हमारे कस्बानुमा बड़े गांव — बथनाहा के पूर्वोत्तर में एक छोटा सा गांव है — बंगराहा । पता नहीं यह नाम कब रखा गया और इसका क्या अर्थ हो सकता है ? संभव है बंग से बंगाल शब्द का कोई लेना-देना हो । वैसे भी सदियों तक बिहार बंगाल प्रांत का हिस्सा रहा है । दूसरी संभावना एक प्रकार की दाल — ‘बंगलिया’ से बंगराहा के नामकरण की हो सकती है । हमारे यहां उपजने वाली एक तरह की दाल को बंगलिया कहते हैं । इसे दूसरे क्षेत्रों में बकला भी कहा जाता है । यह दाल अरहर, चना, मसूर आदि की तरह श्रेष्ठ तो नहीं मानी जाती है, परंतु इसकी मनी यानी उपज अधिक होती है । इस प्रकार यह निर्धनों की दाल मानी जाती है । पर अपनी एक विशेषता के कारण बंगलिया सर्वग्राह्य रही है । प्रेशर कूकर से पहले के युग में दाल पकाना कठिनतम काम हुआ करता था । और किसी तरह पक जाने पर भी दाल ठीक से गल नहीं पाती थी । इसलिए रही से दाल को मथना पड़ता था । हमारे यहां जिस उपकरण से दाल को घोंटा जाता था या अभी भी घोंटा जाता है, उसे दलघोंटनी कहते हैं । वैसे लोग पकाने से पहले दाल में सुपारी या सरसों तेल भी मिलाते थे ताकि दाल जल्दी गले । यही कारण है कि दाल गलाने को लेकर हमारे देश में अनेक कहावतें हैं, जैसे “यहां आपकी दाल नहीं गलेगी” । पर इस मामले में बंगलिया वरदान थी, क्योंकि यह जल्दी गल जाती थी और अन्य दालों को अपने में मिला लेती थी, जिससे दाल गाढ़ी हो जाती थी । इस दृष्टि से यह दाल लोकप्रिय रही है । इसलिए लगता है कि बंगराहा में इस दाल की अधिक खेती होती रही हो और उसके मध्य से जो मार्ग जाता होगा उसे कालांतर में लोगों ने बंगराहा कहना शुरू किया होगा ।
जो भी हो, बंगराहा हमारे गांव की पक्की सड़क से लगभग तीन किलोमीटर दूर स्थित है । अतः यहां के लोगों को शहर जाने, अपना सामान बेचने-खरीदने, बच्चों को विद्यालय जाने आदि-आदि के लिए हर बार तीन किलोमीटर की दूरी तय करनी होती है । बंगराहा में पचास से कम ही घर होंगे, जिनमें से अधिकतर घर हिंदुओं के हैं और केवल चार घर ही मुसलमानों के हैं । इस गांव के लगभग सारे-के-सारे हिंदू सीमांत किसान या मजदूर हैं, जबकि सभी मुसलमान धोबी हैं । कुल-मिलाकर पूरा गांव श्रमजीवियों का है और न कोई जमींदार जैसा परजीवी है और न ही दिनभर अपनी गद्दी पर बैठने वाला कोई दुकानदार । स्पष्ट है कि पक्की सड़क, प्रखंड कार्यालय, बैंक, थाना, विद्यालय, अस्पताल, बाजार आदि के कारण हमारे गांव के लोग स्वयं को आसपास के गांव वालों की तुलना में श्रेष्ठ समझते रहे हैं । सामान्यतः हमारे गांव के लोगों को बंगराहा जैसे गांवों में जाने की जरूरत नहीं पड़ती है, जबकि दूसरे गांवों के लोगों का काम हमारे यहां आए बिना नहीं चलता है । इस कस्बाई श्रेष्ठता का भाव लोगों की बातचीत में तुरंत दृष्टिगोचर हो जाता है । हाल के वर्षों में अपनी थोड़ी विषम भौगोलिक परिस्थिति के बावजूद बंगराहा के लोगों ने अपना जीवन स्तर ऊपर उठाया है । आज यहां के कई लोग सम्मानजनक पदों पर आसीन हैं । शेष लोग खेती में ही अधिक मेहनत करके सुखी जीवन जी रहे हैं । अब गांव में पक्की सड़क भी आ गई है और विद्यालय भी आ गया है। इसलिए संभव है आने वाले समय में इस गांव का और भी विकास हो ।
पर बंगराहा में मुसलमानों की उपस्थिति चौंकाने वाली है, क्योंकि इस गांव से केवल दो-तीन सौ मीटर की दूरी पर एक दूसरा गांव है — भवानीपुर । इस भवानीपुर गांव में सारे-के-सारे लोग मुसलमान ही हैं । एक भी घर हिंदुओं का नहीं है । सामान्यतः लोग भवानीपुर नाम से यही अनुमान लगाते हैं कि यह हिंदुओं का गांव होगा । पर जब सच्चाई का पता चलता है, तो उन्हें घोर आश्चर्य होता है । हो सकता है कि अतीत में भवानीपुर हिंदुओं का गांव रहा हो और किसी समय विशेष में पूरे गांव का धर्मांतरण हो गया हो । वैसे यह देखा गया है कि हिंदू-बहुल गांवों में तो मुसलमान होते हैं, परंतु मुसलमान-बहुल गांवों में हिंदू नहीं होते हैं । फिर भी बंगराहा में रह रहे मुसलमानों को लेकर यह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि केवल मुसलमानों के गांव के इतना निकट होते हुए भी ये लोग भवानीपुर में क्यों नहीं रहे ? आखिर क्या कारण हो सकता है कि हम-मजहब वालों को छोड़कर ये लोग हिंदुओं के गांव में रह रहे हैं ? क्या ऐसा हो सकता है कि इन्हें भवानीपुर से निकाला गया हो ! इसका सही उत्तर ढूंढ़ना बहुत कठिन है । वैसे दो बातों की संभावना अधिक दिखती है। पहली, यह कि ये लोग हिंदू ही रहे हों और यहीं मुसलमान बने या बनाए गए हों । दूसरी, यह कि चूंकि इनका पेशा धोबी का था, इसलिए इनके पेशे को निम्न कोटि का पेशा मानते हुए इन्हें भवानीपुर से बाहर कर दिया गया हो ।
भवानीपुर बंगराहा से काफी बड़ा है और मुसलमानों में ऊंची जन्मदर के कारण विगत तीन-चार दशकों में यहां की जनसंख्या बेरोकटोक बढ़ी है । यहां एक घर को छोड़कर शेष सारे घर अतिसाधारण हैं । यहां के लोग शिक्षा और आर्थिक की दृष्टि से अत्यंत पिछड़े हैं । इनके पास थोड़ी-बहुत खेती है और बकरी-मुर्गी पालन का काम है । यहां के अधिकतर लोग हमारे गांव के किसानों से धान खरीदकर उसका चावल कूटते हैं और उसे हमारे ही गांव की हाट में बेचते हैं । यह काम प्रतिदिन चलता है । बिना किसी सवारी के ये लोग अपने सिर पर उठाने लायक लगभग एक मन धान खरीदते हैं, उसे तीन किलोमीटर अपने सिर पर रखकर ढोते हैं, फिर उसका चावल कूटते हैं और दूसरे या तीसरे दिन बेचते हैं । आश्चर्यजनक रूप से यह काम मुसलमान महिलाएं भी करती हैं । इस प्रकार जब अपनी खेती का समय रहा, तो उसमें लगे रहे अन्यथा धान को चावल में रूपांतरित करके बेचते रहे । अभिप्राय जीवन अतिसंघर्षमय । इस स्थिति में समय के साथ थोड़ा परिवर्तन तो अवश्य हुआ है, पर लोगों की आर्थिक स्थिति में कोई क्रांतिकारी बदलाव नहीं हुआ है । इसलिए इस गांव को देखकर लगता है, जैसे समय ठहर-सा गया हो ।
सामान्यतः हम मानते हैं कि किसी क्षेत्र विशेष में रह रहे लोग एक ही प्रकार की भाषा बोलते होंगे । पर भवानीपुर के विषय में यह बात पूरी तरह सच नहीं है । बचपन से आज तक मैंने पाया है कि इस गांव के लोग या तो खड़ी बोली बोलते हैं या विकृत खड़ी बोली । पर हमारी स्थानीय बोली — बज्जिका नहीं बोलते । हां, इतना अवश्य है कि मजदूर जैसे लोगों से बात करने के लिए ये अपनी बोली को बज्जिका के निकट लाने का प्रयास करते हैं ताकि सामने वाले इनकी बात समझ लें । पर यह भिन्नता केवल बोली तक ही सीमित नहीं है । यहां के लोगों की वेश-भूषा भी हमसे भिन्न है । पुरुष निरपवाद रूप से पैजामा या लूंगी पहनते हैं और महिलाएं घाघरा और चोली । आज तक मैंने न तो किसी पुरुष को धोती पहने देखा और न ही किसी महिला को साड़ी पहने । अधिकतर पुरुष दाढ़ी और मूछें रखते हैं और कुछ पुरुष केवल दाढ़ी रखते हैं । बचपन में मुझे दाढ़ी सहित और मूंछ रहित पुरुष बड़े अजीब लगते थे । मुझे समझ में नहीं आता था कि लोग ऐसा कैसे कर सकते हैं ! एक बार तो मैंने भवानीपुर के एक मिया ( हमारे यहां मुसलमानों के लिए केवल मिया शब्द ही प्रयुक्त होता है ) से पूछा भी । पर उसने कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दिया । बड़ा होने पर मुझे पता चला कि सऊदी अरब में उपजे वहाबी आंदोलन से प्रेरित होकर मुसलमान ऐसा करते हैं । वहाबी मुसलमानों में सर्वाधिक कट्टर होते हैं । खैर, मेरे मन में यह मौलिक प्रश्न उठता था कि आखिर भवानीपुर के लोग हमसे इतने भिन्न क्यों हैं ? पर सिवाय इसके कि लोग कहते कि मिया ऐसे ही होते हैं और कोई उत्तर नहीं मिलता ।
भवानीपुर एक ऐसा गांव था जहां आमतौर पर दूसरे गांवों के लोग नहीं जाते थे । वहां लोग कैसे रहते हैं इस बारे में लोग अक्सर अनुमान से ही काम चलाते थे । हमारे गांव के मजदूर भी अपनी बातचीत में भवानीपुर को मिनी या लघु पाकिस्तान कहते हैं । भवानीपुर के संदर्भ में मुझे एक घटना याद आती है । एक बार हमारे गांव के एक धर्मपरायण शिवभक्त साष्टांग लेटकर बाबाधाम अर्थात देवघर तक गए । सावन के महीने में कांवड़ लेकर वैसे ही लाखों लोग भगवान शिव पर गंगाजल चढ़ाने जाते हैं । पर यह शिवभक्त ऐसे थे कि उन्होंने लेटकर लगभग तीन सौ किलोमीटर की दुष्कर यात्रा की । बाद में लोग इन्हें ‘दंडी बाबा’ के नाम से पुकारने लगे । इनके साथ दो और व्यक्ति थे — एक के हाथ में कांवड़, तो दूसरे के हाथ में भोजन-वस्त्र आदि । जब ये तीनों हमारे गांव से निकले तो सैकड़ों की संख्या में ग्रामवासी इनके साथ-साथ ढोल-मजीरे बजाते हुए और भोले बाबा का बोल बम, बोल बम का जयकारा लगाते हुए लगभग पांच किलोमीटर दूर तक छोड़ने गए । बालक होने के कारण मेरे लिए तो यह अभूतपूर्व व अविस्मरणीय दृश्य था । इसलिए मैं भी भीड़ का हिस्सा बन गया । इस पांच किलोमीटर की यात्रा में ही भवानीपुर रास्ते में आया । दंडीबाबा के लिए कच्ची सड़क पर लेटकर चलना श्रेयस्कर था और भवानीपुर वाला रास्ता छोटा भी पड़ता था । इस प्रकार मैंने पहली बार भवानीपुर के दर्शन किए । एक भी घर बिना मुर्गी और बकरी के नहीं मिला । अधिकतर घर कच्चे । केवल एक विशाल घर । बाद में लोगों से जानकारी मिली कि यह एक घर इतने समृद्ध व्यक्ति का है कि लगभग आधा गांव उसी के यहां काम करता है ।
इस प्रकार पूरी तरह मुसलमानों का गांव — भवानीपुर के होते हुए भी चार मुसलमान धोबी परिवार बंगराहा में अपना जीवन-यापन चला रहे थे । इन धोबियों के अधिकतर ग्राहक हमारे गांव के लोग ही हुआ करते थे । ये रोज हमारे गांव आते और हमारे घरों से कपड़ों का मोटा गट्ठर बांधकर कभी पीठ पर, तो कभी गधे पर लादकर ले जाते । लगभग तीन-चार दिन बाद ये धुले कपड़े लौटाते । इन धुले कपड़ों को देखकर मन हर्षित हो जाता । क्या जादू था इन धोबियों के हाथों में ! कपड़े बिल्कुल चमकते हुए और इस्तरी से कड़े बने हुए । कुर्ते की बाहियों पर चुन्नट । कई बार जी नहीं करता कि ऐसे कपड़े पहनें । मन करता कि इन कपड़ों को यूं ही रहने दें और बार-बार निहारें । हममें से कई तो इन धोबियों की वस्त्र-धुलाई कला पर घंटों बातें करते । कोई कहता कमाल है, ये साबुन नहीं लगाते हैं, बल्कि रेह ( एक प्रकार की मिट्टी ) से कपड़े धोते हैं । कोई कहता, इनके पास चापाकल ( हैंडपाइप ) तो है नहीं, ये नदी के पानी से कपड़े धोते हैं । कोई कहता, कमाल है ! इन्हें याद कैसे रहता है कि कौन-सा कपड़ा किसका है ! मजाल है कि एक भी कपड़ा इधर से उधर हो जाए ।
इन्हीं चार धोबी परिवारों में से एक परिवार में लगभग सत्तर वर्ष पूर्व एक शिशु का जन्म हुआ । अन्य बच्चों की तरह यह शिशु भी अपने परिजनों को कपड़ा धोते देखकर ही बड़ा हुआ । पर यह शिशु विशेष था, क्योंकि यह जिज्ञासु था और कुशाग्र भी । इसके मां-पिता ने बच्चे की अभिरुचि को भांपते हुए विद्यालय भेजना शुरू किया । बच्चे का नाम सलीम रखा गया — सहज सुलभ मुसलमानी नाम । समय के साथ सलीम विद्यालयी कक्षाओं की सीढ़ी चढ़ता गया । पहले हमारे गांव के विद्यालय की शिक्षा पूरी हुई । फिर हमारे पास के ही शहर — सीतामढ़ी में महाविद्यालय की शिक्षा संपन्न हुई । उस समय के लिए इतनी शिक्षा पर्याप्त थी । बड़ी सहजता से एक दूसरे गांव के विद्यालय में उसकी शिक्षक के पद पर नियुक्ति हो गई । बंगराहा के इतिहास की यह सबसे बड़ी घटना थी । गांव के लोग इस नवनियुक्त शिक्षक को ससम्मान देखने लगे और युवा पीढ़ी के लिए तो सलीम मिया आदर्श रूप में स्थापित हो गए । अब उनके गांव में सभी पढ़ने-पढ़ाने की बात करने लगे । शिक्षा की ओर ऐसी ललक पहले कभी नहीं देखी गई । सलीम मिया का सम्मान इतना बढ़ा कि सभी बंगराहावासी उन्हें ‘मास्साहब’ कहकर संबोधित करने लगे । गांव के लोगों में पूरा-का-पूरा ‘मा-स्-ट-र सा-ह-ब’ उच्चरित करने का अवकाश कहां होता है । वे तो बस ‘मास्साहब’ ही बोलते हैं ।
अब सर्वगुण संपन्न मास्साहब के विवाह की बात होने लगी । समस्या यह थी कि धोबी समाज में कहां से पढ़ी-लिखी लड़की लाई जाए । पर सभी धोबियों ने मिलकर प्रयास किया । अंततः एक दूर के गांव में थोड़ी पढ़ी-लिखी कन्या मिल गई । इस कन्या से मास्साहब का विवाह संपन्न हुआ । अब सपत्निक मास्साहब अपना जीवन जीने लगे । दिन में विद्यालय में रहते और शेष समय घर पर बिताते । इस प्रकार लंबी सामाजिक और आर्थिक सीढ़ी चढ़कर मास्साहब अपने सुखी दाम्पत्य जीवन का आनंद उठाने लगे ।
लगभग पांच दशक बीत गए । इस बीच मैं भी चार दशकों से अपने गांव से बाहर ही रहा । वैसे समय-समय पर गांव जाता रहा, लेकिन मास्साहब के विषय में मुझे कोई जानकारी नहीं मिली । सच तो यह है कि इतनी क्रांतिकारी प्रगति के बावजूद मुझे बचपन में भी मास्साहब के विषय में कोई ज्ञान नहीं था । एक तो उनके गांव को कोई विशेष महत्व नहीं दिया जाता था और इसलिए उस गांव की ओर किसी का ध्यान भी नहीं जाता था । हमारे गांव के लोग अपने श्रेष्ठताबोध से ग्रसित रहते और इसलिए अन्य गांव के लोगों को अपने से हीन मानते । अतः जहां बंगराहा के लिए एक धोबी के बेटे का शिक्षक बनना एक ऐतिहासिक घटना थी, वहीं हमारे गांव के लिए सामान्य बात । इस प्रकार मुझे कभी भी मास्साहब के बारे में कुछ भी नहीं मालूम हुआ । पर इस बार जब मैं अपने गांव गया, तो हमारे गांव के शुरू होते ही पक्की सड़क की दाहिनी ओर एक दोमंजिला मकान दिखा । हमारे गांव के हिसाब से यह काफी बड़ा मकान था । मैंने इस मकान को पहले देखा नहीं था । इसलिए अपने ड्राइवर से पूछा । ड्राइवर संभवतः बाहर का था और उसे भी नहीं मालूम था । अब मेरी उत्सुकता बढ़ने लगी । मैं घर पहुंचा तो भैया से उस मकान के बारे में जानने की इच्छा प्रकट की । भैया ने झट से उत्तर दिया, “अरे, एक मिया मास्टर हिंदू बन गया है, उसी का मकान है ।”
उनके उत्तर देने का हाव-भाव अत्यंत सामान्य था, जिससे मुझे आश्चर्य हुआ । उनके लिए यह कोई बड़ी बात नहीं थी । बाद में गांव के अन्य लोगों से भी बात हुई, पर किसी ने भी इस बात पर अधिक ध्यान नहीं दिया । वास्तव में हमारा गांव एक विचित्र गांव है, जहां लोगों ने आश्चर्यचकित होना नहीं सीखा है । जैसे यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा था कि ‘किमाश्चर्यं परमं ?’, वैसे ही यदि यक्ष हमारे गांव वालों से इतना ही पूछ ले कि ‘किमाश्चर्यं ?’, तो संभवतः प्रत्येक का उत्तर होगा — ‘न जानामि’ । इस प्रकार जब मास्साहब ने हिंदू धर्म अपना लिया, तो यह कोई बड़ी घटना नहीं बनी । वैसे आम बातचीत में सभी इस तरह बोलते — “अरे, वही मिया जो हिंदू बन गया है ।” जैसे मास्साहब के मिया से हिंदू बनने की घटना ही उनकी पहचान हो ।
परंतु मेरे लिए तो यह घटना संसार पलटने वाली थी, क्योंकि सामान्यतः हम यही सुनते और देखते आए हैं कि हिंदू मुसलमान बने या बनाए गए, पर मुसलमान हिंदू बन जाए ऐसा नहीं सुना था । वैसे तो हिंदू धर्म और इस्लाम में अनेक अंतर हैं । परंतु जो सबसे बड़ा व्यावहारिक अंतर है, वह यह कि मुसलमान दूसरे धर्म वालों को इस्लाम में शामिल करते हैं, और इसके लिए इस्लाम में व्यवस्था भी की गई है । पर हिंदू न तो ऐसा करते हैं और न ही हिंदू धर्म में ऐसी कोई व्यवस्था ही है । आधुनिक युग में शुद्धि आंदोलन चला तो जरूर, पर इसका उद्देश्य हाल-फिलहाल में हिंदू से मुसलमान बने लोगों को हिंदू धर्म में फिर से वापस लेने का अवसर देना था । इस प्रकार यह भी धर्मांतरण का प्रयास न होकर घर वापसी का प्रयास था ।
इस्लाम की विशेषता यह है कि यह मुहम्मद पैगंबर से पहले अस्तित्व में ही नहीं था, क्योंकि मुहम्मद ही इस्लाम के जन्मदाता हैं । इसलिए जो भी मुसलमान बना उसने अपना धर्मांतरण ही किया । इस प्रकार बिना धर्मांतरण कराए इस्लाम कभी फैलता ही नहीं । अतः अपने मजहब को उत्तरोत्तर बढ़ाने यानी मुसलमानों की संख्या बढ़ाने के लिए इस्लाम ने वह सब किया जो वह कर सकता था । अब युग बदल गया है । अब न तो इस्लाम के पास तलवार का जोर है और न ही राजनीतिक सत्ता की शक्ति । फिर भी जिस सीमा तक संभव होता है उसका प्रयास रहता है कि दूसरे लोग मुसलमान बनाए जाएं । पाकिस्तान और बांग्लादेश में तो यह काम बड़े पैमाने पर हुआ और अब भी हो रहा है । परंतु भारत में यह काम सामान्यतः शादी तक ही सीमित है । इस प्रकार अच्छे-से-अच्छे मुसलमान भी जो हिंदू लड़की से शादी करते हैं, वे निकाह ही पढ़वाते हैं और इस प्रकार लड़की को पहले मुसलमान बनाया जाता है फिर उसका निकाह होता है । इस्लाम में ऐसा विधान है कि निकाह दो मुसलमानों के बीच ही हो सकता है, एक मुसलमान और एक गैर-मुसलमान के बीच नहीं । सामान्यतः निकाह कराने से पहले लड़की का हिंदू नाम हटाया जाता है और उसे एक मुसलमानी नाम दे दिया जाता है । यदि पुरुष पक्ष बलशाली होता है, तो मुसलमानी नाम ही लड़की का असली नाम रह जाता है और इस प्रकार वह जीवनपर्यन्त अपने मुसलमानी नाम से ही जानी जाती है । पर यदि लड़की पक्ष भारी पड़ता है, तो भले ही निकाह के समय उसे मुसलमानी नाम दिया गया हो अपने शेष जीवन में वह अपने हिंदू नाम का ही प्रयोग करती है । पर दोनों ही स्थितियों में वह अपना हिंदू धर्म खो बैठती है । अब वह सदा के लिए मुसलमान है । इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि उसके बच्चों के नाम मुसलमानी ही होते हैं । यहां तक कि करीना कपूर, गौरी खान और किरण राव जैसे स्वनामधन्य व बड़े व्यक्तित्व भी इस मुसलमानी नामकरण प्रथा के शिकार हैं । वैसे आमिर खान के तीन बच्चों में से एक के नाम में ‘राव’ तो दूसरे के नाम में ‘इरा’ है, पर सामान्य प्रथा यही है कि एक हिंदू लड़की मुसलमान से शादी करने के बाद हिंदू नहीं रह पाती और उसके बच्चे तो पूरी तरह मुसलमान बनकर की बड़े होते हैं ।
जब मुसलमान अपने मजहब को लेकर इस सीमा तक कट्टर हैं, तो किसी मुसलमान ने हिंदू धर्म को कैसे स्वीकार कर लिया ! इस्लाम में अपना मजहब बदलने की न केवल कोई व्यवस्था नहीं है, वरन दंडनीय अपराध है । अनेक मुस्लिम-बहुल देशों में तो इसके लिए मृत्युदंड तक का प्रावधान है । जो मुसलमान है वह केवल अल्ला को ही मान सकता है किसी और को नहीं । किसी और को अल्ला या अल्ला जैसा मानना इस्लाम में ‘शिर्क’ अर्थात सबसे बड़ा पाप और अपराध माना जाता है । इस प्रकार यह ईशनिंदा की श्रेणी में आता है, क्योंकि इसका अर्थ यह निकाला जाता है कि आप अपने अल्ला को हीन मानकर किसी दूसरे को श्रेष्ठ मान रहे हैं । इतना ही नहीं, यदि कोई मुसलमान अल्ला को मानते हुए किसी दूसरे ईश्वर को भी माने तब भी वह ‘शिर्क’ है । इसलिए आश्चर्य नहीं कि महात्मा गांधी तो ‘ईश्वर अल्ला तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान, राम रहीम करीम समान, हम सब हैं उनकी संतान ….’ का भजन गाते रहे और पाकिस्तान बन गया । इस प्रकार इस्लाम अपने अल्ला के साथ किसी और भगवान को मिला ही नहीं सकता । यदि ऐसा नहीं होता, तो इस्लाम के जन्मदाता मुहम्मद मक्का के काबा से एक-दो नहीं, वरन 360 मूर्तियों को तोड़कर नहीं हटाते । और जिस काम को मुहम्मद ने शुरू किया वही काम उनके चेले आज तक कर रहे हैं । इस प्रकार मुसलमानों ने संसार भर में असंख्य मदिरों और मूर्तियों को तोड़ा है । इस्लाम में तो यहां तक कहा गया है कि जो जितने अधिक मंदिर तोड़ेगा उसका जन्नत का मार्ग उतना ही अधिक प्रशस्त होगा । इस प्रकार महमूद गजनवी, अलाउद्दीन खिलजी, बख्तियार खिलजी, फिरोजशाह तुगलक, औरंगजेब आदि आज जन्नत में दर्जनों हूरों के साथ ऐश फरमा रहे होंगे । लेकिन जिन्होंने मंदिर नहीं तोड़े वे जहन्नुम की आग में झुलस रहे होंगे ।
काबा से मूर्तियों को तोड़कर हटाने को इस्लाम में इतना महान कार्य माना गया कि अनेक मुसलमान साहित्यकार ने इसे एक क्रांतिकारी व प्रगतिसूचक प्रतीक के रूप में प्रयोग किया । उदाहरण के लिए, पाकिस्तानी शायर फैज अहमद फैज की एक प्रसिद्ध किंतु विवादास्पद शायरी के कुछ शेर देखिए :
“…जब अर्ज-ए-खुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएंगे, …
बस नाम रहेगा अल्लाह का …”
वैसे इन शेरों का हिंदुओं से कुछ भी लेना-देना नहीं है, क्योंकि तानाशाह जनरल जिया उल हक के शासन के विरोध में फैज ने ये शेर लिखे थे । परंतु हमारे लिए महत्वपूर्ण है ‘काबे से सब बुत ( अर्थात मूर्तियां ) उठवाए जाएंगे और बस नाम रहेगा अल्ला का ।’ प्रश्न है कि सब मूर्तियों को हटाने की घटना को प्रतीक रूप में क्यों प्रयुक्त किया गया ? और सबसे बड़ी बात तो यह कि उसी शायरी में आगे लिखा है — ‘बस नाम रहेगा अल्लाह का ।’ इस प्रकार हम अर्थ लगा सकते हैं कि काबा से अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियों को हटाकर सिर्फ अल्ला ही को रखा जाएगा । और यही काम तो मुहम्मद ने किया था ।
इस्लाम के शील-स्वभाव से परिचित होने के कारण मास्साहब द्वारा इस्लाम को अलविदा कहना मेरे लिए किसी पहेली से कम नहीं था । और चूंकि यह घटना मेरे ही गांव में घटी थी, इसलिए मैं इसे विशिष्ट मानता था । मैं समझ नहीं पा रहा था कि यह उल्टी गंगा कैसे बही ? मैंने भैया से आग्रह किया कि, “मैं मास्साहब से मिलने उनके घर जाना चाहता हूं ।” मेरा प्रस्ताव सुनते ही उनके चेहरे की नरमी गायब हो गई । उन्होंने रोष मिश्रित आश्चर्य से कहा, “तुम मास्साहब से मिलने जाओगे ! नहीं, मैं उन्हें यहीं बुला देता हूं ।” उनके बोलने के अंदाज में अपने श्रेष्ठ गांव का दर्प स्पष्ट झलक रहा था । उनके लिए मास्साहब अभी भी बंगराहा के एक धोबी ही थे, जिनके पुरखे हमारे गांव से कपड़े धोने के लिए ले जाया करते थे और वहां अनेक धोबी हैं, जो आज भी वही काम करते हैं । इसलिए धोबी समाज वैसा का वैसा ही है । हां, मास्साहब अवश्य अपवाद हो गए हैं ।
आधे घंटे के अंदर ही मास्साहब हमारे द्वार पर पधार गए । मैं तब घर के अंदर था । किसी ने आवाज देकर मुझे बाहर बुलाया । मुझसे मास्साहब का परिचय कराया गया । मैंने ससम्मान उन्हें कुर्सी पर बैठने को कहा । मैं ठीक उनके सामने बैठा ताकि बातचीत में सुविधा हो । फिर चाय-पानी का शिष्टाचार संपन्न हुआ । मास्साहब साफ रंग के हैं । लंबी कद-काठी । मोटापा बिल्कुल नहीं । कुर्ता-पैजामा पहने और कंधे पर साफ गमछा रखे मास्साहब सत्तर के कम और साठ के अधिक लग रहे थे । मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि इतने व्यक्तिगत व संवेदनशील विषय का श्रीगणेश कैसे और कहां से करूं ! अपनी झिझक तोड़ते हुए मैंने अपनी बात शुरू की कि, “आप मेरी दृष्टि में अतिविशिष्ट व्यक्ति हैं, क्योंकि सामान्यतः जो नहीं होता है वह आपने किया है । आप साहसी हैं । आपकी संकल्प शक्ति की जितनी प्रशंसा की जाए कम होगी । आपने ऐसा अभूतपूर्व निर्णय कैसे लिया ?”
मास्साहब के व्यक्तित्व से लगता है कि उनके संघर्ष का दौर समाप्त हो चुका है और अब वह संतृप्त जीवन जी रहे हैं । सागर की हलचल अतीत की बात है । अब तो सिंधु जल शांत है । मास्साहब पेंशनधारी हैं । किसी प्रकार की कोई कठिनाई नहीं है । उन्होंने बड़ी आत्मीयता से उत्तर देना आरंभ किया । उनके अनुसार बाल्यकाल में उनके गांव बंगराहा में अधिकतर लोगों के हिंदू होने के कारण हर समय हिंदुओं के तीज-त्योहार होते रहते थे और इस प्रकार गांव में समय-समय पर उत्स का वातावरण तैयार हो जाता था । इस कारण से बाल्यकाल से ही मास्साहब की हिंदू धर्म में रुचि बनने लगी । बड़ा होने पर न केवल यह रुचि बहुत बढ़ गई, बल्कि अब तो इस्लाम से दुराव बढ़ने लगा । इस प्रकार मास्साहब का धर्मांतरण मूलतः हिंदू धर्म से असीम लगाव और इस्लाम से घोर दुराव का परिणाम है ।
वैसे निस्सन्देह हमारे देश में जितने पर्व-त्योहार मनाए जाते हैं, उतने संभवतः कहीं और नहीं मनाए जाते होंगे । यहां तो बात-बात पर त्योहार मनाए जाते हैं । एक कहावत भी है — ‘एक वार और नौ त्योहार’ । इस संदर्भ में ऐसा लगता है कि इस्लाम और ईसाइयत में तो कोई त्योहार ही नहीं है, विशेषकर ऐसे त्योहार जिन्हें सांस्कृतिक कहा जाए । हमारे यहां फसल बुआई का त्योहार है, तो फसल काटने का भी है । हल, कुदाल आदि पूजने का त्योहार है, तो बढ़ई, लोहार के औजारों को पूजने का त्योहार है । यहां तक कि लेखनी का चित्रगुप्त का त्योहार है । मानवीय संबंधों, जैसे कि भाई-बहन के त्योहार भी हैं । इन त्योहारों के अतिरिक्त होली, दिवाली जैसे बड़े-बड़े त्योहार तो हैं ही । त्योहार की बहुलता को लेकर हमारे गांव में एक कहावत प्रचलित है कि,
“आएल लगपांचे,
लागल सब पबनि नाचे ।”
अर्थात, नागपंचमी के आते ही सब पर्व नाचने लगते हैं ।
दूसरी कहावत है,
“आएल छठ,
सब पबनि गेल सठ ।”
अर्थात, छठ पूजा के साथ ही सारे पर्व समाप्त होते हैं ।
पर्वों के समय की गणना के लिए भी कहावत है,
“दसईं बीसे सुकराती,
तेकरे छठे छठ ।”
अर्थात, दशहरे के बीस दिन बाद दिवाली आती है और उसके छह दिन बाद छठ । समझ में नहीं आता कि हमारे यहां दिवाली को सुकराती क्यों कहा जाता है । संभव है इसका अर्थ हो ‘शुक या शुभ रात्रि’ ।
हमारे ठीक विपरीत ईसाइयों में वर्ष भर में कुल तीन बार ही त्योहार मनाए जाते हैं और इन तीनों का संबंध केवल और केवल ईसा मसीह से ही है । एक बार ईसा का जन्मदिन अर्थात 25 दिसंबर, फिर मृत्यु दिवस, जिसे आश्चर्यजनक रूप से ‘गुड फ़्राइडे’ कहा जाता है और तीसरी बार ईस्टर जब कहा जाता है कि ‘गुड फ़्राइडे’ के तीन दिन बाद चमत्कारिक रूप से ईसा जी उठे थे । इन तीन त्योहारों के अतिरिक्त ईसाइयों के पास एक भी ऐसा त्योहार नहीं है, जो प्रकृति, मानवीय संबंध, फसल, ग्रह-नक्षत्र की बदलती स्थिति आदि से संबंधित हो । इस प्रकार ईसाइयों को किसी काल विशेष, स्थान विशेष और ईसा के इतर किसी घटना विशेष से कोई लेना-देना नहीं है । इस दृष्टि से यह मजहब पूरी तरह असांस्कृतिक है । इसकी जड़ किसी भी भौगोलिक क्षेत्र या समाज में नहीं है ।
इसी प्रकार की स्थिति इस्लाम की भी है । इस्लाम के भी तीन ही मुख्य त्योहार हैं — ईद, बकरीद और मुहर्रम । जहां ईद एक महीने तक रोजा रखने के बाद आती है, तो बकरीद यहूदियों, ईसाइयों और मुसलमानों के आदि पैगंबर इब्राहीम के द्वारा अपने बेटे की कुर्बानी को याद करने के लिए मनायी जाती है । मुहर्रम ऐसा त्योहार है, जो सभी मुसलमान नहीं मनाते, क्योंकि यह मूलतः शियाओं का त्योहार है । इन तीनों त्योहारों में केवल ईद ही खुशी का अवसर है । अन्यथा बकरीद तो अपने सर्वप्रिय को बलि चढ़ाने और मुहर्रम तो पूरी तरह मातमी अवसर है । पर इन तीनों त्योहारों का हमारे देश से कोई लेना-देना नहीं है । साथ ही मुसलमान का कोई भी त्योहार हो उसमें सात्विकता नहीं होती । बिना मांसाहार के काम नहीं चलता । इसलिए स्वाभाविक रूप से हिंसा की प्रधानता देखी जा सकती है । बच्चे जिस उल्लास और उमंग से दिवाली मनाते हैं या होली खेलते हैं, या अनेक अन्य त्योहारों पर नाचते-गाते हैं, वैसा कुछ भी इस्लाम में नहीं होता । इस्लाम में वैसे भी नाचने-गाने को कुफ्र माना जाता है ।
हमारे यहां तो सबसे बड़ा पर्व छठ का माना जाता है, जिसके लिए धनवान से निर्धन तक एक पखवाड़े पहले से है तैयारी शुरू कर देते हैं । सच तो यह है कि निर्धनों को और अधिक समय लगता है, क्योंकि उनके पास संसाधन का अभाव होता है । विशेष प्रकार के काले रंग के धान की व्यवस्था की जाती है, जिसे हमारे यहां ‘गमढ़ी’ कहा जाता है । इसी धान के चावल को पीसकर कसार ( लड्डू जैसा ), एक प्रकार का मिष्ठान्न तैयार किया जाता है । इसको बनाना अत्यंत श्रमसाध्य काम होता है । इसी तरह अनेक अन्य प्रकार के मिष्ठान्न तैयार किए जाते हैं । साथ ही नाना प्रकार के ग्रामीण फलों की भी व्यवस्था की जाती है । सबसे बड़ी बात तो यह है इन सब वस्तुओं को वही छू सकता है, जो या तो व्रती हो, या फिर अत्यधिक सफाई पसंद । जहां इन वस्तुओं को रखा जाता है वह स्थान भी गोबर से लिपा हुआ होता है । पकाने के लिए भी अलग से नए चूल्हे की व्यवस्था की जाती है । तात्पर्य यह कि छठ की तैयारी देखते ही बनती है ।
बच्चे बड़ों का सात्विक जीवन, ईश्वर के प्रति उनकी निष्ठा और समर्पण से अत्यंत प्रभावित होते हैं । फिर सर्वाधिक आनंददायक समय होता है छठ के घाट पर । बच्चे पत्तों पर दीए रख कर पानी में तैराते हैं । किनारे पर पटाखे जलाते हैं । इन गतिविधियों के साथ-साथ छठी मैया के सुमधुर गीत अनवरत चलते रहते हैं । छठी मैया का सर्वप्रसिद्ध गीत —- ‘मारबउ रे सुगवा धनूस से सुगवा गिरे मुरझाए ……’ सबको भाव-विभोर किए रहता है । व्रती हाथों में डलिया लिए पानी के अंदर तब तक खड़े रहते हैं जब तक कि सूर्यास्त न हो जाए । यही प्रक्रिया दूसरे दिन भोर से ही दोहरायी जाती है और सूर्योदय के साथ ही देव-आराधना संपन्न होती है । आखिर कौन सहृदय होगा जो इसमें रम नहीं जाएगा ! इसलिए बालक सलीम भी इस पावन पर्व से अपने को अलग नहीं कर पाता था । वैसे इसके लिए उसे बहुत कुछ सुनना भी पड़ता था, क्योंकि छठ जैसे पवित्र पर्व पर कोई मुसलमान आ जाए यह कोई बर्दाश्त नहीं कर सकता । इसलिए न केवल सलीम के मां-बाप उसे घाट पर जाने से रोकते, बल्कि कुछ अधिक धर्मपरायण हिंदू भी उसे डांटते । पर अन्य लोग छोटा बच्चा कह कर उसे वहीं रहने देते । इस प्रकार सलीम प्रत्येक वर्ष छठ पर्व के सारे अनुष्ठान पूरी तल्लीनता से देखता और प्रफुल्लित होता ।
फिर भी दिवाली और होली का त्योहार सलीम के लिए अनुपम आनंद का अवसर होता । वह सारे बच्चों के साथ खूब खेलता । दो-दो पैसे जोड़कर खरीदी गई थोड़ी-सी फुलझड़ी और थोड़े से बम को दिवाली की रात वह लंबे-लंबे अंतराल के बाद जलाता ताकि ऐसा न हो कि बाकी बच्चों के पटाखें देर तक चलें और उसके तुरंत खत्म हो जाएं । दीपावली का तो अर्थ ही है दीपों की आवली अर्थात पंक्ति या माला । इसलिए धुंधलका होते ही सलीम के गांव के सभी घरों के बाहर दीपमालाएं सज जातीं । मिट्टी के छोटे-छोटे दीपों में जलती बाती ऐसा मनोरम दृश्य उत्पन्न करती कि बालक सलीम का मन-मयूर खुशी से नाच उठता । थोड़ी-थोड़ी देर पर महिलाएं दीयों में तेल डालतीं और बुझे दीयों को फिर से जलातीं । सलीम सारी प्रक्रिया मंत्र-मुग्ध होकर देखता । दिवाली की रात वह यही मनाता कि कितना अच्छा हो कि रात बीते ही न ! फिर भी जैसे-जैसे रात बीतती जाती उसकी आंखें बोझल होने लगतीं । मां भी आवाज दे-देकर बुलाने लगती । मजबूरी में उसे सोने के लिए घर जाना पड़ता । दिवाली के कई दिनों बाद तक वह उसी की बातें करता और आनंदित होता ।
इसी तरह होली के दिन वह रंग भरकर मजे से पिचकारी चलाता । उसे तनिक भी अहसास नहीं होता कि वह मुसलमान है और जिन पर्व-त्योहारों में वह शामिल होता है उनका संबंध हिंदुओं से है । चूंकि उसके गांव में मस्जिद भी नहीं थी और मुल्ला-मौलवी तो सिर्फ खतना, निकाह और मौत के समय ही दर्शन देते, इसलिए सांस्कृतिक रूप वह अपने को हिंदू ही मानता था । वैसे भी निर्धन धोबी समाज निरपेक्ष भाव से अपनी जीविका में ही लगा रहता । उसके लिए तो इतना ही बहुत था कि दो वक्त के भोजन का इंतजाम हो जाए ।
पर कोई बात थी, जो समय के साथ सलीम के मन में घर करती चली गई । अब उसे हिंदू और मुसलमान के बीच का अंतर स्पष्ट होने लगा । उसे समझ में नहीं आता था कि मुसलमान इतने अलग क्यों होते हैं । इस इलाके का मुसलमानों का सबसे बड़ा गांव होने के कारण वह सबसे अधिक भवानीपुर के मुसलमानों को देखता । पर सलीम उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं करता । उनका रहन-सहन, बोल-चाल, खान-पान सब उसे अजीब लगता । दूसरी ओर, सलीम के और बड़ा होने पर भवानीपुर वाले धोबी समाज से इस बात की शिकायत भी करने लगे कि क्यों सलीम हिंदुओं के साथ और हिंदुओं की तरह रहता है । यह सब सुनकर सलीम को बुरा भी लगता और मन में रोष भी होता । इस प्रकार उसके मन में भवानीपुर वालों के प्रति दुराव पनपने लगा । कुछ वर्षों के लिए सलीम इन मानसिक परेशानियों से दूर रहा जब वह शहर के कॉलेज में पढ़ने लगा । पर पढ़ाई पूरी कर लेने और नौकरी में आ जाने के बाद वह मन-ही-मन विद्रोही बनने लगा । इस प्रकार बाहर से अत्यंत सफल दिखने वाला व्यक्ति अंदर से अपने-आप से एक अंतहीन संघर्ष करने लगा । सलीम स्वयं से प्रश्न करता कि क्यों मैं ऐसे दोहरे जीवन को जीने के लिए विवश हूं ? क्या इससे बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं है ?
अपने नवविवाहित जीवन का भरपूर आनंद लेने की जगह मास्साहब इसी उनसुलझी गुत्थी को सुलझाने में लगे रहते । पर सबसे बड़ी समस्या यह थी कि अपनी परेशानी किसे बताएं । उन्हें हमेशा रहीमन का दोहा “सुनी इठलैहें लोग सब…..” याद आता । उन्हें यह भी लगता कि उनकी उलझन कोई समझ नहीं पाएगा । फिर भी चूंकि व्यक्ति अपनी पत्नी से सबसे अधिक निकट होता है, इसलिए मास्साहब ने पत्नी से ही बात करने पर विचार किया । पर दूसरे ही पल उन्हें लगा कि पत्नी तो बस साक्षर है, ऐसे में क्या वह मेरी बातों को समझ पाएगी ? इसी सोच-विचार में कई दिन निकल गए । दूसरी ओर, पत्नी के सुखी दाम्पत्य जीवन में मास्साहब की परेशानी एक नई मुसीबत थी, जो कबाब में हड्डी या यौवन के सुख में खलल की तरह थी । वह खुद नहीं समझ पाती थी कि मास्साहब क्यों इतने अन्यमनस्क-से रहते हैं । पत्नी को यह संदेह भी होने लगा था कि कहीं उसमें कोई कमी तो नहीं है । इसलिए एक दिन पत्नी ने उनसे पूछ ही लिया ।
उस दिन मास्साहब पहली बार खुले । उन्होंने सरल भाषा में बचपन से लेकर अब तक की कहानी सुना दी । पत्नी के हाव-भाव से मास्साहब को समझते देर न लगी कि बहुत सारी बातें पत्नी के सिर से ऊपर गुजर रही हैं । फिर भी वह बोलते रहे । बोल लेने के बाद उन्हें थोड़ी राहत मिली । इससे कम-से-कम इस विषय पर बोलने का अभ्यास हो गया । झिझक टूट गई । उन्हें लगा अब वह किसी से भी यह बात कर सकते हैं । फिर भी पत्नी की प्रतिक्रिया निराशाजनक नहीं थी । पत्नी अपने दाम्पत्य सुख को पटरी पर लौटाने के लिए कोई भी कीमत देने के लिए तैयार थी । इसलिए उसका उत्तर यही था कि आप जो भी सोचते हैं ठीक ही सोचते हैं और इस बात को लेकर आपको घबराना नहीं चाहिए । आप जो भी करेंगे हम आपका साथ देंगे । दूसरी बात यह थी कि पत्नी के लिए मास्साहब से अधिक पढ़ा-लिखा और समझदार आदमी पूरी दुनिया में नहीं था । इसलिए पत्नी को लगता था कि मास्साहब गलत सोच ही नहीं सकते ।
इस प्रकार मास्साहब ने अपना पहला बाल-डग आगे बढ़ा दिया । अब वह और भी पारखी नजर से मुसलमानों को देखने-परखने लगे । इस बीच उनके विद्यालय में एक और मुसलमान शिक्षक आ गया । शिक्षक महोदय कट्टर मुसलमान थे । वह पांचों वक्त के नमाजी थे । इसलिए जहां भी वह होते नमाज के समय पर नमाज पढ़ने लग जाते । नमाज के लिए वह क्लास भी छोड़ देते । उन्हें कोई कुछ नहीं कहता । पर मास्साहब को यह सब बहुत नागवार गुजरता । मास्साहब ने उनसे बातचीत करनी शुरू की । वह पूछते कि क्लास छोड़कर नमाज पढ़ने में कैसी धर्मिकता है ? शिक्षक अपने मजहब की महानता पर लेक्चर देना शुरू करते । वह मास्साहब को बताते कि इस्लाम इस मुल्क पर सदियों राज कर चुका है । पर उनकी बातों से प्रभावित होने की जगह मास्साहब इस्लाम की कट्टरता को लेकर अनेकानेक प्रश्न खड़े करते । अंततः शिक्षक झुंझला जाते । अब दोनों के बीच का बातचीत का यह सिलसिला चल पड़ा । मास्साहब का आत्मविश्वास बढ़ने लगा । उन्हें लगा कि उनके पास अकाट्य तर्कों का भंडार है । शिक्षक इस्लाम की जितनी बड़ाई करते मास्साहब को उतना ही अधिक अपने आसपास के मुसलमानों का पिछड़ापन और कट्टरपन दिखाई देता । जब मास्साहब शिक्षक से मुसलमानों के पिछड़ेपन के बारे में पूछते, तो शिक्षक के पास कोई सटीक उत्तर नहीं होता ।
धीरे-धीरे मास्साहब की बातचीत अन्य लोगों से भी होने लगी । मास्साहब को लगने लगा कि वह तर्क में बड़े-बड़ों को परास्त कर सकते हैं । उन्होंने मेहनत करके कुरान का भी अध्ययन किया । उधर मास्साहब शास्त्रार्थ में लगे रहे और इधर समय अपनी गति से बढ़ता गया । कुछ वर्षों में मास्साहब चार बच्चों के पिता बन गए — दो बेटे और दो बेटियां । बच्चों से उनका घर भर गया । उन्होंने बच्चों को पढ़ाने-लिखाने पर भी यथोचित ध्यान दिया, क्योंकि उन्हें शिक्षा का महत्व पता था । बच्चे भी बड़े होने लगे । तभी अचानक एक दिन एक ऐसी घटना घटी कि मास्साहब ने अविलंब इस्लाम को अलविदा कहने का निर्णय ले लिया । हुआ यह कि जिन शिक्षक से उनकी बहस होती थी वह विद्यालय में अकेले ही रहते थे, क्योंकि उन्होंने अपने परिवार को साथ नहीं रखा हुआ था । जबकि मास्साहब विद्यालय से बाहर घर लेकर परिवार सहित रहते थे । उस दिन कोई ऐसा काम था, जिस वजह से मास्साहब को बहुत सुबह विद्यालय जाना पड़ा । विद्यालय में शौचालय नहीं था । इसलिए जो भी विद्यालय में रहता उसे शौच के लिए खेत में ही जाना पड़ता । जब मास्साहब विद्यालय पहुंचे तो वह शिक्षक शौच से निवृत्त होकर लौट रहे थे । शिक्षक के एक हाथ में टोंटी वाला लोटा था । इस लोटे को हमारे यहां ‘बधना’ कहते हैं । संभव है इसका अर्थ हो जो पानी को बांधता या नियंत्रित करता है । मास्साहब ने देखा कि शिक्षक उस लोटे को लिए हुए चापाकल के पास पहुंचकर वहीं बैठ गए । फिर बड़े हिसाब से उस लोटे के बचे हुए पानी से अपना मुंह और दोनों हाथ धोए । मास्साहब को लगा जैसे वह गश खाकर गिर जाएंगे । घिन्न से उनका मन खराब हो गया । उन्हें समझ में नहीं आया कि जिस लोटे को कोई शौच धोने के लिए ले गया हो उसमें पानी बचा कैसे और यदि बचा तो बिना गंदे हाथ को साफ किए उस पानी से मुंह कैसे धो सकता है ? मास्साहब इतने विचलित हुए कि उनका बदन कांपने लगा । उनकी दृष्टि में यह शिक्षक पशु से भी गया गुजरा था ।
अब शिक्षक के प्रति मास्साहब का मन घृणा से भर गया । उन्हें लगा कैसे अब वह इस शिक्षक के पास बैठेंगे और उनसे बात करेंगे । थोड़ी ही देर में उनका चेहरा गुस्से से तमतमाने लगा । जब शिक्षक हाथ-मुंह धोकर मास्साहब के पास आए तो मास्साहब ने उन्हें आड़े हाथों लिया । उन्होंने छूटते ही कहा, “यही तुम्हारा इस्लाम है । अरे तुम इतने गंदे हो सकते हो मैं तो सपने में भी नहीं सोच सकता था ।” पर थोड़ी देर के लिए शिक्षक को समझ में ही नहीं आया कि आखिर बात क्या है । जब उन्हें मास्साहब के गुस्से का कारण समझ में आया तब शिक्षक ने बड़े आराम से उत्तर दिया कि, “अरब के मुसलमान ऐसे ही करते हैं” और यह भी कि, “इसमें अजीब क्या है ?” शिक्षक ने इस्लाम के बारे में सफाई से जुड़ी और भी बातें बताईं । उन्होंने कहा कि, “अरब में लकड़ी की कमी होने के कारण दांत साफ करने लिए दातून का भी घोर अभाव होता था, इसलिए वहां के लोग एक दातून को कम-से-कम एक महीना चलाते थे । एक बार दांत मलकर उस दातून को रेत में गाड़ देते, जिसे फिर अगली सुबह रेत में से निकाल कर इस्तेमाल करते । यह सिलसिला लगभग एक महीना चलता था, जब तक कि दातून पूरी तरह घिसकर समाप्त न हो जाए ।”
मास्साहब अब मूर्छित ही होने वाले थे कि विद्यालय में तीसरे शिक्षक का पदार्पण हुआ, जिससे व्यतिक्रम हुआ । मास्साहब ने किसी तरह खुद को संभाला और प्रतीक्षा करने लगे उचित अवसर की जब वह इस आदिम जमाने के मूढ़ मगज शिक्षक से फिर से बहस कर सकें । वह अवसर उन्हें मिला दोपहर को जब विद्यालय में छुट्टी हुई । वह सीधे उस शिक्षक के पास गए और उन्हें बुरा-भला कहने लगे । मास्साहब बोले कि, “तुम कैसे आदमी हो, रहते यहां हो और परंपराएं मानते हो अरब की ? तुम्हारा अरब से क्या लेना-देना है ? वहां के बारे में तो मैं भी जानता हूं कि वहां पानी की इतनी कमी थी कि अरब में जन्म लिया हुआ आदमी जीवन में एक बार भी नहीं नहा पाता था । इसीलिए वहां के लोग अपने शरीर की दुर्गंध मिटाने के लिए इत्र का अत्यधिक प्रयोग करते थे । तो क्या तुम भी नहीं नहाओगे ? अरे, यहां पानी की कोई कमी नहीं है । फिर क्यों तुम एक ही बधने के पानी से शौच से निवृत्त होते हो और उसमें से भी जान-बूझकर पानी बचाते हो और आखिर में उसी पानी से हाथ-मुंह धोते हो ? तुम्हें घिन्न नहीं आती ? अगर कोई तुम्हें ऐसा करते देख ले तो तुम्हारे बारे में क्या सोचेगा ? इन्हीं सब बातों से तो हिंदू हमसे दूर भागते हैं ।”
मास्साहब बोलते-बोलते थक गए । परंतु शिक्षक पर कोई असर नहीं हुआ । वह तो इस्लाम, इस्लाम करते रहे । उसने उल्टा मास्साहब पर आरोप जड़ते हुए कहा कि, “तुम इस्लाम के साथ गद्दारी करते हो । तुम हर समय हिंदुओं के साथ और हिंदुओं की तरह रहते हो और तुमको देखकर कोई कह भी नहीं सकता कि तुम मुसलमान हो, जबकि मुझे देखो दूर से ही कोई भी कह देगा कि मैं मुसलमान हूं ।”
आश्चर्यजनक रूप से मास्साहब को अब शिक्षक के इन कठोर शब्दों पर क्रोधित होने के बजाय आनंद की अनुभूति हो रही थी । वह चाहते भी तो यही थे कि लोग उन्हें हिंदू समझें । इसलिए उन्होंने शिक्षक से इतना ही कहा कि, “तुमको और तुम्हारे जैसे लोगों को कोई नहीं सुधार सकता । हिंदू ठीक ही कहते हैं कि वे जो भी करते हैं मुसलमान उसके उलट करते हैं । हिंदू पूरब की ओर पूजा करते हैं और उनके अधिकतर मंदिर और यहां तक कि संभव हो तो घर भी पूरब रुख का बनाते हैं । लेकिन मुसलमान पश्चिम मुंह करके नमाज पढ़ते हैं । मस्जिद भी इसी तरह बनाई जाती है कि नमाज पढ़ने वाले का किब्ला यानी दिशा मक्का की ओर हो । पर एक फर्क है । हिंदू सारे संसार में कहीं भी हों पूरब उनके लिए पूजा करने की दिशा है । लेकिन मुसलमान यदि मक्का के पश्चिम में हैं तो उन्हें पूरब की दिशा में नमाज पढ़नी है और यदि मक्का के उत्तर और दक्षिण में हैं तो दक्षिण और उत्तर दिशा में नमाज पढ़नी है । इसका मतलब हुआ कि मुसलमान का सब कुछ मक्का के चारों ओर ही घूमता है ।”
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए मास्साहब बोले, “भोज-भात में जहां हिंदू सीधे पत्ते पर भोजन करते हैं, वहीं मुसलमान उसी पत्ते को पलटकर खाते हैं । वैसे तो अरब में इतने बड़े पत्ते मिलते ही नहीं होंगे । परंतु पत्ता पलटने का कारण यह है कि उनके पास पत्ता धोने के लिए पानी नहीं होता था और उल्टा पत्ता गंदगी से अपेक्षाकृत मुक्त रहता है, जबकि सीधा पत्ता गंदा होता है । इसलिए जहां सालों भर पर्याप्त मात्रा में पानी उपलब्ध हो वहां पत्ते को उलटकर खाना सिवाय मूर्खता के कुछ नहीं है ।”
अब मास्साहब अल्ला पर आ गए । वह बोले, “मुसलमान कहते हैं कि उनका अल्ला निराकार है, पर फिर मक्का में अल्ला कैसे कैद है और वह भी काबा के पत्थर में । सबसे अजीब बात तो यह है कि उसी पत्थर को लाखों मुसलमान इबादत के लायक समझते हैं और उसे ही चूमते हैं । फिर क्यों मुसलमान पत्थर की मूर्ति पूजने वालों को काफिर कहते हैं ? क्यों मुसलमानों ने सारी दुनिया के मंदिरों और मूर्तियों को तोड़ा है ? यहां तक कि काबा में जो तीन सौ से अधिक मूर्तियां थीं उन्हें भी तोड़ दिया । सबसे बड़ी बात तो यह कि जैसे हिंदू मंदिर में भगवान की परिक्रमा करते हैं, वैसे ही हज पर गए मुसलमान भी काबा के सात चक्कर लगाते हैं । बताओ, इतना कुछ हिंदुओं की तरह करके किस बात पर मुसलमान इतराते हैं और फिर किस तरह हिंदुओं को काफिर कहते हैं ?”
इस्लाम के बारे में मास्साहब के ज्ञान से शिक्षक अवश्य प्रभावित हुए, परंतु उन्हें अपने इस्लाम की बुराई सुनना पसंद नहीं था । इसलिए वह अपना पुराना राग ही दोहराने लगे कि, ‘तुम मुसलमान नहीं हो और लगता है कि हिंदुओं ने तुम्हारा दिमाग खराब कर दिया है । इसलिए तुम अपने रास्ते चलो और मैं अपने रास्ते ।” मास्साहब को भी अंततः यही कहना पड़ा कि, “तुम जिस तरह जीना चाहते हो, जीओ। मैं जैसे जी रहा हूं वैसे ही जीऊंगा ।”
अपना रास्ता अलग करके भी शिक्षक बुरी तरह भड़क गए । उनको असल में सबसे अधिक पहले वाली बात चुभ गई थी कि “तुमको और तुम्हारे जैसे लोगों को कोई सुधार नहीं सकता ।” जबकि शिक्षक का तो मानना था कि वही असली मुसलमान हैं और मास्साहब तो उनकी नजर में काफिर हैं । इस प्रकार इस्लाम के दृष्टिकोण से मास्साहब निंदनीय हैं और मास्साहब को ही सुधरना चाहिए न कि उन्हें । फिर भी मास्साहब की हेठी तो देखिए कि वह मुझको सुधारेंगे । तिलमिलाए शिक्षक ने मास्साहब को काफिर, गद्दार, इस्लाम के नाम पर धब्बा आदि कहना शुरू कर दिया । मास्साहब कौन से पीछे रहने वाले थे । उन्होंने तो शिक्षक को जानवर, आदिम जमाने का असभ्य, कट्टर, इस्लाम को बदनाम करने वाला आदि-आदि विभूषणों से विभूषित किया । अंततः मास्साहब बड़बड़ाते हुए विद्यालय से बाहर निकल गए ।
बड़े ही असहज और बेचैन अवस्था में तेज कदमों से वह घर की ओर चले जा रहे थे । फिर भी कहीं-न-कहीं उनके अंतस्थल से एक ध्वनि निकलती सुनाई देनी लगी, जिससे उन्हें शांति मिल रही थी । उन्हें लगा जैसे कि निर्णय की घड़ी पास आ रही है । इसी मन:स्थिति में मास्साहब घर पहुंचे । घर पहुंच कर पहले तो खाया-पीया । फिर पत्नी को अपना चिरसंचित निर्णय सुना दिया । बड़े ही आसान शब्दों में उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि, “अब मैं मुसलमान नहीं रहूंगा । चाहे कुछ भी हो जाए अब मैं हिंदू बनूंगा और बतौर हिंदू ही मरूंगा । मैं अपनी इस जिंदगी को बर्बाद नहीं होने दूंगा ।”
इस बार पत्नी की प्रतिक्रिया सकारात्मक नहीं थी । वह ठिठक-सी गई । उसके मुंह से एक शब्द नहीं निकला । मास्साहब को तो जैसे जोर का झटका लगा । इस विषय में यदि उन्हें पूरी दुनिया में किसी से उम्मीद थी, तो वह उनकी पत्नी ही थी । अब पत्नी के बदले तेवर से उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करें ! पत्नी ने जब मास्साहब को हताश होते हुए देखा तो वह पास आकर बोली कि, “मैं आपके इस फैसले से परेशान नहीं हूं । लेकिन मुझे तो इस बात की चिंता सता रही है कि हमारे बच्चों का क्या होगा ? उनकी शादी कैसे होगी ? क्या हमारे लड़कों के लिए हिंदू लड़कियां और लड़कियों के हिंदू लड़के मिलेंगे ? अब तक हम मुसलमान हैं । सारी दुनिया हमें मुसलमान ही मानती है । जब हम हिंदू हो जाएंगे तो कौन हमारे बच्चों को अपनाएगा ?
पत्नी की व्यावहारिक बातें सुनकर मास्साहब गंभीर हो गए । उन्हें पत्नी की बातों में तथ्य नजर आया । वास्तव में पहली बार उन्हें दुनिया की कड़वी सच्चाई का अहसास हुआ । उन्हें लगा कि क्यों सामाजिक परिवर्तन, राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तन से कई गुना अधिक कठिन होता है । समस्या की जटिलता और गंभीरता को भांपते हुए मास्साहब ने पत्नी से और बात नहीं की । वह बिल्कुल चुप हो गए। अब तक उनके बच्चे किशोरावस्था में पहुंच चुके थे । उन्हें लगा कि मुश्किल से पांच-सात साल में बच्चों की शादी करनी होगी । वह अचानक काल्पनिक दुनिया में भ्रमण करने लगे, जिसमें उनकी रिश्ते की हर संभव कोशिश खारिज हो रही थी । वह गिड़गिड़ाते थे, पर सामने वाले पर कोई असर नहीं होता था । जब उस दुनिया से वापस लौटे तो देखा कि शरीर पसीने से तर हो गया है । उनके दिल की धड़कन तेज हो गई है । दूसरे ही पल उन्होंने सोचा कहीं ऐसा तो नहीं है कि मैं अपनी सोच के कारण पूरे परिवार की जिंदगी को दांव पर लगा रहा हूं । वह अपनी ही नजर में छोटे बन गए । काफी समय तक मनन-चिंतन के बाद उनके मन में एक विचार कौंधा और उनका मन हल्का होने लगा । उन्होंने सोचा कि जिस ऊपर वाले ने यह समस्या दी है वही इसका हल भी निकालेगा । यह सोचकर उनका मन थोड़ा शांत हुआ । रात को ठीक से सोने से सुबह उनका मन थोड़ा और अच्छा हो गया ।
अन्य दिनों की तरह अगले दिन मास्साहब विद्यालय गए । पर अब उनके सामने एक महती उद्देश्य है । उन्होंने हिंदू शिक्षकों से धीरे-धीरे बात चलानी शुरू की कि, “यदि मैं हिंदू बन जाऊं, तो मेरे बच्चों की शादी कैसे होगी ?”
आरंभ में तो हिंदू शिक्षकों ने उनकी बात को हल्के में लिया और किसी-किसी ने तो मजाक उड़ाना भी शुरू कर दिया । एक ने तो कहा कि, “हिंदू बनाए नहीं जाते जन्म लेते हैं । हिंदुओं में जातियां हैं, आप किस जाति में शामिल होंगे ? और आपके चाहने से क्या होता है, क्या वह जाति आपको स्वीकार करेगी ?” पर एक शिक्षक ऐसा भी मिला, जिसने मास्साहब को सलाह दी कि मैं एक कबीरपंथी को जानता हूं, वह जात-पात नहीं मानते । क्या पता उनसे आपको कुछ लाभ मिल जाए ।” फिर उन कबीरपंथी से मिलने का दिन तय किया गया । तदनुसार शिक्षक महोदय मास्साहब को कबीरपंथी के पास ले गए । कबीरपंथी पचास के ऊपर के रहे होंगे । उन्होंने कबीर पर काफी अध्ययन किया था । उन्होंने मास्साहब का खुले दिल से स्वागत किया । उन्होंने यह भी कहा कि आपकी समस्या हमारी समस्या है और हम सब मिलकर आपकी समस्या को सुलझाएंगे । पास के सीतामढ़ी शहर में समय-समय पर कबीरपंथियों की सभा होती थी । इसलिए आगामी सभा में शामिल होने के लिए कबीरपंथी ने मास्साहब को निमंत्रण दे दिया ।
मास्साहब को पहली बार सफलता की मद्धिम लौ दिखाई देने लगी । मास्साहब बड़ी आतुरता से उस सभा की प्रतीक्षा करने लगे । इस बीच उन्होंने अपनी पत्नी से भी इस बारे में बात की । पत्नी को अभी भी समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे उनके बच्चों की शादी होगी ? फिर भी मास्साहब को थोड़ा प्रसन्न देखकर उन्हें भी अच्छा लग रहा था कि क्या पता कोई चमत्कार हो जाए ।
सभा का नियत दिन आ गया । मास्साहब सुबह-सुबह खूब तैयार होकर घर से निकले । पक्की सड़क पर पहुंचकर बस की प्रतीक्षा करने लगे । थोड़ी देर में बस आई और मास्साहब उसमें सवार हो गए । बस पहले से ही भरी हुई थी, इसलिए किसी तरह उन्हें खड़े होने की जगह मिली । करीब आधे घंटे में ही वह सीतामढ़ी पहुंच गए । बस से उतरकर उन्होंने रिक्शा लिया, क्योंकि सभास्थल बस स्टैंड से लगभग चार मिलोमीटर दूर था । सभास्थल पहुंचते ही उन्हें पूर्व परिचित कबीरपंथी दिखाई दिए । मास्साहब लपक कर उनकी ओर मुड़े । कबीरपंथी ने भी उन्हें देख लिया । अपने पुराने अन्दाज में ही उन्होंने मास्साहब का स्वागत किया और आसपास खड़े कबीरपंथियों से मास्साहब का परिचय कराया । हर बीतते पल के साथ मास्साहब का विश्वास और आत्मबल बढ़ने लगा ।
थोड़ी ही देर में सभा की कार्यवाही आरंभ हुई । पहले अनेकानेक विषयों पर चर्चा हुई । कुछ विषयों पर निर्णय लिए गए । कुछ विषयों पर आगे और मंथन करने की बात की गई । इस प्रकार जब मुख्य कार्य संपन्न हो गए, तब मास्साहब के शुभचिंतक कबीरपंथी खड़े हुए और उन्होंने सभाध्यक्ष से एक समस्या पर चर्चा करने की अनुमति मांगी । सभाध्यक्ष ने ‘हां’ में सिर हिला दिया । तदुपरांत कबीरपंथी महोदय ने बड़े विस्तार से मास्साहब की सारी व्यथा-कथा सुनाई । अंत में उन्होंने कहा कि मास्साहब बड़ी आशा से हमारे बीच आए हैं । यदि उनकी समस्या का हल नहीं निकाला गया, तो उनका दिल टूट जाएगा । इसलिए इस गंभीर विषय पर सभा में विचार होना चाहिए । सभाध्यक्ष ने उनकी बातों का समर्थन किया और सभा से राय मांगी । थोड़ी ही देर में सभा के बीच से अनेक स्वर उठने लगे । सभी कहने लगे, “मास्साहब के बच्चों की शादी के लिए उन्हें कहीं नहीं जाना होगा । हम सैकड़ों परिवार हैं । उनका हममें से जिस किसी परिवार में रिश्ता पसंद होगा उससे रिश्ता हो जाएगा ।” उसके बाद तो समवेत स्वर में यही निर्णय लिया गया कि, “मास्साहब के बच्चे हमारे बच्चे हैं और हमारे बीच ही उनकी शादी होगी ।” करतल ध्वनि के साथ सभा की समाप्ति की घोषणा हुई । इस भावुक दृश्य को देखकर मास्साहब का गला रूंध गया । उनकी आंखों की पोरों से अश्रुबूंदें टपकने लगीं । वह दौड़कर गए और अपने शुभेच्छु कबीरपंथी के चरणों में गिर गए । कबीरपंथी ने अपने दोनों हाथों से मास्साहब को उठाया और गले लगा लिया । मास्साहब तो अब खूब रोने लगे । लगा कि सालों का दबा लावा कमजोर जमीन फोड़कर बह निकला है । कबीरपंथी उनकी पीठ सहलाते रहे । जब भावना की बाढ़ रुकी तो कबीरपंथी ने मास्साहब से कहा कि, “दो सप्ताह बाद आपको विधिवत कबीरपंथ में दीक्षित किया जाएगा । इसके लिए हम लोग आपके घर आएंगे । आप घर जाकर तैयारी कीजिए ”
मास्साहब वहां से चले । उनका मन हो रहा था कि कितनी जल्दी वह घर पहुंचें और अपनी पत्नी को अपने जीवन की सर्वोत्तम उपलब्धि के बारे में बताएं । काश ! उनके पैरों में पंख लगे होते तो वह उड़ कर पल भर में घर पहुंच जाते । पर अभी तो रिक्शा लेकर बस स्टैंड जाना था और फिर बस लेकर घर । रास्ते भर वह आज के दिन के बारे में ही सोचते रहे । वह अपने नए जीवन को लेकर अतिउल्लसित थे । उन्हें लग रहा था, जैसे वह सदियों से किसी कारागार में बंद हों और आज कोई उसके द्वार के शीघ्र खुलने की सूचना दे गया हो । अब उनकी परतंत्रता समाप्त हो जाएगी । जब वह घर पहुंचे तो उनके चेहरे और हाव-भाव को देखकर ही पत्नी समझ गईं कि मास्साहब कोई दुर्ग जीत कर आ रहे हैं । पत्नी ने पीने के लिए पानी दिया और कहा कि, “हाथ-मुंह धो लीजिए तब तक मैं खाना लाती हूं ।” लेकिन मास्साहब में इतना धैर्य कहां था ! उन्होंने कहा, “अरे, बैठो मेरी बात सुनो । आज कमाल हो गया । हमारी सारी परेशानी दूर हो गई । तुम्हें अपने बच्चों की शादी की चिंता थी उसका भी उपाय हो गया है । अब तो पत्नी के मुखमंडल पर भी स्मित खेलने लगी । जो बच्चे आसपास थे वे भी सुवचन सुनने के लिए अपने पिता के निकट आ गए । मास्साहब ने पूरे दिन के घटनाक्रम का विस्तार से वर्णन किया । इस बीच कई बार उनका गला भर आया । कई बार उनके मुंह से स्पष्ट शब्द नहीं निकले । पर सबने उन शब्दों के पीछे का भाव समझ लिया । पत्नी की आंखें नम हुईं । बच्चे भी भावुक हुए ।
सारी बातें हो जाने के बाद मास्साहब ने पत्नी को सूचना दी कि दो सप्ताह के बाद हमारे घर कबीरपंथी पधारेंगे । इसके लिए बड़ी तैयारी करनी होगी । हमारे घर पर भजन-कीर्तन होगा । फिर हम लोगों को दीक्षित किया जाएगा और अंततः सब लोग भोजन करेंगे । घर में पहली बार ऐसा उत्सवी माहौल बनने वाला था, इसलिए घर के सभी सदस्य सोत्साह तैयारी में जुट गए । मास्साहब अपने सभी हिंदू शिक्षक मित्रों को भी इस अवसर पर आमंत्रित करना चाह रहे थे । उन्होंने पत्नी से पूछा । पत्नी ने हामी भर दी ।
अगले दिन जब वह विद्यालय गए तो सभी हिंदू शिक्षकों को सारी बातों की जानकारी दी और उक्त दीक्षा कार्यक्रम में उपस्थित रहने के लिए आमंत्रित भी कर दिया । एक शिक्षक ने उन्हें सलाह दी कि यदि आप कबीरपंथी होने जा रहे हैं, तो संत कबीरदास को पढ़ लीजिए । मास्साहब को यह सलाह भा गई । वह पुस्तकालय जाकर कबीर पर जो भी सामग्री उपलब्ध थी उठा ले आए । अब मास्साहब महान संत कबीर के विषय में पढ़ने लगे । जब वह परम विद्वान व ख्याति-लब्ध साहित्यकार हजारीप्रसाद द्विवेदी की पुस्तक “कबीर” पढ़ रहे थे तो उनकी दृष्टि अग्रलिखित शब्दों पर टिक गई — “कबीरदास ने अपने को जुलाहा तो कई बार कहा है, पर मुसलमान एक बार भी नहीं कहा ।” इन शब्दों को मास्साहब ने बार-बार पढ़ा । कबीर के जीवन की कथा उन्हें स्वयं की कथा लगने लगी । कबीर जन्म से और नाम से मुसलमान थे । ‘कबीर’ अरबी भाषा का शब्द है । मास्साहब को लगा जैसे कबीर ने भी वैसी ही परेशानी झेली होगी, तभी उन्होंने एक बार भी स्वयं को मुसलमान नहीं कहा । यही बात मास्साहब पर भी लागू होती थी । उन्होंने भी कभी खुलकर स्वयं को मुसलमान नहीं माना था ।
कबीर का जन्म जुलाहा जाति में हुआ था और उन्हें अपने पेशे पर गर्व था । कपड़ा बुनने का कर्म उन्होंने कभी नहीं छोड़ा । मास्साहब को कबीर के ये शब्द बहुत पसंद आए — “जोलाहा बीनहु हरिनामा, जाके सुर–नर–मुनि धरे ध्याना ।” वह सोचते अपने पेशे को लेकर कबीर का गर्व-भाव तो देखिए कि मैं ऐसा हरिनामा बुनता हूं, जिसका ध्यान सुर, नर, मुनि सभी धरते हैं । कबीर से अपना साम्य बिठाते हुए मास्साहब ने सोचा कि कैसा संयोग है कबीर कपड़ा बुनते थे और हमारी जाति कपड़े को धोती-चमकाती है । इसका अर्थ यह हुआ कि हमारी जाति कबीर के सृजन को संभालने का काम करती है । अब उन्हें अपने समाज के धोबी कर्म पर गर्व होने लगा ।
मास्साहब अब विराट निर्गुण और निराकार ब्रह्म, जिसे कबीर ने ‘राम’ कहा था, की शरण में जाने लगे । उन्हें कबीर की पवित्र वाणी मिली —
“निर्गुण राम जपहु रे भाई … ।”
“रसना राम गुन रमि रस पीजै … ।” और
“राम सुमरि निरभै हुआ, सब जग गया अऊत … ।”
अग्रलिखित भजन को पढ़कर तो उन्हें परमानंद की अनुभूति होने लगी —
“जियरा मेरा फिरै रे उदास ।
राम बिना निकसि न जाई सास,
अजहूं कौन आस ।
जहां-जहां जाऊं राम मिलावै न कोई ।
कहो संतो कैसे जीवन होई ।
जरै सरीर यहु तन कौन बुझावै ।
अनल घसि-घसि अंग लगाऊं ।
राम बिना दारुन दुख पाऊं …।
मास्साहब कबीर की मधुर वाणी में डूबने-उतरने लगे । उन्हें अच्छा लगा कि कबीर के आराध्य ‘राम’ हैं । उन्हें इस बात से असीम सुख की अनुभूति होती थी कि कबीर हिंदू धर्म के ही निर्गुण पक्ष को लेकर चले थे । कबीर के गुरु भी हिंदू ही थे । कबीर ने स्वयं कहा है, “कासी में हम प्रगट भये हैं, रामानंद चेताये ।” इतना ही नहीं, कबीर योगविद्या से न केवल परिचित थे, बल्कि उसका अभ्यास भी करते होंगे, क्योंकि उन्होंने बड़े विस्तार से योग का वर्णन किया है । योग इस देश की अत्यंत प्राचीन और दुर्लभ उपलब्धि है, जिस पर मास्साहब को गर्व था । मास्साहब कबीर की ध्यान-साधना से भी प्रभावित हुए ।
पर मास्साहब को इस बात पर आश्चर्य होता था कि कबीर का ब्रह्म तो निर्गुण है, निराकार है फिर कैसे उन्होंने ‘राम’ नाम को ही अपनी भक्ति का आधार बनाया ? जबकि राम तो दशरथ के पुत्र और अयोध्या के राजा थे और इस रूप में ही वे सारे संसार में प्रसिद्ध हैं । इस प्रकार एक ओर निराकार ब्रह्म के रूप में ‘राम’ और दूसरी ओर साकार, सदेह ‘राम’ ! उन्हें यह बात बिल्कुल विरोधाभासी लगी । जब हजारीप्रसाद द्विवेदी की पुस्तक ‘कबीर’ में ही उन्हें यह लिखा मिला कि, “कई बार आलोचकों ने आश्चर्य प्रकट किया है कि उन्होंने ( कबीर ने ) निर्गुण राम की उपासना कैसे बताई,” तो उन्हें बड़ा संतोष हुआ । उन्हें लगा कि मैं अकेला नहीं हूं ऐसा सोचने वाला । हो सकता है इसी पहेली को सुलझाने के लिए कबीर को कहना पड़ा हो —-
“संतौ, धोखा कासूं कहिए ।
गुनमैं निरगुन, निरगुनमैं गुन, बाट छाड़ि क्यूं बहिए … ।”
अपने इन शब्दों के द्वारा कबीर ने एक प्रकार से निर्गुण-सगुण के भेद को ही पाटने का प्रयास किया है । इस प्रकार निर्गुण-सगुण का भेद सामान्य जन को ही दृष्टिगोचर होता है । सिद्ध पुरुषों के समक्ष यह भेद तिरोहित हो जाता है । तभी तो गोस्वामी तुलसीदास को भी कहना पड़ा कि, “सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा । गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा ।” साथ ही मास्साहब को यह भी लगा कि संभव है कि अनेक जातियों के मंदिर प्रवेश पर जो प्रतिबंध था उस कारण से भी कबीर हिंदू धर्म के कर्मकांड, मंदिर आदि से दूर हुए होंगे । कबीर के प्रसिद्ध शब्द हैं — “जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान ।” यह अकारण नहीं है कि कबीर जाति पर कठोर प्रहार करते हैं और केवल गुण को महत्व देते हैं । उन्होंने इतना ही सोचकर इस विषय पर विराम लगाया कि जो भी हो, कबीर ने ‘राम’ की भक्ति की थी और यह वही ‘राम’ हैं, जो कण-कण में व्याप्त हैं । इसलिए मास्साहब को रामभक्त बनकर अपूर्व सुख की अनुभूति होने लगी ।
इस प्रकार पंद्रह दिन पंद्रह रात कबीर के बारे में ज्ञान अर्जित करके मास्साहब को मन-ही-मन अच्छा लगने लगा । उन्होंने सप्रयास इतना श्रम किया, क्योंकि उन्हें पता था कि आने वाले समय में उन्हें अनेक लोगों से तर्क-वितर्क करना पड़ेगा । इस बीच उस इलाके के मुसलमानों को इस आसन्न धर्म-परिवर्तन की भनक लग गई । मुसलमानों के कई गांवों में तो खलबली मच गई । मास्साहब के बारे में बात होते ही मुसलमान उन्हें गद्दार-गद्दार और काफिर-काफिर कहने लगे । कुछ कट्टर मुसलमानों ने तो बलप्रयोग करने का फैसला किया । मास्साहब को भी इस बात की जानकारी मिल गई । मास्साहब के परिजन उनसे अपने इस निर्णय पर पुनर्विचार करने का आग्रह करने लगे । मास्साहब थोड़ी देर के लिए चिंता में पड़ गए । उन्होंने अपने गुरु सदृश कबीरपंथी से संपर्क साधा । कबीरपंथी ने अपने पंथ के अन्य लोगों से बात की । अंततः बात पुलिस तक पहुंच गई । पुलिस ने कबीरपंथियों को आश्वस्थ किया कि कुछ पुलिस वाले नियत समय पर मास्साहब के घर पर उपस्थित रहेंगे ताकि कोई अप्रिय घटना न घटे ।
बहुप्रतीक्षित समय आ गया । मास्साहब का घर मंगलकारी आम्रपत्र की माला से सजाया गया । समय पर लगभग एक दर्जन कबीरपंथी उपस्थित हुए । साथ ही उपस्थित हुए मास्साहब के मित्रगण । कबीर के भजन आरंभ हुए । सब साथ मिलकर भजन गाने लगे । सारा वातावरण भक्तिमय बन गया । लगभग दो घंटे के भजन के बाद विधिवत मास्साहब, उनकी पत्नी और उनके बच्चों को कबिरहा गमछे दिए गए । सबने अपने गले में गमछे को लपेट लिया । सबको बताया गया कि किस प्रकार प्रतिदिन भजन करना है और सप्ताह में एक बार सत्संग करना है । इनके अलावा समय-समय पर होने वाली कबीरपंथी सभा में भी शामिल होने के लिए कहा गया । वैसे तो मास्साहब से किसी ने नहीं कहा कि वह अपना नाम बदलें । लेकिन उन्होंने स्वयं निर्णय सुनाया कि मैं अपना मुसलमानी नाम हटा दूंगा और परिवार में भी इस बारे में बात करूंगा । यदि उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी तो वे भी अपने मुसलमानी नाम हटा देंगे । अंततः बिना किसी व्यवधान के कार्यक्रम समाप्त हुआ । सभी आगंतुक चले गए । मास्साहब अब बदले-बदले से नजर आ रहे थे । आज इस्लाम से उन्होंने अपना सदियों पुराना रिश्ता तोड़ दिया था । उनके लिए यह नया जन्म था ।
समय का पहिया तीव्र वेग से चलने लगा । कुछ कट्टर मुसलमानों को छोड़कर शेष सभी ने मास्साहब के इस परिवर्तित स्वरूप को स्वीकार कर लिया । बच्चे बड़े हुए । वे विवाह के योग्य हुए । सारे कबीरपंथियों में योग्य वर-वधू की खोज आरंभ हुई । एक के बाद एक करके बिना किसी विशेष कठिनाई के मास्साहब के चारों बच्चों की शादी हो गई । उनका घर बस गया । बेटियां तो ससुराल चली गईं, पर बेटे-बहू घर में रह गए । कुछ दिनों तक घर में खूब चहल-पहल रही । लेकिन बाद में बेटों को भी नौकरी के कारण बाहर जाना पड़ा । अब उनका घर लगभग खाली हो गया । इस बीच उनके सेवानिवृत्त होने का समय भी आ गया । अब तक वह अपने गांव से बाहर ही रहे थे । इस प्रकार उनकी नई दुनिया से उनके गांव का कोई विशेष संबंध नहीं रह गया था । इसलिए उन्होंने हमारे गांव में जमीन खरीद कर घर बनाने का निर्णय लिया । तदनुसार उनका घर तैयार हुआ और वह हमारे गांव में सदा के लिए बस गए । आज मास्साहब सपरिवार हिंदू हैं और हिंदू समाज में ऐसे घुल-मिल गए हैं कि कोई कह नहीं सकता कि कभी वह मुसलमान थे ।
लेखक निवेश एवं लोक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग , वित्त मंत्रालय ,भारत सरकार में संयुक्त सचिव हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं ।
29 अगस्त 2020