*इस संसार में ब्रह्मा जी ने अलोकिक सृष्टि की है | यदि उन्हों ने दुख बनाया तो सुख की रचना भी की है | दिन - रात , साधु - असाधु , पाप - पुण्य आदि सब कुछ इस सृष्टि में मिलेगा | मनुष्य जन्म लेकर एक ही परिवार में रहते हुए भी भिन्न विचारधाराओं का अनुगामी हो जाता है | जिस परिवार में रावण जैसा दुर्दान्त विचारधारा रखने वाले होते हैं उसी परिवार के एक कोने में विभीषण जैसा धर्मावलम्बी भी होते हैं | मनुष्य पाप और पुण्य में अपनी मानसिकता के अनुसार रत हो जाता है | पापी या पुण्यात्मा बनकर कोई पैदा नहीं होता बल्कि कर्मों के अनुसार उसे यह
समाज पुण्यात्मा या पापी कहने लगता है | मनुष्य दो प्रकार से पापों में प्रवृत्त होता है, एक अनजाने में और दूसरा जानते हुए भी दुराग्रह से | अनजाने में पाप करने वाला किसी सद्गुरु के मार्गदर्शन से पापमुक्त हो जाता है | वह अपना आचरण शुद्ध बना लेता है | परंतु दुराग्रह से पापों में रत व्यक्ति को समझाया नहीं जा सकता | क्योंकि दुराग्रही व्यक्ति सत्य को जानकर भी उसे स्वीकार नहीं करता | वह अपने दुराग्रह को ही श्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयास करता है | ऐसा व्यक्ति समय के थपेड़े और जीवन की ठोकरें खाने के बाद ही अपनी भूल को महसूस करता है, किंतु दुर्भाग्य से तब तक बहुत देर हो चुकी होती है | द्वापरयुग के दुर्योधन को कौन भूल सकता है जिसने अपने दुराग्रह में ही भरी सभा में समझाने गये भगवान श्री कृष्ण को भी बाँधने का दुस्साहस करने पर उतारू हो जाता है | भगवान कन्हैया द्वारा माँगे गये पाँच ग्राम की बात भी वह ठुकरा देता है | भीष्म , द्रोण , विदुर आदि के नीति वचनों को भी वह नहीं मानता और परिणामस्वरूप
भारत में एक विनाशकारी महाभारत की नींव पड़ी | यदि दुर्योधन अपना दुराग्रह त्याग देता तो शायद इतना विनाश न होता |* *आज समाज में लगभग प्रत्येक घर में दुराग्रही मिल जाते हैं | दुराग्रही का अर्थ हुआ कि जो तथ्यों को जानकर भी मानने को तैयार न हो और अपनी कही बात ही सिद्ध करने के लिए अनेक झूठे प्रपंचों का सहारा ले | ऐसा करने के लिए वह देवी - देवताओं , वेद - शास्त्रों में कही गयी बातों को भी झूठा ही बताने लगता है | जबकि वह जानता है कि वह स्वयं गलत है परंतु फिर भी वह अपने कहे से पीछे नहीं हटता | फिर उसे समझाने के लिए चाहे साक्षात गुरु वृहस्पति ही क्यों न आ जायं | ऐसे लोगों के लिए आचार्य चाणक्य लिखते हैं :----- "प्रसह्य मणिमुद्धरेन्मकरदंष्ट्रान्तरात् , समुद्रमपि सन्तरेत् प्रचलदुर्मिमालाकुलाम् ! भुजङ्गमपि कोपितं शिरसि पुष्पवद्धारयेत् , न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् !! अर्थात :- मनुष्य कठिन प्रयास करते हुए मगरमच्छ की दंतपंक्ति के बीच से मणि बाहर ला सकता है, वह उठती-गिरती लहरों से व्याप्त समुद्र को तैरकर पार कर सकता है, क्रुद्ध सर्प को फूलों की भांति सिर पर धारण कर सकता है, किंतु दुराग्रह से ग्रस्त मूर्ख व्यक्ति को अपनी बातों से संतुष्ट नहीं कर सकता है | ये दुराग्रह से ग्रसित मनुष्य सदैव संस्कृति एवं समाज / परिवार के लिए घातक ही सिद्ध होते रहे हैं और आगे भी होते रहेंगे |* *समाज के दुराग्रहियों को प्रणाम करते हुए यही कहना चाहता हूँ कि इस दुराग्रह से बाहर निकलकर देखिये यह संसार बहुत ही सुंदर है |*