
*मानव जीवन पाकर के प्रत्येक व्यक्ति सफल होना चाहता है | जीवन के सभी क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने की इच्छा रखने वाला मनुष्य अपने उद्योग , प्रबल भाग्य एवं पारिवारिक सदस्यों तथा गुरुजनों के दिशा निर्देशन में सफलता प्राप्त करता है | परंतु मनुष्य की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वह कितना सकारात्मक है | सकारात्मकता के साथ प्राप्त की गई सफलता चिरस्थाई होती है जबकि जो भी मनुष्य नकारात्मक हो जाता है व अपनी सफलता का श्रेय स्वयं को या अपने भाग्य को देने लगता है शेष परिवारी जनों एवं गुरुजनों को दरकिनार कर देता है वह बहुत दिन तक सफल नहीं रह सकता | पूर्व काल में रावण जैसा त्रैलोक्यविजयी एवं सफल व्यक्ति न तो हुआ है न आगे होने की संभावना है , परंतु रावण की नकारात्मक सोच उसके पतन का कारण बनी | उच्च पद पर आसीन हो जाने के बाद अपने गुरुजनों , सलाहकारों एवं पारिवारिक सदस्यों की अवहेलना करने वाला एवं यह कहने वाला कि "यह सफलता तो मैंने अपनी मेहनत एवं भाग्य से प्राप्त किया है" मनुष्य सफल नहीं कहा जा सकता | उसकी सफलता बहुत दिन तक नहीं टिक सकती | मनुष्य को अपने आसपास रहने वाले एवं किसी भी कार्य में सहायता , दिशा निर्देशन करने वाले व्यक्ति को कभी नहीं भूलना चाहिए , यदि वह ऐसा करता है तो उसे यह
समाज कृतघ्न कहने लगता है | यह सत्य है कि किसी भी सफलता में मनुष्य की मेहनत एवं उसका भाग्य अहम योगदान निभाते हैं परंतु इसके साथ ही उस लक्ष्य का दिशानिर्देश करने वाले गुरुजनों एवं परिवारी जनों तथा मित्रों के योगदान को भी कभी नहीं भूलना चाहिए | यदि मनुष्य अपनी मेहनत एवं अपने भाग्य के भरोसे ही आगे बढ़ सकता तो शायद उसे कभी भी विद्यालय में शिक्षा लेने की आवश्यकता पड़ती | किसी भी सफलता में सहायक लोगों को एवं उनके योगदान कभी नहीं भूलना चाहिए |* *आज हम ऐसे युग में जीवन यापन कर रहे हैं जिसे आधुनिक युग कहा जाता है | आज के युग में संस्कार एवं संस्कृति का लोप होता दिखाई पड़ रहा है | इसे पाश्चात्य संस्कृति की धमक कहें या सनातन संस्कृति की असफलता कही जाय | आज का युवा वर्ग यदि किसी कार्य में सफल भी हो जाता है तो इसका सारा श्रेय स्वयं की मेहनत एवं अपने प्रारब्ध को ही देता है , और यह कहते हुए भी सुना जाता है मैंने जो भी किया है अपनी मेहनत के बल पर किया इसमें किसी का कोई सहयोग नहीं | आज पिता के सहारे समाज में स्थापित होकर सफल होने वाला पुत्र भी अपनी सफलता का श्रेय अपने पिता को भी नहीं देना चाहता | मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि मनुष्य अपनी मेहनत एवं अपने भाग्य के भरोसे तो आगे बढ़ता ही है परंतु इसमें सिर्फ उसके भाग्य और मेहनत का ही योगदान नहीं होता है बल्कि योगदान उस माता-पिता का भी होता है जिसने उंगली पकड़कर चलना सिखाया | योगदान उस गुरु का भी होता है जिसने उस लक्ष्य के विषय में आपको अवगत कराया | विचार कीजिए कि यदि परिवारी जनों का सहयोग ना होता तो हम शायद विद्यालय तक ना पहुंच पाते , और यदि गुरुजनों के द्वारा हमें किसी भी लक्ष्य के विषय में
ज्ञान न कराया जाता एवं उसे प्राप्त करने के लिए उत्साह वर्धन न किया जाता तो क्या मनुष्य सफल हो सकता था ? मेरे विचार से तो कदापि नहीं | जब हम जानते हैं हमारी सफलता के पीछे माता पिता , गुरुजन ढाल बनकर खड़े होते हैं तो फिर ऐसा क्यों होता है कि मनुष्य एक समय आने पर उनको अनदेखा करने लगता है एवं सफलता का सारा से अपनी मेहनत एवं अपने भाग्य को ही देने लगता है | शायद यही कृतघ्नता की पराकाष्ठा है |* *सफलता प्रत्येक व्यक्ति को प्राप्त करनी चाहिए | मानव जीवन का उद्देश्य होता है सफलता प्राप्त करना | परंतु किसी भी सफलता के पीछे उपस्थित कारणों के प्रति कभी भी नकारात्मक होकर कृतघ्न नहीं होना चाहिए |*