🌜🌜🌜🌜 जादुई दुनिया 🌛🌛🌛🌛
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उड़ते फिरते निल गगन में ,
चहक उठता मेरा मन ,
लहरों पर दौड़ लगाता ,
प्रफुल्लित हो उठता अंजुमन ।
कुद जाता ऊंचे शिखर से ,
नंगें पांव चलता अग्नि पर ,
सर्प समूह में घिर जाता ,
मुंहताज हों जाता चरन्नि पर ।
निशब्द खड़े लोग गोलाकार ,
पड़ा होता मैं चीते पर ,
दहक उठता शरीर मेरा ,
निर्वस्त्र होता तब चीते पर ।
इच्छा जो होता खानें को ,
भर जाता मेरी अंजुली में ,
बहक जाते विरान जगह ,
रास्ता ना मिलता भूलि मैं ।
आलिशान बंगला छत ऊपर ,
मस्त हवा पूनम के रात ,
मंगल वृहस्पत सर ऊपर ,
चन्द्र घीरा बैठा पांत ।
स्वयं को स्वयं मुखाग्नि देता,
पिण्ड दान भी होता है ,
दो वर्ष का बालक बनकर ,
मृत मां कि गोद में होता है ।
परदादा की उंगली पकड़ कर ,
साइंस सिटी में जाता हूं ,
मेट्रो में बैठे हम दोनों ,
उनके ननिहाल से आता हूं ।
जलती हाथ पर खीर बनती ,
छाती से तोता निकलता है ,
बेफिक्र सोया पतली तार पर ,
उंगलियों से धुआं निकलता है ।
युद्ध स्थल में घोड़ सवार ,
विजय पताका लहराया ,
उमंग भरा सेनानियों में ,
खुशियों का आंसू भर आया ।
रोक सका ना कोई विघ्न ,
कारनामे सभी देखता रहा ,
जादुई दुनिया से कम नहीं ,
मेरे समस्त वो सपने रहे ।
आर्य मनोज , पश्चिम बंगाल १७.११.२०२२.