मैं जिस रास्ते से इस गांव में आया था। उसी रास्ते से ही मुझे लौटना था। इतने सालों के बाद भी मैं वो रास्ता कभी भूल नहीं पाया था। वह नदी पार करना ,नदी पार करके फिर इस गांव में आना ,जब मैं कभी भूला नहीं पाया था।
कई बार मैं ,नदी पार करके उस रास्ते तक, कहीं दूर तक निकलता । फिर मैं लौट आता था। और ऐसा मैं कई बार तक करता रहा था। जब भी मेरे आंखों के आगे वह घटना घुम जाती। मैं आए हुए रास्ते पर कहीं दूर तक निकल जाता। फिर वापस लौट जाता।
आंखों में आंसू भरे हुए, दिल में ज्वालामुखी लिए हुए। उस जंगल ,पहाड़ ,पर्वत के उस पगडंडियों को मैं देखता रहता। फिर मन ही मन खुद को समझाता। एक दिन मै ईस रास्ते पर जरूर लौटूंगा।
उन इंसानियत के दुश्मन को नेस्तानाबूद जरुर करूंगा ।
मैं अपने आप में कूढ़ता रहा। सोचता रहा ।एक दिन जरूर मैं लौटूंगा। इस गांव को देखूंगा। कत्ले गारत के ,दारोमदार उन लोगों को मैं ढूंढ- ढूंढ कर ,एक-एक को मौत की नींद सुलाऊंगा। मैंने अपने आप से वादा किया था। और इस वादे को निभाना ही था। कुदरत का लिखा कोई टाल नहीं सकता।
वह गांव फिर से बस नहीं सकती थी। जो हुआ वह सुधर नहीं सकता था। मगर जिसने किया है। उसको सजा मैं जरूर दे सकता था।
जो उसने लिख छोड़ा है, उसे कोई मिटा नहीं सकता था।
नदी के इस पार तक गांव वाले, बच्चे, बूढ़े मुझे छोड़ने के लिए आ गए थे। नदी अभी भी छिचला ही था ।नदी में गहराई बडी नहीं थी। बारिश के मौसम में नदी में पानी भर जाता था। और नदी चौड़ी हो जाती थी। और उसमें गराई भी बढ़ जाती थी। मगर जैसे-जैसे बारिश का मौसम खत्म होने लगता। फिर नदी अपने पिछले रूप में आ जाती।
मैं नदी पार कर चुका था। मगर पुष्प लता वही खड़ी मुझे नज़रों से ओझल होते हुए देखती रही थी।
ओझल होने से पहले मुझे देखती रही थी।पुष्प लता मुझे एक टक देखे जा रही थी।
मैं उसकी आंखों को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। मुझे डर था। कहीं उसकी आंखों को देख कर मैं लौट ना जाऊं ।इसलिए भी मैं उसकी आंखों से डरता था।
बिन बोले आंखों से बहुत कुछ बोल जाती थी। और उसकी आंखों का बोलना ।उसके आंखों का सामना करना मेरे लिए बहुत मुश्किल काम था। उसकी आंखों का सामना मैं कर नहीं सकता था। उसकी आंखों के डर से उसकी आंखों में जो बात थी ,उसके डर से ,मैं उससे आंखें मिला नहीं पा रहा था। कहीं मैं अपने मकसद से भटक न जाऊं!
मगर ,वह मेरा प्यार थी। वो मेरी जिंदगी थी। उससे बचकर मै कैसे निकल जाता। नदी के पार पहुंच कर मैंने घोड़े पर ऐड़ लगाए। घोड़े पर सवार हुआ। फिर मैंने पीछे मुड़ कर देखा। सारे गांव वाले धीरे-धीरे लौट रहे थे। मगर पुष्प लता वही खड़ी देख रही थी। मैंने पीछे मुड़कर जब देखा तो उसने मुझे हाथ हिलाया। जैसे कह रही हो, जल्दी लौट के आना। मैं तुम्हारा इंतजार करूंगी।
मैंने भी हाथ हिला दिया। जैसे कह रहा हूं- फिर चिंता मत करो; मैं लौट कर जरूर आऊंगा! तुम्हारे पास मेरा इंतजार करना।
मुझे लगता हमारा यह प्यार पल भर का नहीं था ।जन्म जन्मांतर का था।
जैसे मेरा घोड़ा भी बिछड़ने के लिए तैयार नहीं था। मैंने घोड़े के गले को थपथपा ।बोला- चल मेरे दोस्त ,चल अब पुराने गांव की ओर ले चल। जहां पर हमारा बचपन हंसा, बोला ,खेला।
मेरा घोडा पश्चिम की ओर सरपट दौड़ लगाने लगा। मेरा घोड़ा पीछे देखे बगैर आगे देखकर भागने लगा। उसे पता था। पुराने गांव पहुंचने के लिए पूरा दिन लगना है।
शायद मेरे घोडे को भी याद था।वह हादसे वाली रात। शायद उसकी आंखों मे भी यह जलजला घूम रहा हो।
उसने मुझे अपनी जान लगाकर बचाया था। अगर वह इतनी सरपट नहीं भागता, तो शायद कुछ लोग मेरे पीछे आए थे ।पिछे पिछे न छूट जाते ।और वह मुझे भी जान से मार सकते थे। मेरे पीछे भागते हुए लोगों की मंशा तो यही थी।
करीब चार-पांच घंटे लगातार चलने के बाद भी हम शायद आधे रास्ते तय कर पाए थे। मैंने देखा सूरज आसमान से नीचे की ओर ढल रहा था। उसका मतलब था दोपहर से अब शाम होने वाली थी।
मुझे बहुत जोर से भूख लगने लगी थी। मैंने घोड़े को कहा कि ऐसी जगह चल जहां पर पीने कि पानी तो हो । फिर तुम घास चर लेना मैं रोटी खा लूंगा।
घोड़े ने चलते हुए सिर हिलाया था। जैसे कहराहा हो!ठीक है! ठीक है!
घोड़ा चलते हुए आगे जब निकला तो उसने थोड़ी दूर दाई काट ले ली थी। मैं समझ गया था, कि उसे नमी की कोई खुशबू आ गई हो। या घास की तलब हो गई हो। जिस और वह निकला था। उस ओर पानी का छोटा सा चश्मा था।
पानी के चश्मे के पास पहुंच कर घोड़ा ठहर सा गया था। और सर हिला के हल्का सा हिन हिना ने लगा था।
मैं घोड़े को बोला- पानी तो पिला देगा, तो लेकिन बैठकर खाऊंगा कहा। फिर मैं बोला कोई बात नहीं। तू पहले पानी पीले।
मैं घोड़े से उतर गया था। मेरा घोडा पानी पीने लग गया था।
घोड़े ने मुझे सही जगह लाकर खड़ा कर दिया था। पास ही में एक पिपल का बड़ा सा पेड़ था। जिसके जड़ में कई पत्थर लगे हुए थे। और बैठने की अच्छी सी जगह थी।
कई देर तक चलते रहने की वजह से मेरे चेहरे में भी थकान आना गई थी। मैं चश्मे से थोड़ा पानी पीता हुआ पिपल के पेड़ के जड़ की और बढ़ा घोड़े को मैंने थपथपा कर बोला- देख ले ,घांस बहुत है तेरे लिए। रोटी खाना हो तो आ जाओ।
घोड़े को और ज्यादा कहने की जरूरत नहीं पड़ी ।वह घांस के पेड़ के पत्तों को चबाने लग चुका था ।मैं पेड़ के नीचे बैठकर पोटली खोल चुका था। और पराठे निकाल कर खाने लग गया था।
पांच पराठे मैं खा चुका था। और बाकी के पराठे मैंने पोटली में बंद करने से पहले एक पराठा निकालकर घोड़े के मुंह पर डाल दिया था। मेरा घोड़ा पराठा चबा चबा कर खाने लगा। साथ में घांस भी चरे जा रहा था।
पराठा खाने के बाद चुल्लू भर पानी मैंने चश्मे से निकालकर पी ली थी।
कुछ देर आराम करने के लिए मैं पत्थर में लेट गया था। और घोड़े पर नजारे गडाने की जगह मैंने आंखें मूंद ली थी। थोड़ी देर में ही मुझे झबकी आ गई थी। मैं नींद के आगोश में थोड़ी देर के लिए खो गया था।
चारों ओर अंधेरा छाया हुआ था। जंगल की वह रात थी। मुझे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। मैंने महसूस किया, मेरे सामने,4 जंगली लोग आकर खड़े हो गए थे। सबके चेहरे में काले रंग से रंगा हुआ था। हथियार से लैस थे। उनके पास भाले और तलवार भी थे। इसका मतलब वे शिकार ्के््क्के््के््क्क्के््क्के््के््क् खोज में निकले हुए थे ।और मुझे सोते हुए देखकर उन्होंने मुझे को चारों ओर से घेर लिया था।
उनकी भाषा मुझे समझ नहीं आ रही थी। उनकी बातों में कुछ अचरज सा था।
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