फैजुर रहमान का 7 अगस्त के ‘द हिंदू’ दैनिक में ‘मस्जिद की अनिवार्यता’ विषय पर एक लेख प्रकाशित हुआ। रहमान एक इस्लामी मंच के महासचिव हैं जिसका उद्देश्य है संयत विचार को बढ़ाना या बढ़ावा देना। इस लेख का मुख्य लक्ष्य यह साबित करना है कि मस्जिद इस्लाम के लिए अनिवार्य है और इस प्रकार इस्लाम का अभिन्न अंग है। रहमान 1994 में इस्माइल फारुकी बनाम भारत सरकार के मामले में न्यायालय द्वारा दिए इस निर्णय से आहत हैं जिसमें कहा गया था कि “मस्जिद इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा नहीं है और नमाज कहीं भी पढ़ी जा सकती है, यहां तक कि खुले में भी।”
इस लेख की विडंबना यह है कि रहमान ने एक भी सार्थक तर्क अपने पक्ष में नहीं दिया है। जिन दो अन्य मामलों को उद्धृत किया गया है वे दोनों हिंदू धर्म से संबंधित हैं। रहमान को पता होगा कि मंदिर, गिरजाघर, गुरुद्वारा आदि का समाज में बहुत ही व्यापक महत्व है। ठीक वैसा महत्व मस्जिद का नहीं है। हिंदू धर्म में तो मंदिर धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक केंद्र रहे हैं। भारत में चाहे वह मूर्तिकला हो, स्थापत्यकला हो, चित्रकला हो या संगीत, गायन, शिक्षण, नृत्य जैसी विधाएं सबका उद्गम स्थल मंदिर ही रहे हैं। यहां तक कि अनेक ग्रंथ मंदिर में ही लिखे गए हैं। इसके अतिरिक्त जन्म से लेकर मृत्यु तक के अधिकतर संस्कार भी मंदिर में ही संपन्न होते रहे हैं। विवाह और श्राद्ध जैसे संस्कारों के लिए मंदिर की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। मंदिर पुराने जमाने में बैंक का भी काम करते रहे हैं। यही कारण है कि मंदिरों में सदा ढेरों सोना-चाँदी रखी जाती थी। कुछ-कुछ इसी तरह गुरुद्वारा और गिरजाघर भी अपनी-अपनी जगह समाज के लिए महत्वपूर्ण रहे हैं। लेकिन ठीक यही बात मस्जिद के विषय में नहीं कही जा सकती।
जहां तक नमाज पढ़ने की बात है तो सचमुच हमें देखने में आता है कि कोई कहीं भी नमाज पढ़ लेता है। मस्जिद की बनावट के लिए भी कोई खास नियम देखने में नहीं आते हैं। गावों में तो सिर्फ चारदीवारी से घेर कर किसी खाली जगह का इस्तेमाल नमाज पढ़ने के लिए किया जाता है। कई देशों के हवाईअड्डों में ऐसे ही किसी हॉलनुमा जगह को नमाज के लिए निर्धारित कर दिया जाता है। जबकि दूसरी ओर मंदिर की निर्माण प्रक्रिया ही जटिल होती है। इसमें मूर्तियां, गर्भगृह, परिक्रमापथ, गोपुरम आदि का होना आवश्यक है। वैसे भी चूंकि हिंदू धर्म में देवी-देवताओं की बड़ी संख्या है इसलिए उन्हें उपयुक्त स्थान देने के लिए भी मंदिर का काम जटिल और व्यापक हो जाता है। इस प्रकार मंदिर हिंदू धर्म के केंद्र में है और धर्म का अभिन्न हिस्सा भी। अतः जिन दोनों मामलों का उल्लेख रहमान ने किया है वे मस्जिद के संदर्भ में प्रासंगिक नहीं हैं।
इसके बाद रहमान ने कुरान और हदीस का उल्लेख करके यह साबित करने की कोशिश की है कि किस प्रकार मस्जिद इस्लाम का हिस्सा रही है। इस संदर्भ में सबसे पहले तो यह बताने की जरूरत है कि मस्जिद का महत्वपूर्ण होना उसके अनिवार्य होने से भिन्न बात है। रहमान स्वयं कुरान की एक भी पंक्ति प्रस्तुत नहीं कर पाए जिससे स्पष्ट रूप से साबित हो कि मस्जिद इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा है। और चूंकि कुरान इस्लाम का सर्वप्रमुख ग्रंथ है इसलिए उसमें इस तरह की बात का न होना रहमान के तर्क को निर्बल बना देता है। रहमान ने संभवतः कुरान की उस आयत का उल्लेख जान बूझकर नहीं किया है जिससे स्पष्ट रूप से साबित हो जाता है कि इस्लाम में मस्जिद अनिवार्य नहीं है। कुरान के ‘सूरए बकरा’ की मस्जिद से संबंधित आयत (115) इस प्रकार है: (तुम्हारे मस्जिद में रोकने से क्या होता है क्योंकि सारी जमीन) खुदा की है (क्या) पूरब (क्या) पश्चिम बस जहां कहीं किब्ले की तरफ रुख करो वही खुदा का सामना है। बेशक खुदा बड़ी गुंजाइश वाला और खूब वाकिफ है (http://ummat-e-nabi.com/holy-quran-in-hindi/)।
कुरान के बाद रहमान हदीस को ओर जाते हैं। इस संदर्भ में भी यदि उनके लिखे को ही मान लिया जाए तो भी वह यह स्पष्ट नहीं कर पाए कि मस्जिद इस्लाम का अभिन्न हिस्सा है। दरअसल हदीस से यह बात तो स्पष्ट होती है कि नमाज समूह में पढ़नी चाहिए और ऐसा करने पर 27 गुना अधिक लाभ या पुण्य मिलता है। पर इस सामूहिकता के लिए मस्जिद का होना अनिवार्य है यह स्पष्ट नहीं होता है।
हदीस को लेकर दूसरी बात यह है कि हदीस को कितना महत्व दिया जाए ? जानी-मानी साहित्यकार और स्तंभकार तसलीमा नसरीन केरल की जमीदा बीबी के विषय में लिखती हैं कि जमीदा कुरान पर यकीन करती हैं, हदीस पर नहीं (दैनिक जागरण, 2 अप्रैल 2018)। उनका तर्क है कि हदीस अल्ला या रसूल ने नहीं लिखी। हदीस रसूल के अनुयायियों ने लिखी। इन अनुयायियों पर जमीदा को यकीन नहीं। जमीदा वही हैं जिन्होंने मल्लापुरम के चेरूकोड़ गांव में जुम्मे की नमाज पढ़ाकर और उसमें पुरुषों को शामिल करके असंभव को संभव कर दिया।
हदीस को लेकर एक और समस्या यह है कि इसको पढ़कर लोगों में कुछ बातों को लेकर संशय ही पैदा होता है। उदाहरण के लिए तसलीमा बताती हैं कि किसी हदीस में लिखा है कि महिलाएं शिक्षा के लिए सुदूर चीन भी जा सकती हैं। किसी में लिखा है खबरदार, महिलाएं घर की चौखट भी नहीं लांघ सकतीं। इन दो तरह की बातों से लोगों में संशय पैदा होता है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि हिंदू, ईसाई आदि धर्मों की तुलना में इस्लाम सरल है। नमाज पढ़ने के लिए मुसलमानों को किसी पंडित-पुजारी की वैसी आवश्यकता नहीं है जैसी अन्य धर्मों में होती है। इस्लाम की इस सरलता को उसके प्रसार में सहायक माना गया है। इससे भी यही लगता है कि मस्जिद अनिवार्य नहीं होना चाहिए। इस्लाम निराकार एकेश्वरवाद को मानता है। मूर्ति, चित्र आदि की तो इस्लाम में मनाही है। इस प्रकार एक भवन में नमाज को सीमित करना भी इस्लाम की मान्यता के साथ मेल नहीं खाता है।
सबसे बड़ी बात तो यह है कि क्या कुरान या हदीस की सारी बातें मुस्लिम मानते हैं? तो उत्तर होगा, नहीं। कुरान में कहते हैं निकाह-हलाला जैसी कुरीतियों का वर्णन नहीं है। इसी प्रकार लड़के और लड़की के खतना का भी उल्लेख नहीं है। फिर ये सारे काम अपनी मर्जी या परंपरा से किए जाते हैं।
रहमान ने बड़े जोर-शोर से बताया है कि किस प्रकार समाज में समानता स्थापित करने के लिए मस्जिद में एक साथ नमाज पढ़ना कितना महत्वपूर्ण रहा है। इस संदर्भ में उन्होंने पुरुष और महिला की समानता की बात भी की है। पर इस बारे में सच क्या है ? क्या हमारे यहां की मस्जिदों में महिलाओं को नमाज पढ़ने की अनुमति दी जाती है ? उत्तर है, नहीं दी जाती है। महिलाएं यदि मस्जिद जाती हैं तो उन्हें मस्जिद की दीवार की ओर रुख करके नमाज पढ़नी होती है। श्रीनगर के हजरतबल में स्पष्ट रूप से मस्जिद के अंदर वाले द्वार के ऊपर लिखा है कि इसके आगे महिलाएं नहीं जा सकतीं। तसलीमा अपने उसी लेख में लिखती हैं कि “कई अन्य मुस्लिम देशों में महिलाएं मस्जिद में जाकर नमाज अदा करती हैं, लेकिन भारतीय उपमहादेश में महिलाओं के कदम-कदम पर बेड़ियां डाली गई हैं। किसी मस्जिद में पुरुषों के नमाज पढ़ने के स्थान के पास दीवार घेरकर महिलाओं के लिए स्थान बनाए गए हैं। वहां महिलाएं नमाज पढ़ सकती हैं, लेकिन अधिकतर मस्जिदों में बड़े-बड़े अक्षरों में नोटिस चस्पा है कि महिलाओं का प्रवेश निषेध है। कहा जाता है कि जमात में यानी जब कई लोग एक साथ नमाज पढ़ते हैं तो उसका सवाब अधिक मिलता है। आखिर महिलाओं को जमात का सवाब क्यों नहीं लेने दिया जाता ? अंत में तसलीमा लिखती हैं कि इस्लाम समानता की बात करता है, यह सुन-सुनकर मेरे कान पक चुके हैं। मैं सच में यह देखना चाहती हूँ कि इस्लाम समानता की बातें करता है।” इसलिए प्रश्न यह उठता है कि कुरान और हदीस का उल्लेख करना किस सीमा तक उचित है ?
रहमान ने अपने लेख में यहां तक लिख दिया है कि यह कैसा न्याय है कि एक ओर तो न्यायालय खुले में नमाज पढ़ने की बात करता है, वहीं दूसरी ओर दिल्ली के पास गुरूग्राम में हाल ही में मई महीने में खुले में नमाज पढ़ने पर दक्षिण पंथियों ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया। तो ऐसे में मुस्लिम क्या करें ? रहमान द्वारा उल्लिखित इस संदर्भ से भी यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि वास्तव में लोग खुले में नमाज पढ़ते हैं। यह परंपरा कितनी गहरी है यह भी पता चलता है।
जिस मामले को लेकर रहमान ने यह लेख लिखा है उसका संदर्भ बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि विवाद है। इस संबंध में यह कहना उपयुक्त होगा कि जिस तरह से मस्जिद गिरायी गई वह निश्चित रूप से कानून को अपने हाथ में लेना था और इसीलिए यह मामला अब तक न्यायालय के अधीन है। परंतु मूल विषय यह है कि आज के मुस्लिम यह क्यों नहीं सोचते कि अयोध्या में मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाना वैसा ही है जैसे कि मक्का या मदीना की मस्जिदों को तोड़कर कोई मंदिर बना दे। हिन्दुओं के लिए अयोध्या मुसलमानों के मक्का या मदीना उतना ही या उनसे भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। बाबर एक आक्रांता था, एक हमलावर था जिसके एक अधिकारी ने मंदिर तोड़कर मस्जिद बनवाई। ऐसा ही काम काशी और मथुरा में हुआ। आज के मुस्लिम यह क्यों नहीं सोचते कि ऐसी मस्जिदों से उन्हें कोई लेना देना नहीं है जिन्हें बर्बरतापूर्ण तरीके से मंदिरों को ध्वस्त करके बनाया गया था।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पूर्व क्षेत्रीय निदेशक डॉ केके मुहम्मद अयोध्या में कराए गए दोनों सर्वे में शामिल रहे हैं। मुहम्मद ने हाल ही में कहा है कि “जब पहली बार मंदिर-मस्जिद विवाद पर पुरातत्व सर्वेक्षण के लिए केंद्र सरकार ने दो सदस्यीय टीम का गठन किया था, तब विभाग के निदेशक बी बी लाल के साथ मुझे भी शामिल किया गया था। सर्वे के दौरान हमें उस स्थल पर मंदिर के अवशेष मिले थे। खुदाई के दौरान मंदिर का खंभा भी मिला था। यह भी प्रमाण मिले कि मंदिर के खंभे पर मस्जिद खड़ी की गई। इस जानकारी के आधार पर वर्ष 2008 में हाइकोर्ट ने निर्णय दिया था। इसके पूर्व वर्ष 1976-77 में भारत सरकार के निर्देश पर अयोध्या में विवादित स्थल पर खुदाई की गई थी। पिलर के बेसमेंट से संपूर्ण कलश और पत्तियों का नमूना मिला। इसके अलावा सर्वेक्षण के दौरान सदियों पुरानी विष्णु की मूर्ति मिली। अन्य कई प्रमाण मिले जिससे साबित होता है कि यहां ईसा पूर्व मंदिर हुआ करता था। डॉ मुहम्मद ने कहा कि विवाद के मद्देनजर वर्ष 2003 में सैटेलाइट सर्वे के साथ पुरातत्वविदों ने विवादित स्थल में पचास से अधिक खंभों के बेस तक खुदाई की। तथ्य वही सामने आया जो 1976-77 में था।” (दैनिक जागरण, 10 जून 2018)
उपरोक्त के आलोक में कहा जा सकता है कि अयोध्या की बाबरी मस्जिद तो मंदिर तोड़कर कर ही बनाई गई थी यह तथ्यों तथा न्यायालय के निर्णय से साबित हो चुका है। चूंकि हमारे देश में किसी भी विवाद के लिए न्यायालय ही सबसे प्रामाणिक और विश्वसनीय रास्ता है इसलिए न्यायालय का निर्णय शिरोधार्य है।
लेखक निवेश एवं लोक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग , वित्त मंत्रालय ,भारत सरकार में संयुक्त सचिव हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं ।
12 अगस्त 2018