ईश्वर के साथ जब मनुष्य सम्पर्क साधने या उसके करीब जाने का प्रयास करने लगता है तो उसे आत्मिक बल मिलता है। इससे उसे ईश्वर और उसकी सत्ता पर विश्वास होने लगता है। उसे यह महसूस होने लगता है कि वह जो कुछ भी कर रहा है, वह हमारे भले लिए कर रहा है। है। वह हमें हमारे कर्मों को भोगकर उनसे मुक्त होने का अवसर दे रहा है। वह अपने सभी कर्म ईश्वर को समर्पित करने लगता है। उस समय वह दुखों और परेशानियों को सहन करने की शक्ति प्राप्त कर लेता है।
इसके विपरीत मनुष्य उस परमपिता से जितना दूर जाने लगता है, मालिक से उसका सम्पर्क टूटने लगता है। वह उससे दूरी बनाकर रखता है। जब उसके पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार फल भोगने के समय आता है तो वह उस मालिक को कोसता है, लानत-मलानत करता है। यह नहीं सोचता कि उसने ऐसे अशुभ कर्म किसी जन्म में किए होंगे तभी वह कष्ट पा रहा है। वह बस यही कहता रहता है कि पता नहीं ईश्वर मुझसे किस जन्म का बदला ले रहा है। मेरे साथ उसकी क्या शत्रुता है?
इस भौतिक जीवन में मनुष्य जितना अपने बन्धु-बान्धवों के सम्पर्क में रहता है उतना ही वह प्रसन्न रहता है। वे भी उसके सुख-दुख में शामिल होते हैं। उसके साथ कन्धा मिलाकर चलते हैं। मनुष्य इस कारण प्रसन्न रहता है कि उसके हितैषी सदा उसके साथ हैं। इसलिए उसके मन में उत्साह बना रहता है। उसे यही लगता है कि जीवन में कभी कोई परेशानी आएगी तो मेरे प्रियजन मुझे कभी अकेला नहीं छोड़ेंगे। उनके रहते कभी वह अकेला नहीं हो सकता।
इसके विपरीत जो लोग अपने झूठे अहं के नशे में रहते हैं, वे धीरे-धीरे बन्धु-बान्धवों को अपने कठोर या दुर्व्यवहार से दूर कर देते हैं। सुख के समय तो कोई हो या न हो, इतना अन्तर नहीं पड़ता। परन्तु जब दुख या कष्ट का समय आता है, तब वे सबको कोसते हैं कि उनका कोई भी साथी साथ निभाने के लिए नहीं आया। किसी से सम्पर्क रखा जाएगा तो कोई साथ खड़ा होगा अन्यथा किसी को शौक नहीं होता दूसरे के फटे में टाँग अड़ाने का। दूसरों के साथ मिलकर रहो, उन्हें अपना बनाओ तो वे सहारा बनते हैं।
एक बोधकथा कहीं पढ़ी थी, उस पर आज एक नजर डालते हैं। किसी पुजारी और नाई दोनों में मित्रता थी। नाई हमेशा पुजारी से कहता था- "ईश्वर ऐसा क्यों करता है, वैसा क्यों करता है? यहाँ बाढ़ आ गई, वहाँ सूखा पड़ गया, यहाँ एक्सीडेंट हुआ, वहाँ भुखमरी हो रही है, नौकरी नहीं मिल रहीं। हमेशा लोगों को ऐसी बहुत सारी परेशानियाँ देता रहता है।"
उसके प्रश्नों से उकताकर एक दिन उस पुजारी ने उसे एक भिखारी से मिलवाया। उसके बाल और दाढ़ी बढ़ी हुई थी। उसने नाई से कहा- "देखो इस इन्सान के बाल बढ़े हुए हैं, दाढ़ी भी बढ़ी हुई है। तुम्हारे होते हुए ऐसा क्यों हो गया है?"
नाई बोला- "अरे! इसने मेरे से सम्पर्क ही नहीं किया।"
पुजारी ने उसे समझाया- "यही तो बात है, जो लोग ईश्वर से सम्पर्क करते हैं उनका दुःख खत्म हो जाता है। लोग सम्पर्क ही नहीं करते और कहते हैं वे दुःखी है। जो सम्पर्क करेगा वही तो दुःख से मुक्त होगा।"
इस बोधकथा से यही समझ आता है कि ईश्वर पर दोषारोपण करने का कोई लाभ नहीं होता। जितना मनुष्य ईश्वर के साथ अपना सम्पर्क साधता है, उतना ही वह अपने जीवन सुखी रहता है। वही उसे इस संसार सागर से पार उतरता है। शर्त बस यही है कि उस पर विश्वास करो और जीवन में आनन्द का भोग करो। उसके साथ स्वयं को जोड़ने से या ईश्वरमय हो जाने से मनुष्य या साधक अपने मन के कलुषयों को दूर करके उसका प्रिय बन जाता है।
इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए सबसे पहले अपने मन को साधना पड़ता है। ईश्वर हमारे हृदयों में रहता है पर हम मनुष्य अपनी मूर्खताओं के कारण उसे देख और समझ नहीं पाते। अपने मन को शुद्ध और पवित्र बनाना होता है तभी प्रभु का निवास मानव हृदय में होता है। उसे हम अपने अंगसंग अनुभव कर सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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