– प्रोफेसर डॉक्टर संजय जैन नहीं रहे!! –
आज शुक्रवार की सुबह कैसी मनहूस सुबह थी, जब एक मित्र से इस अनपेक्षित, अप्रत्याशित और हृदय को क्षत-विक्षत करने वाली घटना का अत्यंत दुखद समाचार मिला । पल भर के लिए तो जैसे मेरी जान में जान ही नहीं रही । संज्ञाशून्य और हतप्रभ ! मैं आगे बात नहीं कर सका । मन कर रहा था कि जी भर रोऊं । शोकाकुल मन । समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं । उसके बाद से किसी चीज में मन रमा नहीं । मन रह-रहकर संजय की ओर जा रहा था । फिर सोचा क्यों न उनके विषय में ही लिखूं !
वैसे पहली बार मैं उनको ‘संजय’ नाम से संबोधित कर रहा हूं । उनके रहते मैं ही नहीं, हम सभी मित्रगण उन्हें जैन साहब कहते । और वह हम सबसे बहुत नाराज होते । कहते, तुम सामंती मानसिकता वाले लोग, मुझे ‘जैन साहब’ बुलाते हो । किसी मित्र को क्या ऐसे संबोधित किया जाता है ! पर हम सभी उनकी इस नाराजगी पर खूब हंसते और कहते कि जैन के साथ साहब ही ‘सूट’ करता है । धीरे-धीरे हमारी ऐसी आदत हो गई कि कभी भी सिर्फ ‘संजय’ या ‘संजयजी’ जैसे संबोधन हमारे मुंह से नहीं निकले । पर अब तो वह इस नश्वर संसार को ही छोड़कर चले गए हैं । अब किसे नाराज करूं और किसे चिढ़ाऊं ? अब तो कुछ भी नहीं बचा । ऐसी मृत्यु ईश्वर किसी को न दे । मात्र 55 वर्ष की आयु । अनंत संभावनाओं का सागर समय से इतना पहले चला जाएगा, यमराज के अतिरिक्त कोई और नहीं सोचा सकता था । जो अपनी आयु पूरी करके न जाए, उसे हमारे शास्त्रों में अकाल मृत्यु कहा गया है । हमारे शास्त्रों में व्यक्तिगत संस्कार के लिए मनुष्य के जीवन का विभाजन चार आश्रमों में किया गया है — ब्रह्मचर्य, गृहस्था, वानप्रस्थ और संन्यास । इस प्रकार 50 वर्ष की आयु तक गृहस्थाश्रम रहता है और उसके बाद से वानप्रस्थ और अंततः संन्यास । यदि इस दृष्टि से देखें तो मित्र संजय के लगभग दो आश्रम शेष रहते थे । और इसीलिए यह मृत्यु अकाल मृत्यु है ।
बात जुलाई 1989 की है । मेरा नामांकन जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में हुआ और रहने के लिए मुझे सतलुज छात्रावास में जगह मिली । यूं ही बातचीत होने लगी और एक-दूसरे से परिचय हुआ । धीरे-धीरे हमारी मित्र मंडली बड़ी होती गई । संजय वास्तव में मित्रों के मित्र थे । जो भी उनके मित्र बने उनसे संजय की मित्रता जीवनपर्यंत बनी रही । मेरा जो उनसे नैकट्य था उसका एक अतिरिक्त कारण हमारा हिंदी प्रेम था । संजय हिंदी के अनन्य भक्त थे । नेहरु विश्वविद्यालय जैसे लगभग अंग्रेजीपरस्त संस्थान में उन्होंने अपना पीएचडी का शोधग्रंथ हिंदी में लिखा । हिंदी के वह जन्मजात लिक्खाड़ थे । संभवतः किशोरावस्था से ही हिंदी पर उनका अधिकार बन गया था । वह खुलकर लिखते थे । उनके लेखन में सहजता थी । उनकी भाषा में प्रवाह था । पढ़ने को जी करता था । जो भी लिखते सारगर्भित लिखते । बहुत लंबा नहीं लिखते ।
उन दिनों मैं भाषा आंदोलन से जुड़ा था । इस विषय में संजय से हमारी बातचीत होने लगी । हम दोनों के विचार मिलने लगे और धीरे-धीरे मित्रता प्रगाढ़ होती गई । मुझे याद है । उन्होंने बिना मुझे बताए झट-पट से हिंदी में एक लेख लिखकर जनसत्ता समाचार पत्र को भेज दिया और अगले ही दिन वह लेख प्रकाशित होकर आ भी गया — ‘मुझे हिंदी में रोटी चाहिए’ । नेहरु विश्वविद्यालय के परिसर से ही सटे भारतीय जन संचार संस्थान से पत्रकारिता में संजय ने डिग्री भी ली थी और इस प्रकार अपनी पीएचडी के अतिरिक्त पत्रकारिता दूसरा क्षेत्र था, जिसमें उनकी रुचि थी । और वह अनेक पत्रकारों से संपर्क में भी रहते थे ।
नेहरु विश्वविद्यालय में अपनी पीएचडी के दौरान ही वह दक्षिण-पूर्व एशिया की यात्रा पर गए । उन्होंने अपने विदेश प्रवास से हमलोगों को एक अत्यंत रोचक पत्र लिखा, जिसको पढ़ने का हमारा कौतुहल देखने योग्य था । क्योंकि तब हम में से किसी ने भी विदेश यात्रा नहीं की थी ।
सुबह, दोपहर और रात का भोजन हमलोग साथ ही करते । कई बार हम एक-दूसरे की प्रतीक्षा करते । जब सभी मिल जाते, तभी हमारे कदम मेस में जाने के लिए उठते । संजय नाटकों के अन्यतम प्रेमी थे । उन्होंने ही हमलोगों में नाटक देखने का शौक जगाया । उन्हीं के कारण हम नाटक के तकनीकी पहलुओं से परिचित हुए । पत्रकारिता की ही तरह नाटक के क्षेत्र में भी वह अनेक कलाकारों से परिचित थे । जब भी नया नाटक आता वही हमलोगों को बताते । फिर हम उसको देखने की तैयारी करते और हमारी सारी मंडली बस में बैठकर या खड़ी होकर मंडी हाउस पहुंच जाती । नाटक देखने के बाद हमलोग घंटों आपस में उसकी बारीकियों पर चर्चा करते । नाटक देखकर लौटने के बाद कई बार हमें रात्रि भोजन नहीं मिलता, तो हम ब्रेड और संजय का इंदौरी अचार खाते ।
इस प्रकार समय को पंख लग गए और उनका मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग के द्वारा आयोजित परीक्षा में चयन हो गया और उन्हें मध्य प्रदेश में लेक्चरशिप मिल गई । उनकी पहली पोस्टिंग हुई ग्वालियर के पास एक छोटे-से शहर शिवपुरी में । पर उनका मन इन्दौर में ही रहा ।
वह अपने गृहनगर इन्दौर को इतना प्यार करते थे कि उससे दूर रहना उनके लिए असह्य था । काफी कोशिश करके अंततः वह इन्दौर पहुंचे । इन्दौर पहुंचते ही उन्हें नया जीवन मिल गया । अध्ययन-अध्यापन के अतिरिक्त अब उनका नाट्य-प्रेम पुनर्जागृत हुआ । कुछ ही दिनों बाद एक मराठी नाटक के सिलसिले में वह दिल्ली आए । उन्होंने फोन करके मुझे सूचना दी और आदेश दिया कि, ‘नाटक देखने आ जाओ ।’ पर बताया नहीं कि उस नाटक में संजय स्वयं क्या कर रहे हैं । करोल बाग में एक मराठी रंगशाला है, नाटक उसी में होना था । तब मुझे इस रंगशाला के विषय में पता नहीं था । बाद में जानकारी मिली कि जब मराठों ने दिल्ली जीत ली थी और मुगल बादशाह उनके कब्जे में था, तब आज के बिड़ला मंदिर से करोल बाग तक के क्षेत्र में मराठे ही रहते थे । इसीलिए आज भी वहां अनेक मराठी रहते हैं और वहां एक रोड है, जिसका नाम पेशवा रोड है । इस प्रकार उसी मराठी रंगशाला में नाटक का आयोजन हुआ । नाटक देखते-देखते अचानक पर्दे पर संजय प्रकट हुए । वह किसी आदिवासी की भूमिका में थे । भूमिका छोटी थी, लेकिन प्रभावकारी । उस नाटक को असल में उस वर्ष का सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार मिला था । नाटक समाप्त होने के बाद संजय से बहुत देर तक बातचीत हुई । हमारी यह मुलाकात लंबे समय बाद हुई थी ।
इसके बाद संजय कई बार दिल्ली आए । एक-दो बार मेरे घर भी आए । घर के अलावा हम अन्यत्र भी मिले । 2002 की बात है । मुझे श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति के तत्त्वावधान में इन्दौर की तत्कालीन सांसद श्रीमती सुमित्रा महाजन द्वारा आयोजित सम्मेलन में व्याख्यान देने का अवसर मिला । यह मेरी इन्दौर की पहली यात्रा थी, इसलिए ततक्षण संजय को जानकारी दी । इस सम्मेलन के लिए मुझे तीन दिन इन्दौर में रुकना पड़ा । दूसरे ही दिन संजय मुझे अपने घर ले गए । उन्होंने अपनी मां, पिताजी, भाई, पत्नी, भाभी सबसे मिलवाया । सभी आत्मीयता से मिले । उसके बाद संजय मुझे खिलाने के लिए संभवतः देशभर में विख्यात सर्राफा बाजार ले गए । सर्राफा बाजार की गलियों में नाना प्रकार के व्यंजन मिलते हैं । मेरे लिए यह अनोखा अनुभव था ।
अगले दिन वह मुझे अपने स्कूटर पर शहर के अनेक स्थानों पर ले गए । हम दोनों का इतना साथ रहा कि वही मुझे एयरपोर्ट तक छोड़ने भी आए ।
इसके बाद लंबे समय तक फोन पर ही बात होती रही । संभवतः एक-दो बार संजय दिल्ली आए होंगे तब हमारी मुलाकात हुई होगी । अब सीधे 2016 में जब मैं सरकारी दौरे पर उज्जैन गया, जहां मुझे सिंहस्थ की तैयारी देखनी थी, तो इन्दौर होकर ही दिल्ली आने की योजना बनी । मैं प्रसन्न हुआ, क्योंकि संजय से मिलने का अवसर मिल रहा था । इस प्रकार उनसे संपर्क किया और उनके घर गया । दोपहर का समय था । अब उनके पिताजी का साया उनके सर से उठ चुका था । घर में मां थीं । पर उनकी पत्नी कहीं गई हुई थीं । उनके भाई भी घर पर नहीं थे । माताजी के हाथों का बना खाना हम दोनों ने साथ ही खाया । अभी मैं खा ही रहा था कि अचानक माताजी बिल्कुल फूली हुई एक रोटी चिमटे में पकड़े मेरी ओर आईं और उन्होंने मेरी थाली में रोटी रख दी । इससे पहले कि मैं यह कहूं कि अभी पहले वाली रोटी खतम नहीं हुई है, उन्होंने मेरी आधी खाई रोटी थाली से उठा ली और बोलीं कि, ‘पहले वाली ठंडी हो गई थी, यह ताजा रोटी खाओ ।’ मेरे लिए यह विलक्षण मातृत्व स्नेह था । मेरी मां को इस संसार से विदा हुए 35 वर्ष हो चुके थे । मैं भाव-विह्वल हो गया । बाद में मैंने संजय को बताया भी कि संभवतः 35 वर्ष बाद मुझे मां का सुख मिला ।
आज यह सोचकर मेरा हृदय फटा जा रहा है कि उस मां पर क्या गुजर रही होगी, जिसके सामने ही उसका बेटा इस दुनिया से चला गया । सोचता हूं कैसे जिएंगी वह !
हमारी अगली मुलाकात जो कि अब अंतिम हो गई है बस छः महीने पहले हुई थी । मैं सरकारी दौरे पर इन्दौर गया । जिस दिन मेरा दौरा तय हुआ उसी दिन मैंने संजय को सूचित कर दिया । पहले दिन संजय अपने किसी सेमिनार के सिलसिले में उज्जैन गए थे, इसलिए उस दिन तो फोन पर ही बात हो सकी । दूसरे दिन वह पूरी तैयारी के साथ आए और बोले कि हम ढाई घंटे बात करेंगे । और वैसा ही हुआ । वह हमारे होटल आए । हमलोग बेरोकटोक ढाई घंटे तक सारी दुनिया को भूलकर बातें ही करते रहे ।
जब इस बार इन्दौर से लौटा, तो सोचा कि इन्दौर पर कुछ लिखूं । इनेक अर्थों में इन्दौर नगरी से मैं प्रभावित रहा हूं । इसलिए एक लंबा आलेख या कहिए यात्रा-वृत्तांत मैंने लिखा । इस आलेख की एक प्रति मैंने डाक से संजय को भिजवाई । इस आलेख के साथ मेरा एक लघु पत्र भी था, जिसमें मैंने लिखा था कि, ‘इन्दौर से मेरा लगाव केवल और केवल आपके कारण हुआ है, इसलिए यह आलेख आपको समर्पित है ।’
इसके बाद कुछ ऐसा संयोग हुआ कि लगभग हर पंद्रह-बीस दिनों पर उनसे फोन पर बात हो जाती थी । असल में वह इतने सहृदय थे कि आकाशवाणी इन्दौर के कलाकार उनसे अपने काम के लिए कहा करते और संजय मुझसे कहते । जब कोरोना का लॉकडाउन आरंभ हुआ, तो मैंने अपना एक नया लेख ‘राजा राममोहन राय : एक रहस्यमय व्यक्तित्व’ उनको भेजा । इस लेख पर तुरंत उनकी प्रतिक्रिया आ गई । उसके बाद मैंने अपनी अगली पुस्तिका ‘नामघर : असम का यात्रा-वृत्तांत’ भेजा, जो अपेक्षाकृत लंबा था, इसलिए संजय ने कहा कि, ‘समय मिलते ही पढूंगा’ । इस बीच लॉकडाउन के समय का लाभ उठाते हुए उन्होंने एक के बाद एक तीन-चार नाटक घर में ही बैठे-बैठे बना लिए । इन नाटकों की पटकथा उन्होंने स्वयं लिखी । स्वयं ही निर्देशन किया और स्वयं ही नाटक की सारी भूमिकाएं भी निभाईं । ईश्वर की कैसी लीला है कि इनमें से पहले नाटक में एक वृद्ध व्यक्ति को संदेह है कि उसे कोरोना हो गया है । पर इस सुखांत नाटक में उस वृद्ध व्यक्ति की रिपोर्ट नेगेटिव आती है । लेकिन जब स्वयं संजय की बारी आई, तो कोरोना की रिपोर्ट पोजिटिव थी । और इस प्रकार कोरोना ही संजय को लील गया ।
संजय जिन सब लोगों के मित्र थे वे सभी-के-सभी संजय को पाकर अत्यंत समृद्ध थे । अब ऐसे मित्र को खोकर लगता है कि हम सभी दरिद्र हो गए हैं । मित्रता क्या होती है संजय के चले जाने पर पता चल रही है । उनके होते हम सांस्कृतिक रूप से कितने समृद्ध थे ! संजय के कारण ही हम सभी हरिशंकर परसाई, शरद जोशी और कालांतर में ज्ञान चतुर्वेदी जैसे प्रख्यात व्यंग्यकारों से परिचित हुए । संजय उनकी चुटीली और मजेदार हास्य-व्यंग्य की कथाएं लाते और हम सबको पढ़कर सुनाते और हम घंटों हंसते । जिन लोगों ने इन व्यंग्यकारों को नहीं पढ़ा है, वे सचमुच जीवन के सबसे आनंददायक आयाम से अपरिचित हैं और वे सही मायने में दया के पात्र हैं ।
संजय से मेरी अंतिम बार बातचीत कोई तीन सप्ताह पहले ही हुई थी । धर्मवीर भारती का नाटक उन्होंने भेजा था और मैं उन्हें फोन पर बधाई देना चाह रहा था । हमारी बहुत लंबी बातचीत हुई । अंत में उन्होंने कहा कि, ‘तुम ऑफिस में बैठे हो, इसलिए इससे अधिक बात करना ठीक नहीं है ।’ हमारी बातचीत में कोरोना भी शामिल था । मैंने उन्हें आश्वस्थ करते हुए कहा भी कि देखिए ! अब पश्चिमी देशों में उतने मामले नहीं आ रहे हैं, इसलिए धीरे-धीरे हमारे यहां भी स्थिति सामान्य हो जाएगी । पर ईश्वर ने तो कुछ और ही सोच रखा था ।
संजय के व्यक्तित्व का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह था कि वह शब्द के सच्चे अर्थ में ईमानदार थे । समय के बिल्कुल पाबंद । एक मिनट के लिए भी वह देर नहीं हो सकते थे । वह ऊर्जा के पुंज थे । शायद ही कोई दूसरा व्यक्ति मुझे मिला हो, जिसमें इतनी ऊर्जा हो ! उनका अंग-अंग काम करने को उद्धत रहता था । वह सचमुच कर्मवीर थे । वह नवोन्मेषी भी थे । हर समय कुछ-न-कुछ नया करने को आतुर रहते थे । इसीलिए अपने लघु जीवन में ही उन्होंने इतना कुछ कर दिखाया ।
इन्दौर संजय की रग-रग में दौड़ता था । आज इन्दौर का कलाजगत और शिक्षा जगत शोक मना रहे होंगे, क्योंकि दोनों जगतों ने अपना एक जाजल्वमान सितारा खोया है । साथ ही शोक में डूबा होगा संजय का परिवार । संजय की एकमात्र संतान — पुत्र है । नाम है परख । मुझे याद है आज से ठीक पांच वर्ष पहले किसी परीक्षा के कारण परख को दिल्ली आना था । 18 वर्षीय बालक पहली बार अकेले दिल्ली आ रहा था, इसलिए चिंतित पिता ने फोन करके मुझे बताया और परख का नंबर भी दिया । जब मैंने परख से बात की, तो अचानक वयस्क बन गए परख ने मुझे ही आश्वस्त करना शुरू कर दिया ।
उसने कहा, ‘अंकल ! मेरे साथ मेरा एक दोस्त है और हम दोनों ने अच्छा इंतजाम कर लिया है । हम बिल्कुल ठीक से हैं और दो ही दिन की तो बात है, फिर वापस चले जाएंगे । आप चिंता मत कीजिए ।’ मेरे कुछ भी करने या कहने को नहीं छोड़ा परख ने । परख कुशाग्र है । प्रतिभाशाली है । आइआइटी की कठिनतम प्रवेश परीक्षा पास कर चुका है । उसे ऑटोमोबाइल एंजीनियरिंग पसंद है, इसलिए वह वेलूर पढ़ने गया । अब वह नौकरी भी कर रहा है । इस प्रकार संजय के पीछे संजय का भरा-पूरा परिवार है । पर वही नहीं है, जिसके ईर्द-गिर्द सारा परिवार घूमता था ।
सुबह जब संजय की असामयिक मृत्यु का समाचार मिला, तो मुझे जैसे काठ मार गया । कुछ देर बाद एक मित्र का फोन आया । मैं अभी भी शोक-विह्वल ही था, इसलिए अनायास उस मित्र को इस समाचार के बारे में बता दिया । मित्र ने प्रतिक्रिया में कहा, ‘अब मान लीजिए कि आपके मित्र का इतना ही साथ था ।’ लेकिन मन को समझाना बहुत कठिन है कि संजय हमें छोड़कर चले गए ।
दिवंगत आत्मा को शब्दांजलि !
लेखक निवेश एवं लोक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग , वित्त मंत्रालय ,भारत सरकार में संयुक्त सचिव हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं ।
12 जून 2020