*आदिकाल से इस धराधाम पर विद्वानों की पूजा होती रही है | एक पण्डित / विद्वान को किसी भी
देश के राजा की अपेक्षा अधिक सम्मान प्राप्त होता है कहा भी गया है :- "स्वदेशो पूज्यते राजा , विद्वान सर्वत्र पूज्यते" राजा की पूजा वहीं तक होती है जहाँ तक लोग यह जामते हैं कि वह राजा है परंतु एक विद्वान अपनी विद्वता से प्रत्येक स्थान में , प्रत्येक परिस्थित में पूज्यनीय रहता है | विचारणीय विषय यह है कि विद्वान किसे माना जाय ?? क्या कुछ पुस्तकों का या किसी विषय विशेष का अध्ययन कर लेने मात्र से कोई विद्वान हो सकता है ? इस विषय का महाभारत के उद्योगपर्व में विस्तृत वर्णन देखा जा सकता है | जिसके अनुसार :- "क्षिप्रं विजानाति चिरं श्रृणोति विज्ञाय चार्थं भजते न कामात् ! नासंपृष्टो ह्युप्युंक्ते परार्थें तत्प्रज्ञानं प्रथमं पण्डितस्य !!" अर्थात :- जो वेदादि शास्त्र और दूसरे के कहे अभिप्राय को शीघ्र ही जानने वाला है | जो दीर्घकाल पर्यन्त वेदादि शास्त्र और धार्मिक विद्वानों के वचनों को ध्यान देकर सुन कर व उसे ठीक-ठीक समझकर निरभिमानी शान्त होकर दूसरों से प्रत्युत्तर करता है | जो परमेश्वर से लेकर पृथिवी पर्यन्त पदार्थो को जान कर उनसे उपकार लेने में तन, मन, धन से प्रवर्तमान होकर काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोकादि दुष्ट गुणों से पृथक् रहता है तथा किसी के पूछने वा दोनों के सम्वाद में बिना प्रसंग के अयुक्त भाषणादि व्यवहार न करने वाला है | ऐसा होना ही ‘पण्डित’ की बुद्धिमत्ता का प्रथम लक्षण है | संसार के समस्त
ज्ञान को स्वयं में समाहित कर लेने बाद भी यदि विद्वान में संस्कार , व्यवहार और वाणी में मधुरता न हुई तो वह विद्वान कदापि नहीं कहा जा सकता |* *आज के युग में पहले की अपेक्षा विद्वानों की संख्या बढ़ी है | परंतु उनमें विद्वता के लक्षण यदि खोजा जाय तो शायद ही प्राप्त हो जायं | आज अधिकतर विद्वान अपनी विद्वता के मद में न तो किसी का सम्मान करना चाहते हैं और न ही किसी का पक्ष सुनना चाहते हैं ऐसा व्यवहार करके वे स्वयं में भले ही अपनी विद्वता का प्रदर्शन कर रहे हों परंतु
समाज की दृष्टि में वे असम्मानित अवश्य हो जाते हैं | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" बताना चाहूँगा कि लंका के राजा त्रैलोक्यविजयी रावण से अधिक विद्वान कोई नहीं हुआ परंतु उसका भी पतन उसके संस्कार , व्यवहार एवं अभिमान के कारण ही हुआ | आज विद्वानों में स्वयं को सर्वश्रेष्ठ घोषित करने की होड़ सी लगी दिखाई पड़ती है | जबकि सत्य यह है कि किसी भी विद्वान को यह घोषणा करने की आवश्यकता नहीं होती है कि वह विद्वान है | उसके ज्ञान , आचरण एवं समाज के प्रति व्यवहार ही उसको विद्वान बनाती है | आज प्राय: देखा जा रहा है कि यदि किसीसने कुछ पुस्तकों का अध्ययन कर लिया तो वह विद्वान बनने की श्रेणी में आ जाता है और उसमें अहंकार भी प्रकट हो जाता है | यह तथाकथित विद्वान स्वयं के ही ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हुए उसे ही सिद्ध करने लगते हैं | जबकि ऐसे लोगों को "कूप मण्डूक" से अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता है |* *विद्वान का सम्मान सदैव से होता रहा है और होता रहेगा परंतु उसके लिए यह आवश्यक है कि विद्वान के संस्कार , व्यवहार , एवं वाणी भी सम्माननीय एवं ग्रहणीय हो |*