टेंडर किसी व्यापारी के नाम पर छूट चुका था। व्यापारी क्या वह अपने आप को बहुत बड़ा इंडस्ट्रियलिस्ट समझता था। वह चाहता था। किसी तरह भी इस गांव को खाली कर दिया जाए ।क्योंकि ,उस गांव से ही होकर वह रास्ता पहाड़ियों में जाती थी। और उस गांव के खाली किए बिना उस गांव में फैक्ट्री लगाए बिना उस पहाड़ों से प्लैटिनम निकालना नामुमकिन था।
सरकार की भी बड़ी भूल थी। जब गांव वाले गांव खाली कर नहीं रह थे, तो फिर उस पहाड़ी का प्लेटिनम का टेंडर निकालने की वजह क्या थी ।या तो पहले गांव के अगल-बगल से या पहाड़ों में से प्लैटिनम निकालने के लिए रास्ता बनाए ।और पहाड़ों में ही कहीं किसी जगह पर फैक्ट्री डालने के लिए तैयारी करें ।जमीन तैयार करें, फिर जाकर टेंडर निकाले ।मगर, ऐसा नहीं था। ऐसा करने में ,और अरबों रुपए का खर्च आता ।जो व्यापारी वर्ग इंडस्ट्रियल सहन नहीं कर सकता था।
वह तो चाहते थे ,कौड़ियों के भाव में गांव वाले जमीन छोड़कर चले जाएं। और वहां पर इंडस्ट्री डालकर अरबों रुपए की कमाई करें। मगर गांव वाले भी समझते थे जब तक सरकार नहीं चाहेगी तब तक वह वहां से हटेंगे नहीं ।क्योंकि ,वहां पर प्लैटिनम की खदान शुरू होने के बाद इंडस्ट्री डालने की जरूरत थी। और इंडस्ट्री डालने के लिए आसपास पहाड़ियों को पाटकर इंडस्ट्री डाला जा सकता था ।मगर ऐसा नहीं हो रहा था।
सरकार को इस बात से कोई फर्क पड़ने वाला नहीं था। वह सरकार के नुमाइंदे सरकार में जो मिनिस्टर बैठे हुए थे ।वह भी इस बात से कोई इंटरेस्ट नहीं दे रहे थे ।उन्होंने सारा कारनामा सारी बातों को इंडस्ट्रियलिस्ट लोगों के ऊपर छोड़ दिया था। और इंडस्ट्रीलिस्ट गुंडागर्दी पर उतर आए थे।
आम जनता की सुरक्षा करने वाली सरकार खुद आंखें मूंद कर बैठ गई थी। आम जनता की भलाई के लिए कोई सामने नहीं रहा था। आम जनता को प्रेशर दिया जा रहा था ।कि खाली करो -खाली करो -खाली करो ।मगर, आम जनता थी कि वह गांव खाली करने से रहे।
उनकी यह जन्म भूमि थी ।उनकी यह मातृभूमि थी। और उन्हें अपनी जन्मभूमि से बेदखल किया जा रहा था। उन्हें अपनी जन्मभूमि से खदेड़ा जा रहा था। मगर गांव वाले थे,कि टस से मस नहीं हो रहे थे।
गुंडागर्दी का भी सामना करने के लिए तैयार थे ।मगर उन्हें पता नहीं था -कि वह मामूली गुंडागर्दी नहीं थी।
यह गुंडागर्दी थी संपूर्ण गांव को खाली करने की ।और यह गुंडागर्दी कोई सड़कों का गुंडागर्दी नहीं था। कि डंडे लेकर आ जाते। यह गुंडागर्दी खुद को इंडस्ट्रियलिस्ट कहने वाले गुंडे करा रहे थे। इंडस्ट्रीलिस्टो का सपोर्ट करने के लिए सारे पुलिस मशीनरी ,सारे मिलिट्री फोर्स भी शामिल हो गई थी।
कई बार गांव वालों को वार्निंग भेजी गई थी। कि जल्द से जल्द गांव खाली कर दे।
बाबा और गांव के कई बुजुर्गों को बुलाकर बिठाकर समझाया गया था।
मगर बुजुर्गों को समझाना बड़ी तेरी खीर थी। बुजुर्ग इस बात से अडे थे ,कि उनकी उनकी भूमि से बेदखल करने का क्या मतलब है? इंडस्ट्री, लगाना है तो इतनी सारी पहाड़ियां है। किसी भी पाहाडी को पाटकर सरकार इंडस्ट्री लगा सकती है। या कोई व्यापार इंडस्ट्री लगा सकती है। हम यहां से जाने वाले नहीं है।
यह अंतिम फैसला बुजुर्गों का था। और यह निर्णय सही भी था।
कई सालों से इस बात को लेकर सरकार और गांव वालों में खींचातानी होती रही थी ।जिस बात को लेकर, खींचा तानी में गांव वाले चिंतित थे।उनका यह मानना था ।कि सरकार उनकी ओर ध्यान नहीं दे रही है। उनका यह मानना था ।कि सरकार उन्हें जबरदस्ती खाली कराने के चक्कर में है। उनका यह मानना था। कि इंडस्ट्री से हाथ मिला कर सरकार उन्हें वहां से बेदखल करना चाहती है। जबकि इससे कम खर्चे में वह आस-पड़ोस के किसी पहाड़ी को पाट करें इंडस्ट्री लगा सकते थे।
और इस बात को लेकर खींचातानी चलती रही चलती रहीं ।गांव वाले टस से मस होने से रहे। और सरकार भी टससे मस हो नहीं रही थी।
कई सरकारी नुमाइंदे, कई सरकारी अफसर आन, कई मिनिस्टर आए ।और उन्हें समझाने की कोशिश की गई।
गांव वालों को समझाने की कोशिश की गई। मगर गांव वालों का यही कहना था। अगर इंडस्ट्री लगाना है तो लगा सकते हो ।हम रोकने वाले कौन हो सकते हैं? मगर, हमारी जमीन हमारे पास ही रहेगी।
मगर सरकारी मशीनरी को, पता नहीं इस बात से, कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। गांव वालों की सलाह से उन्हें कुछ फर्क नहीं पड़ रहा था। बस वह तो यह चाहते थे कि किसी तरह गांव खाली करवा ले ।पता नहीं गांव खाली करवाने में उनका क्या मंशा रहा होगा? समझ से बाहर की बात थी!
अब धीरे-धीरे स्थिति हो गई थी। कि सरकारी मशीनरियोने गांव वालों को प्रेशर डालने की कोशिश छोड़ दी। सरकारी मशीनरी कुछ दिन के लिए ठप से पड़ गये। ऐसा लगने लगा ।जैसे अब सरकार गांव वालों से हार गई है ।ऐसा सुनने में भी आया ,कि सामने की जो पहाड़ी है उस पहाड़ी को पाट कर इंडस्ट्री लगाई जाएगी। वहां से रास्ता खुलेगा ,वहां से रास्ता खुलने से गांव वालों को एक फायदा और होता ।कि वह शहर तक उस रास्ते के सहारे जा सकते थे।
गांव वाले अपने उत्पाद को अपने कृषि जन्य उत्पाद को शहरों में ले जा कर बेच सकते थे। और अच्छी कमाई कर सकते थे ।मगर ऐसी बातें सिर्फ बातें ही रह गई थी ।क्योंकि, न हीं सरकार ने कोई रास्ता खोलने का प्रोग्राम किया। ना ही पहाड़ी को पाटने का कोई प्रोग्राम किया।
एक दो बार तो लगा था -कि सरकारी मशीनरी खुद पहाड़यों को पाटकर इंडस्ट्री लगाने के चक्कर में है। मगर यह बात जैसे उठी थी वैसे ही दब सी गई ।जैसे इंडस्ट्री लगाने की बात ही ठंडे बस्ते में चली गई।
क्या पता था कि या चुप्प अजीब सी थी सारे आने-जाने सारे
मीटिंग और फसाने सारे बंद हो गए थे ।ऐसा लगने लगा था ।अब आगे कुछ होने वाला नहीं है ।सरकार गांव वालों से हार गई है। गांव वाले नहीं चाहते कि उन्हें हटाया जाए। और इंडस्ट्री लगाई जाए। और सरकार नहीं चाहती की दूसरी जगह किसी पाहाडी को पाटकर खर्च करके वाह इंडस्ट्री लायक जगह बनाई जाए।
दोनों तरफ से चुप्पी छा गई थी। किसे पता था कि अब चुप्पी चुप्पी नहीं यह तो आंधी से आंधी आने से पहले की खामोशी थी।
फिर एक रोज कुछ ऐसा हुआ, जैसा कभी किसी ने सोचा ना था। ऐसा जलजला आया जो किसी ने सोचा ना था। ऐसा जलजला आया सारा गांव एक ही झटके में जलकर खाक हो गया। सारे गांव के लोगों की उसी मिट्टी ने समाधि बन गई ।जो बचकर भाग सकते थे शायद कई लोग भाग गए होंगे।मगर मुझे यह पता नहीं था कि मेरे अलावा कोई और भी बचकर निकला होगा या नहीं।
कैसा था वह जलजला? कौन था जलजले का मास्टरमाइंड?