वैसे तो ईरानी क्रांति जनवरी 1979 में ही शुरु हो गई थी, पर नई व्यवस्था की शुरुआत फरवरी में हुई। इस प्रकार क्रांति के चालीस वर्ष हो चुके हैं। आवश्यक है कि इसका लेखा-जोखा किया जाए। यह दुखद है कि इस ऐतिहासिक घटना पर हमारे पत्रों में बहुत कम लिखा गया और टीवी की तो बात ही छोड़िए जिसके पास आंतरिक राजनीति से परे किसी और बात के लिए ही समय नहीं है तो वह ईरान कैसे पहुँचता। जबकि सच यह है कि यदि भारत का विभाजन नहीं हुआ होता तो ईरान हमारा पड़ोसी होता और इसी नाते हजारों सालों से दोनों देशों के बीच संबंध बना रहा है। फिर भी जो थोड़े से लेख लिखे गए हैं उनमें एक मुहम्मद अयूब का लेख – ‘1979 के सबक’ 13 फरवरी 2019 को द हिंदू में छपा। अयूब के लेख का सार यह है कि 1979 से आज तक शत्रुतापूर्ण अंतरराष्ट्रीय माहौल में टिके रह जाना क्रांति की उल्लेखनीय उपलब्धि कही जा सकती है। इस लेख में अन्य बातों के अलावा अयूब की इस स्थापना की भी पड़ताल की जाएगी।
जैसा कि आम तौर पर होता है तानाशाही व्यवस्था के विरोध के अन्यान्य कारण होते हैं। इसलिए ईरान के लोगों ने लंबी तैयारी करके देशव्यापी आंदोलन चलाया जिसकी परिणति क्रांति में हुई। क्रांतिकारियों में अधिक संख्या कम्यूनिस्टों की थी, जिनकी दृष्टि में सोवियत संघ एक सफल उदाहरण था। वे अर्जेंटीना के क्रांतिकारी चे गुएवारा की शर्ट पहनते थे। इसके अलावा ऐसे लोग भी कम नहीं थे जिनकी कोई स्पष्ट आर्थिक-राजनीतिक दृष्टि नहीं थी। अंततः ऐसे क्रांतिकारी भी थे जो ईरान को इमाम के युग में ले जाना चाहते थे। आम लोगों के लिए क्रांति का मूल उद्देश्य था आर्थिक विकास और राजनीतिक स्वतंत्रता।
परंतु आयतुल्लाह खुमैनी के नेतृत्व संभालते ही सब कुछ ऐसा होने लगा जिसकी शायद ही किसी ने कल्पना की हो ! खुमैनी लंबे समय से ईरान के राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय थे। उनका आरंभिक जीवन मजहबी शिक्षा को समर्पित था। उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश कूम शहर, जो कि ईरान का शिया शिक्षा केंद्र है, में बिताया। उन्हें उनके मजहबी ज्ञान के लिए आयतुल्लाह की उपाधि दी गई, जिसका अर्थ होता है शिया समुदाय का मजहबी नेता। आरंभ से ही उन्होंने शाह के शासन, पश्चिमी प्रभाव और इस्लामी मूल्यों में हो रहे ह्रास के विरुद्ध आग उगलना शुरु किया। इसका परिणाम यह हुआ कि समाज का कट्टर तबका उनके समर्थक में उनके पीछे खड़ा हो गया। जब ईरान में क्रांति हुई तब वह पेरिस में निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे थे। क्रांति के बाद उन्हें तेहरान लाया गया जहां वे सर्वशक्तिमान नेता बन गए। तब उनकी उम्र 77 वर्ष थी।
क्रांतिकारी ठगे से रह गए। फिर भी वे सोचते रहे कि संभवतः खुमैनी क्रांतिकारियों को शासन सौंप कर स्वयं कूम लौट जाएँगे क्योंकि उनके शासन प्रमुख होने को लेकर लोगों में संदेह था। परंतु हुआ ठीक विपरीत। ईरान के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति से भी ऊपर खुमैनी बैठ गए। वह सभी कानूनों से ऊपर हो गए। अब चुन-चुन कर कम्यूनिस्टों, शाह के मुलाजिमों तथा अन्य नई व्यवस्था विरोधियों को फांसी दी जाने लगी। इसके अलावा समाज को शुद्ध करने के उद्देश्य से वेश्याओं, समलैंगिकों और किसी भी प्रकार के अनैतिक संबंध रखने वालों को भी फांसी दी जाने लगी। प्रतिदिन मामले की सुनवाई होती और आनन-फानन में लोगों को फांसी दी जाती। सुबह उन शवों की तस्वीरें जारी कर दी जातीं। इस प्रकार हजारों लोगों की जानें गईं जिनमें अधिकतर निर्दोष कहे जा सकते हैं। फिर भी इस पर दुख व्यक्त करने के स्थान पर खुमैनी ने गर्व से घोषणा की कि ईरान फांसी देने के मामले में सारी दुनिया में सबसे आगे है।
काफी समय तक यही हाल रहा ईरान का। इस बीच अमेरिका के दूतावास का घेराव किया गया जो 444 दिनों तक चला। अभी यह चल ही रहा था कि ईरान इराक के साथ एक आठ वर्षीय दीर्घ युद्ध में उलझ गया। यह युद्ध इतना भयंकर था कि इसमें कम से कम पाँच लाख लोग मारे गए, जिनमें से तीन लाख से अधिक ईरानी थे। इसके अलावा दस से बीस लाख लोग घायल हुए। क्रांति के बाद के हालात और युद्ध ने ईरान की अर्थव्यवस्था को झकझोर दिया।
जहां तक आंतरिक राजनीतिक व्यवस्था की बात है तो ईरान के संविधान निर्माण के लिए हुए चुनावों में मुल्लों को ही उपयुक्त प्रत्याशी माना गया। मुल्लों के ज्ञान से वहां का संविधान बना। नतीजा यह हुआ कि मुल्लों का महत्व सामान्य राजनेता से कहीं अधिक हो गया। अब तो हाल यह है कि अनिर्वाचित मुल्ला भी निर्वाचित सांसद पर भारी पड़ते हैं। इस प्रकार मजहब के नाम पर लोकतंत्र की भ्रूण हत्या कर दी गई। इस्लामी कानून लागू होने से महिलाओं पर तमाम तरह के प्रतिबंध लगाए गए। उनके लिए बुर्का पहनना अनिवार्य कर दिया गया। गीत-संगीत पर रोक लगा दी गई। विदेशी टेलिविजन प्रतिबंधित हो गया। तमाम ऐसे अखबार, जिनमें कम्यूनिस्टों का विचार दिख जाता था, बन्द कर दिए गए। कभी ईरान सिनेमा के प्रसिद्ध था। परंतु क्रांति के बाद अधिकतर सिनेमा वाले ईरान छोड़कर बाहर चले गए।
द एकोनोमिस्ट के अनुसार चूंकि खुमैनी को शाह की फौज पर भरोसा नहीं था इसलिए मजहबी भावना भड़का कर जवान लड़कों को ही नहीं, बल्कि किशोरों को भी युद्ध की आग में झोंक दिया गया। क्रांति समर्थक ऐसे युवाओं को इकट्ठा करके खुमैनी ने एक फौज खड़ी की जिसे इस्लामी क्रांतिकारी गार्ड कहा गया। इस गार्ड में आज एक लाख फौजी हैं जो देश में काम करने के अलावा करीब दस लाख सशस्त्र स्वैच्छिक लड़ाकों को भी दिशा-निर्देश देते हैं। ये लड़ाके गुप्त रूप से सीरिया, यमन, इराक और लेबनान में तैनात हैं। देश के अंदर ये गार्ड समाज के प्रत्येक पहलू में दखल रखते हैं। सेवानिवृत्त गार्ड सरकार में शीर्ष पदों पर बैठते हैं और संसद की शोभा बढ़ाते हैं। इन्हीं के बूते मुल्ला फलते-फूलते हैं। बड़े-बड़े सरकारी ठेके भी गार्ड को ही मिलते हैं। नतीजा साफ है – गुणवत्ता के साथ समझौता। पूरी ईरानी अर्थव्यवस्था प्रतिस्पर्धा के अभाव में कुछ भी नया और बेहतर करने की हालत में नहीं है। आश्चर्य नहीं कि कारोबार सुगमता की दृष्टि से ईरान सारी दुनिया में सबसे नीचे के देशों में आता है। ऐसी ही दयनीय स्थिति भ्रष्टाचार के मामले में भी है। एक अनुमान के अनुसार 1977 में ईरान की प्रतिव्यक्ति आय तुर्की की प्रतिव्यक्ति आय से थोड़ी अधिक थी। परंतु आज तुर्की की तुलना में आधी से भी कम है।
क्रांति का सबसे मुखर पहलू यह रहा कि मुल्लों की दृष्टि में पश्चिमी देश, विशेषकर अमेरिका, शत्रु बन गए। इनसे बिगाड़ करके अंततः ईरान ने अपनी अर्थव्यवस्था को और भी निर्बल कर लिया। आज हालत यह है कि ईरान के आम लोग महंगाई और बेरोजगारी से त्रस्त हैं और आए दिन विरोध प्रदर्शन करते रहते हैं, जिसे इस्लामी गार्ड की मदद से दबाया दिया जाता है। आश्चर्य नहीं कि ‘गार्ड मुर्दाबाद’ के नारे लगाए जाते हैं। कई अरब देशों में 2011 में जो वसंत विद्रोह हुआ उसकी परिणति की पूर्व पीठिका ईरानी क्रांति में देखी जा सकती है। इसलिए प्रश्न उठता है कि क्यों मुस्लिम बहुल देशों में क्रांति सफल नहीं होती ? किनारे बैठा कोई न कोई क्रांति को निगल जाता है। वह इस्लाम के नाम पर शासन करता है। ईरान में खुमैनी ने स्वयं को अल्लाह का प्रतिनिधि घोषित किया था और कहा था कि उनका कानून दैवीय कानून है। खुमैनी के विषय में यह भी कहा गया कि वह अली के बाद 12वें इमाम थे। इस तरह ईरान में इस्लाम को अतीत में ले जाना भी एक उद्देश्य था। इसका अर्थ यह हुआ कि आधुनिक समस्याओं का समाधान अतीत के इस्लाम में ढूँढा जाने लगा।
अतः जब तक मुल्ला-मौलवियों का राजनीति में दखल पूरी तरह समाप्त नहीं हो जाता तब तक ऐसी क्रांतियों का यही हश्र होगा। वैसे तो चालीस सालों में ईरानी अर्थव्यवस्था की विविधता बढ़ी है। ग्रामीण क्षेत्रों में विकास भी गया वह भी इस कारण कि वहां से क्रांति को काफी समर्थन प्राप्त हुआ था। फिर भी कुल मिलाकर ईरान को इस क्रांति से फायदा कम और नुकसान ज्यादा हुआ है। आर्थिक और व्यापार की दृष्टि से वह विश्व से लगभग कटा हुआ है। अपनी दयनीय माली हालत के बावजूद वह मध्य पूर्व में सर्वत्र युद्ध में संलग्न है। प्रतिवर्ष करीब डेढ़ लाख शिक्षित ईरान छोड़ रहे हैं, जो संभवतः विश्व के सबसे बड़े प्रतिभा पलायनों में गिना जाएगा। यह ईरान का दुर्भाग्य है कि वह अपने शिक्षितों को अपने देश में नहीं रोक पाता। ध्यान रहे कि देश की सबसे बड़ी संपदा बौद्धिक संपदा होती है। एक बार देश इससे खाली हो जाए तो फिर उसे पनपाने में पीढ़ियाँ गुजर जाती हैं।
आश्चर्य है कि अयूब को यह सब नहीं दिखा जिसका वर्णन ऊपर किया गया है। उनके लिए व्यवस्था का टिके रह जाना ही सफलता है। अयूब जिस शत्रुतापूर्ण अंतरराष्ट्रीय माहौल की बात करते हैं उसके लिए ईरान स्वयं कम उत्तरदायी नहीं है। अपनी इस्लामी कट्टरता के कारण मुल्ला किसी भी तरह के पश्चिमी प्रभाव से ही ईरान को दूर करना चाहते थे। आज भी ईरान के व्यवहार में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है। जहां तक युद्ध की बात है तो कहते हैं कि दूसरे ही वर्ष ईरान अपनी जमीन वापस पा चुका था और इराक समझौता करने को तैयार था। लेकिन खुमैनी ने, जिन्हें यह साबित करना था कि वही इस्लामी दुनिया के सिरमौर हैं, समझौता प्रस्ताव ठुकरा दिया। कोई दूसरा देश होता तो युद्ध को वहीं रोक देता और अपने देश को इस विनाश से बचाता। अयूब यह भी नहीं देखते कि अब महिलाओं की स्थिति कैसी है। सबसे बड़ी बात तो लोकतंत्र की है। क्या ईरान को लोकतंत्र मिला ? उत्तर है – नहीं मिला। वहां पर कट्टर शिया मुल्लों का राज है। इसलिए यदि 1953 में बाहरी हस्तक्षेप से पहली लोकतांत्रिक सरकार हटा दी गई तो 1979 में नाम के लिए भी लोकतांत्रिक सरकार नहीं बनी। इसी प्रकार जिस इस्लाम-पूर्व गौरवशाली अतीत से ईरानियों की राष्ट्रीयता पोषित होने की बात अयूब करते हैं, इसमें संदेह है। क्योंकि इस्लाम इसकी अनुमति नहीं देता। वीएस नायपॉल इस विषय पर प्रामाणिक तौर पर बहुत लिख चुके हैं।
अंततः यह उसी फारस की कहानी है जिसका प्राचीन इतना प्रखर, अजेय और गौरवशाली था कि तत्कालीन शक्तिशाली रोमन साम्राज्य शताब्दियों युद्ध करके भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सका। परंतु वह अरबी हमलावरों से हार गया। परिणाम यह हुआ कि कई पारसी, जिन्होंने मुसलमान बनना स्वीकार नहीं किया, अपनी जान बचाकर वहां से भाग निकले और मुख्यतः भारत में बस गए। पर आज इसे काल की विडंबना ही कहिए कि जो थोड़े से पारसी भारत में हैं उनकी कुल संपत्ति संभवतः ईरान की कुल संपत्ति के बराबर होगी। ईरान पर अरबी मजहब – इस्लाम थोप दिया गया। ईरान पर थोड़े हेर-फेर के साथ अरबी लिपि भी थोप दी गई। नतीजा यह हुआ कि ईरान को अपनी पहलवी लिपि छोड़नी पड़ी। इतना ही नहीं अरबी भाषा सीखना भी जरूरी कर दिया गया जो कि आज भी है, क्योंकि इस्लाम की भाषा सिर्फ अरबी ही हो सकती है।
कुल-मिलाकर आज ईरान अपने इस्लाम-पूर्व अतीत से कट कर रह गया है। फिर भी इस्लाम के अंदर ही उसने अपने लिए नेतृत्व की संभावना की तलाश की और इसी क्रम में उसने शिया शाखा का दामन थाम लिया। शिया और सुन्नी का विवाद असल में अरबी और ईरानी संस्कृतियों के टकराव का परिणाम है और यह टकराव अंतहीन है। आश्चर्य नहीं कि ईरान आज तक अपना गंतव्य ही निर्धारित नहीं कर पाया है तो उस ओर ले जाने वाले मार्ग की क्या बात की जाए। चालीस साल के बाद भी मुल्ला कहते हैं ईरान अभी वैसा पाक नहीं हुआ है। कब होगा ? कोई नहीं जानता। उसे लोकतंत्र चाहिए या मुल्लातंत्र चाहिए, उसे कैसी आर्थिक व्यवस्था चाहिए, कैसी न्याय व्यवस्था चाहिए आदि – आज तक स्पष्ट नहीं है। ऐसी ही अस्पष्टता उसकी अंतरराष्ट्रीय नीति को लेकर है। क्या अपने क्षेत्र में अधिकतर देशों से बिगाड़ करके वह अपना भला कर पाएगा ? इस प्रकार क्रांति के बाद से ही ईरान एक दिशाहीन अनंत यात्रा पर है।
लेखक निवेश एवं लोक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग , वित्त मंत्रालय ,भारत सरकार में संयुक्त सचिव हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं ।
16 फरवरी 2019