पुष्पा को समझ आ चुका था। जिंदगी के बारे में। पुष्पा को इस बात की समझ आ गई थी। जो जिंदगी में जीने के लिए पैसे की भी जरूरत होगी। जो मैं शहर जाकर ही कमा सकता था। गांव में रहकर तो हम सिर्फ खा पी सकते थे। कमाई नहीं कर सकते थे।
मगर गांव के लोग इसी में ही खुश थे। खाने पीने में कोई परेशानी नहीं होती थी। मगर जब कोई बीमार होता था। जब किसी को शहर ले जाने की जरूरत होती थी ।तब परेशानियों का सामना करना पड़ता था।
शहर जाकर भी हमें खैराती अस्पताल ढूंढने पड़ते थे। किसी अच्छे डॉक्टर के पास या फिर महंगे अस्पतालों में जाने की हमारी हैसियत नहीं होती थी।
गांव से कोई भी सामान शहर में ले जाकर बेचना बड़ा मुश्किल काम था। पैदल का रास्ता बहुत लंबा था।
जीजा जी कई बार मेरे कहने पर, कुछ सामान लेकर शहर में बेचने के लिए गए तो थे। मेहनत बहुत पड़ जाती थी ,और दाम कुछ नहीं। इसलिए भी गांव के लोग शहर में सामान बेचने के लिए जाते नहीं थे।
शायद सरकारी खाते में हमारे गांव का कहीं नामोनिशान नहीं था। इसीलिए तो सरकार यहां रास्ता बना नहीं रहे थे। रास्ता बनाना भी बड़ी मुश्किल बात थी। नजदीक कोई शहर नहीं था। और शहर तक पहुंचने के लिए हमें पैदल का रास्ता ही 5-6 घंटा तय करना पड़ता था।
नदी- नाले पहाड़ खंड सारे पार करने पड़ते थे। अब इतने छोटे से गांव में पहुंचने के लिए सरकार रास्ता बना नहीं सकती थी।
पूरब की ओर बिल्कुल पूरब की ओर एक बड़ा सा गांव था। गांव की आबादी करीब आठ-दश हजार रही होगी। हमारे गांव के लोग उसी गांव से कुछ खरीद-फरोख्त कर लेते थे। गांव में सामान बहुत महंगे आते थे। क्योंकि, शहर से सामान ढोकर लाना पड़ता था। क्योंकि वहां भी कोई गाड़ी सवारी नहीं आती थी। घोड़े खच्चर और आदमी ढो कर लाते थे ।
इसलिए ढूवानी का खर्च अलग से पड़ जाता था।
पास पड़ोस में 2, 4 गांव छोटे-छोटे गांव थे जिसमें 24,25 मकाने थी। थोड़ी सी आबादी थी। हमारे गांव के लोग सामान ले जाकर उन छोटे-छोटे गांव में सामान बदल कर बदल कर लाते हैं।
कभी-कभी कुछ पैसे भी मिल जाया करते थे। मगर पैसे मुश्किल से ही मिलते थे।
इसलिए भी तुम्हारे गांव के लोग ज्यादा खेती करते नहीं थे। लिमिटेड ही करते थे। कि अपने खाने पीने के लिए या फिर कुछ बदलने के लिए प्रशस्त हो जाए ।ज्यादा खेती करके सारा सामान जाया चला जाता था। सब्जियां तो बस आस-पड़ोस इधर-उधर बट जाती थी।
जब तक कोई रास्ता या शहर जाने की सहुलियत नहीं हो जाती ,तब तक गांव में किसी भी प्रकार की उन्नति के आस नहीं की जा सकती थी।
बहुत पिछड़ा हुआ गांव था ।जैसे अभी भी आदिम अवस्था में था ।गांव के लोग जो प्रोग्रेस करना चाहते थे -गांव से पलायन करके शहर चले जाते थे। फिर वही जाकर बस जाते थे।
जो गांव छोड़कर पलायन कर जाते थे वह फिर कभी लौट कर नहीं आते थे। यह तो ईस गांव का नियम परंपरा सा बन गया था। इसलिए भी गांव की आबादी बढ़ती नहीं थी। मैं ही एक ऐसा इंसान था ।जो दूसरे गांव से आकर यहां बस गया था। यहां बस जाना मेरी उस समय की मजबूरी थी।
अगर मेरे गांव की आस पड़ोस में कोई शहर होता या फिर मैं शहर की ओर भागा होता तो शायद शहर में ही बस जाता।
अगर मैं शहर में बसता तो आज की स्थिति में नहीं पहुंचता। मैं यकीनन बर्बादी के कगार पर खड़ा होता। क्योंकि शहरों में रहकर मुफलिसी की जदगी गुजारने के बाद मैं अपने आप को सबल बना नहीं पाता।
गांव में मुझे खूब प्यार मिला। गांव में मुझे अपने दीदी मिली ,गांव में मुझे जीजा मिले, गांव में मुझे भांजी मिली, इन सब के प्यार ने मुझे एक इंसान बना कर खड़ा कर दिया।
जिस घर में रहते रहते दीदी के साथ रहते रहते मैं परिवार का एक ऐसा अभिन्न अंग बन गया थ
जिसे आप सिर्फ अपने घर के नाम पर दीदी की याद आती थी। बापी भी मुझसे बहुत ज्यादा घुल मिल गई थी। बापी और मैं, खूब खेलते।
बापी मेरे घोड़े पर भी चढ़ती, घोड़े को नह लाती। मैं बापी को घोड़े पर शवार कराता उसे पढ़ाता।
घर पर दोनों बच्चे की जिंदगी भी मेरे जिंदगी के साथ जुड़ी हुई थी। किसी कच्चे धागे की तरह जुड़ चुकी थी।
मैं अपनी जिंदगी को उनके जिंदगी से अलग कर ही नहीं सकता था।
मां बाबा के गुजर जाने के बाद, गांव से बिछड़ जाने के बाद, मुझे गम तो बहुत था ।
मगर उस गम को उस दर्द को दीदी ने मुझे ऐसे संभाला था। जैसे वह दीदी ना हो, मेरी मां हो।
मेरे गांव से पलायन करने पर सबकी आंखों में नमी थी। पूरा का पूरा गांव मुझे विदा करने के लिए आ गया था।
पुष्प लता ने फूलों का हार बनाया था ।मुझे पहनाने के लिए ,विदा करने के लिए।
दीदी ने आरती उतारने के लिए थाली पर ज्योत जला ली थी। मैंने सुबह भरपेट खा लिया था। फिर भी दिदी ने , निकलते- निकलते मुझे खीर खिलाया था। मैं ने दिदी के पैर पड लिए थे। मेरे आंखों में भी आंसू थे। दीदी तो रोए जा रही थी ।पता नहीं फिर कब लौटेगा? मेरे लिए ना सही इस पगली के लिए तो लौटेगा न तू?-दीदी ने अपने आंखों में भर आए आंसुओं को पोछते हुए कहा था।
मैंने उनके आंसू पूछते हुए कहा था- दीदी तुम क्यों चिंता करती हो ?मैं जरूर लौटूंगा! तुम्हरा भाई जरूर लौटेगा।
मैंने दीदी ने बांधे हुए पराठे की पोटली और अपना कपड़े का बैग अपने घोड़े के पीठ में बैलेंस करके बांध दिया था।
बापी घोड़े से लिपट कर रो रही थी।
मैंने बापी को सर सहलाते हुए गोद में लिया- फिर बोला -क्यों रो रही है ?इसलिए कि मैं नहीं आऊंगा? मैं तो जरूर आऊंगा। बता तेरे लिए क्या लाऊं शायर से ?
वापी बोली- कुछ नहीं चाहिए मामा, बस तुम आ जाना।
मेरी भांजी बड़ी समझदार हो गई है। मैंने उसको गालों पर चुमते हुए कहा।
जब मैं आगे बढ़ने लगा तो छोटू मेरे पैर से लिपट गया- मामा मेरे लिए क्या लाओगे शहर से?
मैं बोला- मेरे छोटू के लिए जो बोलोगे वहि ला दूंगा, ठीक है?
छोटू बोला ठीक है- मेरे लिए गाड़ी ला देना और बोलना देना!
जीजाजी सामने ही खड़े थे। मैं जीजाजी से लिपट गया था।
जीजा जी कुछ बोले नहीं -बस मेरे सर पर हाथ रख दिया था !बोले अपना ख्याल रखना। और जिस काम के लिए जा रहे हो जरूर पूरा करा आना।
मैंने गांव वाले सभी बुजुर्गों के पांव छुए। जैसे कि मैं अपने परिवार से बिछड़ रहा हूं ।और छोटे के सर पर हाथ रख दिया।
मेरे गांव से निकलने पर पूरा का पूरा गांव मायूस था। 35,40 मकानों का छोटा सा गांव। अपना ही एक परिवार सा था। सभी एक दूसरे का दुख सुख का ख्याल रखते, एक दूसरे से भाईचारे बने रहते हैं। इतने सालों में मैंने कभी गांव के अंदर लड़ाई झगड़े का माहौल नहीं देखा था। कभी एक दूसरे को गाली गलौज करते हुए नहीं सुना था।
यह गांव जहां पैसे की कमी थी। जहां संसाधनों की कमी थी ।जहां शहर से बहुत दूर था। रोड रास्ते थे नहीं । पगडंडियां ही इस गांव पर होकर आती थी।
ऐसे गांव में कोई कलह नहीं था। कोई झगड़ा नहीं था। कोई मारपीट नहीं था। कोई चोरी चकारी नहीं थी। कोई अपने मकानों में ताले नहीं लगते थे। कोई एक दूसरे को गाली गलौज नहीं करता था।
यहा कोई स्कूल भी नहीं था। मैं ही छोटा सा एक स्कूल सा बनाकर चलाता था। जहां मैं बच्चों को अक्षर ज्ञान दे सकूं। और अपने खाली वक्त को प्रयोग में ला सकूं।
कभी सोचता हूं तो- वह गांव मेरी आंखों के आगे घूम जाता! सच में स्वर्ग की कल्पना क्या यही था ?यही स्वर्ग था?
जहां सभी को जिंदगी का अर्थ पता था। जहां एक भी स्कूल नहीं था ।वहां इतनी शांत लोग कैसे होते थे?
जहां पर संस्कृति ,जहां पर नीति, जैसे कोई चीज की पढ़ाई कभी नहीं होती थी। जहां एक दूसरे को सम्मान करना किसी स्कूल में सिखाया नहीं जाता था। क्या औरतें या फिर मर्द अपने बच्चों को ऐसे शिक्षा संस्कृत कैसे देता था? यहां न कोई किताब था! किताब 2,4 जो यहां पर लाया था ।वह मेरे ही कहने पर जीजा ने और शहर में जाने वाले कुछ लोगों ने लाया था।
उससे पहले भी इस गांव में ऐसी ही शांति थी, ऐसा ही प्यार था। ऐसा ही भाईचारा था। जीतो मेरा कर ही नहीं रहा था, कि मैं गांव छोड़कर चला जाऊं ।लेकिन ,जिस मकसद ने जिस मकसद से कुदरत ने मेरे को जिंदा रखा था। उस मकसद को पूरा करना ही मेरा जीवन लक्ष्य था। उस लक्ष्य को पूरा करने के लिए सारे प्रेम के बंधन तोड़ कर मुझे निकलना ही था।
मैंने वादा किया था, अपने आप से भी वादा किया था। अगर जिंदा रहूंगा, तो इसी गांव में फिर से आ कर बस जाऊंगा।
अपनी कुसुमलता के साथ, यहीं पर जिंदगी बसर कर लूंगा।
मगर मुझे अब तैयार होना था। मैं निकना ही था। और अब मैं तैयार था।
अब मैं भी तैयार था गांव छोड़ने के लिए। मगर मैं इसलिए नहीं तैयार था। कि शहर में जाकर बस जाऊं, मैं। अपने गांव की और कूच कर जाना चाहता था। देखना चाहता था मेरे गांव का क्या हुआ है?
क्या वहां पर कोई इंडस्ट्री बस गई थी। उस कत्ले गारत के बाद करीब 5 साल गुजर चुके थे ।मैं उस समय बच्चा था ।तब जवान हो चुका था। गांव की स्थिति समझने के लायक बन चुका था ।और किसी से दो चार हाथ करने के लायक भृगु चाचा ने बना दिया था।
मैं अब एक जवान शख्सियत में तब्दील हो चुका था। जिस किसी ने मुझे बचपन में देखा था। अब शायद ही कोई मुझे पहचान पाता।
अब मैं अपने गांव की और कुच करने के लिए तैयार था। दीदी ने 10 पराठे मोटे मोटे आलू के बनाकर मेरे पोटली में डाल दी थी। 2,4 कपड़े मैंने ले लिए थे। शहर से आते आते मैंने दो धार दार हथियार भी खरीद लिया थे ।इस बहाने से कि जब गांव की ओर जाऊंगा तो रास्ते में जाड, जंगल, जानवर भी मिल सकते हैं! उनसे 2-4 होने के लिए मुझे हथियार की जरूरत है!
मैंने वह सारे सामान अपने बैग में पैक कर ली थी ।एक धारदार हथियार मैंने अपने पीठ पर सेट कर लिया था।
निकलते निकलते दीदी ने मेरी आरती उतारी तिलक लगाया मैंने उसके पैर पकड़ लिया दीदी छल छला कर रो पड़ी ।मैं बोला दीदी तुम मेरी मां हो ।मैं जल्दी ही लौट आऊंगा।
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