हमारे देश में गाँव कविता के विषय के रूप में कवियों को आकर्षित करता रहा है। मैथिलीशरण गुप्त की ये पंक्तियाँ तो जगप्रसिद्ध रही हैं – “अहा ! ग्राम जीवन भी क्या है। क्यों न इसे सबका जी चाहे।“ इसी तरह सुमित्रानंदन पंत ने लिखा है – “मरकत डिब्बे सा खुल ग्राम — जिस पर नीलम नभ आच्छादन।” पर यदि व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी के शब्दों में कहें तो आज गाँव में शस्यश्यामला वगैरह के अलावा गन्दा पानी, मच्छर तथा कीचड़ भी है। लेकिन खुले में शौच की जो समस्या गावों में है वह अत्यन्त शोचनीय है। इसलिए गाँव आज स्वच्छ्ता के स्थान पर गंदगी का पर्याय है।
1970 के दशक में जब मैं अपने गाँव के एक सरकारी उच्च विद्यालय में पढ़ रहा था तो यह बात मेरी कल्पना के परे थी कि विद्यालय में शौचालय भी हो सकता है। बड़ी मुश्किल से हमारे विद्यालय में लड़कियों के लिए उनके कॉमन रूम में एक शौचालय का निर्माण हुआ। परन्तु लड़कों तथा पुरुष शिक्षकों के लिए यह सुविधा उपलब्ध नहीं थी। इसलिए जब 2015 के जुलाई महीने में मुझे केंद्रीय पर्यवेक्षक के रूप में तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली जिले के गावों में सरकारी विद्यालयों में हो रहे शौचालयों निर्माण के निरीक्षण के लिए मनोनीत किया गया तो मैं आश्चर्यचकित रह गया। कैसे इस नगण्य से समझे जाने वाले विषय को इतना महत्व मिल गया! दरअसल तीन सौ के आस-पास निदेशक स्तर के केंद्रीय प्रयवेक्षकों को इस काम के लिए दिल्ली से सभी राज्यों में भेजना एक क्रांतिकारी और अनूठा निर्णय था। इसने सिद्ध किया कि सरकार इस काम को कितना महत्त्व देती है।
यह विदित है कि हमारे देश में स्वच्छ्ता की बात आते ही हमारे सामने सबसे पहले खुले में शौच की विकराल समस्या ही आती है। पर सबसे बड़ी विडम्बना यह रही कि लम्बे समय तक विभिन्न सरकारों ने इसे प्राथमिकता नहीं दी। इसका भयंकर परिणाम हुआ। खुले में शौच के कारण तरह-तरह की बीमारियाँ फैलती रहीं और भारत के स्वास्थ्य संकेतक पडोसी देशों के स्वास्थ्य संकेतकों से भी कमतर रहे। बीमार पड़ना गरीब के ऊपर दोहरी मार होती है क्योंकि एक तो बीमारी का खर्च वहन करना पड़ता है। दूसरे, रोजी भी जाती रहती है। इस तरह गरीब को गरीब बनाए रखने में बीमारी का बड़ा हाथ है। अंततः इस सब का असर हमारी राष्ट्रीय उत्पादकता पर पड़ता है। इसके अलावा गंदगी के कारण हम पर्यटकों को आकर्षित करने में विफल रहते हैं जिसका भी सर्वाधिक नुकसान गरीबों को ही होता है।
मनुष्यों और पशुओं में जो अनेक भेद हैं उनमें से एक शौच करने की विधि को लेकर भी है। विशेषकर आधुनिक युग में तो मनुष्यों से यह अपेक्षित है ही कि वे खुले में शौच न करें। वैसे यह भी सच है कि यूरोप के कुछ देशों में सूअरों के लिए फ्लश टॉयलेट का प्रबंध किया जाने लगा है। फिर महिलाओं के लिए घर में शौचालय का होना किसी वरदान से कम नहीं है। उनके आत्म-सम्मान, निजता तथा सशक्तिकरण के लिए इससे बड़ा कोई और साधन नहीं हो सकता। बीमार होने या बरसात के समय इनके लिए खुले में शौच की समस्या जान को जोखिम में डालने से कम बड़ी नहीं है। करीब एक दशक पूर्व बांग्लादेश के एक गाँव में सार्वजनिक स्थानों पर रात में बिजली की रौशनी का प्रबंध किया गया। दूसरे दिन जब स्थानीय अधिकारी उत्सुकतावश गाँव के लोगों की प्रतिक्रिया जानने के लिए आये तो जहाँ पुरुषों ने अपनी खुशी जाहिर की वहीँ महिलाएँ दुखी नजर आईं। कारण पूछने पर पता चला कि रौशनी की वजह से उन्हें खुले में शौच करने में परेशानी होती है। अपनी निजता की रक्षा के लिए क्या-क्या नहीं करना पड़ता है। सांप-बिच्छू से लेकर तरह-तरह के कीड़े-मकोड़े की आशंका तथा जंगली इलाकों में तो हिंस्र पशुओं की भी। इसलिए बड़े-बड़े महलों के निर्माण से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है यह काम क्योंकि साधन-हीन लोगों के लिए इससे बड़ी कोई और बात हो ही नहीं सकती कि उनके घर में भी अब शौचालय हो। इससे उन्हें सभ्य होने जैसा एहसास होगा।
यह अत्यन्त हर्ष की बात है कि आजादी के सात दशक के बाद अब लगने लगा है कि यह देश खुले में शौच वाला देश नहीं रहेगा। वैसे तो शौचालय को लेकर सबसे पहले 1999 में स्वच्छ्ता कार्यक्रम लागू किया गया जिसे 2004 से ‘निर्मल भारत’ के नाम से जाना गया और धीरे-धीरे इस पर अमल भी होता रहा। परन्तु वर्तमान सरकार में इस काम को जैसी प्राथमिकता हासिल हुई है वह अभूतपूर्व है। सम्भवतः इसके पीछे है प्रबल राजनैतिक इच्छाशक्ति। ग्रामीण क्षेत्रों में इस सरकार के पहले साल में शौचालय निर्माण में 446 प्रतिशत की वृद्धि हुई। गावों के सरकारी विद्यालयों में तो शत-प्रतिशत शौचालयों का लक्ष्य पिछले साल ही हासिल कर लिया गया था। ग्रामीण क्षेत्रों में जहाँ वर्ष 2014-15 में लगभग 59 लाख घरों में शौचालय बनाये गए वहीँ वर्ष 2015-16 में यह संख्या बढ़ कर लगभग 98 लाख हो गयी जो पिछले वर्ष की तुलना में 70 प्रतिशत अधिक है। जबकि यह आंकड़ा फरवरी महीने तक का ही है। अतः इसके एक करोड़ पार करने में कोई संदेह नहीं होना चाहिए।
2015 के अगस्त महीने में सरकार ने यह जानकारी दी थी कि ग्रामीण क्षेत्रों में 46 प्रतिशत घरों में शौचालय की सुविधा नहीं थी। शौचालय निर्माण की तीव्र गति से आशा बांधती है कि सरकार 2 अक्टूबर 2019 से पहले ही अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेगी। इसके पर्याप्त आधार हैं। जनवरी 2016 में इंदौर मध्य प्रदेश का पहला खुले में शौच से मुक्त जिला बना। इसी तरह उत्तराखंड में खुले में शौच करनेवाले लोगों की संख्या में सिर्फ एक साल में पांच प्रतिशत अंक की गिरावट आयी है। यानी लगभग 25 प्रतिशत से घटकर 20 प्रतिशत। छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, कर्णाटक, मेघालय इस अभियान में अग्रणी राज्य हैं। मदुरई की सौ पंचायतें खुले में शौच से मुक्त हो गयी हैं। वैसे भी शौचालय निर्माण में दक्षिण और उत्तर पूर्व के कुछ राज्यों की स्थिति पहले से ही अच्छी रही है। । ध्यातव्य है कि उत्तर पूर्व का ही एक राज्य – सिक्किम – 2008 में ही खुले में शौच से पूर्णतः मुक्त घोषित किया गया था। अभी हाल ही में मेघालय के 324 गावों को खुले में शौच से मुक्त घोषित किया गया है। अद्यतन सूचना के अनुसार बीते वर्ष में पूरे देश में सर्वाधिक शौचालयों के निर्माण का श्रेय राजस्थान को गया जहाँ लगभग 20 लाख शौचालयों का निर्माण हुआ। दूसरे स्थान पर पश्चिम बंगाल रहा जिसने लगभग 13 लाख शौचालय बनवाए। तीसरे स्थान पर 9 लाख शौचालयों के साथ मध्य प्रदेश रहा।
वैसे तो इस महती कार्य में अनेक लोगों तथा संस्थाओं का हाथ है पर प्रचार की दृष्टि से रेडियो और टीवी का विशेष योगदान है। इसी क्रम में विद्या बालन की सशक्त और दमदार भूमिका वाले विज्ञापन भी अत्यन्त सराहनीय हैं । जब भी भारत खुले में शौच की समस्या से बरी होगा और इसका इतिहास लिखा जाएगा तो विद्या बालन का उसमें अवश्य नाम होगा।
शौचालय निर्माण को लेकर सन्देहवादियों ने मुख्यतः दो प्रकार के संदेह व्यक्त किये हैं। एक तो यह कि शौचालय निर्माण एक बात है और इसका रख-रखाव, साफ़-सफाई दूसरी। दूसरा, यह कि जिन लोगों में घर के अंदर शौचालय जाने की आदत नहीं है वे इसका इस्तेमाल नहीं करेंगे। इसमें कोई दो राय नहीं कि दोनों ही बातें चुनौतीपूर्ण हैं पर असम्भव नहीं। रख-रखाव स्थानीय प्रबंधन पर निर्भर करता है। यदि प्रबंधन चुस्त होगा तो यह काम आसान हो जाएगा। पर सबसे बड़ी बात यह है कि एक बार जब लोगों को आदत लग जायेगी तो फिर शौचालय उनकी आम जरूरतों का हिस्सा बन जायेगा और जिस तरह बाकी चीजों का वे खयाल रखते हैं वैसे ही इसका भी रखेंगे। वैसे विकसित देशों में भी कभी-कभार देख-रख के आभाव में शौचाल की दयनीय स्थिति देखी जा सकती है। रही बात उन लोगों की जो बड़े-बजुर्ग हैं और घर के शौचालय में जाने की आदत नहीं है वैसे लोग जरूर कुछ लम्बे समय तक अपनी आदत के मजबूर रहेंगे। लेकिन अशक्त होने, बीमार पड़ने या बारिश के समय उन्हें भी इसके प्रयोग पर सोचना पड़ेगा।
सरकारी स्कूलों में जिस तरह शौचालय निर्माण पर जोर दिया गया है वह अत्यन्त दूरदर्शितापूर्ण निर्णय है। अभी के बच्चों में जब एक बार शौचालय जाने की आदत विकसित हो जायेगी तो फिर जीवन भर वे इसका प्रयोग करते रहेंगे। इस प्रकार नई पीढ़ी खुले में शौच से मुक्त पीढ़ी होगी। हमारे देश में अब आधे से अधिक बच्चे प्राइवटे स्कूलों में पढ़ते हैं जहाँ वैसे भी शौचालय की सुविधा होती है। इसलिए सरकारी स्कूलों पर ध्यान देकर सरकार ने सभी बच्चों को इस सुविधा से जोड़ दिया है।
अब सरकार की कोशिश है कि गावों में सबके पास खाना पकाने के लिए गैस सिलिंडर उपलब्ध हो। एक विचार यह भी सामने आ रहा है कि बिजली से खाना पकाने की सुविधा भी मुहैया कराई जाए। माध्यम चाहे जो भी हो पर पारम्परिक ईंधन जैसे लकड़ी, खर-परवार के प्रयोग के अनेक नुकसान हैं। इनके प्रयोग के कारण गावों में स्वच्छ्ता सुनिश्चित नहीं कराई जा सकती। इसलिए जितनी जल्दी यह काम भी हो उतना ही अच्छा।
इन प्रयासों से आशा की जानी चाहिए कि एक बार फिर गाँव कवियों को भाने लगेगा।
लेखक प्रसार भारती में अपर महानिदेशक हैं।
लेख में व्यक्त विचार निहायत व्यक्तिगत हैं।
लेखक निवेश एवं लोक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग , वित्त मंत्रालय ,भारत सरकार में संयुक्त सचिव हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं ।
4 सितम्बर 2018