आत्ममुग्धता इस धराधाम पर जन्म लेने के बाद मनुष्य अनेक प्रकार के शत्रुओं एवं मित्रों से घिर जाता है इसमें से कुछ सांसारिक शत्रु एवं मित्र होते हैं तो कुछ आंतरिक | आंतरिक शत्रुओं में जहाँ हमारे शास्त्रों ने काम , क्रोध , मद , लोभ आदि को मनुष्य का शत्रु कहा गया है वहीं शास्त्रों में वर्णित षडरिपुओं के
तू कविता हैं मुझ बंजारे की, सुबह की लाली, शाम के अँधियारे की, वक्त के कोल्हू पे रखी, ईख के गठियारे की, हर पल में बनी स्थिर, नदियों के किनारे की, सूरज की, धरती की, टमटमाते चाँद सितारे की, हान तू कविता है मुझ बंजारे की। तू कविता हैं मुझ बंजारे की, रुके हुए साज पर, चुप्पी के इशारे की, इस रंगीन समा में
*इस संसार में ब्रह्मा जी ने अलोकिक सृष्टि की है | यदि उन्हों ने दुख बनाया तो सुख की रचना भी की है | दिन - रात , साधु - असाधु , पाप - पुण्य आदि सब कुछ इस सृष्टि में मिलेगा | मनुष्य जन्म लेकर एक ही परिवार में रहते हुए भी भिन्न विचारधाराओं का अनुगामी हो जाता है | जिस परिवार में रावण जैसा दुर्दान्त विचा
*मानव जीवन अनेक विचित्रताओं से भरा हुआ है | मनुष्य की इच्छा इतनी प्रबल होती है कि वह इस संसार में उपलब्ध समस्त ज्ञान , सम्पदायें एवं पद प्राप्त कर लेना चाहता है | अपने दृढ़ इच्छाशक्ति एवं किसी भी विषय में श्रद्धा एवं विश्वास के बल पर मनुष्य ने सब कुछ प्राप्त भी किया है | मानव जीवन में श्रद्धा एवं वि
*परमपिता परमात्मा ने सुंदर सृष्टि का सृजन किया | ऊँचे - ऊँचे पहाड़ , पहाड़ों पर जीवनदायिनी औषधियाँ , गहरे समुद्र , समुद्र में अनेकानेक रत्नों की खान उत्पन्न करके धरती को हरित - शस्य श्यामला बनाने के लिए भिन्न - भिन्न प्रजाति के पेड़ पौधों का सृजन किया | प्राकृतिक संतुलन बना रहे इसलिए समयानुकूल ऋतुएं
*जबसे इस धराधाम पर मानव की सृष्टि हुई तबसे ही मनुष्य ने समूह एवं संगठन को महत्त्व दिया है | या यूँ भी कहा जा सकता है कि मनुष्य के विकास में समूह व संगठन का विशेष योगदान रहा है | आदिकाल में जब न तो घर थे और न ही जीवन को सरल बनाने के इतने साधन तब मनुष्य समूह बनाकर रहते हुए एक - दूसरे के सुख - दु:ख में
*परमपिता परमात्मा की सृष्टि जितनी अनुपम एवं अनूठी है उतनी ही विचित्र भी है | इन्हीं विचित्रताओं में सबसे विचित्र है मनुष्य का जीवन | यद्यपि समस्त मानव जाति की रचना परमात्मा ने एक समान की है परंतु सबका अपना सौंदर्य है , अपना वजूद है , अपनी रंगत है , अपना स्वरूप है , अपनी विशेषता है व अपनी उपयोगिता ह
*आदिकाल से इस धराधाम पर विद्वानों की पूजा होती रही है | एक पण्डित / विद्वान को किसी भी देश के राजा की अपेक्षा अधिक सम्मान प्राप्त होता है कहा भी गया है :- "स्वदेशो पूज्यते राजा , विद्वान सर्वत्र पूज्यते" राजा की पूजा वहीं तक होती है जहाँ तक लोग यह जामते हैं कि वह राजा है परंतु एक विद्वान अपनी विद्वत
*जब से इस धराधाम पर मानव का सृजन हुआ तब से लेकर आज तक मानव समाज को दिशा प्रदान करने के लिए कुछ विशेष व्यक्तियों के सहयोग एवं सेवा को कदापि नहीं भुलाया जा सकता | पृथ्वी के भिन्न-भिन्न भागों में अपने - अपने समाज को आगे बढ़ाने में एक दिशा निर्देशक एवं मार्गदर्शक अवश्य होता है | जिसे विद्वान कहा जाता है
*मनुष्य अपने जीवनकाल में अनेकों क्रिया - कलाप करता रहता है , भिन्न - भिन्न स्वभाव के लोगों की संगत करता रहता है | अपने स्वभाव के विपरीत लोगों के साथ रहकर अपने स्वभाव को बदलने का भी प्रयास करता रहता है | इसमें वह कुछ हद तक सफल भी हो जाता है , समय आने पर वह अपना मूल स्वभाव कहीं जाता नहीं है | वही व्यक
*परमपिता परमात्मा ने इस सुंदर सृष्टि रचना की और इस सुंदर सृष्टि में सबसे सुंदर बनाया मनुष्य को | मनुष्य की सुंदरता दो प्रकार से परिभाषित की जाती है एक तो शरीर की सुंदरता दूसरे मन की सुंदरता | तन और मन का चोली दामन की तरह साथ होता है | यह दोनों ही एक दूसरे के पूरक और पोषक है , किंतु मनुष्य का सारा ध
*आदिकाल से समस्त विश्व में भारत को सर्वोच्च स्थान प्राप्त था | यह सर्वोच्च स्थान हमारे देश भारत को ऐसे ही नहीं मिल गया था बल्कि इसके पीछे भारत की आध्यात्मिकता , वैज्ञानिकता एवं संस्कृति / संस्कार का महत्वपूर्ण योगदान था | हमारे देश भारत में प्रारंभ से ही व्यक्ति की अपेक्षा व्यक्तित्व का आदर्श ग्रहण
*मनुष्य की इच्छायें एवं आवश्यकतायें अनन्त हैं | जब से मनुष्य इस धराधाम पर आया तब से ही यह दोनों चीजें विद्यमान हैं | एक सुंदर एवं व्यवस्थित जीवन जीने के लिए मनुष्य को नित्य नये आविष्कार करने पड़े , जहाँ जैसी आवश्यकता मनुष्य को प्रतीत हुई वहाँ वैसे आविष्कार मनुष्य करता चला गया | अपने इन्हीं आविष्कार
*इस संसार में मनुष्य जन्म लेने के बाद विवाहोपरांत मनुष्य की सबसे बड़ी कामना होती है संतान उत्पन्न करना | जब घर में पुत्र का जन्म होता है तो माता-पिता स्वयं को धन्य मानते हैं | हमारे शास्त्रों में भी लिखा है :- "अपुत्रस्तो गतिर्नास्ति" अर्थात जिसके यहां पुत्र नहीं होता उसकी सद्गति नहीं होती | संतान क
*ईश्वर की बनायी इस सृष्टि में जीव चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता है | अनेक जन्मों के किये हुए सत्कर्मों के फलस्वरूप जीव को यह दुर्लभ मानवयोनि प्राप्त होती है | जहाँ शेष सभी योनियों को भोगयोनि कहा गया है वहीं मानवयोनि को कर्मयोनि की संज्ञा दी गयी | इस शरीर को प्राप्त करके मनुष्य अपने कर्मों के माध
*यह समस्त सृष्टि निरन्तर चलायमान है ! जो कल था वह आज नहीं है जो आज है वह कल नहीं रहेगा | कल इसी धरती पर राम कृष्ण आदि महान पुरुषों ने जन्म लिया था जो कि आज नहीं हैं ! आज हम सब इस धरती पर जीवन यापन कर रहे हैं कल हम भी नहीं रहेंगे ! हमारी आने वाली पीढ़ियां इस धरती पर विचरण करेंगी | जहाँ कल नदियाँ थीं
*सनातन धर्म में तैंतीस करोड़ देवी देवताओं की मान्यता है | इन देवी - देवताओं को शायद ही किसी ने देखा हो , ये कल्पना भी हो सकते हैं | देवता वही है जिसमें कोई दोष न हो , जो सदैव सकारात्मकता के साथ अपने आश्रितों के लिए कल्याणकारी हो | शायद हमारे मनीषियों ने इसीलिए इस धराधाम पर तीन जीवित एवं जागृत देवताओ
*इस धरा धाम पर परमात्मा की सर्वोत्कृष्ट रचना मनुष्य को मानी गई है | जन्म लेने के बाद मनुष्य ने धीरे धीरे अपना विकास किया और एक समाज का निर्माण किया | परिवार से निकलकर समाज में अपना विस्तार करने वाला मनुष्य अपने संपूर्ण जीवन काल में अनेक प्रकार के रिश्ते बनाता है | इन रिश्तो में प्रमुख होती है मनुष्य
*मानव जीवन पाकर के प्रत्येक व्यक्ति सफल होना चाहता है | जीवन के सभी क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने की इच्छा रखने वाला मनुष्य अपने उद्योग , प्रबल भाग्य एवं पारिवारिक सदस्यों तथा गुरुजनों के दिशा निर्देशन में सफलता प्राप्त करता है | परंतु मनुष्य की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वह कितना सकारात्मक