मनुष्य बच्चे के रूप में इस संसार में जन्म लेता है, धीरे-धीरे बड़ा होता है, युवा होता है, फिर अशक्त होता हुआ वृद्ध हो जाता है। इसी क्रम में एक दिन उसे यह दुनिया छोड़कर परलोक सिधार जाना पड़ता है। प्रतिदिन उसकी आयु घटती जाती है। इससे बेखबर वह अपने तानेबाने बुनता रहता है। अपने भावी जीवन के सपने देखता रहता है। वह यही सोचता है कि उसे इस संसार में ही रहना है। वह यहाँ से कभी विदा नहीं लेगा।
मनुष्य को यह भान ही नहीं हो पाता कि उसकी आयु प्रतिदिन होने वाले सूर्यास्त के साथ घटती रहती है। निम्न श्लोक में किसी कवि ने बड़े ही सुन्दर शब्दों में इसका चित्रण किया है -
आयुषः खण्डमादाय रविरस्तमयं गतः।
अहन्यहनि बोध्दव्यं किमेतेत् सुकृतं कृतम्।।
अर्थात मनुष्य की आयु का एक दिन सूर्य के अस्त होने पर कम हो जाता है । यह जानते हुए प्रत्येक व्यक्ति को दिनभर के अपने किये हुए नेक कार्यों पर विचार करना चाहिए।
इस श्लोक के अनुसार प्रत्येक मनुष्य को प्रतिदिन आत्मचिन्तन करना चाहिए। उसे दिनभर किए कार्यों का लेखाजोखा सिनेमा की रील की तरह अपनी नजरों के सामने चलना चाहिए। इससे उसे स्वयं ही ज्ञात हो जाएगा कि उसने दिनभर में क्या गलत किया, किसका दिल दुखाया, किसके साथ दुर्व्यवहार किया। इसके साथ ही जो शुभ कार्य किए हैं, उनका भी ज्ञान हो जाएगा। तब यह विवेचना करनी सरल हो जाएगी कि शुभकर्मों का पलड़ा भारी रहा अथवा अशुभकर्मों का। उसी के अनुसार मनुष्य को अगले दिन के लिए योजना बनानी चाहिए। उसे यही निश्चित करना चाहिए कि दिन में शुभकर्मों का पलड़ा भारी रहे।
निम्न श्लोक में कवि समझा रहा है कि मनुष्य को अपनी आयु का एक पल भी व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए। बीता हुआ कोई भी पल वह किसी भी मूल्य पर नहीं ख़रीद सकता। इसलिए सावधानी बरतनी चाहिए -
आयुषः क्षण एकोऽपि सर्वरत्नैर्न न लभ्यते।
नीयते स वृथा येन प्रमादः सुमहानहो।।
अर्थात आयु का एक क्षण भी सारे रत्नों को देकर भी प्राप्त नहीं किया जा सकता है। अतः इसे व्यर्थ ही नष्ट कर देना महान भूल है।
इस श्लोक में कवि मनुष्य को चेतावनी देते हुए कह रहा है कि उसके पास कितनी ही धन-दौलत क्यों न हो, वह उस समय व्यर्थ हो जाती है, जब उसका अन्तकाल आता है। उस समय वह अपनी सारी दौलत के बदले जीवन का एक क्षण भी नहीं खरीद सकता। उस समय चाहे वह अपनी दौलत की धौंस दे, अपने उच्च पद या रुतबे का प्रभाव दिखाना चाहे, किसी की सिफारिश लगाना चाहे, सब व्यर्थ हो जाता है। कुछ भी काम नहीं आ पाता। ईश्वर उस समय उसकी कोई धौंस, उसका रोना-धोना अथवा चीख-पुकार नहीं सुनता। समय रहते उसे अपने जीवनकाल मे सत्कार्य कर लेने चाहिए। बाद में उसे पश्चाताप करने का अवसर भी उसे नहीं मिल पाता।
जब मृत्यु की घण्टी बजती है, तब काल को अपने समक्ष देखकर मनुष्य को याद आने लगता है कि जो आवश्यक कार्य उसे अपने जीवनकाल में पूर्ण करने थे, वे तो अधूरे ही रह गए हैं। पर अफसोस की बात है कि तब उसे पलभर की भी मोहलत नहीं मिल पाती। पल-पल घटते अपने जीवन के विषय में मनुष्य कभी विचार ही नहीं करना चाहता। उसका वश चले तो वह सारी दुनिया को मूर्ख बनाकर अपना उल्लू सीधा करता रहे। सबको अपने अजर और अमर होने का सन्देश देकर भ्रमित करने का असफल प्रयत्न करता रहे।
हमारे शास्त्र और मनीषी इसीलिए हमें शिक्षित करते रहते हैं कि मनुष्य को अपने जीवनकाल में शुभकर्मों की ओर ध्यान देना चाहिए जिससे उसका इहलोक और परलोक दोनों ही सुधर जाएँ। अन्तकाल में उसे पश्चाताप करने की आवश्यकता न पड़े। इस संसार से विदा लेते समय उसके चेहरे पर असीम शान्ति का भाव बना रहे।
चन्द्र प्रभा सूद
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