मैं पानी पीकर और हाथ मुंह धो कर अपने गांव की ओर मुड़ा। चारों तरफ बाउंड्री लगी हुई, बीच में कोई इंडस्ट्री बसी हुई थी। बाउंड्री पत्थरों से दीवार बनाई गई थी इस पार से उस पार देख पाना मुमकिन नहीं था।
मैं नदी से सटे हुए हिस्से पर धीरे धीरे गुजरने लगा। चारों ओर ऊंची ऊंची दीवारें लगी हुई थी। और दीवारों के बगल से चारों और सड़कें बनी हुई थी। तारकोल की काली सड़कें।
मैं तलाश कर रहा था। मेरा घर कहां पर था? चारों ओर दीवार होने की वजह से , यह पता नहीं चल पा रहा था,मेरा घर कहां पर था।
नदी के छोर से कुछ ही दूरी पर हमारा मकान था। मकान के पिछवाड़े बाबा ने मवेशियों को रखने के लिए, कच्चा मकान सा बना रखा था। मवेशियों को बड़े प्यार से पालते बाबा, जैसे अपने बच्चों को देख रहे हो ।
आसपस यहीं कहीं आस-पास दूसरे पड़ोसियों का भी मकान था । शीतल चाची का मकान था। चाचा को गुजरे हुए कई साल हो गए थे। उनके दो बच्चे थे अनिरुद्ध और विवेक,दीपक। अनिरुद्ध ,दीपक उस समय छोटे थे। वह भी नहीं बच पाए ।मेरी तरह थे, मेरे से एकाध साल छोटी होंगे।अनिरुद्ध , विवेक मेरे दोस्तों उनके साथ मैं खेला करता।
कैलाश, रमेश, गणेश, उज्जवल ,लक्ष्मी ,देव , जटाशंकर, सारे के सारे कत्ले गारत में मारे गए। सब कुछ तबाह हो गया।
मवेशियां सारे जलकर खाक हो गये। घर, माल, असबाब, इंसान ,सब कुछ जलाकर खाक कर दिया। जिन्होंने भागने की कोशिश की उनको मार-मार कर उसी जलते हुए मकानों के अंदर डाल दिया गया ।और ऊपर से पेट्रोल छिड़क दी गई।
क्या गुनाह था उनका, मेरे बाबा का, मेरी मां का,मेरा, पूरे के पूरे गांव का, पूरे के पूरे कुनबे का, उन जिदे मवेशियों का , जो नजरें बचाकर भाग सकते थे भाग गए जिनकी आबादी मुश्किल से 60 ,70 लोगों की होगी ।बाकी के सारा गांव जला दिया गया ।इसी फैक्ट्री के नीब रखने के लिए। क्यों मारे गए ?सिर्फ इसी फैक्ट्री के लिए?
पास के पहाड़ों में उपलब्ध प्लेटिनम के लिए? सरकार ने भी, सरकारी नुमाइंदों ने भी ,इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया ।या उनकी मिलीभगत में ही यह कारनामा अंजाम दिया गया।
जिन व्यापारियों ने ,यह कारनामा अंजाम दिया था ।उन व्यापारियों में से मुझे पता करके चुन-चुन के उनको मौत के घाट उतारना था, जो मेरा मिशन था।
मैं इस वक्त बाउंड्री के चारों और धीरे धीरे चल रहा था। घोड़े को लगाम पकड़े हुए ,आगे बढ़ रहा था।
मैं सारा जायजा लेने के लिए आगे बढ़ता गया। आगे पुलिस चौकी बनी हुई थी। जहां पर कुछ पुलिस वाले भी होंगे ,लेकिन अंदर मैंने झांक के देखा नहीं था ।जिसके ऊपर बोर्ड लगा लिखा हुआ था- नौगांव थाना!
जब काफी बड़ी सी आबादी यहां पर बसी हुई थी। जब यहां पर कोई थाना ना था। न कोई पुलिस वाले ही चक्कर लगाते थे। ना कोई सरकारी मुलाजिम इस ओर चक्कर लगाता था।
हमारा गांव! शहर से कटा हुआ हमारा गांव! यकीनन सरकारी खाते में पता नहीं क्या था? मगर, सरकारी कोई नुमाइंदे इस ओर कभी आते नहीं थे।
बहुत पिछड़ा हुआ एक गांव था। जहां गांव वालों ने ही मिलकर एक स्कूल खोल रखा था।
स्कूल में सिर्फ तीन मास्टर जी थे पढ़ाने के लिए।
जब कत्ले गारत हुआ होगा ,उस वक्त यह मास्टर जी भी जला दिए गए होंगे, स्कूल भी जला दिया गया होगा।
मुझे एहसास हो रहा था। कहां पर हमारा मकान था ?कहां पर चाचा का मकान था ? सीता का मकान था !और भी कई लोग हैं जिनको मैं अगर यहां पर बयान करने लग जाऊं, तो एक उपन्यास ही खत्म हो जाएगा।
इसी प्लेटिनम फैक्ट्री को लगाने के लिए ?इस इंडस्ट्री को बसाने के लिए ,लालची व्यापारियों के मिली भगत में, यहां के लोगों को जब हटा नहीं पाए! कत्ले गारत मचाया गया। आगजनी की गई ।जलजला सा आ गया।
मगर इस संसार में जो किया है। उसे यहीं पर भुगतना पड़ेगा। कुदरत उसे सजा देगी। कुदरत, कायनात, जिसे परमपिता परमेश्वर भी आप कह सकते हैं। वो खुद नहीं आता, वह हमें ही साधन बनाकर उसका बदला लेता है। वह किसी को माफ नहीं करता।
उसके दरबार में कोई दलील नहीं चलती। उसके दरबार में उसी का कानून चलता है। हर इंसान सोचता है। कि वह गलत नहीं है, मगर उसके नजरों में अगर गलत हो -तो उसे सजा जरूर मिलती है ।
उसकी नजर में सभी रहते हैं ।उसे कोई धोखा नहीं दे सकता। वह कायनात है, वह कुदरत है, वह सबका पालनहार है। तो संहार कर्ता भी वही है ।
वह खुद नहीं आता इस धरती पर ,संहार करने के लिए। वह हम में से ही किसी को चुनता है। बदले की आग को भड़काता है। इस कत्ले गारत का बदला लेने के लिए , कायनात ने मुझे जिंदा रखा है।कायनात ने मुझे चुना है।
मेरे आंखों में खून उतर आया था!
सूरज धीरे-धीरे क्षितिज की ओर बढ़ने लगा था। आसमान में लाल मयी आभा फैलने लगी थी। मुझे अपने ही गांव में रात को ठहरने के लिए , ठिकाना ढूंढना था ।मैं घोड़े की लगाम पकड़कर धीरे-धीरे सड़क में खेसारी अकादमी के चाल में चला जा रहा था।
कुछ आगे बढ़ने पर मुझे दुकाने दिखने लगी थी। कुछ पक्के मकान से दिखने लगे थे ।कुछ आबादी इधर-उधर चहल -पहल भी दिखने लगी थी।
जब यह गांव था। यहां कोई सड़कें पक्की नहीं थी। यहां पर कोई डेवलपमेंट नहीं था। सातवीं क्लास तक की एक स्कूल था ,उच्च शिक्षा लेने के लिए शहर में जाकर बसना पडता था। गांव वालों के पास इतनी कमाई नहीं होती ,कि अपने बच्चों को शहर में पढ़ा सकें ।शहर का खर्चा भी उठा सके।
अब यहां पर उन्नति दिख रही थी। थोड़ी बहुत आबादी यहां जरूर बसती होगी? आबादी के बगैर फैक्ट्री में काम करने वाले उन्हें कामगार कहां से मिल जाते ?मजदूर कहां से मिल जाते?
जैसे ही मैं थोडे आगे और बढ़ता गया। पक्के मकानों की एक लंबी लाइन सी दिखने लगी। शायद वो रिहायस भी हो सकते थे। या फिर व्यापारिक संस्थान भी हो सकते थे।
मगर ,मैं उन्नति को देखकर खुश नहीं था ।क्योंकि ,यह जो भी था। हमें उजाड़ कर, हमें मार कर ,हमें जलाकर, हमें तबाह करके, बसाया गया था, हमारे लाशों पर खड़ा यह सल्तनत था।
मेरे गांव में कोई पक्के मकान नहीं थे ।सारे कच्चे मकाने थी ।नदी के पत्थरों को लाकर मिट्टी के सहारे जोड़कर मकाने बनाई गई थी।
सभी जंगल से लाए हुए घांस ,फूस ,खरपतवार से ढका हुआ था। एक आध मकान ही था जिसके छत के ऊपर करकट या टीन के पत्ते लगे हुए थे।
मकाने बड़ी-बड़ी थी। मगर ,ऊंची मकाने नहीं थी ।पहाड़ों के मिट्टी से ही उन्हें लिपपोत कर कलर किया गया था ।पहाड़ों में कई कलर के मिट्टी भी मिल जाते थे। जिसे लाकर मां -बहने घर को पोछ कर ,खूबसूरत बना कर रखती थी।
मवेशियों के गोबर से ,फर्श को हर समय साफ सुथरा कर, लिपपोत कर रखते थे।
गांव के लोगों के कब्र के ऊपर ,लाशों के ऊपर, यह फैक्ट्री बनी थी ।लाशों के ऊपर यह व्यापारिक संस्थान बना था। फैक्ट्री बसाई गई थी।
मैंने देखा नदी पार करने के लिए कच्चा जो पुल था ।उसको पक्के पुल में बदल दिया गया था । सड़कें चौड़ी होती जा रही थी ।जिसमें 3 बड़ी गाड़ीयां आराम से एक साथ गुजर सकती थी।इस पुल को पार करके दूसरी ओर हमारे खेत खलियान थे। जहां खेती करके ही, ईतने बड़े गांव अपनी रोजी-रोटी चलाता था।
पहाड़ों में सीढ़ीदार खेत थे। जहां पर जीविकोपार्जन के लिए कई तरह के अन्न, फल कंदमूल उगाया करते। इन्हीं उत्पाद को बेचकर हम ,और कुछ आवश्यक सामग्री खरीदा करते।
पुल के उस पार से, कुछ बड़ी गाड़ियां ट्रक गांव की ओर आती मुझे दिख रही थी ।जो शायद रो प्लैटिनम लाकर इन फैक्ट्रियों के अंदर गेट से अंदर चली जाती।
मुझे फैक्ट्री की बहुत बड़ी गेट सी दिखी, जहां पर सुरक्षाकर्मी भी तैनात थे ।और गेट पर एक मकान सा बना हुआ था ।शायद वह एंट्री गेट होगी। या सुरक्षाकर्मियों के धूप बारिश में बचने के लिए बनाई गई ऑफिस सी थी।
मैं गेट के सामने से आगे गुजर गया था। जहां पर मुझे पक्के मकानों का सिलसिला दिख रहा था।
मकानों के सिलसिले रास्ते के दोनों साइड पर बने हुए थे। जो रास्ते शहर से आ रहे थे। मैं उन्हीं मकानों के पास पहुंच गया था । मकान के नीचे दुकानें बनी हुई थी। ऊपर रिहाइश बने थे। एक अच्छी खासी आबादी यहां पर बसी हुई दिख रही थी।
सड़क पर आते जाते गुजरते लोग कुछ गाड़ियां भी दिख रही थी। छोटी गाड़ियां, कुछ मोटरसाइकिल ,स्कूटर, साइकिल भी दिख रही थी ।और जो भी मुझे घोड़े के साथ देखता, तो अजीब नजरों से मेरी ओर देखता रहता।
जैसे मैं उनके लिए अजूबा सा था ।इंसान नहीं, अजीब इंसान था। आज के युग में भी कोई घोड़े पर सवार इस तरीके से चलता भी है!?
शायद उनकी नजरें यही कह रहे थे। मगर उन्हें क्या पता , पहाड़ों में ,जंगलों में ,झाड़ में , जहां रास्ता नहीं है, सिर्फ पगडंडियां है । वहां पर सिर्फ घोड़े ही साथ दे सकते हैं ।कोई कार, कोई बाइक या बाई साइकल कुछ भी साथ नहीं दे सकता।
एक छोटा मोटा सा कस्बा बना था। कई दुकानें बनी हुई थी। खाने-पीने के होटल थे ।
लाज बने हुए थे। इसका मतलब यह था। कि मेरे रहने का ठिकाना इन्हीं लॉज में से किसी एक पर बन सकती थी।
एक होटल के आगे अपने घोड़े को अडाया और अंदर घुस गया। मालिक से पूछा- क्या यहां पर रहने की कोई व्यवस्था है?
होटल के मालिक ने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा ।फिर बोला- मिल जाएगा आपको! लेकिन घोड़े के रहने के लिए जगह नहीं मिल पाएगी!
मेरा घोड़ा पार्किंग; में ही रह लेगा। कमरे में थोड़े ही जाएगा? और यह घोड़ा है -घोड़ा नहीं, मेरा दोस्त है! कोई शेर नहीं है !जो किसी को खा जाएगा! समझ में आया कुछ?
वो मेरी ओर देखकर बोला- हां ठीक है -फिर आपको मिल जाएगा!
अभी अंधेरा हुआ ना था, उजाला ही था। आस पास कोई घांस का मैदान नहीं था। घोड़े के लिए मुझे पास में सब्जी की दुकानें दिख गरी थी। वहां से मेरे घोड़े के लिए हरी साग मिल सकती थी। और सूखे चने भी मिल सकते थे। आस-पास से।
कमरे को देख लेने के बाद ,मैं नीचे उतरा ।और होटल के मालिक को होटल का किराया देने के बाद मालिक कों पेमेंट कर ,मैं बोला- मैं घोड़े के खाने की व्यवस्था करता हूं!
कमरे को देखने के बाद ,मैंने अपना बैग, और हथियार जो तलवार के रूप में मेरे पीठ के पीछे छुपा हुआ था। उसे मैंने वहीं पर डाल दिया था ।हथियार के नाम पर अब मेरे हाथ में मेरे कमर पर लगा हुआ धारदार चाकू था।
अभी फिलहाल मेरे घोड़े को पानी की व्यवस्था की जरूरत नहीं थी। क्योंकि नदी में उसने छकके पानी पी ली थी।
मैंने लज मालिक से पूछा - आसपास कहीं सब्जी की मंडी होगी ?जहां से मेरे घोड़े को खाने के लिए ,हरी साग सब्जियां मिल सकती है?
लज के मालिक ने मुझे इशारे से बताया। उस साइड ,शाग सब्जियों की दुकानें है।
होटल के मालिक ने जिस ओर को इशारा किया था। मैं उसी ओर घोड़े को चलाता हुआ ले गया। मैं फैक्ट्री का भी जायजा ले रहा था। पूरे गांव का आधा हिस्सा फैक्ट्री में तब्दील था। बाकी के हिस्से में मकान दुकान और लाज बना हुआ था ।
इन जमीनों पर मकान दुकान लाज बनाने के लिए जमीन किसने दी ?जमीन तो सारे गांव वालों के नाम पर थे! फिर इन्होंने कैसे कब्ज कर लिया?
यही हो सकता है- फैक्ट्री वालों ने उन्हें यह जमीन लीज पर दी हो? या फिर बेचा हो? फैक्टरी वालों ने जमीन फर्जीवाड़ा करके सारी जमीन अपने नाम पर कर ली हो!
मकान और दुकान के सिलसिले के बीचो- बीच सब्जियों की छोटी सी मंडी बनी हुई थी! जहां पर मुझे कुछ हरे पत्ते दार सब्जियां दिख गई थी।
मैं ,मुझे दिखने वाले हर चेहरे को बड़े ध्यान से देख रहा था। कि मुझे मेरी जान पहचान के कोई चेहरे मिल सकते हैं ।या नहीं?
अफसोस ,मुझे अपने जान पहचान के कोई भी चेहरे यहां नजर नहीं आए थे। मैं अपने घोड़े के लिए साग खरीद के वहीं पर मैंने डाल दिया था। घोड़ा साग खाकर सन्तुष्ट था ।मैंने उसकी पीठ थपथपाई। बोला -आज तो इसी में भी तसल्ली करनी होगी। फिर मुझे याद आया । सुखे चने मिल सकते थे । घोड़े के लिए मेरे लिए भी।
घोड़े को हरे पत्तेदार साग खिलाने के बाद, मैं घोड़े को लिए ,धीरे-धीरे मुड़ा ।इसी बहाने में फैक्ट्री का भी जयजा ले रहा था।
फैक्ट्री के सुरक्षा व्यवस्था के लिए कई गार्ड्स रखें थे ।आस-पास में ही बाउंड्री के आसपास में भी कुछ गार्डो को मैंने ससस्त्र घूमते हुए देखा था। यह सारे लोग हथियारबंद थे। मगर मुझे इनमें से किसी से भिडना ना था। यह सारे लोग बेगुना थे। मजदूर थे ।अपनी रोजी रोटी के लिए यहां आए हुए ,मजबूर लोग थे।
यहां पर भी एक बहुत बड़ा सा गेट बना हुआ था। गेट के ऊपर बहुत बड़ा साईन बोर्ड लगा हुआ था। जो सीमेंट से बना हुआ था ।और उस साइन बोर्ड पर लिखा हुआ था-" द साइन इंडिया कम्पनी लिमिटेड।"
मैंने उस गेट पर लिखे हुए कंपनी के नाम को पढा। मेरे दिल में जैसे सांप लोटने लग गए थे। दिल तो मेरा यूं कर रहा था, की तुरंत इसे बम लगाकर उड़ा दूं ।मगर , अफसोस मेरे पास
कंपनी को उड़ाने के लिए सच में बम नहीं था।बोर्ड देखने के बाद यह पता नहीं चल सकता था ।कि अंदर क्या बनता है? कहीं प्लैटनम का जिक्र नहीं था।
शायद जानबूझकर इस तथ्य को छुपाया गया था। जिसने भी कंपनी स्थापित की थी। क्लबों खरबों ,में खेलने वाला था।
सरकार चाहती तो, पास के दूसरे पहाड़यों को
फैक्ट्री का स्थान बनाया जा सकता था। मगर उसमें भी करोड़ों रुपए के खर्च लगने थे। उस करोड़ों रुपए के खर्च को बचाने के लिए, नौगांव को तहस-नहस कर दिया गया था!आज का सारा वक्त गुजर चुका था। कल मुझे फैक्ट्री के मालिकान का पता खबर करना था। मुझे यहां स्थापित होना नहीं था ।
मुझे तो यह सारे फैक्ट्री को नेस्तानाबूद करना था ।मुझे अपने गांव के लोगों के लाशों पे बने इस फैक्ट्री को धरा साइ करना था।
मगर मैं किसी बेगुनाह के खून से हाथ रंगने के फिराक में नहीं था ।जो भी शख्स हमारी इस बर्बादी के दारोमदार थे। उनको ही खत्म करना मेरा ध्येय था। उन के अलावा किसी भी एक नन्ही भी जान भी खत्म करना मुझे मंजूर नहीं था।
न मैं कोई हत्यारा था, ना कोई मैं डाकू लुटेरा था ।मुझे तो बस गांव वालों की मौत का बदला लेना था ।नौगांव की तबाही का बदला तबाही से लेना था।
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