आधी सदी पहले ही अर्थशास्त्रियों ने किसी भी देश के आर्थिक विकास में शिक्षा के महत्व को समझ लिया था। बाद में यह विचार फैलने लगा कि शिक्षा किसी भी व्यक्ति को स्थायी रूप से परिवर्तित कर देती है और उसे मानव पूँजी (ह्यूमन कैपिटल) बना देती है। इससे नवाचार और नयी तकनीकों के हस्तांतरण तथा अपने उपयोग लायक बनाने में सहायता मिलती है। इसके अलावा अपराध में कमी, सुशासन, बेहतर स्वास्थ्य और अंततः अंतःसंबंधी विश्वास पैदा करने में भी शिक्षा से सहायता मिलती है।
डॉ. अच्युतानन्द घिल्डियाल के अनुसार प्राचीन भारतीय अर्थशास्त्रियों ने अर्थ प्राप्ति के साधनों में विद्या को मुख्य माना है। डॉ. घिल्डियाल की पुस्तक “प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारक” से पता चलता है कि हमारे देश में शिक्षा को जितना महत्त्व और सम्मान दिया गया है वह विलक्षण है। इस सन्दर्भ में डॉ. घिल्डियाल ने आचार्य मनु से लेकर आचार्य शुक्र, आचार्य कौटिल्य, आचार्य कामन्दकी तक का उल्लेख किया है। नीचे दिए गए तीन श्लोकों से हमें अपने-आप दिख जाएगा कि प्राचीन मनीषियों की शिक्षा के प्रति कैसी सोच थी।
अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम्।
अधनस्य कुतो मित्रममित्रस्य कुतः सुखम्।।
विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम् ।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम् ॥
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति।।
वैसे तो इस निबंध का मूल विषय उच्च शिक्षा है। परंतु इसका आरंभ प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा से करना उपयोगी होगा। क्योंकि उच्च शिक्षा प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा का स्वाभाविक विस्तार होती है। यदि किसी कारणवश प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा अच्छी नहीं है तो उच्च शिक्षा का अच्छा होना अत्यंत कठिन होगा। इस संदर्भ में ध्यातव्य है कि हमारे देश में अभी हाल तक प्राथमिक शिक्षा भी अभिजात वर्ग तक ही सीमित थी। क्योंकि इसे सर्व सुलभ नहीं बनाया गया था। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय जब देश की आबादी आज की लगभग एक चौथाई थी तो कम-से-कम सभी बच्चों के लिए प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराना उतनी बड़ी चुनौती नहीं थी। परंतु देश की व्यवस्था ने इस दिशा में अपेक्षित ध्यान नहीं दिया। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि आज जबकि देश की साक्षरता दर 74 प्रतिशत है तब भी शेष 26 प्रतिशत निरक्षर इतनी बड़ी संख्या में हैं कि इतने निरक्षर विश्व के किसी दूसरे देश में नहीं हैं। यह हमारे देश का अत्यंत लज्जास्पद पहलू है, जो हमारी तमाम उपलब्धियों पर प्रश्न चिह्न लगाता है। जबकि अनेक विद्वानों का मत है कि प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा का देश के स्वास्थ्य, उद्योग धंधों का विकास, प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि आदि पर व्यापक असर पड़ता है। इस तरह से देखें तो स्वतंत्रता के बाद के आरंभिक तीन दशकों तक आर्थिक विकास की अत्यंत धीमी गति के लिए प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा की उपेक्षा भी एक महत्तवपूर्ण कारण रही है।
यह संतोष का विषय है कि पहली बार अब लगभग सभी बच्चों का पहली कक्षा में दाखिल होना शुरु हो गया है और इनमें से 60 प्रतिशत से अधिक बच्चे माध्यमिक स्तर तक पहुँचने लगे हैं। यह हाल की बहुत बड़ी उपलब्धि है। इसका सीधा प्रभाव उच्च शिक्षा पर देखा जा सकता है।
उच्च शिक्षा के सम्बन्ध में उल्लेखनीय है कि भारत ही वह भाग्यशाली देश है, जहाँ विश्व का प्राचीनतम विश्वविद्यालय तक्षशिला स्थापित हुआ। इसके अलावा प्राचीन विश्वविद्यालय की एक लंबी सूची है – नालंदा, विक्रमशिला, पुष्पगिरी (उड़ीसा में) आदि। इसी तरह दक्षिण भारत में भी उच्च शिक्षा की सुदीर्घ परम्परा रही थी। वहां के विशालकाय मंदिर शिक्षा केन्द्र होते थे। उत्तर भारतीय विश्वविद्यालय विश्व प्रसिद्ध थे। नालंदा के विषय में कहा जाता है कि अपने उत्कर्ष काल में यहाँ 8,500 छात्र और 1,500 शिक्षक निवास करते थे। इसकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक थी और नेपाल, तिब्बत, चीन, कोरिया, मंगोलिया आदि देशों से यहाँ छात्र व शिक्षक आते थे। इन विश्वविद्यालयों में धर्म और धर्मेतर दोनों तरह के विषय पढ़ाए जाते थे। अमर्त्य सेन कहते हैं कि जब नालंदा छः सौ वर्ष पुराना हो चला था, तब यूरोप का प्राचीनतम विश्वविद्यालय बोलोग्ना का जन्म हुआ।
परंतु दुर्भाग्य से मुस्लिम आक्रमणकारियों ने इन विश्वविद्यालयों को नष्ट कर दिया। इसी के साथ उच्चशिक्षा के स्वर्णिम युग का पटाक्षेप हुआ। मध्यकाल में इस्लामी शिक्षा के लिए संस्थान तो खुले पर वे उतने प्रसिद्ध कभी नहीं हुए। दूसरी ओर औपचारिक शिक्षा की जो परंपरा सदियों से चली आ रही थी वह संभवतः अनौपचारिक होकर मंदिरों, मठों और घरों में सीमित हो गई।
हमारे देश में आधुनिक उच्च शिक्षा का आरंभ वैसे तो 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में ही हो गया था। परंतु व्यवस्थित और औपचारिक रुप में इसका आरंभ 1857 में तीन विश्वविद्यालयों की स्थापना के साथ माना जाता है। इन तीन विश्वविद्यालयों की स्थापना अपने आप में इतनी बड़ी ऐतिहासिक घटना थी कि इसे इतिहासकार रामचन्द्र गुहा ने 1857 की ‘दूसरी क्रान्ति’ का नाम दिया है। यह अत्यंत गर्व का विषय है कि जब इन तीन विश्वविद्यालयों की स्थापना की गयी तब संभवतः यूरोप और अमेरिका के बाहर कहीं भी आधुनिक विश्वविद्यालय की स्थापना नहीं की गई थी। यहाँ तक कि ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड तथा जापान जैसे विकसित देशों के भी सबसे पुराने विश्वविद्यालय हमारे इन विश्वविद्यालयों के समकालीन ही हैं। परंतु देश का दुर्भाग्य यह रहा कि कालान्तर में कॉलेज, विश्वविद्यालय आदि की संख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी नहीं हुई। जिसका परिणाम यह हुआ कि उच्च शिक्षा में दाखिल होने वाले छात्रों का अनुपात न्यूनतम ही रहा।
उच्च शिक्षा में दाखिल छात्रों के अनुपात को ‘सकल नामांकन अनुपात’ या Gross Enrolment Ratio (जीईआर) कहा जाता है। यह अनुपात वस्तुतः 18 से 23 वर्ष के बीच के कुल छात्रों में से जितने उच्च शिक्षा में नामांकित होते हैं उनका अनुपात होता है। इससे किसी भी देश की उच्च शिक्षा की क्षमता का पता चलता है। उदाहरण के लिए, दक्षिण कोरिया में यह अनुपात सौ प्रतिशत से भी अधिक है। तो इसका अर्थ यह हुआ कि दक्षिण कोरिया में जितने भी छात्र 18 से 23 वर्ष के बीच के हैं वे सभी उच्च शिक्षा में नामांकित हैं। इसके विपरीत भारत में सिर्फ 27 प्रतिशत छात्र ही उच्च शिक्षा में हैं। दूसरे शब्दों में, लगभग तेरह करोड़ छात्रों, जिन्हें आदर्श स्थिति में उच्च शिक्षा में होना चाहिए, की जगह भरात में सिर्फ 3.2 करोड़ छात्र ही उच्च शिक्षा में नामांकित हैं। इसका आशय यह भी है कि लगभग 73 प्रतिशत युवक उच्च शिक्षा से वंचित हैं और इस प्रकार देश उनकी पूरी क्षमता का उपयोग नहीं कर पा रहा है।
शिक्षा विशेषज्ञों की राय है कि सकल नामांकन अनुपात की दृष्टि से उच्च शिक्षा के विकास के तीन चरण हैं। पहले चरण को एलीट या ‘संभ्रांत’, दूसरे को मैसिफिकेशन या ‘बहु-जन’ और तीसरे को यूनिवर्सलाइजेशन या ‘सर्व-जन’ कहा जा सकता है। पहले चरण में उच्च शिक्षा संभ्रांत वर्ग तक ही सीमित रहती है और इसमें नामांकित छात्रों का अनुपात 15 प्रतिशत के नीचे ही रहता है। दूसरे चरण में शिक्षा बहु-जन तक पहुँचती है और यह अनुपात 15 से 25 प्रतिशत के बीच रहता है। 25 प्रतिशत का अनुपात पार करते ही शिक्षा सर्व-जन के लिए होती है। इस चरण में अनुपात सौ प्रतिशत या उससे ऊपर जा सकता है। स्पष्ट है कि लगभग 27 प्रतिशत की नामांकन अनुपात के साथ भारत की उच्च शिक्षा बहुजनीकरण के चरण में है।
फिर भी अभी भारत को बहुत लंबी यात्रा तय करनी है ताकि सकल नामांकन अनुपात सौ प्रतिशत के पास पहुँचे। परंतु वर्तमान अनुपात 26.87 प्रतिशत भी संतोषजनक कहा जा सकता है। क्योंकि 1980 के दशक तक उच्च शिक्षा का वैश्विक सिरमौर – यूनाइटेड किंगडम का अनुपात भी मात्र 25 प्रतिशत ही था। यहाँ उल्लेखनीय है कि भारत का उच्च शिक्षा का अनुपात 1980 में सिर्फ पाँच प्रतिशत ही था। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि 1857 से 1980 तक यह अनुपात बढ़कर सिर्फ पाँच प्रतिशत तक पहुँचा। जबकि 1980 से 2015 तक यह प्रतिशत 27 तक पहुँच गया। यह भारत के उच्च शिक्षा के इतिहास में क्रांतिकारी परिवर्तन है। इसी प्रकार 1857 में जहाँ हमारे यहाँ तीन विश्वविद्यालय थे, वहीं 1947 में ये बढ़कर सिर्फ बीस तक ही पहुँचे। परंतु 1947 से 2015 तक यह संख्या बढ़कर 753 तक पहुँच चुकी है। इसलिए प्रश्न उठता है कि ऐसा विप्लवी परिवर्तन कैसे हुआ?
1991 के आर्थिक सुधार के बाद उच्च शिक्षा की माँग और आपूर्ति के बीच इतनी बड़ी खाई बन गयी कि सरकार के पास उच्च शिक्षा में निजी क्षेत्र को प्रवेश की अनुमति देने के सिवाय कोई विकल्प नहीं था। इसका परिणाम यह हुआ कि पिछले लगभग ढाई दशकों के बाद जहाँ व्यवसायिक शिक्षा में निजी क्षेत्र का हिस्सा 80 से 90 प्रतिशत तक पहुँच गया, वहीं सामान्य शिक्षा में इसका हिस्सा पहुँच गया लगभग 50 प्रतिशत तक। उच्च शिक्षा के प्रसार में वैसे तो सरकार ने भी कुछ योगदान किया है। लेकिन कुल-मिलाकर सर्वाधिक योगदान निजी क्षेत्र का ही रहा है। छात्रों की संख्या की दृष्टि से भारत की उच्च शिक्षा का आकार विश्व में चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा है। अभी हाल तक अमरीका से पीछे रहने वाला भारत अब उससे आगे निकल गया है।
भारतीय उच्च शिक्षा का एक अनोखा पहलू यह है कि सभी विकासशील देशों में भारत एकमात्र देश है, जिसके शैक्षणिक संस्थानों ने अपनी सर्वाधिक शाखाएँ विदेशों में स्थापित की हैं। एक अनुमान के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत के कम-से-कम तीस शैक्षणिक संस्थानों की शाखाएँ कई वर्षों से दूसरे देशों में कार्यरत हैं। आज पश्चिम में अमेरिका से लेकर पूर्व में मलेशिया और सिंगापुर तक अनेक देशों में भारत के संस्थान जैसे बिट्स पिलानी, बीआईटी मेसरा तथा ऐमिटी यूनीवर्सिटी आदि ने अपनी शाखाएँ स्थापित करके भारत की शिक्षा को वैश्विक रूप देने में अभूतपूर्व योगदान किया है।
पूरे विश्व में अनेक देशों के शैक्षणिक संस्थानों के द्वारा जितनी शाखाएँ दूसरे देशों में स्थापित हैं, उनमें भारतीय शाखाओं का प्रतिशत पन्द्रह है। ये शाखाएँ दूसरे देशों की शाखाओं के साथ प्रतिस्पर्धा करके आगे बढ़ रही हैं। आरंभ में भारतीय शाखाएँ वहीं स्थापित हुईं जहाँ भारतीय मूल के लोग सर्वाधिक थे। लेकिन धीरे-धीरे ये विश्व के अनेक हिस्सों में फैल गईं। इस संदर्भ में महत्वपूर्ण पहलू यह है कि अनेक स्थानों पर भारतीय संस्थानों को अपनी शाखाएँ स्थापित करने के लिए स्थानीय प्राधिकरणों द्वारा आग्रह किया गया। इतने के बावजूद अभी शोधार्थियों का ध्यान इस ओर नहीं गया है।
आज किसी भी देश की अर्थव्यवस्था के विकास के लिए यह अपरिहार्य माना जाता है कि वहाँ अनुसंधान और विकास यानी आरएंडडी पर अपेक्षित धनराशि खर्च की जा रही हो। इस संदर्भ में वैसे तो यह महत्वपूर्ण है कि किसी भी देश के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का कितना हिस्सा आरएंडडी पर खर्च होता है। पर इसके स्थान पर यह ज्यादा महत्वपूर्ण है कि कुल-मिलाकर कितनी बड़ी धनारशि खर्च हो रही है। इस तरह देखने से पता चलता है कि भारत सिर्फ उन गिने-चुने विकासशील देशों में है जो आरएंडडी पर सबसे अधिक धनराशि खर्च करते हैं। इसका एक परिणाम यह हुआ है कि ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स (वैश्विक नवाचार सूचकांक) के हिसाब से पिछले कई सालों से भारत की रैकिंग में लगातार सुधार होता गया है। इस वर्ष अर्थात 2017 में भारत की रैकिंग साठवीं है। पिछले वर्ष भारत की रैकिंग छयासठवीं थी। अर्थात एक ही वर्ष में छः पायदान ऊपर उठना मामूली बात नहीं है। यह कितनी बड़ी उपलब्धि है इसे इस बात से समझा जा सकता है कि पूरे एशिया में भारत से बेहतर रैकिंग कुछ ही देशों की है जैसे- सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, जापान, इजराय़ल, साइप्रस तथा संयुक्त अरब अमीरात। सबसे बड़ी बात तो यह है कि पूरे दक्षिण और मध्य एशिया में भारत सबसे ऊपर है।
नवाचार सूचकांक में भारत का प्रदर्शन यदि नवाचार की गुणवत्ता के आलोक में किया जाए तो हम पाते हैं कि विश्वविद्यालीय प्रदर्शन, विद्वतापूर्ण आलेखों की पहुँच और पेटेंट आवेदनों के अंतर्राष्ट्रीय आयामों को लेकर भारत अग्रिम पंक्ति के देशों में गिना जाता है। स्पष्ट है कि नवाचार और अनुसंधान व विकास का सीधा संबंध विश्वविद्यालयों से है। इनोवेशन के हिंदी में कई अर्थ दिए गए हैं, जैसे- नवाचार, नवोन्मेष, नूतन व्यवहार, नवरीति, नवीन मार्ग, नई खोज करने की प्रवृत्ति आदि। नवाचार अर्थशास्त्र, व्यापार, तकनीकी एवं समाज शास्त्र में बहुत महत्व का विषय है। नवाचार (नव + आचार) का अर्थ किसी उत्पाद, उत्पादन प्रक्रिया या सेवा में थोड़ा या बहुत बड़ा परिवर्तन लाने से है। नवाचार के अंतर्गत कुछ नया और उपयोगी तरीका अपनाया जाता है, जैसे- नयी विधि, नयी तकनीक, नयी कार्य पद्धति, नई सेवा, नया उत्पाद आदि। नवाचार को अर्थतंत्र का सारथी माना जाता है। किसी संस्था के संदर्भ में नवाचार के द्वारा दक्षता, गुणवत्ता, बाजार में पकड़ आदि के सुधार सम्मिलित हैं। अस्पताल, विश्वविद्यालय, ग्राम पंचायतें आदि सभी संस्थाएँ नवाचारी हो सकती हैं।
जो संस्थाएँ नवाचार नहीं कर पातीं, वे नाश को प्राप्त होती हैं। उनका स्थान नवाचार में सफल हुई संस्थाएँ ले लेती हैं। नवाचार में सबसे महत्वपूर्ण चुनौती प्रक्रिया नवाचार तथा उत्पादन नवाचार में सामंजस्य बैठाना होता है। वर्तमान समय में अनेक प्रकार के नवाचार की बात की जाती है। उनमें से कुछ हैं – तकनीक नवाचार, सेवा नवाचार, व्यापार मॉडल नवाचार, अभिकल्प (डिजाइन) नवाचार, सामाजिक नवाचार। इस प्रकार स्पष्ट है कि विश्वविद्यालय नवाचार के केन्द्र होते हैं और बिना नवाचार के आज की अर्थव्यवस्था प्रगति नहीं कर सकती।
हम अपनी सुविधा के लिए देश के शैक्षणिक संस्थानों को तीन हिस्सों में बाँट सकते हैं- केन्द्र सरकार के संस्थान, राज्य सरकारों के संस्थान और निजी संस्थान। राज्य सरकारों के संस्थानों/विश्वविद्यालयों की संख्या 345 है। संख्या की दृष्टि से अभी भी सर्वाधिक छात्र राज्य सरकारों के संस्थानों में पढ़ते हैं। परंतु दुर्भाग्य यह है कि ये संस्थान राजनीतिक हस्तक्षेप, भ्रष्टाचार, धनाभाव, अच्छे शिक्षकों आदि आधारभूत सुविधाओं के अभाव जैसी चुनौतियों से जूझते रहे हैं। ये चुनौतियाँ इतनी बड़ी हैं कि तीनों सर्वाधिक पुराने विश्वविद्यालय- कलकत्ता, बॉम्बे और मद्रास अपनी गरिमा व प्रतिष्ठा गवाँ चुके हैं । जहाँ पश्चिमी देशों में जो विश्वविद्यालय जितने पुराने होते हैं उनकी उतनी ही अधिक प्रतिष्ठा होती है, वहीं हमारे यहाँ उल्टा हुआ है। फिर भी यह कठोर सत्य है कि सरकारी संस्थानों में पढ़ने वाले छात्रों में लगभग 90 प्रतिशत राज्य के संस्थानों में ही पढ़ते हैं। इसलिए इनका सुधार और परिष्कार हमारे लिए जीनव-मरण का प्रश्न होना चाहिए।
केन्द्र सरकार के 47 संस्थान हैं। इन्हें धन की कमी का सामना नहीं करना पड़ता। कई केन्द्रीय विश्वविद्यालय तो भारत ही नहीं विश्व में भी जाने जाते हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय, जेएनयू, बीएचयू, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, आईआईटी, आईआईएम, एम्स आदि। परंतु केन्द्रीय संस्थानों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि पिछले कुछ वर्षों में अनाप-शनाप नए संस्थान खोले गए हैं। इनमें अभी पर्याप्त शिक्षक नहीं हैं। आधारभूत सुविधाएँ भी पूरी तरह मुहैया नहीं करायी गयी हैं। लेकिन इन्हें जैसे-तैसे शुरू कर दिया गया है। यह विडम्बनापूर्ण स्थिति है। एक ओर राज्य के संस्थान दम तोड़ रहे है। वहीं दूसरी ओर केन्द्र द्वारा नए-नए संस्थान खोले जा रहे हैं। पर असल में होना यह चाहिए था कि किसी भी तरह राज्य के संस्थानों को सारी सुविधाएँ दी जातीं और उन्हें वैश्विक स्तर तक ले जाने की कोशिश होती।
यह घोर आश्चर्य का विषय है कि ठीक दो दशक पहले इस देश में एक भी निजी विश्वविद्यालय नहीं था। पर अब तक 235 निजी विश्वविद्यालय खुल चुके हैं। निजी क्षेत्र के संस्थान के नाना आकार और प्रकार हैं। इनमें सबसे अच्छे वे हैं, जिन्हें सिर्फ लाभार्थ नहीं खोला गया है। इनमें प्रमुख हैं- भारतीय विद्या भवन, सीएमसी वेलूर, बिट्स पिलानी, बीआईटी मेसरा, शिव नाडर विश्वविद्यालय, अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय, अशोक विश्वविद्यालय, आई एस बी हैदराबाद, मणिपाल विश्वविद्यालय, एसपी जैन, आईएमटी गाजियाबाद, वीआईटी आदि। इनका शैक्षणिक स्तर ऐसा है कि ये केन्द्रीय संस्थानों से मुकाबला कर रहे हैं। पर दूसरी ओर बड़ी संख्या में ऐसे निजी संस्थान भी हैं जो सिर्फ लाभार्थ हैं। इनके यहाँ शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाना बहुत जरूरी है।
पर देश में उच्च शिक्षा के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती सरकारी हस्तक्षेप की है। यूजीसी, एआईसीटीई, एमसीआई जैसे विनियामक उच्च शिक्षा के प्रसार और गुणवत्ता को बढ़ाने में सबसे बड़ी बाधा हैं। दरअसल ये विनियामक आज के लिए बने ही नहीं थे। जब इन विनियामकों की स्थापना हुई थी तब उच्च शिक्षा पर सरकार का लगभग एकाधिकार था। पर अब ऐसा नहीं है। अब तो विनियामकों की भूमिका न्यूनतम है। परंतु विनियामक अपने पुराने ढर्रे पर ही काम कर रहे हैं। अब तो शिक्षण संस्थान खोलने में जितनी आसानी होगी उसी से कोई भी व्यक्ति इस क्षेत्र में आ सकेगा। ऐसा संभव है कि एक शिक्षक जो बहुत प्रतिभावान हो और बिना लाभ या परमार्थ की दृष्टि से कोई संस्थान खोलना चाहे। पर आज वह ऐसा नहीं कर सकता। विनियामकों की ऐसी-ऐसी शर्तें हैं जिन्हें सिर्फ धन्ना सेठ, माफिया और राजनीतिक व्यक्ति ही पूरा कर सकते हैं। इसलिए समय की माँग है कि तत्काल इन विनियामकों की कायापलट हो।
विशेषज्ञों के मतानुसार शिक्षा में आरक्षण की व्यवस्था ने इसकी गुणवत्ता को प्रभावित किया है। सर्वप्रथम, शैक्षणिक संस्थान स्वभावतः स्वायत्त होते हैं। इनकी स्वायत्तता ही शिक्षा की गुणवत्ता को बनाए रखती है और आगे भी बढ़ाती है। संस्थान की स्वायत्तता का अर्थ यह है संस्थान किसे पढ़ाएगा और किससे पढ़वाएगा उसे चुनने का अधिकार संस्थान के पास होना चाहिए। परंतु न तो छात्र और न ही शिक्षक चुनने का अधिकार संस्थान के पास है। इसका अर्थ यह हुआ कि यहाँ सरकारी हस्तक्षेप चरम पर है। और यदि ऐसा किया ही गया है तो फिर इन संस्थानों से गुणवत्ता की अपेक्षा करना बिल्कुल अनुचित होगा।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि देश के विकास में जितना योगदान उच्च शिक्षा या शिक्षा का है उतना किसी और क्षेत्र का नहीं। असल में शिक्षा कार्यबल तैयार करती है और किसी देश का कार्यबल कैसा है, उसी पर उस देश का विकास निर्भर करता है। इस तरह किसी भी देश के विकास में उच्च शिक्षा का योगदान अन्यतम है।
लेखक निवेश एवं लोक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग , वित्त मंत्रालय ,भारत सरकार में संयुक्त सचिव हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं ।
4 सितम्बर 2018