*परमपिता परमात्मा ने इस सुंदर सृष्टि रचना की और इस सुंदर सृष्टि में सबसे सुंदर बनाया मनुष्य को | मनुष्य की सुंदरता दो प्रकार से परिभाषित की जाती है एक तो शरीर की सुंदरता दूसरे मन की सुंदरता | तन और मन का चोली दामन की तरह साथ होता है | यह दोनों ही एक दूसरे के पूरक और पोषक है , किंतु मनुष्य का सारा ध्यान पर आया शरीर की सुंदरता को संवारने में ही निकल जाता है एवं मनुष्य मन को सुंदर बनाने की ओर ध्यान नहीं देता है | इससे उसके मन में मलिनता आ जाती है | शरीर तो सुंदर हो जाता है परंतु मन असुंदर ही रह जाता है | ऐसे ही लोगों के लिए मानस में बाबा जी ने लिखा है :-- "मन मलीन तन सुंदर कैसे ! विष रस भरा कनक घट जैसे !!" बाबा जी ने बहुत ही गहरी बात लिखी है | यदि मन में मलिनता हो तो तन की सुंदरता व्यर्थ ही होती है , क्योंकि वह शरीर विष भरे सोने के कलश के समान हो जाता है | प्रत्येक मनुष्य को विचार करना चाहिए कि परमात्मा ने हमको सृष्टि का सर्वोत्तम उपहार यह सुंदर शरीर दिया है तो हमारे अंदर मन भी साफ , शुद्ध , छल क कपट से रहित निर्मल होना चाहिए , अन्यथा शरीर की सुंदरता का कोई अर्थ नहीं रह जाता है | मन की सुंदरता इसलिए आवश्यक है क्योंकि हमारे मनीषियों ने मनसा , वाचा और कर्मणा में पहला स्थान मन को दिया है , यदि मन ठीक है तो वचन और कर्म भी ठीक हो जाते हैं | मन से ही बोलने और करने की शुरुआत होती है यही आधार है | मनुष्य का मन जिस प्रकार होता है उसी प्रकार उस की प्रवृत्ति बन जाती है | मन का शोधन , स्वच्छता , व संयम अध्यात्म की पहली सीढ़ी है और उत्थान का मार्ग है | इसलिए अपने मन को सुंदर बनाने के लिए सतत प्रयत्नशील बने रहना चाहिए |* *आज समय बदला ,
समाज बदला , संबंध बदले किंतु तन मन की सुंदरता के बारे में सोच और विचार नहीं बदल पाया | आज भी तन के साथ मन की सुंदरता ही सच्ची सुंदरता मानी जाती है | मनुष्य को अपना मन सुंदर बनाने के लिए
ज्ञान की आवश्यकता होती है , इसके साथ ही अपने स्वभाव को बदलना पड़ता है | कुभाव को छोड़कर सुभाव को अपनाना पड़ता है | अपने आचरण को सुंदर , सदाचारी बनाना पड़ता है ताकि सतोगुण बढे एवं रजोगुण व तमोगुण दूर हो सके | मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि यदि मन शांत और स्थिर है तो मन में तनाव , कुंठा , क्रोध और अवसाद जैसे विकार नहीं प्रकट हो सकते हैं | अनावश्यक कष्ट और क्लेश जीवन में नहीं आते हैं | वस्तुत: निर्मल मन के व्यक्ति सच्चिदानंद स्वरूप भगवान को पा सकते हैं | जिसके मन में छल , कपट , वैर , द्वेष , घृणा और हिंसा के कुभाव भरे रहते हैं उनके सुकृत नष्ट हो जाते हैं | धन , साधन और सुविधाओं के रहने के बाद भी ऐसा व्यक्ति सुखी नहीं रह पाता है और भाँति - भाँति के दुखों से घिरा रहता है | मन को बड़ा चंचल कहा गया है | तनिक असावधानी से इस मन पर अज्ञान , आलस्य , प्रमाद , अकर्मण्यता और उदासीनता जैसे मैल की परत चढ़ जाती है | हम तन को तो धोते और संवारते रहते हैं किंतु मन मलिन और रोगी होता चला जाता है , और इसके परिणाम स्वरूप मनुष्य में मलिनता , अहंकार , स्वार्थ , चोरी , बेईमानी , धूर्तता तथा दुराचार आदि प्रकट हो जाते हैं , जिसका परिणाम सदैव विनाशकारी ही हुआ है |* *हमारे मनीषियों मन की स्वच्छता पर इसीलिए बल दिया है और प्रायः सभी धर्मग्रंथों में मन को ही साधने के लिए महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश भी दिए गए हैं | मन को साधने के लिए , सुंदर बनाने के लिए आत्मावलोकन परम आवश्यक है |*