?

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पिछले कुछ दिनों से मालदीव में राजनीतिक घटना क्रम बहुत तेजी से बदल रहा है। हुआ यह कि वहाँ के राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन ने मालदीव के सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश तथा एक न्यायाधीश को गिरफ़्तार

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भारत-अफ्रीका के गहराते संबंध और इनके निहितार्थ

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भारत-अफ्रीका फोरम शिखर सम्मलेन के तीसरे संस्करण का आयोजन 26 से 29 अक्टूबर 2015 तक नई दिल्ली में होने जा रहा है। सभी 54 अफ़्रीकी देशों को निमंत्रण देकर भारत सरकार ने अफ्रीका से अपने संबंधों को आगे ले जा

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1857 की क्रांति की 160वीं जयंती

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आज ही के दिन ठीक एक सौ साठ साल पहले यानी 10 मई 1857 को जिस ऐतिहासिक क्रांति का सूत्रपात मेरठ से हुआ वह कई अर्थों में विलक्षण थी । क्रांति का क्षेत्र व्यापक था और इसका प्रभाव लम्बे समय तक महसूस किया गय

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